शकील अख्तर
क्या मुसलमान अकेला भाजपा से लड़ सकता है ? क्या कोई मुस्लिम पार्टी भाजपा को हरा सकती है ? दोनों सवालों का एक ही जवाब है और वह है नहीं. लेकिन आज उत्तर प्रदेश में मुस्लिम नौजवानों को यही पाठ पढ़ाया जा रहा है. और यह काम केवल औवेसी की पार्टी मजलिस ही नहीं कर रही बल्कि मजेदार यह है कि इस विचार को हवा भाजपा भी दे रही है. भाजपा के आग उगलने वाले सांसद साक्षी महाराज खुल कर औवेसी के पक्ष में बोल चुके हैं. क्या मतलब है इसका ? कोई बड़ा रहस्य नहीं. साफ है कि औवेसी भाजपा के लिए और भाजपा औवेसी के लिए फायदेमंद साबित होने जा रहे हैं.
उत्तर प्रदेश के चुनाव बहुत दिलचस्प हो गए हैं. यह पहला मौका है जब सबकी निगाहें एक ऐसे नेता पर लगी हैं, जो खुद तो सरकार बना नहीं सकते, मगर खेल कई बड़े राजनीतिक दलों का बिगाड़ सकते हैं. यूपी में कई तरह के संकटों में घिरी भाजपा के लिए ये नेता वरदान की तरह हैं. मगर बदलाव की कोशिश में लगी सपा और कांग्रेस के लिए इनकी राजनीति मुसीबत बन रही है.
दूर दक्षिण से आए औवेसी इस समय उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा चर्चा का विषय हैं. इससे पहले कोई मुस्लिम नेता उत्तर प्रदेश या हिन्दी बेल्ट की राजनीति में इतना चर्चित कभी नहीं रहा. औवेसी ने यूपी में सौ सीटों पर
चुनाव लड़ने का ऐलान किया है. जाहिर है ये सीटें वे हैं जहां मुसलमानों की तादाद ज्यादा है, 25 प्रतिशत या उससे ज्यादा. राज्य में मुसलमानों की तादाद 19- 20 प्रतिशत के करीब है, जो करीब 75 विधानसभा क्षेत्रों की जीत हार को सीधे तौर पर प्रभावित करते रहे हैं. इन 25 प्रतिशत या उससे ज्यादा आबादी वाली सीटों पर जब अधिक तादाद में मुसलमान लड़ जाते हैं तो इनमें से कोई नहीं जीत पाता, वोट बंट जाता है और इसका सीधा फायदा भाजपा को होता है.
इस बार यूपी में सबसे कम केवल 24 मुस्लिम विधायक हैं और यह संयोग नहीं सीधा गणित है कि इसी समय विधानसभा में भाजपा के सबसे ज्यादा विधायक 312 हैं. सीधा गणित यह है कि चुनाव जब भी हिन्दु मुसलमान पिच पर चला जाता है इसका सीधा फायदा भाजपा को होता है और नुकसान मुसलमान को. यूपी विधानसभा में सबसे ज्यादा मुस्लिम विधायक 2012 में रहे हैं, 68 विधायक. याद रहे ये वह समय था जब धर्म राजनीति से बहुत दूर था. हिन्दु मुसलमान किसी भी तरफ से धार्मिक मुद्दे नहीं उठाए जा रहे थे.
मगर इस बार जब औवेसी सौ सीटों पर चुनाव लड़ेंगे तो जाहिर है कि इनमें से ज्यादतर सीटों पर मुसलमानों को लड़ाएंगे. भाजपा को यह बहुत सूट करेगा. जिस हिन्दु मुसलमान के नकली सवाल पर वह केन्द्र और राज्य की सत्ता में आई है उसे और हवा मिलेगी. औवेसी के निशाने पर धर्मनिरपेक्ष पार्टियां हैं. बसपा से उन्हें कोई परेशानी नहीं है. दरअसल लगता यही है कि औवेसी और मायवती दोनों की राजनीति इस समय भाजपा को नई आक्सीजन देने का काम कर रही है. भाजपा के सांसद साक्षी महराज कैमरे पर कह चुके हैं कि औवेसी हमारे मददगार हैं. उन्होंने बिहार में भी हमें सहायता पहुंचाई और यूपी में भी पहुंचाएंगे.
औवेसी एक के बाद एक बयान दे रहे हैं कि चुनाव लड़ना हमारा अधिकार है और हम देश में हर जगह लड़ेंगे. हमें चुनाव लड़ने से कोई नहीं रोक सकता. सही बात है, चुनाव लड़ने से कोई किसी को नहीं रोक सकता, मगर ये सवाल जरूर पूछ सकते है कि जनाब आपके चुनाव लड़ने से फायदा किस का होगा ? क्या मुसलमानों का ? जिनके नाम पर आप चुनाव लड़ रहे हैं या उस पार्टी का जिसका पूरा चुनाव ही मुस्लिम विरोध पर टिका हुआ है ?
