मोदी सरकार, हर मोर्चे पर पूरी तरह नाकाम रही है. पिछले 9 साल, देश के इतिहास में, एक काले धब्बे की तरह नमूद होंगे. रीढ़विहीन और दरबारी मीडिया के दम पर, योजनाबद्ध तरीके से फैलाई मज़हबी ख़ुमारी और अंधराष्ट्रवाद के नशे का शिकार होकर, झूठ और पाखंड पर भरोसा कर 2014 में जिन लोगों ने झूमकर मोदी को वोट दिए थे, वे सब आज ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं.
बात सिर्फ़ चुनावी वादे पूरे करने की नहीं है, वे तो आजतक किसी भी पार्टी ने नहीं किए, ना ही कोई पार्टी, पूंजी के मौजूदा निज़ाम को पलटे बगैर कर सकती है, वे तो किए ही लोगों को ठगने के लिए जाते हैं, लेकिन जिस निर्लज्जता से, भाजपा ने उन्हें अपने पैरों तले कुचला है, और जिस नंगई से उन्होंने अडानी-अम्बानियों की सेवा की है, वैसा पहले कभी नहीं हुआ.
जिस व्यक्ति ने युवाओं को हर साल 2 करोड़ रोज़गार देने का वादा कर ठगा हो, वह, 40 करोड़ बेरोज़गारों की विशाल फौज़ को 50,000 नौकारियों के नियुक्ति-पत्र देते हुए, शर्मिंदगी नहीं बल्कि गौरवान्वित महसूस करता हो, उसे क्या कहा जाए ? उनके वादे याद दिलाने वालों को, मोदी सरकार, ‘देशद्रोही’ बताकर जेल में डाल देती है. जो भी उनके झूठ, पाखंड और अडानी-अम्बानी की निर्लज्ज ताबेदारी पर सवाल करे, वह देशद्रोही है !!
असंख्य कैमरों और टेलीप्रोम्प्टर के सामने, हाथ लहराकर दहाड़ने वाले मोदी को किसी ने मंहगाई पर बोलते सुना है क्या ? आंकड़ों की बाजीगरी छोड़िये, बाज़ार क्या कहता है ? हर वस्तु के दाम, हर माह बढ़ते जा रहे हैं, और वस्तुओं की मात्रा घटती जा रही है. क्या उसके अनुरूप, वेतन बढ़ रहे हैं ? इस भारी-भरकम, संवेदनहीन तंत्र में, मेहनतकशों के दर्द को महसूस करने वाला, उनकी व्यथा सुनने वाला, कहीं कोई नज़र आता है क्या ?
मोदी सरकार ने मज़दूरों पर सबसे घातक हमला, श्रम क़ानून लागू कराने के लिए ज़िम्मेदार इदारों, जैसे श्रम विभाग, भविष्यनिधि विभाग और कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ESIC) को पूरी तरह ठप्प करके, बोला है. ये सब अधिकारी स्पष्ट बोलते हैं कि उन्हें सरकार के लिखित आदेश हैं कि मालिकों को मनमानी करने दो. ये विभाग पहले भी मालिकों की सेवा ही किया करते थे, लेकिन मज़दूर संगठनों के सक्रिय होने पर, ऐसे मालिक के तो कान उमेठते ही थे, जो मज़दूरों का पीएफ और ईएसआईसी भी बेशर्मी से निगल रहा है. जो वेतन भी तय हुआ है, उसका भुगतान नहीं कर रहा.
आज स्थिति इतनी भयावह है कि कारखाना मालिक सालों साल काम कराते हैं, और मज़दूर वेतन मांगते हैं, तो उन्हें गन्दी गालियां देकर, पीटकर भगा देते हैं. पहले कभी ऐसा देखा है ? 80% मालिक ईएसआईसी की, मज़दूर से वसूली गई कटौती भी जमा नहीं कर रहे. दुर्घटना होने के बाद कार्ड बनाया जाता है. मोदी के इस अमृत काल में मज़दूर मरने के लिए आज़ाद हैं. कहने को लेबर कोड लागू नहीं हैं, लेकिन उनके लागू होने के बाद मज़दूर जो शोषण झेलेंगे, उससे कहीं अधिक ज़ुल्म-ज़्यादती मज़दूरों को आज झेलनी पड़ रही है.
महिलाओं के सम्मान के बारे में मोदी सरकार, भाजपा और संघ परिवार के चरित्र के बारे में तो किसी को पहले से ही कोई संदेह नहीं रहा, लेकिन गुंडे-दबंग बृजभूषण सिंह वाले प्रकरण ने, इन लोगों का चाल-चरित्र-चेहरा एकदम नंगा करके रख दिया है. कोई भी बलात्कारी, लम्पट गुंडा, अगर चुनाव में भाजपा के किसी काम आ सकता है, तो वह कितनी भी गुंडई करे, कितना भी नंगा नाच करे, भाजपा को फ़र्क नहीं पड़ता. वह उसे बचाने के लिए किसी भी सीमा तक जा सकती है.
