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फिलिस्तीन संकट

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मनीष आजाद

सोवियत लाल सेना और मित्र राष्ट्रों की सेनाओं ने जब हिटलर को हराया और हिटलर आत्महत्या करने पर मजबूर हुआ, उसके बाद ही दुनिया को गैस चैम्बर सहित आश्विच जैसे यातना शिविरों और यहूदियों के व्यापक जनसंहार (होलोकॉस्ट) का पता चला.
मशहूर पत्रकार और डॉक्यूमेंट्री फिल्म मेकर ‘जॉन पिल्ज़र’ कहते हैं कि अगर दुनिया को ‘प्रथम विश्व युद्ध’ के असली कारणों का पता होता तो विश्व युद्ध कभी नहीं होता.

लेकिन पिछले 130 दिनों से इजरायल जिस तरह से फिलिस्तीनियों विशेषकर महिलाओं/बच्चों का जनसंहार कर रहा है, वह दुनिया ‘लाइव’ देख रही है. इजरायली हवाई हमलों से तबाह मकानों के मलबे के नीचे से बच्चों के रोने की आवाज पूरी दुनिया ‘लाइव’ सुन रही है. हफ़्तों, महीनों बाद मलबे से बच्चों की सड़ चुकी लाशों को निकालकर सामूहिक कब्रों में दफनाते हुए दुनिया ‘लाइव’ देख रही है.

फिलिस्तीन में आवश्यक सामानों, दवाइयों को इजरायल द्वारा जबरन रोके जाने के कारण इजरायली हमलों में बुरी तरह घायल बच्चों की सर्जरी बिना ‘अनस्थीसिया’ दिए की जा रही है और ऑपरेशन टेबल से बच्चों की चीत्कार दुनिया ‘लाइव’ सुन रही है. ‘हूर नसीर’ जैसे 3-4 साल की उम्र के ऐसे बच्चों की संख्या हजारों में है, जिन्होंने इजरायली हमले में अपने पूरे परिवार के साथ ही अपना हाथ या पैर भी खो दिया है. फिलिस्तीनियों विशेषकर महिलाओं/बच्चों के चेहरे पर भूख की गहरी होती रेखाओं को दुनिया ‘क्लोज अप’ में ‘लाइव’ देख रही है.

‘प्रथम विश्व युद्ध’ व विगत के अन्य युद्धों के विपरीत अब कुछ भी परदे के पीछे घटित नहीं हो रहा है. दरअसल ‘पर्दा’ अब है ही नहीं. वह कब का फट चुका है. नेतनयाहू समेत इजरायली ‘वॉर कैबिनेट’ के प्रत्येक युद्ध पिपासु नेता साफ़ साफ़ बोल रहे हैं कि फिलिस्तीन को फिलिस्तीनियों से खाली कराना और उन्हें भूखों मारना उनका लक्ष्य है. सभी फिलिस्तीनी बच्चे भावी हमास हैं. इसलिए उनकी हत्या जायज है.

यह समाजवाद की ‘मृत्यु’ के बाद की ‘नयी वैश्विक दुनिया’ की तस्वीर है. जहाँ सर्वेश्वेर दयाल सक्सेना की प्रसिद्ध कविता भी आपना अर्थ बदल चुकी है, यानी जब बगल के कमरे में लाश सड़ रही हो तो आप अपने कमरे में न सिर्फ आराम से रह सकते हैं, बल्कि उसे ‘लाइव’ देखते भी रह सकते हैं.

प्रत्येक राज्य अपने अस्तित्व और अपनी वैधता के लिए मिथकों और झूठ का सहारा लेता ही है, लेकिन इस धरती पर इजरायल एकमात्र ऐसा राज्य है जो पूरी तरह से मिथक और झूठ पर आधारित है. एक पंक्ति में कहें तो यह झूठ/मिथक था- ‘यहूदियों की अपनी कोई जमीन नहीं है, और फिलिस्तीन एक खाली जमीन है.’ (People without land and land without people.)

इजरायली इतिहासकार ‘स्लोमो सैंड’ (Shlomo Sand) और ‘इलान पापे’ (Ilan Pappe) ने अपने महत्वपूर्ण शोध क्रमशः ‘The Invention of the Jewish People’, ‘The Invention of the Land of Israel’ और ‘Ten Myths About Israel’ में इस मिथक और झूठ की धज्जियां उड़ाते हुए बताया है कि यदूदी कभी भी देश विहीन नहीं रहे और फिलिस्तीन कभी भी निर्जन नहीं रहा.

