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वन नेशन वन इलेक्शन : सुल्तान का संवैधानिक मतिभ्रम

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वन नेशन वन इलेक्शन : सुल्तान का संवैधानिक मतिभ्रम
वन नेशन वन इलेक्शन : सुल्तान का संवैधानिक मतिभ्रम
kanak tiwariकनक तिवारी

संवैधानिक मर्यादाओं की हाराकिरी करने भारत में अफीम के नशे से पीनक-युग पैदा हो गया है. फिलवक्त संविधान की पोथी राजनीतिक कशमकश के कारण हर नागरिक के हाथ में हथियार बनाकर पकड़ाए जाने का सियासी शगल चल रहा है. ज़्यादातर नेताओं, सांसदों, विधायकों को संविधान की अंतर्धारा की बारीकियों की सही जानकारी नहीं होती. संविधान उनके लिए झुनझुना है, जिसे बजाकर मतादाताओं को बाल बुद्धि का समझकर बहाला, फुसलाकर उन्हें भूख से तड़पने के बदले चुप कराया जा सके. ज्ञान की धमनभट्ठी से संविधान निर्माताओं ने हड्डियां गलाकर रोशनी का पुंज संविधान पैदा किया, जो भारत के भविष्य को अज्ञात समय तक आलोकित कर सकता है. संविधान ही नहीं, पूरा भारत जिन कंधों पर टिका है, वह गांधी के शब्दों में आखिरी छोर पर खड़ा आदमी जीता जागता भारत है. पेड़, पत्ते, पहाड, नदियां, खदानें, जंगल, पूरा आसमान बल्कि पूरी कायनात संविधान की मुट्ठी में है.

वही संविधान अब कुलबुला रहा है. करवटें ले रहा है. उसे बहलाए, सहलाए जाने की कोशिशें हो रही हैं. उस पर अलग-अलग बल्कि पुश्तैनी दावा ठोका जा रहा है. उसका पेटेंट किया जा रहा है. उसकी अभिव्यक्तियों का काॅपीराइट दर्ज हो रहा है. जनता ही भारत है. उसे ही तमाशबीन बना दिया गया है. जनता के नुमाइंदे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, मुख्य न्यायाधीश, सेना और संसद आदि कहलाते जनता के मालिक बन गए हैं. देश गलतफहमियों, अफवाहों, साजिशों और हुक्मनामों का मीनाबाज़ार बनाया दिया गया है. जो चाहे संविधान की मुश्कें बांधने कमर कसकर देश को अखाड़ा समझ रहा है. संविधान स्थितप्रज्ञ बुजुर्ग वांछनीयता में मुस्करा रहा है.

यही हो रहा है. कहा जा रहा है देश में ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ होगा. सभी निर्वाचित संस्थाओं संसद, विधानसभाओं और हो सके तो पंचायत और नगरीय संस्थाओं के चुनाव भी एकसाथ करा लिए जाएं. इसके लिए कोई गंभीर रायशुमारी नहीं हुई है. संविधान की आंत में नीयतें और मशविरे दर्ज हैं. उनसे पूछा तक नहीं गया है. पुरखों के वचन की हेठी करना तो मौजूदा निज़ाम का मिजाज़ है. वह हर पूर्वज वचन और हिदायत को पचहत्तर पार के संरक्षक मंडल का आर्तनाद समझता है. वह कथित तौर पर समय, श्रम, धन और अनावश्यक परेशानियों को कम करना चाहता है. इसके लिए संविधान में संशोधन करने की तजवीज़ है. इक्कीसवीं सदी में आलिम फ़ाजिल और वैश्विक संपर्क के हो रहे भारतीय नागरिकों को भी समझाया जा रहा है कि यह तो छोटा मोटा ऑपरेशन है. फिर तो पूरे देश में एक साथ हर तरह के चुनावों की जश्नेबहार होगी.