गुंडा-बलात्कारी-हत्यारा अगर भाजपाई है तो वह संस्कारी है !! सारा देश, आज अपने मान-मर्यादा की लड़ाई लड़ रही बहादुर महिला खिलाड़ियों के साथ है, लेकिन भाजपा, संघ कुनबा और सारे निठल्ले, मुफ़्तखोर भगवाधारी, तथाकथित साधू-संत, गुंडे-दबंग बृज भूषण के साथ हैं. कठुआ, हाथरस, उन्नाव, बिलकिस बानो और ना जाने कितने भगवाधारी लम्पटों-गुंडों-बलात्कारियों को, भाजपाईयों ने ना सिर्फ़ क़ानून की गिरफ़्त से बचाया है बल्कि आम जन-मानस की भावनाओं, क्रोध को दरकिनार करते हुए, उन्हें सम्मानित भी किया है, उन्हें फूल मालाएं पहनाई हैं.
कितना भी छंटा हुआ बदमाश हो, गले में भाजपा का पट्टा डालते ही संत हो जाता है. बृज भूषण को गिरफ़्तारी से जिस नंगई से बचाया गया, उसके बाद तो ऐसा माहौल पैदा होने का ख़तरा नज़र आने लगा है कि कोई सरकारी बाहुबली, किसी भी घर में घुसकर हमारी बहू-बेटियों के साथ कुछ भी कर सकता है. पुलिस उसके विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करने से पहले मोदी सरकार क्या चाहती है, ये देखेगी.
देश में 85 करोड़ लोग कंगाली के उस स्तर पर कैसे पहुंच गए कि दो जून रोटी के लिए, सरकारी खैरात के लिए, हाथ फैलानी की ज़िल्लत झेलने को मज़बूर हैं ? भूख सूचकांक में भारत, अपने पडौसी देशों से भी कहीं बदतर हालत में, सोमालिया के नज़दीक 107 वें नंबर पर कैसे पहुंच गया ? क्यों, आज तिहाई हाथों को काम नहीं है ? क्यों सरकारी अस्पताल, कुत्तों के विश्राम स्थल बन गए और आधी से अधिक आबादी, किसी भी तरह का ईलाज कराने लायक़ नहीं बची ?
देश में एक तरफ़ कंगाली का महासागर बन चुका है और दूसरी तरफ़, अडानी-अम्बानियों की दौलत के पहाड़ विशाल होते जा रहे हैं; ऐसा क्यों और किस नियम के तहत हो रहा है ? क्या मोदी सरकार के अजेंडे में कभी ये सवाल आते हैं ? कभी इन विषयों पर कैबिनेट मीटिंग हुई ? भाजपाई मीटिंगों का एजेंडा क्या होता है ? किस मस्जिद के नीचे मंदिर होने के सबूत पैदा किए जाने की गुंजाईश है ? स्कूल जाती बच्चियां हिज़ाब क्यों पहन रही हैं ? ‘गौ माता और गौ वंश’ का नाम लेकर, लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काने और मुस्लिम समाज को असली दुश्मन ठहराने के लिए कौन से हथकंडे अपनाए जा सकते हैं ?
वैज्ञानिक, तर्क़पूर्ण समझदारी पैदा होने से रोकने और मज़हबी ज़हालत, आस्था आधारित दकियानूसी, सड़े-गले विचारों को प्रस्थापित करने और अंध भक्तों की फौज़ तैयार करने के लिए इतिहास को कैसे विकृत किया जाए, शिक्षा व्यवस्था का सत्यानाश कैसे किया जाए ? मोदी सरकार ऐसा क्यों कर रही है, किस के हित में कर रही है, मेहनतक़श अवाम को क्यों बांटना चाहती है ? मेहनतक़श अवाम क्या करे ? ये जीवन-मरण के ऐसी गंभीर सवाल हैं जिन पर गंभीर विचार-मंथन करना हमारी ज़िम्मेदारी है.