इसके विपरीत फिलिस्तीन इतिहास के साथ और बाद में साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्षों के साथ विकसित और समृद्ध होता हुआ एक राष्ट्र था/है, जो किसी मिथक और झूठ पर नहीं बल्कि इतिहास और सच पर आधारित है. लेकिन विडम्बना देखिये कि आज मिथक और झूठ पर आधारित इजरायल राज्य इतिहास और सच पर आधारित फिलिस्तीन राष्ट्र का नामोंनिशान मिटाने पर आमादा है.

अपनी प्रसिद्ध किताब ‘The Hundred Years’ War on Palestine’ में राशिद खलीदी पहले ही पेज पर इस आसन्न खतरे को इन शब्दों में चिन्हित करते हैं- ‘हम ऐसे राष्ट्र हैं जिस पर गायब हो जाने का खतरा मंडरा रहा है.’ आज की सर के बल खड़ी दुनिया का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है.

यूरोप के देशों में यहूदियों के साथ होलोकॉस्ट समेत जो भी क्रूरताएं हुई हैं, उसकी जिम्मेदारी यूरोप के सामंती/साम्राज्यवादी शासकों की हैं. फिलिस्तीन मे रहने वाली आबादी के साथ इसका कोई रिश्ता नहीं रहा है. लेकिन अरब के तेल क्षेत्रों पर नज़र व नियंत्रण रखने और अपने ‘अपराधबोध’ के कारण अमेरिका व अन्य साम्राज्यवादियों और उनसे जुड़े बुद्धिजीवियों के प्रयासों और साजिशों के फलस्वरूप जब 1948 में फिलिस्तीन की जमीन पर इजरायल राज्य की नीव डाली गयी तो कुल साढ़े 7 लाख मुस्लिमों को एक झटके में बेदखल कर दिया गया. इतिहास में इसे ‘नकबा’ (तबाही) के रूप में जाना जाता है. तब से लेकर आज तक हुए अनेकों नकबा में फिलिस्तीनी लाखों की संख्या में अनेकों बार विस्थापित हुए है और इजरायल के फौजी बूटों तले सांस लेने पर मजबूर हैं.

7 अक्टूबर 23 के बाद करीब 30 हजार फिलिस्तीनियों की मौत और 70 हजार घायल फिलिस्तीनियों (जिनमे अधिकांश बच्चे और महिलायें हैं) के साथ करीब 20 लाख फिलिस्तीनी बिना घर, दवा, भोजन और बिना उम्मीद के खुले आसमान के नीचे सड़कों पर हैं और अपने राष्ट्र को गायब होता हुआ देखने पर बाध्य हो रहे हैं.

लेकिन जैसा कि कार्ल मार्क्स ने 1856 में ‘पीपुल्स पेपर’ की वर्षगांठ पर भाषण देते हुए कहा था कि प्रत्येक घटना अपने भीतर अपने से विपरीत को समाये होती है. इसलिए उपरोक्त भयावह तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है.

पिछले साल 7 अक्टूबर को इजरायल की उच्च सर्विलांस और अत्याधुनिक युद्धक क्षमता के मिथक को चूर चूर करते हुए हमास व अन्य प्रतिरोधी ताकतों का इजरायल पर अभूतपूर्व हमला वास्तव में ‘फिलिस्तीनी राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध’ के चरण में एक मील का पत्थर है. जो लोग इस हमले को इजरायल द्वारा हमास के साथ की गयी तथाकथित गुप्त डील के रूप में देख रहे हैं, वे दरअसल फिलिस्तीनी योद्धाओं की क्षमताओं पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहे हैं.

और जो लोग हमास व अन्य प्रतिरोधी योद्धाओं के हमले में मासूम नागरिकों के मारे जाने पर आसूं बहा रहे हैं, उन्हें यह समझना चाहिए वे मासूम नागरिक नहीं बल्कि सिविल ड्रेस में इजरायली सेना ही है, जिन्हें फिलिस्तीनियों को उनकी जमीन से बेदखल करने के लिए ही सुनियोजित तरीके से फिलिस्तीन की वर्तमान सीमा पर बसाया गया है. इसे ही ‘सेटलर कॉलोनी’ कहते हैं. बच्चों को मारने और महिलाओं से बलात्कार की खबरें महज इजरायली ‘प्रोपेगंडा’ है और कुछ नहीं.