मुक्तिबोध पूछते थे. हालांकि आज की राजनीति में कवि, आलोचक मुक्तिबोध को कौन जानता है ? फिर भी याद मुक्तिबोध की ही आती है क्योंकि वे सीधे जनता से जुड़े हुए थे और उन्हीं के सवाल उठाते थे. उनका सवाल होता था कि – ‘आपकी पोलटिक्स क्या है ?’ तो औवेसी जी आपकी सियासत क्या है ?
क्या मुसलमानों को फायदा पहुंचाना ? माफ करना, यूपी में ही नहीं देश में या दुनिया में कहीं भी अल्पसंख्यक अपनी पार्टी बनाकर कामयाब नहीं हो सकता. मुसलमान यहां अल्पसंख्यक है, मगर कई जगह बहुसंख्ययक भी है. देश के बाहर न जाएं मुल्क में ही जम्मू कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक है, मगर क्या वहां की दो बड़ी रिजनल पार्टी नेशनल कान्फ्रेंस या पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी के नाम से कहीं अहसास होता है कि ये मुस्लिम
पार्टियां हैं ? दोनों हिन्दु उम्मीदवारों को लड़ाती हैं, संगठन में जगह देती हैं. सत्ता में आने पर मंत्री बनाती हैं.
सिर्फ उदाहरण के लिए बता दें कि नेशनल कान्फ्रेंस जिसने सबसे ज्यादा समय तक राज किया है उसके लास्ट मुख्यमंत्रित्व काल उमर अब्दुल्ला में नंबर टू की हैसियत देवेन्द्र राणा रखते थे. मुख्यमंत्री के सलाहकार. उससे पहले फारुक के समय में अजय सदोत्रा ऐसी ही हैसियत रखते थे. मुफ्ती साहब का तो सारा स्टाफ ही पर्सऩल से लेकर मीडिया तक नान-मुस्लिम ही था.
तो देश मे मुसलमान ने कभी अलग से राजनीति नहीं की. वह कर भी नहीं सकता. किसी छोटे पाकेट की बात केरल में या हैदराबाद में छोड़ दीजिए ! आजादी के बाद भारत में मुसलमान ने किसको अपना नेता माना ? किसी मुसलमान नेता को नहीं, नेहरू को. और उसके बाद आज तक वह सबसे ज्यादा भरोसा उन्हीं नेताओं पर करता आया है जो भारत के या किसी भी राज्य के बाकी धर्मनिरपेक्ष जनता के नेता होते हैं.
ऐसे में औवेसी खुद को मुसलमानों के नेता के तौर पर पेश करके मुसलमानों को बहुत नुकसान पहुंचाने जा रहे हैं. नौजवान इस बात को समझ नहीं रहे. वे बहुत तल्खी से पूछते हैं कि मुसलमान अपना पार्टी क्यों नहीं बना सकता ? मुद्दा यह है ही नहीं. यह सवाल ऐसा ही हुआ जैसे हिन्दुओं के भरमाने के लिए आईटी सेल वाले कहते हैं कि अच्छा अब हिन्दुस्तान में हिन्दु यह भी नहीं कर सकता ? ये सब सास टाइप के सवाल हैं. सासें बहुओं को टारगेट करने के लिए रात दिन यही कहती है कि अब हम यह भी नहीं कर सकते ? क्या प्राथमिकता है क्या नहीं इससे कोई मतलब नहीं बस एक काल्पनिक सवाल उठाकर बाकी सब जायज सवालों को खत्म करने का यह बहुत पुराना तरीका है.
सवाल यह है कि मुसलमान को चाहिए क्या ? आज की तारीख में सबसे पहले उसे सुरक्षा और झूठे मुकदमों से मुक्ति चाहिए. नागरिकता कानून का विरोध करने पर कितने लोगों के खिलाफ मामले बनाए गए. सड़कों पर उनकी संपत्ति जप्त करने के पोस्टर लगा दिए गए. आज ऐसे हर सवाल उठाए जा रहे हैं, जिससे मुसलमान को घेरा जा सके और हिन्दु मुसलमान मुद्दा गर्म रहे.
पहले भी कभी मुसलमान अकेला राजनीति नहीं कर सकता था आज तो बिल्कुल नहीं. उसे समाज के दूसरे वर्गों के साथ ही खड़ा होना पड़ेगा. वह कहीं यादव होगा, तो कहीं दलित और ब्राह्म्ण या कहीं सबके साथ मिल जुले माहौल में. एक मुस्लिम पार्टी के साथ खड़ा होना उसके लिए किसी भी तरह से फायदेमंद नहीं हो सकता. क्या यह बात कोई जानता नहीं है कि जैसे ही चुनाव का माहौल तेज होगा मीडिया में असदउद्दीन औवेसी के भाई अकबर के वे वीडियो चलना शुरू हो जाएंगे, जिनमें वे सांप्रदायिक आधार पर चुनौतियां देते दिख रहे हैं. डिबेट पर डिबेट करके मीडिया इतना जहरीला माहौल बना देगा कि भाजपा को कुछ ज्यादा करने की जरूरत नहीं होगी.
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