मन करता है सवाल पूछें. जो लोग इस इंतज़ाम से मुतमईन हैं और वे भी जिन्हें यह नागवार गुजरता है, उन्होंने अपने आईन की सतरों को किस तरह उलट पलटकर देखा है. संसद संविधान सभा नहीं है जो नया संविधान बनाए. वह सूट स्पेशलिस्ट नहीं है. वह जो मनीष मलहोत्रा है. संसद तो रफूगर है. पुरानी कमीज़ को इस तरह रफू करना है कि लगे वह नई है. उसका पैबंद भी किसी को दिखाई नहीं दे और कपड़ा कमज़ोर भी नहीं हो जाए. क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अचानक पैदा हुई महत्वाकांक्षा के मुताबिक कोई शब्द-कारीगर इतना कर भी पाएगा ?

शुरुआत तो वहां से हो जब संविधान तीन बरस की मशक्कत में तीन सौ निर्वाचित सदस्यों के साथ भविष्य के भारत का बीजक लिख रहा था. पुरखों ने ऐलानिया कहा देश के लिए एक संसद और सभी प्रदेशों के लिए विधानसभाएं होंगी और कहीं कहीं विधान परिषदें भी. सबसे ज़िम्मेदार वक्तव्य हुआ गांधी, नेहरू और पटेल की सहमति से चुने गए प्रारूप समिति के सभापति डा. भीमराव अम्बेडकर का. उन्होंने साफ कहा भारत में प्रतिनिधि संस्थाओं के चुनाव स्थायी प्रकृति के होंगे. यह नहीं होगा कि चुनाव हो गए और फिर उनसे छोड़ छुट्टी या खामोशी या उनसे खुट्टी.

कहा था अम्बेडकर ने इसमें कोई शक नहीं कि शुरू में हमने सोचा कि हर पांच साल में चुनाव होंगे. लेकिन जानते हैं फिर लगातार उपचुनाव होंगे. हम जानते हैं विधानसभाएं भंग होंगी और फिर अलग अलग चुनाव का इंतज़ाम करना होगा. इस वास्ते मतदाता सूचियां बार बार तरोताज़ा की जाती रहेंगी तथा और भी कई काम होंगे. एक स्थायी चुनाव आयोग की ज़रूरत हम महसूस करते हैं. जो अम्बेडकर ने कहा वैसा हुआ भी. ऐसी कद काठी के विचारक को तो प्रज्ञा पुरुष कहते हैं, भविष्यदर्शी भी. अम्बेडकर ने पूरा वैविक ज्ञान अपनी बौद्धिक सरहद के एंटायर पाॅलिटिकल साइंस की आगोश में समेट लिया था. उनके पास सच्ची डिग्रियां थीं, इतनी ज़्यादा जो संविधान सभा में किसी के पास नहीं थीं.

अम्बेडकर की तरह शिब्बनलाल सक्सेना ने जोर देकर कहा था – ‘हमारे संविधान में यह शामिल नहीं किया गया है कि हर चार वर्ष के बाद अवश्य ही चुनाव होगा जैसा कि अमेरिका में होता है. भारत में शायद किसी न किसी प्रदेश में हमेशा चुनाव होते ही रहेंगे. भारत में देशी रियासतों के शामिल होने पर लगभग तीस प्रदेश हो जायेंगे. अविश्वास प्रस्ताव पारित होने पर भी विधान-मंडल का विघटन हो जायेगा. इसलिये मुमकिन है केन्द्र तथा प्रदेशों के विधान मंडलों के चुनाव एक ही समय पर नहीं हों. हर समय कहीं न कहीं चुनाव होता रहेगा. हो सकता है कि अभी शुरुआत में अथवा पांच या दस वर्षों तक ऐसा नहीं हो लेकिन दस बारह वर्ष के बाद हर समय किसी न किसी प्रदेश में चुनाव होता रहेगा.’