‘धरमवार फ़साद ते ओन्हादे इलाज़’, जून 1927 में किरती में छपे अपने पंजाबी निबंध में, शहीद-ए-आज़म भगतसिंह लिखते हैं –
‘लोगों को आपस में लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना महत्वपूर्ण है. ग़रीब मज़दूरों और किसानों को यह स्पष्ट रूप से समझाना होगा कि उनके असली दुश्मन पूंजीपति हैं, इसलिए उन्हें सावधान रहना चाहिए कि वे उनके जाल में न फंसें. दुनिया के सभी गरीब लोगों को, उनकी जाति, नस्ल, धर्म या राष्ट्र कुछ भी हो, समान अधिकार हैं. यह आपके हित में है कि धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता के आधार पर सभी भेदभाव समाप्त करते हुए, राज-सत्ता अपने हाथ में ले लें. ऐसा करने से आपको किसी भी तरह का नुकसान नहीं होगा बल्कि एक दिन आपकी बेड़ियां कट जाएंगी और आपको असली आर्थिक आजादी मिल जाएगी.’
1927 को, जब शहीद-ए-आज़म भगतसिंह द्वारा इस रोग को पहचानकर सही इलाज बताया गया था, पूरे 96 साल बीत गए. जो भी कारण रहे, लेकिन कड़वी सच्चाई ये है कि मज़दूर और मेहनतक़श किसान, पूंजीपतियों के राज़ को आज तक ख़त्म नहीं कर पाए. शासन की हर व्यवस्था, एक निश्चित ऐतिहासिक अवधि के बाद काल-बाह्य हो जाती है. पूंजीवाद की मुद्दत काफ़ी पहले पूरी हो चुकी. क्रांतिकारी शक्तियां, इसे उखाड़कर नहीं फेंक पाईं, परिणामस्वरूप ये सड़ने लगी है.
जिन मान्यताओं और मूल्य बोध को पूंजीवाद ने ही कभी प्रस्थापित किया था, उन्हें ही आज ये खाती जा रही है. वह एक ऐसे संकट में फंस चुकी है, जिससे निकलने का हर उपाय उसे और गहरे गड्ढे में धकेल दे रहा है. अपनी अवश्यमभावी मौत के डर से, वह उत्पादक शक्तियों को ही नष्ट करने लगी है. उनमें फूट डालकर, आत्मघाती ख़ूनी जंग में झोंक देने पर उतारू है. समाज के कंगालीकरण के साथ-साथ, नशाखोरी, सांस्कृतिक सड़न, अश्लीलता और नैतिक पतन को योजनाबद्ध तरीक़े से बढ़ाया जा रहा है.
चंद हाथों में सारी दौलत सिमट चुकी है, जिनकी ताबेदारी सरकार करती है. उसका चरित्र नंगा हो चुका. हुकूमत की मैलागाड़ी, अब बस दमन-चक्र और हिंसा के सहारे ही सरक रही है. इस हिंसा का शिकार, वह तबक़ा सबसे ज्यादा हो रहा है, जो कमज़ोर है, जिसे पूंजीवादी शोषण के आलावा, अतिरिक्त शोषण भी झेलना पड़ता है, जैसे महिलाएं, अल्पसंख्यक, दलित और आदिवासी. शासन के इस स्वरूप को फ़ासीवाद कहते हैं. हमारे देश की सत्ता के चरित्र में आज फ़ासीवाद का हर लक्षण स्पष्ट नज़र आ रहा है.
पारोली, उत्तराखंड में जून महीने में जो घटा, उसने साबित कर दिया कि संघ परिवार की हिमाक़त, नंगई और जुर्रत दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. ‘देवभूमि रक्षा अभियान’ के नाम पर, इस असली ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ द्वारा, मुस्लिमों की दुकानों पर क्रॉस लगाना और सारे के सारे मुस्लिम समाज को ज़ेहादी बताकर, उन्हें उत्तराखंड से भाग जाने का अल्टीमेटम देना ठीक वैसा ही है, जैसे हिटलर के नाज़ी गैंग ने जर्मनी में यहूदियों के साथ किया था.
उत्तराखंड सरकार और पुलिस, इन हिन्दुत्ववादी ज़ेहादियों के विघटनकारी ज़हरीले अजेंडे को पहले भी मदद ही करते आए हैं. आज भी अगर सचेत नहीं हुए तो इतिहास हम सब को गुनहगार ठहराएगा. तीव्र जन-आक्रोश को भांपकर हिन्दुत्ववादी फासिस्टों की 15 और 20 जून को होने वाली महापंचायतों पर उत्तराखंड उच्च न्यायलय ने रोक लगा दी लेकिन इनमें से किसी पर भी कोई कार्यवाही नहीं हुई.
