विनय ओसवाल, वरिष्ठ पत्रकार
हम कभी सोने की चिड़िया रहे या नहीं, इस तथ्य की छान-बीन की जा सकती है, परंतु यह निर्विवादित और समाज में सर्वस्वीकृत तथ्य है कि हम ऋषि-मुनियों के वंशज हैं, जन्म-जात विद्वान हैं.
पूर्व केंद्रीय मंत्री रहे सत्यपाल सिंह और वर्तमान सांसद ने लोकसभा में मानवाधिकारों पर चल रही बहस के दौरान विश्व ख्याति के अनुवांशिक शोधकर्ता और वैज्ञानिक डार्विन के अनुवांशिक सिद्धांत – ‘मानव बन्दर का ही उन्नत रूप है’ को, इस टिप्पणी के साथ, सिरे से खारिज कर दिया कि ‘आप ऐसा मानने के लिये स्वतंत्र हैं, मैं तो अपने को ऋषि-मुनियों की सन्तान ही मानता हूंं’. डार्विन के आनुवंशिकी सिद्धांत के अनुसार तो ऋषि-मुनि भी परिष्कृत मानव ही ठहरते हैं.
तुलसीदास रचित ‘राम चरित मानस’ में अयोध्या के सिंहासन के उत्तराधिकारी राजा राम ने श्री लंका के राजा रावण को युद्ध में परास्त करने के लिए वनों (जंगलों) में जिस सेना का गठन किया, उसमें प्रमुख योद्धा कौन थे ? किस प्रजाति के थे ? उसमें बानर, रीछ, और वनों में रहने वाले आदिवासी मानव ही मुख्य थे ? सत्यपाल सिंह के बयान के आलोक में इस तथ्य पर भी ध्यान दिया जाना अपेक्षित है. क्या राम अपनी सेना के गठन में ऋषि-मुनियों के वंशजों को शामिल करने में सक्षम नहीं थे ? पाठक विचार करें. यह तथ्य संसद में की गई सत्यपाल सिंह की टिप्पणी को सिरे से खारिज करता है.
तुलसीदास कृत ‘राम चरित मानस’ ने समाज में ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को क्षत्रीय राम के मुख से रावण की विद्वता का वर्णन, जिसमें उसे ब्राह्मणों में सर्वश्रेष्ठ यानी उतना विद्वान न पूर्व में हुआ, न समकाल में है, न भविष्य में होगा, ऐसा बताया गया है. रावण को विद्वान बताने के साथ-साथ उसे तपस्वी भी बताया गया है. अपनी साधना के बल पर उसने शिव को प्रसन्न कर अमरत्व प्राप्त कर लिया था. राम ने लंकेश को परास्त करने के लिए रामेश्वरम में शिव पूजा सम्पन्न करने के लिए उसे ही आमंत्रित किया था और खुद जजमान बने थे. रावण ने भी विद्वान ब्राह्मण पण्डित के इस रूप का ईमानदारी से पालन किया और पूजन की समाप्ति पर राम को ‘विजयी भव’ का आशीर्वाद भी दिया था. क्या वर्तमान में भी कोई ब्राह्मण इस उत्कृष्ट चरित्र का पालन करता हुआ मिलेगा ? पाठक विचार करें.
राम चरित मानस के अतिरिक्त अन्य पौराणिक कथाओं में भी ब्राह्मणों की श्रेष्ठता को समाज में स्थापित और स्वीकार्य बनाने के प्रयास किये गए हैं. क्या ऐसे प्रयास सामाजिक समरसता स्थापित करने की नीति के अनुकूल हैं ? उन्हें यह कहकर अनुकूल बनाया गया है कि वह विद्वान होने के साथ-साथ उदार भी होते हैं.
केरल हाईकोर्ट के माननीय न्यायाधीश वी. चितम्बरेश ने ब्राह्मणों को द्वि-जन्मा (पहला जन्म गर्भ से और दूसरा जन्म ईश्वर प्राप्ति हेतु संस्कार किये जाने से समस्त गुणों के धारण से) बताया है. उन्होंने तिरुअनंतपुरम में आयोजित वैश्विक तमिल ब्राह्मण समाज को जाति-सम्प्रदाय के आधार पर नहीं, सिर्फ आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करने की सलाह दी. आज के इंडियन एक्सप्रेस के मुख्य पृष्ठ पर ‘At Brahmin meet, Kerala judge pushes for economic quota’ शीर्षक से यह समाचार प्रकाशित हुआ है. पाठक विस्तार से पढ़ सकते हैं. उन्होंने ब्राह्मण कौन है ? यह प्रश्न उठाते हुए बताया कि अपने पूर्व जन्म में किये सुकर्थमों के कारण ब्राह्मण द्विजन्म लेता है. इन सुकर्थमों के आधार पर वह विशिष्ट गुणों का धारी, जैसे स्वच्छ दिनचर्या, ज्यादातर शाकाहारी भोजन करना, बुलंद विचार, वास्तविक चरित्र (छद्मता रहित चरित्र), शास्त्रीय संगीत प्रेमी, उदार आदि-आदि अनेक श्रेष्ठ गुणों का धारी होता है.
यह कोई पहला मौका नहीं है जब समाज में वैज्ञानिक सोच और अनुसंधान के निष्कर्षों के उलट, परम्परागत पौराणिक मान्यताओं, आस्थाओं को स्थापित करने वाले विचार समाज में ऊंंची-ऊंंची कुर्सियों पर आसीन विद्वान माने जाने वाले सख्सियतों द्वारा सार्वजनिक रूप से दिए जाते रहे हैं. पिछले पांच सालों में तो ऐसे बयानों की बाढ़ सी आ गयी है.
ऐसे बयान निरुद्देश्य नही दिए जाते हैं. ये बयान एक सुविचारित रणनीति के तहत दिए जाते हैं. रणनीति है – एक ऐसे समाज का निर्माण जो व्यवहार में रोटी-रोजगार के लिये आधुनिकता को ओढ़े – बिछाए, परन्तु मानसिक रूप से पौराणिक स्थापनाओं, मान्यताओं, आस्थाओं को ही स्थाई बनाये रखे.
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