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हमारा विकास और ज्ञान विज्ञान

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आज का सच यही है कि वही लोग दुनिया पर राज करेंगे जो आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को पढ़ने-पढ़ाने में आगे रहेंगे. साजिश के किस्से बनाते रहिए पर सच यही है कि आज अमेरिका, चीन या यूरोप ही दुनिया के सबसे ताकतवर देश हैं.

चीन पिछले कुछ दशकों में बमुश्किल अपने पैरों पर खड़ा हुआ है. भारत अब भी अमेरिका या रूस की मदद के बिना देर तक नहीं खड़ा रह पाता. छोटी-सी कौम है – यहूदी, उसने खुद को ज्ञान-विज्ञान की तपस्या में झोंक दिया.

अगर धार्मिक समुदाय के आधार पर देखा जाए तो 100 साल में उन्होंने विश्व ज्ञान कोश में जितना योगदान किया है, उतना एशिया के किसी अन्य समुदाय ने नहीं किया, जबकि उनकी जनसंख्या भारत की दर्जनों जातियों से बहुत कम है.

हम अपने को चाहे जितना होशियार समझें, हम में से ज्यादातर तोते की तरह वही बोलते हैं जिस माहौल में हम पले-बढ़े होते हैं. बहुत कम लोग हैं जो अपने परवरिश के अनुकूलन (कंडीशनिंग) से कुछ हद तक आजाद हो पाते हैं.

100 प्रतिशत आजाद तो शायद कोई नहीं हो पाता. अब यह आपके परवरिश पर निर्भर करता है कि विश्व इतिहास में मिली हार-जीत को आप किस तरह देखते हैं. दुनिया के बड़े हिस्से को गुलाम बनाने वाले ब्रिटिश ने एक काम जरूर किया कि वो जहां-जहां राज करते थे, वहां-वहां की आबादी के आपसी मतभेदों को हिंसक संघर्ष में बदल दिया. इस कोलोनियल कंडीशनिंग से आजाद होने में हमें न जाने कितना वक्त लगेगा.

कोलोनियल ताकतें इतनी होशियार हैं कि वो अफगानिस्तान को बर्बाद करके यह विमर्श पीछे छोड़ जाती हैं कि ‘अमेरिका कैसे और क्यों हारा ?’ ‘तालिबान ने साम्राज्यवाद को कैसे हरा दिया ?’

यह अजूबा ही है कि जो बर्बाद हुए हैं वही जीत का जश्न मना रहे हैं ! ब्रिटिश और अमेरिकी माइंड को समझने वाले समझ रहे हैं कि अफगानिस्तान का अफीम का कारोबार यथावत रहेगा उसका लाभ कौन लेगा ये वक्त बताएगा. दुनिया में वो कौन सा कोना है जहां कुछ बेचने-खरीदने लायक हो और वहां अमेरिका-ब्रिटेन न हों ! सऊदी अरब का तेल निकालना भी अमेरिका ने ही शुरू किया. ब्रिटेन ने सऊदी अरब का गठन कराया और अमेरिका ने वहां तेल निकालना शुरू किया.

अब जरा सोचिए, ब्रिटेन और अमेरिका ने खाड़ी में तेलखोर सऊदी-कतर इत्यादि को खड़ा किया लेकिन पिछले 100 साल में उस इलाके के सबसे तगड़े नेता कौन थे ? मिस्र के गमाल अब्दुल नासिर और तुर्की के कमाल अतातुर्क.

यह भी कमाल है कि दोनों ही मजहबी हुकूमत के खिलाफ थे. दोनों के ख्याल क्या थे ? दोनों ही साइंस-टेक्नोलॉजी के शैदाई थे. दोनों मानते थे कि दीन-धर्म अपने तक रखें. दूसरों को सिखाने के बजाय अपने ईमान और अमल पर ध्यान दें. दोनों के राज में मिस्र और तुर्की ने तेजी से विकास किया.

संयोग देखिए, गमाल अब्दुल नासिर का मिस्र भारत-दोस्त था, सऊदी पाकिस्तान-दोस्त. प्रोफेसर तैमूर रहमान का एक वीडियो देख रहा था, जिसमें उन्होंने बताया कि यूएन में एक बार पंचायत बैठी तो मिस्र ने अपनी नुमाइंदगी के लिए भारत को चुना और सऊदी लॉबी ने पाकिस्तान को.

वैसे भी दुनिया का एक ही मुसलमान मुल्क है, जो भारत का दोस्त नहीं है, वो है अपना भाई पाकिस्तान. आपको हर मुहल्ले में ऐसे लोग मिल जाएंगे जिनकी सबसे दोस्ती होती है लेकिन वो अपने भाई को नहीं समझा पाते कि छोटे मान जा.

नीचे तस्वीर में जो किताब दिख रही है उसमें लेखक डगलस साहब ने दिखाया है कि मध्यकाल की तीन सबसे बड़ी मुस्लिम रियासतों उस्मानिया (तुर्की), सफाविद (ईरान) और मुगल (भारत) की स्थापना में बारूद-तोप की अहम भूमिका रही. जाहिर है कि इनके संस्थापकों को पास दूश्मनों के मुकाबले ज्यादा बेहतर मिलिट्री टेक्नोलॉजी थी.
हमको इतिहास इस नजरिये से तो पढ़ाया नहीं जाता कि सैन्य क्षमता में साइंस-टेक्नोलॉजी की क्या भूमिका थी, तो सोचते रहिए कि हारने-जीतने वाले का महजब क्या था.