चंद धन-पशु लुटेरों, गुंडों, बलात्कारियों की ताबेदार, भाजपा सरकार और उनका कुनबा, ना संविधान की परवाह कर रहे हैं और ना इस देश की गंगा-जमुनी तहज़ीब का. इनका असल अजेंडा; भयंकर कंगाली, अभूतपूर्व बेरोज़गारी और बे-इन्तेहा मंहगाई में पिसते जा रहे, और परिणामस्वरूप गोलबंद होते जा रहे, मज़दूरों और मेहनतक़श किसानों की एकता को खंडित करना और उन्हें मज़हबी ज़हालत की अँधेरी कोठरी में धकेलकर, सारा देश, अडानी-अम्बानियों को अर्पित करना है. इस प्रक्रिया में देश अगर टूटता है, तो भी इन्हें परवाह नहीं.
फ़ासीवादी हमला दिनोंदिन तीखा होता जा रहा है. मार्टिन निमोलर की वह कालजयी सीख हमारे सामने है. ये ‘इंडियन नाज़ी’, एक-एक कर, हर तबक़े को निशाने पर लेने वाले हैं. बदकिस्मती से, हमारे देश की अदालतें भी इन्हें रोकने में नाकाम रही है. सर्वोच्च अदालत, संविधान की रक्षक है; ऐसा मात्र दिखना चाहती है, उसके लिए कोई भी कड़ा, निर्णायक क़दम लेने से बचती आई है.
फासिस्ट गिरोह का हौसला, अदालतों की इन्हीं नाकामियों ने बढ़ाया है. ‘नरसंहार’ का खुला आह्वान करने वाले, आज जेलों में नहीं बल्कि अपने अड्डों पर, ना सिर्फ मौजूद हैं बल्कि अपने काम में लगे हुए हैं. इस ख़ूनी तमाशे को चुपचाप बैठकर देखना या आंखें फेर लेना, अक्षम्य अपराध होगा.
दंगाईयों और उन्मादियों की इस पैदल सेना के आक़ाओं को पहचानकर, निशाने पर लेना होगा. प्रख्यात राजनीतिक विचारक, रजनी पाम दत्त ने फ़ासीवाद की कार्यपद्धति का विश्लेषण करते हुए लिखा है – ‘चीखते-चिल्लाते, बौखलाए, गुंडों, शैतानों और हठधर्मियों की यह फौज, जो फ़ासीवाद के ऊपरी आवरण का निर्माण करती है, इसके पीछे वित्तीय पूंजीवाद के अगुवा बैठे हैं, जो बहुत शांत भाव, स्पष्ट सोच और होशियारी से इस फौज का संचालन करते हैं और इनका ख़र्च उठाते हैं.
‘फ़ासीवाद के शोर-शराबे और मनगढ़ंत विचारधारा की जगह, उसके पीछे काम करने वाली यही प्रणाली हमारी चिंता का विषय है. और इसकी विचारधारा को लेकर जो भारी-भरकम बातें कही जा रही हैं उनका महत्त्व पहली बात, यानी घनघोर संकट की स्थितियों में कमजोर होते पूंजीवाद को टिकाए रखने की असली कार्यप्रणाली के सन्दर्भ में ही है.’ फ़ासीवाद, चूंकि सड़ता हुआ पूंजीवाद है, इसलिए पूंजी के राज को समूल नष्ट किए बगैर, फ़ासीवाद से मुक्ति संभव नहीं.
पिसते, कराहते लोगों की जुबान पर ताला लगाया जा रहा है. ख़तरनाक कानूनों को और ख़तरनाक बनाया जा रहा है. मेहनतक़श अवाम के सामने एक ही रास्ता है. सभी इंसाफ़पसंद, प्रगतिशील, जनवादी एवं वामपंथी क्रांतिकारी शक्तियों को गोलबंद करते हुए, देशभर में, मज़दूरों और मेहनतक़श किसानों को, फ़ासीवाद-विरोधी जन आन्दोलनों की प्रचंड लहर खड़ी करनी होगी. मौजूदा वक़्त, हर जागरुक नागरिक और सभी क्रांतिकारी संगठनों से, बिना वक़्त गंवाए, सड़कों पर आने की मांग कर रहा है.
मज़दूर और मेहनतक़श किसानों को इस अधमरे पूंजीवाद को इतिहास जमा करने की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी उठानी होगी. क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा इस अजेंडे को अधिक से अधिक मज़दूरों के बीच ले जाने के कार्यक्रम को एक मुहीम के रूप में चला रहा है. सभी वामपंथी, क्रांतिकारी शक्तियों तक ये संदेश पहुंचाना चाहता है जिससे, सभी दलों के विचारों को समेटते हुए, फासीवाद-विरोधी इस आंदोलन को एक जन-आंदोलन की शक्ल दी जा सके. फ़ासीवाद का एक इलाज – इंक़लाब जिंदाबाद !
- सत्यवीर सिंह
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क्या आप सोवियत संघ और स्टालिन की निंदा करते हुए फासीवाद के खिलाफ लड़ सकते हैं ?
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