दरअसल 1990 में सोवियत रूस के पतन के बाद के ‘टीना’ (TINA ‘There is no alternative’) वाले शोरगुल में फिलिस्तीन का मुद्दा विश्व राजनीति के पटल से धुंधलाने लगा था. हालांकि इस बीच हुए कई ‘इन्तिफादा’ में सैकड़ों-हजारों फिलिस्तीनियों ने अपने गर्म लहू से यह मुद्दा जीवित रखा.

लेकिन इजरायल पर 7 अक्टूबर के जबरदस्त हमले और फिर गाजा को ‘गुएर्निका’ बना देने की इजरायली हवस ने ‘मुक्त फिलिस्तीन’ के मुद्दे को विश्व राजनीति के पटल पर मजबूती से स्थापित कर दिया है और फिलहाल विश्व राजनीति इसी मुद्दे के इर्द गिर्द घूमने के लिए बाध्य है.

पिछले दशक में रूस के फिर से ताकतवर होने और चीन द्वारा अमेरिकी चौधराहट को हर क्षेत्र में चुनौती देने के बाद से अमेरिका अपनी रणनीतिक योजना की प्राथमिकताओं को बदलने पर बाध्य हुआ था. अब उसकी योजना प्रशांत महासागर में चीन की घेरेबंदी करने और पूर्वी यूरोप में रूस को घेरने की थी. इसी के मद्देनज़र उसने पश्चिम एशिया से अपनी ताकतों को कम करना शुरू कर दिया था.

इसी योजना के अनुसार ट्रम्प के कार्यकाल में ‘अब्राहम समझौते के तहत यूएइ और बहरीन (UAE और Bahrain) का इजरायल के साथ समझौता कराया गया और फिर बाईडेन के वर्तमान कार्यकाल में सऊदी अरब को भी इजरायल के साथ समझौते के लिए बाध्य किया गया था और इसके तहत कई दौर की बातचीत हो भी चुकी थे. पिछले दिनों चीन की मध्यस्थता में सऊदी अरब और ईरान में हुए महत्वपूर्ण समझौते को बेअसर करने का भी यह एक प्रयास है.

लेकिन 7 अक्टूबर को औपनिवेशिक देश इजरायल पर फिलिस्तीन मुक्ति योद्धाओं के जबरदस्त हमले ने अमरीका के इन समीकरणों को उलट-पुलट दिया. यूएइ, बहरीन और सऊदी अरब समेत सभी अरब देशों को इजरायल की तीखी आलोचना करने को बाध्य होना पड़ा और इससे भी बढ़कर इन अरब देशों में गज़ा के समर्थन में जनता के प्रतिरोधों के जबरदस्त विस्फोट ने अरब देशों के अमेरिकी दलाल शासकों की चूले हिला दी है. आने वाले दिनों में इसका जबरदस्त असर देखने को मिलेगा.

इस क्षेत्र में ईरान के असर को कमजोर करने के लिए ईरान की कमर तोड़ना अमेरिकी विदेश नीति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है. लेकिन 7 अक्टूबर के हमले के बाद न सिर्फ ईरान का असर इस क्षेत्र में कई गुना बढ़ा है, बल्कि ईरान के नेतृत्व में ‘प्रतिरोध की धुरी’ (Axis of Resistance) इस वक़्त अमेरिकी/इजरायली हितों के लिए जबरदस्त चुनौती बन कर खड़ी है.

हूती विद्रोहियों के हमलों के बाद अमेरिका को अपने रक्षा संसाधनों को एक बार फिर से इस क्षेत्र में बढ़ाना पड़ रहा है और रूस/चीन को घेरने की उसकी योजना पर कुठाराघात हो रहा है. 7 अक्टूबर के हमले और उसके बाद की परिस्थितियों ने निश्चित ही अमेरिकी नेतृत्व को निर्णायक तरीके से कमजोर कर दिया है.