पेचीदा प्रश्न आता था. तब अम्बेडकर आत्मविश्वास के साथ संवैधानिक ज्ञान की वर्जिश करते दुनिया के चुनिंदा संविधानों के उन हिस्सों की तरफ सभा की बहस ले जाते थे, जिन्हें अन्यथा सदस्यों ने या तो पढ़ा नहीं होता था या उन्हें मालूम तक नहीं होता था. अम्बेडकर नहीं चाहते थे ऐसा संविधान बन जाए जिसका लोकतांत्रिक देशों की संविधान परंपरा से कोई समानान्तर रिश्ता भी नहीं रहे. अन्यथा भविष्य में भारतीय संविधान व्याख्याओं को लेकर दुनिया से अलग थलग पड़ा रह सकता था. ऐसा बौद्धिक चमत्कार वही कर सकता था जिसने दुनिया के संविधानों को भारतीय संदर्भ में अपने सोच में जज़्ब कर लिया हो.

अम्बेडकर के इस कहे को मिटाने की कोशिश वे लोग कर रहे हैं जिन्हें संविधान का ककहरा व्यापारिक बहीखाता लगता है. अम्बेडकर ने कभी इशारा तक नहीं किया था कि ज़म्हूरियत के कारवां को कभी लौटकर फिर इब्तदा करनी होगी. वे जानते थे ज़म्हूरियत का रास्ता वर्तुलाकार या गोल नहीं होता. वह आगे बढ़ता है. भारतीय लोकतंत्र को अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा, आयरलैंड, स्विटजरलैंड और दक्षिण अफ्रीका आदि कई देशों के संविधान के साथ लोक मर्यादाओं को लेकर भी कदमताल करना होगा.

विश्व संविधानों की समझ का बहस घर एक तरह का संयुक्त राष्ट्र संघ ही तो है. उनकी नज़र, नीयत और भारत की नियति में कोई खोट नहीं थी. आज जो सत्ता में हैं, वे दूर दृष्टि से बाधित हैं. उनकी निकट दृष्टि कहती है हर प्रदेश में भी जल्द से जल्द सत्ता पर काबिज़ हो जाओ. आगे जो होगा देखा जाएगा. हालिया महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव भी होना है. उन चुनावों को हरियाणा और जम्मू कश्मीर के चुनावों के साथ जो शामिल नहीं कर सके, वे हिन्दुतान में एक साथ चुनाव कराने का दिन में ख्वाब देख रहे हैं.

समझना फिर ज़रूरी है. अम्बेडकर ने दो टूक कहा था कि अमूमन सभी विधायिकाओं का कार्यकाल पांच वर्ष के लिए ही होगा, सिवाय इसके कि कोई उपचुनाव हो जाएं या पांच वर्ष के पहले विधायिका को भंग कर दिया जाए. अम्बेडकर ने ऐसा कतई इशारा या कथन नहीं किया था कि केन्द्र सरकार चाहे तो किसी विधानसभा का कार्यकाल घटा, बढ़ा दे. चुनाव लोकतंत्र की आत्मा और मतदाता का मौलिक अधिकार है. संविधान के अनुच्छेद 324 से 329 तक चुनाव सम्बन्धी प्रावधानों का ब्यौरा है.

गवर्नमेन्ट ऑफ इंडिया एक्ट, 1935 और अन्य ब्रिटिश कानूनों के तहत चुनाव कराने का जिम्मा कार्यपालिका अर्थात सरकार पर होने से केवल मज़ाक होता था. इसलिए संविधान सभा में शुरू से आम राय उभरी कि वोट देना नागरिक का मूल अधिकार बनाएंगे. चुनाव के लिए स्वतंत्र मशीनरी की स्थापना भी करना होगा. विख्यात संविधानविद् जस्टिस वी.आर. कृष्ण अय्यर के अनुसार प्रजातंत्र का अर्थ ही चुनाव के प्रजातंत्र से है. संविधान एक अंतहीन बहस और लचीला हथियार है. उसकी संवेदना और गरिमा की घोषणाएं नागरिक संस्कारों की कहानी हैं.