पिछले दिनों किसी युद्ध का विवरण पढ़ने को मिला था. राजस्थान के राजपूतों से जुड़ा कोई किस्सा था. सामने बन्दूक की कतार लगी थी. राजपूतों के हाथ में तलवार थी. जीतने वाली सेना के लेखक ने लिखा कि गोली चलती जाती और राजपूत मौत से डरे बिना बेखौफ बढ़ते जाते, मरते जाते.

कुछ तो बन्दूकों की गोलीबारी को बेधते हुए दुश्मन तक पहुँचने में भी कामयाब हो गये और एकाध का सिर अपनी तलवार से उड़ा दिया. हमारे बीच आज भी ऐसे लोग हैं जो इसे बहादुरी मानेंगे लेकिन बाबर ने इस बात को रेखांकित किया कि राजपूत मरना जानते हैं, लड़ना नहीं. खैर, हम लोग भटक गये, खाड़ी की तरफ चलते हैं.

मिस्र और तुर्की मुस्लिम जगत के सबसे आधुनिक देश थे. अमेरिकी साम्राज्यवाद से लड़ाई लड़ते हुए वो मजहबी निजाम की तरफ बढ़ गये. अभी पिछले हफ्ते पाकिस्तान के वजीरे आजम इमरान खान अपनी ससंद में कसम खा रहे थे कि अब कुछ भी हो जाये उनका मुल्क अमेरिका की कठपुतली नहीं बनेगा.

उन्होंने बार-बार ‘ला इलाहा इलअल्लाह’ को बड़ी ताकत बताया. पूरे भाषण में चीन का एक बार नाम नहीं लिया. भाषण खत्म करते हुए उन्होंने यह याद दिलाया कि पाकिस्तान कश्मीर को नहीं भूला है.

सोचिए न जाने कितनी गर्लफ्रेंड और कुछ बीवीयों के तजुर्बे के बाद भी खान साहब यह नहीं समझ पाये हैं कि एक्स को याद करना केवल कष्ट देता है, जो किसी और को हो गया हो उसे भूल जाना ही बेहतर है लेकिन इसका नतीजा क्या होगा ? पाकिस्तान गरीब और बदहाल होते हुए भी अपनी फटी झोली से कश्मीर में मजहबी कट्टरपंथ को चारा चुगाता रहेगा.

दुनिया भर में भूराजनीति की शतरंज बिछी हुई है. अमेरिका-ब्रिटेन चाहते हैं कि दुनिया के बाकी देश अपने धर्म-कर्म पर ध्यान दें. साइंस-टेक्नोलॉजी पर वो दे लेंगे. आप अपने पड़ोसियों से लड़ते रहेंगे वो पंच बने रहेंगे. और सबसे बड़ी समस्या ये है कि अगर आपके बीच कोई गुदड़ी का लाल पैदा हो गया, जिसमें साइंस-टेक्नोलॉजी का टैलेंट होगा तो वो उसे अपने यहाँ बुला लेंगे कि आओ मेरे लाल, यहाँ रहकर काम करो यह मुल्क बेहतर है.

कुछ समय पहले ही मैथमैटिक्स के सबसे बड़े पुरस्कार फील्ड मेडल पर कुछ सर्च कर रहा था तो देखा कि फील्ड मेडल जीतने वाली पहली महिला एक ईरानी मुस्लिम महिला थी. इस तरह वो फील्ड मेडल जीतने वाली केवल पहली महिला ही नहीं, पहली ईरानी और पहली मुस्लिम महिला भी थी.

वो अमेरिका में उच्च शिक्षा के लिए गयीं और वहीं रह गयीं. जिक्र चला है तो बताते चलें कि पिछले 10 सालों में जिन दो भारतवंशियों को फील्ड मेडल मिला है, उनमें से एक अमेरिकी नागरिक है और दूसरा ऑस्ट्रेलियाई.

जरा सोचिए, एक वक्त था कि भारत और अरब के गणितज्ञ दुनिया में श्रेष्ठ माने जाते थे. सभी जानते हैं कि आधुनिक अंकपद्धति हिन्दुस्तान से अरब गयी और अरब से यूरोप. आज क्या हाल है !

यहाँ कुछ लोग कुतर्क करेंगे कि मजहबी मुल्क भी साइंस-टेक्नोलॉजी में तरक्की कर सकते हैं. करने को तो आप भी कुतर्क करने के अलावा बहुत कुछ कर सकते हैं लेकिन आप करेंगे नहीं.

उसी तरह मजहबी मुल्क भी साइंस में तरक्की नहीं कर पाते क्योंकि साइंस की बुनियाद है क्रिटिकल रिजनिंग (आलोचनात्मक चिन्तन) और धार्मिक आस्था की बुनियाद है, सारे तर्क-वितर्क छोड़कर परमसत्ता के आगे समर्पण.

परमसत्ता के आगे समर्पण की अभ्यस्त सरकारें अपने से बड़ी सत्ता के आगे समर्पण कर देती हैं. जैसे सऊदी और पाकिस्तान ने अमेरिका के आगे किया. नतीजा यह हुआ कि पाकिस्तान को पहला नोबेल दिलाने वाले वैज्ञानिक अब्दुस सलाम की ही कब्र का तिया-पाँचा कर दिया गया क्योंकि वो अहमदिया थे.

विकट संयोग है कि अब्दुस सलाम विज्ञान में नोबेल जीतने वाले पहले मुस्लिम भी हैं. खुद देख लीजिए हम अपने बेस्ट ब्रेन के साथ क्या करते हैं. आजादी के बाद साइंस में नोबेल जीतने वाले सभी भारतवंशी अमेरिका या ब्रिटेन के नागरिक हैं. जरा सोचिए, जब ऐसा मंजर आँखों के सामने हो तो ‘भारत माता की जय’ के सिवा क्या ही कहा जाए.

  • पुष्पा गुप्ता

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