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पालघर लिंचिंग : संघ के भय संचारी कारोबार का नतीजा

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पालघर लिंचिंग : संघ के भय संचारी कारोबार का नतीजा

गुरुचरण सिंह

पालघर का हादसा तो बस एक लक्षण भर है उस बीमारी का जो कोरोना महामारी से भी कहीं अधिक खतरनाक है. आदमी की सोच को नियंत्रित रखने की ऐसी एक मिसाल भर है जो यह दिखाने के लिए पर्याप्त है कि लगातार होती ऐसी कोशिश कैसे आदमी से उसकी असल पहचान तक छीन लेती है, समुद्र में तैरती बर्फ की एक चट्टान भर है जो जितना कुछ दिखाती है उससे कई गुणा तो वह पानी में छिपा लेती है.

वैसे तो कुंठित मानसिकता के चलते लगभग एक सदी पहले से ही संघ की तैयारी चल रही थी, देश में एक खास मजहब के खिलाफ हवा में नफरत का जहर घोलने की, लेकिन पांव टिकाने की जमीन तो उसे मिली नौवें दशक में जब मंडल के खिलाफ कमडंल की आक्रामक राजनीति को बढ़ाया गया. इसी के चलते हिंसक मानसिकता का प्रसार हुआ और समाज में बिखराव आना शुरू हुआ.

अचानक सारे सभी शब्दों, अवधारणाओं ने अपना कलेवर बदल डाला, सबके अर्थ बदल गए. सारा ही वातावरण जैसे एक परी कथा वाला हो गया. मुजरिम समाज के आदर्श बना कर पेश किए जाने लगे और नित्य नए शत्रु और नए मुद्दे उछालकर राजनीति को विचार की जगह आस्था, श्रद्धा, भावुकता और अविवेकी आक्रमकता से गतिशील रखना ही उसका आदर्श बन गया.

केवल एक उदाहरण से अपनी बात स्पष्ट करके पालघर के मुख्य मुद्दे पर लौटता हूं. हिंदू धर्म के चार आश्रमों में से एक संन्यास की अवधारणा है. संन्यासी यानि वीतरागी, अतीत, किसी भी तरह की मोहमाया के बंधन से मुक्त. उसकी इसी मानसिकता की परीक्षा होती थी संन्यास लेने के बाद सबसे पहले अपने ही घर से भिक्षा मांगने से.

लेकिन अब संन्यासी न केवल धर्म प्रचार के लिए राजभोग का ‘कठिन रास्ता’ अपनाते हैं, बढ़िया से बढ़िया अस्पताल में पिताजी का ईलाज करवाते हैं, कुछेक तो नाम के साथ जातिवाचक शब्द का लगाने का मोह भी नहीं त्याग पाते चाहे वह प्रज्ञा ठाकुर हो या दूसरे महामंडलेश्वर हों.

अब संन्यासी विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री सब हो सकते हैं, बस जिस काम से संन्यास लिया था वही नहीं हो सकते. भगवा धारण करना भी एक धंधे में बदल चुका है, जिसमें घाटे का जोखिम भी नहीं है। परजीवी बन कर सांसारिक सुखों के सभी आनंद उठाते हैं, बिना जवाबदेही के. कितने ही भगवाधारी संन्यासी, ‘भगवान’ और डेरा प्रमुख तो भगवान कृष्ण की जन्मस्थली की शोभा बढ़ा रहे हैं.

खैर, बात पालघर लिंचिंग की. क्यों एक अफवाह गांव के सीधे-साधे आदिवासियों को हत्यारी भीड़ में बदल देती है, जो अपने गांव को बचाने के लिए ठीकरी पहरेदारी कर रहे थे ? इसलिए कि लगातार एक खास किस्म के प्रचार ने उनके मन में भय पैदा कर दिया था. जंगली पशु भी तभी हमला करता है, जब उसे अपने वजूद पर खतरा मड़राता हुआ महसूस होता है.

संघ इसी भय संचार का कारोबार ही तो करता रहा है बहुसंख्यक हिंदुओं के मन में. भला इससे बड़ी हास्यप्रद बात और क्या हो सकती है कि बहुसंख्यकों को किसी अल्पसंख्यक से खतरा हो ! लेकिन कमाल की बात तो यह कि विश्वास तो उन्हें फिर भी दिला ही दिया गया, वरना यह आक्रामकता कहीं आसमान से तो बरसी नहीं है ?

पालघर के गांव का दुर्भाग्यपूर्ण हादसा तो महज़ परिणाम है उस सम्मान का जो किसी भी लिंचिंग के बाद ऐसे हत्यारों का मालाएं पहरा कर भाजपा अक्सर करती रही है. कुछेक को तो बाकायदा टिकट दे कर चुनाव भी लड़वाती रही है. हत्यारों के बजाए मारे गए अख़लाक की तरह उनके परिजनों पर ही झूठे मुकदमें दर्ज करवाती रही है. शंभू रैगर जैसे विक्षिप्त लोगों की फोटो सोशल मीडिया पर अपने समर्थकों की डीपी के रूप में लगवाती रही है. ऐसे किसी हादसे के बाद हत्यारों के समर्थन में भाषण, जलूस, उनके लिए धन जुटाने, जय श्री राम के नारे लगाने की कार्रवाई आदि करती रही है.

सबसे बड़ी बेशर्मी तो यह कि जी न्यूज अपनी वेबसाइट पर पालघर के इन हत्यारों को जेहादी, कट्टरपंथी और तालिबानी बताती है लेकिन यह पता चलने पर कि हत्यारे तो हिंदू ही थे, बिना माफी मांगे, बिना कोई स्पष्टीकरण दिए, सब के सब गायब हो जाते हैं ; हिंदुओं के ठेकेदार भी और उसकी जरखरीद लौंडिया मीडिया भी. महाराष्ट्र के गृहमंत्री का बयान हर चीज में हिंदू मुसलमान करने वालों के लिए एक बुरी खबर बनके आया है कि ‘सभी आरोपी पकड लिए गए हैं और मरने-मारने वाले दोनों तरफ के लोग एक ही धर्म के हैं.’

दरअसल होता यह है कि अगली सुबह महाराष्ट्र की सरकार फौरी कार्रवाई करती है और 110 लोगों को गिरफ्तार करके जेल भेज देती है. कार्रवाई में देरी होती तो ही असामाजिक तत्वों को अपना खेल करने का अवसर मिलता. पिछले छ: साल के दौरान ऐसी फौरी कार्रवाई ही तो नहीं हुई है, जिसके चलते संसद से सड़क और कच्ची पगडंडियों तक यह संदेश पहुंचा है कि सरकार ऐसे लोगों के साथ है और चौहत्तर साल के बाद भी इस देश का लोकतंत्र अभी अंगुली पकड़ कर ही चल रहा है, इसलिए वह हवा का रुख पहचान कर उसके साथ चलने में ही अपनी भलाई समझता है. कितना भी परेशान हो, कितना भी फाका की हालत क्यों न आ जाए, कितना ही जुल्म न किया जाए उस पर, मजाल है बगावत की बात उसके लब पर आ जाए.

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