संविधान सभा में अम्बेडकर ने 4 नवम्बर 1948 को अपने शानदार प्रास्ताविक भाषण में ऐलानिया कहा था कि भारत में अमेरिका और इंग्लैंड जैसे संविधान सम्मत देशों से सीखकर हम अपना आईन रच रहे हैं. यहां फेडरल लोकतंत्र होगा, जिसमें राज्यों को केन्द्र के समानांतर कई विषयों में विधान रचने में स्वायत्तता होगी. केन्द्र केवल अपवादात्मक और आकस्मिक विषयों में ही अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर सकेगा. अम्बेडकर का यह नीति वाक्य मौजूदा निज़ाम से सवाल पूछ रहा है और जवाब में छात्र-निज़ाम की सिट्टी पिट्टी गुम है.

अंधभक्त पीढ़ी भक्तिभाव में डूबकर वैधानिक सच नहीं समझ पा रही है. लोकतंत्र की बुनियाद नेता, सरकार, राष्ट्रपति और उनके द्वारा नियुक्त संवैधानिक पदाधिकारी नहीं हैं. देश में कोई सार्वभौम नहीं है. न राष्ट्रपति, न प्रधानमंत्री, न सुप्रीम कोर्ट, न राज्यपाल और न मुख्यमंत्री वगैरह. सुप्रीम कोर्ट ने बार बार कहा है देश में अगर कोई सार्वभौम है तो वे हैं हम भारत के लोग. अर्थात् जनता. यहां तक कि संविधान भी सार्वभौम नहीं है. जनता अर्थात् हम भारत के लोगों की सार्वभौमिकता के रहते सभी पार्टियों के सांसद और विधायक मिलकर भी ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ को जनता पर लाद नहीं सकते. यह ध्यान रहे. जनता द्वारा चुनने का अधिकार मूल अधिकार है लेकिन सांसद, विधायक बनने के लिए चुनाव लड़ने का अधिकार संविधान के तहत बने अधिनियम का उससे छोटा अधिकार है.

ऐसी हालत में ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की आड़ में केन्द्र सरकार जनता के अधिकारों में कटौती नहीं कर सकती. पार्टीबंदी या धड़ेबंदी के नाम पर प्रदेश की सरकारों को गिराकर वहां ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के नाम पर राष्ट्रपति शासन थोप देना जनता के अधिकारों पर सरकारी डकैती होती है. ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ करें जिससे आपकी मंशा पूरी हो जाए. लेकिन शर्त है अगर केन्द्र सरकार को ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ लागू करना है तो वह एक बार संविधान में अधिकार मांगकर जनमत संग्रह क्यों नहीं करा ले.

भारत के नागरिक संविधान बल्कि भारतीय अस्तित्व की बुनियाद हैं. पहले के प्रधानमंत्री चाहे जैसे रहे हों लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संविधान की इमारत की एक एक ईंट को खिसकाने का एक एक आयत का कचूूमर निकालने का अपना अनोखा अभियान शुरू तो कर दिया है. दिल्ली सरकार के पर कतर दिए. जम्मू कश्मीर से 370 हटाकर उसे केन्द्र शासित कर दिया. राजद्रोह हटाने का सुप्रीम कोर्ट ने वादा करके उसमें आजीवन जेल की सजा ठूंस दी. हरकतें जारी हैं.

इसमें शक नहीं कि संविधान में सब कुछ फूलप्रूफ नहीं है. हो भी नहीं सकता. मनुष्य की हर रचना में देश, काल, परिस्थिति के अनुसार पुनर्विचार और संशोधनों की गुंजाइश होती है. संविधान भी उसका अपवाद नहीं है. संसदीय प्रणाली लाकर भारत ने उस वक्त जवाहरलाल नेहरू की शख्सियत से प्रभावित होकर प्रधानमंत्री को कई अज्ञात, संभावित, अबूझी तथा अदृश्य शक्तियों से लैस कर दिया था. वे बहुुमूल्य ताकतें आज नरेन्द्र मोदी के काम आ रही हैं, बिना इस बात को समझे कि उनका इस्तेमाल संविधान की खुदी को बुलंद करने में तो किया जाना चाहिए लेकिन खुद को लोगों का खैरख्वाह बनाने में नहीं.

