मुनेश त्यागी
भारत के संविधान में सस्ते और सुलभ न्याय की व्यवस्था कायम की गई है. वहां पर प्रावधान किया गया है कि वादकारियों को समय से सस्ता और सुलभ न्याय मुहैया कराया जाएगा, मगर आजादी के 76 साल बाद हम देख रहे हैं कि जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने की संवैधानिक व्यवस्था को धराशाई कर दिया गया है.
अन्याय के शिकार, जुल्म के मारे हुए लोगों को वर्षों-वर्षों तक न्याय नहीं मिल रहा है और हमारी न्याय व्यवस्था, हमारी कानून व्यवस्था खुलकर उनके कानूनी अधिकारों की हिफाजत नहीं कर रही है. वर्तमान समय में भारत के सर्वोच्च न्यायालय, विभिन्न उच्च न्यायालयों और निचली अदालतों में 5 करोड़ से भी ज्यादा मुकदमें लंबित हैं. न्यायालयों में पर्याप्त संख्या में न्यायिक अधिकारी नहीं हैं, बाबू, चपरासी और स्टेनो नहीं हैं, न्यायालयों का स्वरूप आधुनिक नहीं है और पर्याप्त संख्या में न्यायालय नहीं हैं.
भारत में विभिन्न मामलों में कानून द्वारा यह निश्चित किया गया है कि एक निश्चित समय में मुकदमें का निपटारा हो जाना चाहिए, जैसे औद्योगिक विवाद अधिनियम में 90 दिन में मुकदमा खत्म हो जाना चाहिए, कंजूमर फोरम में लगभग 9 महीने में मुकदमा खत्म हो जाना चाहिए, परिवार न्यायालय में लगभग 6 महीने में मुकदमा खत्म हो जाना चाहिए, घरेलू हिंसा के मामले 6 महीने के अंदर निपटा दिए जाने चाहिए. मगर आज की अदालतों के हालात इन प्रावधानों के बिलकुल खिलाफ है और निश्चित समय में अन्याय और जुल्म के शिकार लोगों को न्याय देने की भावना का खुल्लम-खुल्ला मखौल उड़ा रहे हैं.
आज हम देख रहे हैं कि लगभग ढाई करोड़ से ज्यादा मुकदमें, पिछले 10 सालों से ज्यादा समय से लंबित हैं. जो मुकदमें 90 दिन में निबट जाने चाहिए थे, वे पिछले 15-15, 20-20 सालों से लंबित हैं. इनका मुख्य कारण है कि जैसे-जैसे वादकारियों की संख्या बढ़ी, अन्याय, शोषण और जुल्म का शिकार होकर, पीड़ित न्यायालयों की शरण में आए, उसी अनुपात में न्यायालयों का निर्माण नहीं किया गया, उसी अनुपात में जजों, अधिकारियों, बाबूओं और स्टेनोग्राफर्स की नियुक्तियां नहीं की गईं, जिस वजह से निश्चित सीमा के अंदर मुकदमों का निस्तारण नहीं हो पाया.
जुल्म और अन्याय के शिकार लोगों को समय से न्याय नहीं मिल पाया और वे लगातार अन्याय और शोषण का शिकार होते चले जा रहे हैं. वर्तमान में बहुत सारे मुकदमों में यह देखा जा रहा है कि न्याय में मिलने की देरी की वजहों से गरीब वादकारियों ने निराश होकर, मुकदमों की पैरवी करनी छोड़ दी है.
पिछले दिनों कई आधिकारिक रिपोर्टों में यह खुलासा किया गया कि जनता को सस्ता और सुलभ न्याय उपलब्ध कराने में, केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और अधिकांश उच्च न्यायालयों की कोई मंशा नहीं है. हालांकि सरकार द्वारा न्यायपालिका के मद में खर्च किया जाने वाला बजट बहुत कम है. रिपोर्टों में यह भी देखा गया कि उच्च न्यायालयों में पैसा मौजूद है, मगर वे जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के लिए इस धन का उपयोग नहीं कर रहे हैं. यह भी आश्चर्य का विषय है कि इसे लेकर उनकी कोई अकाउंटेबिलिटी भी नहीं है.
हकीकत यह भी है कि हमारी केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और विभिन्न उच्च न्यायालय जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने में कोई रुचि नहीं रख रहे हैं और वे अपनी ऐसी मंशा भी नहीं दिखा रहे हैं. बहुत सारी वकील संस्थाएं विभिन्न समय पर वादकारियों को सस्ता और सुलभ न्याय देने के लिए केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और विभिन्न उच्च न्यायालयों से मांग करते रहते हैं, मगर लगातार मांग करने के बावजूद भी उनकी मांगों की सुनवाई नहीं हो रही है, उनकी बातें नहीं मानी जा रही हैं.
उपरोक्त परिस्थितियों में यह स्वयं सिद्ध हो रहा है कि भारत की केंद्र सरकार, अधिकांश राज्य सरकारें और विभिन्न उच्च न्यायालय, भारत की वर्तमान कानून व्यवस्था और न्यायपालिका, अन्यायों और उत्पीड़न की शिकार जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने के संवैधानिक प्रावधानों का खुल्लम खुल्ला उल्लंघन कर रहे हैं और उन्हें जनता को सस्ता और सुलभ न्याय देने का कोई अफसोस भी नहीं है.
इस प्रकार हम देख रहे हैं कि सरकारों की नाकामी की वजह से, उदासीनता की वजह से और संवेदनहीनता की वजह से, करोड़ों करोड़ वादकारियों को सस्ते और सुलभ न्याय कि संवैधानिक गारंटी से वंचित होना पड़ रहा है. करोड़ों वादकारियों को और करोड़ों करोड़ अन्याय के शिकार लोगों को, सरकार द्वारा समय से और सस्ता और सुलभ न्याय देने से वंचित किया जा रहा है. हमारी सरकार और न्यायिक प्रणाली जनता को न्याय देने का नाटक तो बखूबी कर रही है, मगर असल में जनता को सस्ता और सुलभ न्याय नहीं मिल रहा है.
सरकारों की सस्ता और सुलभ न्याय देने के प्रति बरती जाने वाली उदासीनता, लापरवाही और संवेदनहीनता के कारण, करोड़ों करोड़ लोगों का विश्वास सस्ते और सुलभ न्याय की आशा से उठता जा रहा है. ऐसी स्थिति में उत्पीड़कों और अन्याय व शोषण करने वालों की बल्ले-बल्ले हो रही है, उनकी बांछें खिल रही हैं. वर्तमान में हम देख रहे हैं कि यौन शोषण की शिकार लड़कियों के मामले को भी अनुचित तरीके से लंबा खींचा जा रहा है, उन्हें तरह-तरह से परेशान किया जा रहा है, उन पर तरह-तरह के दबाव डाले जा रहे हैं, इस प्रकार वे भी सस्ते और सुलभ न्याय की आशा से निराश होती चली जा रही हैं.
इस प्रकार हम देख रहे हैं कि हमारी न्याय प्रणाली और कानून व्यवस्था, वंचितों, पीड़ितों, शोषितों को और अन्याय के शिकार लोगों को, समय से सस्ता और सुलभ न्याय न देकर, केवल और केवल उत्पीड़कों की, अन्याय करने वालों की और कानून के शासन की धज्जियां उड़ाने वालों की पूरी पूरी हिफाजत कर रही है.
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