महज 20 लाख की आबादी वाले गज़ा पट्टी पर पिछले 130 दिनों से जारी क्रूर हवाई हमले और जमीनी आक्रमण के बावजूद हमास व अन्य प्रतिरोधी शक्तियां निरंतर लड़ रही है. गज़ा को गुएर्निका बनाने के बावजूद इजरायल न फिलिस्तीन के मुक्ति योद्धाओं को परास्त कर पाया है और ना ही अपने 125 के करीब इजरायली बंधकों तक पहुंच पाया है.

गज़ा में इजरायल के इस जमीनी हमले का प्रतिरोध करते हुए फिलिस्तीनी मुक्ति योद्धा अभी तक करीब 300 इजरायली सैनिकों को मारने में कामयाब हो चुके हैं और अभी भी हमास व अन्य मुक्ति योद्धा इजरायल पर मिसाइल बरसाने में कामयाब हैं.

निश्चित ही अपने देश समेत दुनिया की सभी प्रतिरोधी ताकते इससे प्रेरणा लेते हुए अपने अपने देशों के भीतर के ‘इजरायल’ से लोहा लेने के लिए कमर कस रही हैं. फैज़ साहब के शब्दों में कहें तो –

‘तेरे आदा ने किया एक फिलिस्तीन बर्बाद
मेरे जख्मों ने किया कितने फिलिस्तीन आबाद’

लेकिन 7 अक्टूबर के बाद बनी परिस्थितियों का सबसे शानदार पहलू फिलिस्तीन के समर्थन में पूरे विश्व में उमड़ा सैलाब है. यूरोप, अमेरिका सहित दुनिया की सड़कों पर जब ‘फ्राम रिवर टू सी, फिलिस्तीन विल बी फ्री’ (From the River to the Sea Palestine Will be Free) के नारे गूंजते हैं तो यह सिर्फ फिलिस्तीन के ही समर्थन में नहीं होता बल्कि पूरी दुनिया की मुक्ति का भी यह नारा बन जाता है.

सबसे आश्चर्यजनक पहलू इसमें बड़े पैमाने पर यहूदियों की उपस्थिति है. इजरायल-फिलिस्तीन संघर्ष के इतिहास में इतनी बड़ी संख्या में यहूदियों का फिलिस्तीन की न्याय पूर्ण मांग के लिए सड़कों पर आना और अमेरिका में तो गिरफ्तारी भी देना, शायद पहली बार देखने को मिल रहा है.

इस सन्दर्भ में मोदी सरकार की भूमिका पर संक्षेप में बस इतना ही कहा जा सकता है कि इजरायल से ‘पेगासस’ जैसी तकनीक लेने के बाद अब ‘एहसान’ उतारने की बारी मोदी सरकार की थी. और मोदी सरकार ने अडानी निर्मित ‘Hermes 900’ युद्धक ड्रोन की बड़े पैमाने पर इजरायल को सप्लाई शुरू कर दी है. यानी भारत सरकार के हाथ भी अब फिलिस्तीनी बच्चों के खून से रंगे हुए हैं.

और विडम्बना देखिये कि दिल्ली की ओर कूच कर रहे लाखों किसानों पर आंसूं गैस के गोले भी इन्हीं ड्रोन के माध्यम से बरसाए जा रहे हैं. पिछले साल और इस साल के शुरुआत में बस्तर के माओवादियों/आदिवासियों पर भी इन्हीं ड्रोन द्वारा बम गिराए गए हैं. इसलिए ‘फ्राम रिवर टू सी, फिलिस्तीन विल बी फ्री’ का नारा यहां भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना कि फिलिस्तीन में.

किसानों के ऊपर जो आंसू गैस के गोले छोड़े जा रहे हैं, उनमें से अधिकांश की ‘एक्सपायरी डेट’ (expiry date) बीत चुकी है. यह एक प्रतीकात्मक संकेत भी है कि दुनिया के हुक्मरानों की ‘एक्सपायरी डेट’ अब खत्म हो चुकी है.

इतिहास की चाल सुस्त तो हो सकती है, लेकिन रुक नहीं सकती. तत्कालीन विश्व-परिस्थिति पर माओ का वह सूत्रीकरण आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना माओ के समय में था – ‘देश स्वतंत्रता चाहते हैं, राष्ट्र मुक्ति चाहते हैं और जनता क्रांति चाहती है. इतिहास की यह निर्बाध गति है.’

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