कैसे हो सकता है कि सारा चुनाव तंत्र एक ही टाइम शेड्यूल के तहत हो. उस पर भी राजीव कुमार के जैसे मुख्य चुनाव आयुक्त कहते हैं हमें जो भी करने कहा जाएगा, करने में समर्थ होंगे. केन्द्रीय चुनाव आयोग संवैधानिक संस्था है. उसमें मनोनयन नियमों को गलत रच दिए जाने के कारण प्रधानमंत्री की मर्जी से हो रहा है. बन जाने पर केन्द्रीय चुनाव आयोग पिंजरे का तोता नहीं रहता. सत्ता के पालने में झुलाया जाने वाला छौना भी नहीं. वह स्वायत्त निगरानी इकाई है. राज्यों में दल बदल के कारण, भ्रष्टाचार के कारण, परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण विधायिका में असरकारी बदलाव होता है, तो उसे हर राज्य में एक ही डंडे से नहीं हंकाला जा सकता.

सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने फैसला किया कि चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के लिए तीन सदस्यीय गठित कमेटी में भारत के चीफ जस्टिस भी होंगे. मोदी सरकार ने उसकी उपेक्षा करते नया विधायन कर दिया. अब प्रधानमंत्री और उनका एक मातहत मंत्री और विपक्ष के नेता होंगे अर्थात सरकार और प्रधानमंत्री का बहुमत होगा. उस पर भी अमनपसन्द सुप्रीम कोर्ट का अब तक कोई फैसला नहीं आ रहा. ऐसे में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर कोई भरोसा क्यों करे ? चुनाव आयोग मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार सहित प्रधानमंत्री की मातहती में उनका प्रचारात्मक एजेंट बनकर दिख रहा है. प्रधानमंत्री की ज़्यादातर चुप्पी किसी रहस्य महल या भुतहा महल की कहानियों जैसी अवाम विरोधी होती है.

चुनाव आयोग और सरकार को समझ नहीं आ रहा कि संविधान की केन्द्रीय धुरी राष्ट्रपति, सरकार, प्रधानमंत्री, संसद, विधानसभाएं और सुप्रीम कोर्ट नहीं हैं. जिस धुरी पर पूरा संविधान टिका हुआ है बल्कि पूरा भारत, वही तो गांधी के सपनों के भारत में समाज का सबसे अदना व्यक्ति है. उसकी मर्यादा का अतिक्रमण हुआ तो संविधान और सरकार का महल चरमरा कर गिर जाएगा. दल बदल करना सांसदों और विधायकों का मौलिक अधिकार नहीं है. उनके राजनीतिक भ्रष्टाचार की बदबू है.

दलबदलू नेताओं को पूर्ववत संवैधानिक अधिकार नहीं मिलने चाहिए क्योंकि उन्होंने मतदाताओं के साथ विश्वासघात किया है. ऐसा करने उन्हें एक राजनीतिक पार्टी और उसको सरगना उकसाते हैं. राजनीतिक पार्टी संवैधानिक इकाई नहीं होती. वह लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत राजनीतिक इकाई है. कई बार चुनाव में हारा लेकिन उस पार्टी का अध्यक्ष बना व्यक्ति दल बदल कराता है. संविधान की दसवीं अनुसूची में राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में विस्तार से दलबदल को रोकने के प्रावधान किए गए.

भारत में संसदीय लोकतंत्र है लेकिन संविधान के मुखिया और संरक्षक राष्ट्रपति और राज्यपाल होते हैं. अनुच्छेद 53 कहता है संघ की कार्यपालिका शक्ति राष्ट्रपति में निहित होगी और वह इसका प्रयोग संविधान के अनुसार स्वयं या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के द्वारा करेगा. अधीनस्थ अधिकारियों में मंत्रिपरिषद मुख्य है. सरकारी कार्य के संचालन को लेकर अनुच्छेद 77 कहता है ‘भारत सरकार की समस्त कार्यपालिका कार्यवाही राष्ट्रपति के नाम से की हुई कही जाएगी.’

