मालोम गांव में 2 नवंबर, 2000 को सुबह एक घटना घटी, जिसमें असम राइफल्स के जवानों ने 10 बेकसूर आदमियों को उग्रवादी बताकर गोली मार दी. 10 में से 2 बच्चे, एक गर्भवती महिला और एक अन्य महिला थी, जो की कि राष्ट्रपति से किसी क्षेत्र में पुरस्कार प्राप्त कर चुकी थी वह भी शामिल थी.
यह सब घटना के जड़ में पूर्वोत्तर राज्यों में सुरक्षा बलों की एक विशेष प्रकार की शक्ति उपलब्ध है, जिसे अफ्सपा ( Armed Forces Special Powers Act (AFSPA), 1958) के नाम से जाना जाता है, के आधार पर सुरक्षाबलों के जवान किसी को भी बिना आदेश लिए ही शक के आधार पर किसी को भी गोली मार सकते हैं.
इस घटना के बाद चानू शर्मिला ने अफ्सपा हटाने के लिए 5 नवंबर 2000 से अनशन पर बैठ गयी. कई लोगों को लगा कि यह अनशन एक युवा की भावुकता से उठाया गया कदम है. लेकिन उन्होंने इसे गलत साबित कर दिया और वह लगातार 16 साल तक भूख हड़ताल पर रही.
6 सालों तक वह पुलिस की हिरासत में थी, इसके बावजूद आज भी अफ्सपा की आड़ में लोगों पर सुरक्षाकर्मियों का हमला जारी है. असम राइफल के जवानों ने 2004 में मणिपुर की मानवाधिकार कार्यकर्ता थामजॉन्ग मनोरमा देवी को गिरफ्तार कर लिया. उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया और गोली मारकर हत्या कर दी और अफ्सपा की वजह से उन पर कोई कार्यवाही नहीं हुई.
इस घटना के विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया समूचे विश्व में पहली बार हुई. दर्जनों महिलाओं ने एकदम निर्वस्त्र होकर इंफाल में असम राइफल के हेड क्वार्टर के सामने ‘भारतीय सेनाओं आओ और हमारा बलात्कार करो’ (Indian Army Repe Us) नारे के साथ प्रदर्शन किया. लेकिन इन सब के बाद भी भारत सरकार के कानों पर जूं तक नहीं रेंगी.
शर्मिला इरोम के अनशन के दौरान नाक में पाइप डाल कर उनको जिंदा रखा गया था. उनके सर के बाल उखड़ने लगे थे, उनके दांत रुई से साफ किया जाता और अंततः उन्होंने एक लंबे अंतराल के बाद 2016 में अनशन को तोड़ दिया. शायद बहन इरोम को लगा होगा कि संसदीय राजनीति मे हिस्सा लेकर अफ्सपा और तमाम पुर्वोत्तर की समस्याओ के मामले को ठीक किया जा सकता है और वे विधानसभा प्रत्याशी के तौर पर चुनाव में उतरी. और पुर्वोत्तर मे इतनी संघर्ष करने वाली बहन इरोम को मात्र 90 वोट मिले थे.
यही हकीकत है पूंजीवादी संसदीय लोकतंत्र की. इस लोकतंत्र में वही व्यक्ति चुनाव में जीतेगा और सत्ता मेऔ जायेगा, जिसके पास पैसा पावर सब कुछ हो. वैसे भी अफस्पा आज भी पुर्वोत्तर राज्यों मे लागु है.
जैसे अपस्पा के नाम पर आये दिन अत्याचार होता आ रहा है वैसे ही आदिवासियों के इलाके में भी सलवा जुडूम, ऑपरेशन ग्रीन हंट, प्रहार -3 जैसे तमाम ऑपरेशन चलाये जा रहे है और इसमें बेकसूर आदिवासी दलित इसके शिकार हो रहे हैं.
असल में सेना, पुलिस, जवान ये सारे लोग राजसत्ता के के रखवाली के लिए होते हैं और इस तथाकथित लोकतंत्र में थोड़ा राहत देकर एक वर्ग का भला होता है लेकिन अधिकांश की हालात बद से बदतर है और होती जाती है. इसमें पूंजीवादी व्यवस्था में अमीर अमीर होता जाता है और गरीब और गरीब.
आप समझिये ये सारा खेल और नाटक सिर्फ और सिर्फ मुनाफे का है. और आज फिर इस महान तथाकथित लोकतंत्र पर मार्क ट्वेन की पंक्तियां फिर याद आ रही है कि – ‘अगर वोट से कुछ परिवर्तन होता तो चुनाव कब के ख़त्म हो गए होते.’ बाकी इरोम शर्मीला जैसे संघशील तमाम मेहनतकश महिलाओं को क्रांतिकारी सलाम !
- कृष्ण मुहम्मद
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