दिलचस्प है कि मोदी के कारण एक संविधान समीक्षा कमेटी बनी. उसने सुझाया कि क्या किया जा सकता है. कमेटी के संयोजक या अध्यक्ष भारत के रिटायर्ड राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद हैं. राष्ट्रपति रहे व्यक्ति से प्रधानमंत्री की मर्जी के अनुसार राजनीतिक नस्ल के काम को करने का जिम्मेदार बना देना सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का अजूबा असंवैधानिक आचरण है. रिटायर होने के बाद राष्ट्रपति के पद की मर्यादा को बचाकर रखा जाता है.

केन्द्र सरकार के स्वयंभू संकट मोचक मंत्री अमित शाह ने तीन विधेयक पेश करने की बात कही है. संविधान के अनुच्छेद 82 और 83 तथा 327 आदि में कुछ संशोधन किए जाएंगे, फिर एक ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ का दिवास्वप्न पूरा हो सकेगा. उस कमेटी में गुलाम नबी आज़ाद, एन के सिंह, डा. सुभाष कश्यप, हरीश साल्वे, संजय कोठारी, मंत्री अर्जुन राम मेघवाल नामजद किए गए. तकरीबन सब भाजपा और मोदी के समर्थक हैं. यह कैसी कमेटी है ?

अगर लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद की परिस्थितियों के अनुकूल सांसदों की संख्या के अनुपात में कमेटी का पुनगर्ठन किया जा सकता तो इस कमेटी की विश्वसनीयता हो सकती थी. 4 जून की लोकसभा में भयानक पस्तहिम्मती के बाद केन्द्र सरकार विपक्ष की उपेक्षा कैसे कर सकती है ? वह अगले सत्र में प्रस्तावित विधेयकों को मौजूदा संसद में किस बिना पर पास कराने की कोशिश करेगी ?

सरकार का कहना है उसने प्रस्तावित विधेयक को लेकर व्यापक चर्चाएं की हैं. उनमें चार पूर्व मुख्य न्यायाधीश, तीन हाई कोर्ट के पूर्व चीफ जस्टिस और एक पूर्व केन्द्रीय सूचना आयोग शामिल हैं. उन्होंने अपनी अलग अलग रिपोर्ट में क्या कहा है, उसे पब्लिक डोमेन में जारी नहीं किया गया है. जनता कैसे कह पाएगी ‘हम ‘खत का मजमूं भांप लेते हैं लिफाफा देखकर.’ यही सरकार है जो हर मामले में सुप्रीम कोर्ट में बंद लिफाफे में अपनी बात कहती है कि विरोधी पक्ष को नहीं बताइए कि वे आपस में न्याय कर लेते हैं लेकिन सुप्रीम कोर्ट नहीं मानता. राफेल डील के मामले में सरकार की बात तब सुप्रीम कोर्ट ने मान भी ली थी. जब तक जनता को नहीं मालूम होगा कि तथाकथित विशेषज्ञों ने कब, कितना और क्या कहा, तब तक ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ के नाम पर जनता पर संविधान संशोधन का शोशा थोपा कैसे जा सकता है ? थोपा तो जा रहा है.

एक खतरनाक प्रयोजन और है. यदि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ लागू हो जाए. किसी राज्य में अविश्वास प्रस्ताव या राज्यपाल की रिपोर्ट के कारण सरकार गिर गई, तो वहां अगला चुनाव पांच साल के लिए बचे हुए कार्यकाल के लिए ही कराया जा सकता है. कैसी नादिरशाही है ? कैसा तुगलकी फरमान है ? किसी राज्य में दो साल के बाद सरकार गिर गई तो अगला चुनाव फकत तीन साल के लिए होगा. सजा तो जनता को मिली. मतदाता द्वारा निर्वाचन के अबाधित अधिकार खंडित कर दिए गए और मतदाता से पूछा तक नहीं गया. जैसे महाराष्ट्र और कर्नाटक में किया, मध्यप्रदेश में किया. तो जनता क्या चुप रहे ? चुप रहने पर मजबूर की जाए ?

वोट देना मतदाता का संवैधानिक अधिकार है. राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों का चुनाव लड़ना संवैधानिक अधिकार नहीं है. दलबदल करना राजनीतिक भ्रष्टाचार है, तो भी भ्रष्टाचारी को इनाम मिलेगा. दल बदल कराने वाला मालामाल होगा और जनता बिना किसी प्रतिभागिता के सजायाफ्ता होगी. यह कैसा ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ है ?

झूठी रिपोर्टों का तो यह आलम है कि सरकार चाहे तो पुलिसिया अधिकारी, ईडी, सीबीआई, इन्कम टैक्स और एनआईए वगैरह किसी के भी खिलाफ कभी भी कितनी भी झूठी रिपोर्टें बना सकते हैं. मोदी प्रशासन में ये लोग अब नौसिखिए नहीं हैं. झूठी रिपोर्टों का अभ्यास करते करते सयाने हो गए हैं. कुटिलता केवल सुप्रीम कोर्ट पकड़ पाता है और वह भी कभी कभी. यह पूरा तंत्र प्रधानमंत्री की मुट्ठी में है. कुछ और संस्थाएं हैं जिनमें लोकपाल भी हैं. कंट्रोलर और एकाउंटेंट जनरल भी है. पब्लिक सर्विस कमीशन भी है. प्रधानमंत्री का पद तो ऑक्टोपस है. उसकी आठ भुजाएं हैं, जिसको चाहे उसकी मुश्कें बांध सकती हैं. अब ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ की भुजा फड़फड़ा रही है, जिससे नरेन्द्र मोदी को उनके जीवनकाल में हटाने का कोई ख्वाब तक नहीं देख सके. वे नाॅन बायोलॅाजिकल प्राइम मिनिस्टर जो हैं.

एक सुल्तान संविधान की सुरंगों में भटक रहा है. राज्यों के लिए अपने यसमैन गवर्नर नियुक्त करता है. गर्वनर तो दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी से भी बुरी हालत के एवजी कर्मचारी की तरह अनिश्चित होते हैं. केरल, कर्नाटक, पश्चिम बंगाल, जम्मू कश्मीर, दिल्ली और न जाने कितने प्रदेशों में गवर्नरों की धींगामस्ती चल रही है. गवर्नर से कनफुसिया में कहो हमने तुम्हें अपनी मर्जी से अनुच्छेद 155 में नियुक्त किया है. अनुच्छेद 356 का सरकार समर्थक पारायण करो और राज्य सरकार के खिलाफ रिपोर्ट भेजो कि उसे बर्खास्त किया जाए. उसे अपनी नौकरी बचाए रखने के लिए सत्ता सुलभ रिपोर्ट देनी ही है.

कहां है संविधान में प्रावधान कि यदि तेलंगाना, हिमाचल, पश्चिम बंगाल या केरल की सरकारों के खिलाफ उन्हें भंग करने के लिए राज्यपाल जी हुजूरी की नस्ल का प्रतिवदेन दे तो राज्य सरकार समर्थक जनता और मतदाता को कैसे मालूम पडे़गा कि अंदर लिफाफे में क्या भेजा जा रहा है. वहां की लोकप्रिय निर्वाचित सरकार को हटाए जाने से मतदाताओं के अधिकारों को ही जिबह कर दिया जा सकता है.

कभी नहीं सोचा था पुरखों ने कि ऐसे राज्यपाल भी आएंगे जो क्रिकेट मैच में बेईमान अंपायरों की तरह नो बाॅल पर पर विकेट गिरने से आउट करने वाली उंगली उठा देंगे. राज्यपाल के पद पर नियुक्ति को लेकर संविधान सभा में इसीलिए बहुत चखचख हुई थी. नेहरू ने तो लंबी लंबी दार्शनिक बातें कही थीं कि समाज के चुनिन्दा लोगों को ही राज्यपाल बनाया जाना चाहिए. मोदी सरकार ने घिसे पिटे दागी अफसरों, जजों और सियासतदां लोगों को लगातार गवर्नर बनाते रहने की मुहिम जारी रखी है. उससे तो संविधान ही जार जार रो रहा है.

दलबदलू का नया अर्थ है राजनीतिक दामाद. महाराष्ट्र की सरकार में दलबदल के जरिए सेंध मारनी है तो भ्रष्टाचार के धन से सत्ताधारी दल उसे वहां की सरकार के संरक्षण में असम की होटलों में उनकी मिजाजपुर्सी के इंतज़ाम करता है. वे असम में बैठकर महाराष्ट्र की सरकार गिराने के साजिशी जतन करते हैं. जनता को अधिकार नहीं है कि ऐसे नामाकूल लोगों को वापस बुलाने ‘राइट टू रिकाॅल’ के अधिकार का इस्तेमाल करे. दलबदल तो मतदाता के साथ धोखा है जिसने विश्वास करके चुनाव में वोट दिया है.

कोई विधायक या सांसद या पराजित उम्मीदवार मतदाताओें की सहमति के बिना बल्कि अपने पद से त्यागपत्र देकर कैसे दलबदल कर सकता है ? यह काम तो मोदी, उनकी पार्टी और उनके नेता अमित शाह इंतिजामुद्दीन बनकर थोकबंद कर रहे हैं. उस पर तुर्रा यह कि लस्टमपस्टम न्यायिक प्रक्रिया कछुए की गति से चलते बता रही हैं कि अंतिम विजय तुम्हारी होगी लेकिन एक चुनाव और हो जाने के बाद जब तुम्हारे हाथ में हाथ मलने के अलावा कुछ नहीं बचेगा, तब और कुछ मत कहना. इसको भी लोकतंत्र कहा जा रहा है.

अटल बिहारी बाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तब संविधान समीक्षा के नाम पर एक आयोग गठित किया गया था. लोगों में हंगामा मचा. फिर उन्होंने कहा यह समीक्षा आयोग नहीं होगा. संविधान के रिव्यू की कमेटी होगी. सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड चीफ जस्टिस एम. एन. वेंकटचलैया की अध्यक्षता में 11 सदस्यीय कमेटी बनाई गई. उसने 2002 में सरकार को सिफारिशों सहित अपनी रिपोर्ट पेश कर दी.

सिफारिशों के सार संक्षेप के अध्याय 4 में चुनाव प्रक्रियाओं को लेकर 64 सुझाव हैं. उनमें कहीं भी किसी विधानसभा को भंग कर ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ जैसा शगल छेड़ने का सुझाव नहीं है. अलबत्ता इलेक्ट्राॅनिक वोटिंग मशीन याने ईवीएम का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल करने की सिफारिश की गई है जिसका खमियाजा देश भुगत रहा है. उसमें यह सिफारिश भी है कि यदि कोई विधायक या सांसद दलबदल करता है तो उसे संसद या विधानसभा की सीट से तत्काल इस्तीफा देना पडे़ेगा अन्यथा उसकी सदस्यता छीन ली जाएगी. इस पर मोदी जी कैसे अमल करेंगे जो दलबदल के एकमेवो द्वितीयो नास्ति के राष्ट्रीय संरक्षक हैं ? नरेन्द्र मोदी संविधान पुनरीक्षण समिति की 64 सिफारिशों के बारे में श्वेत पत्र जारी करने की हिम्मत या नीयत रखते हैं ?

केन्द्र के निजाम का किसी भी बुनियादी समस्या से गंभीर और संवेदनशील होना दिखाई नहीं पड़ता. उसके बरक्स वह शिगूफे छेड़ने, देश में तनाव का माहौल बुनने और बेमतलब की घटनाओं को गोदी मीडिया के जरिए तूल देने में एकनिष्ठ होकर पिला पड़ता है. भारत आर्थिक पैमाने पर खस्ता हालत में पहुंचता जा रहा है. 140 करोड़ से ज़्यादा लोगों के मुल्क में 80 करोड़ लोग सरकार द्वारा हर माह पांच किलो राशन दिए जाने से जिंदा रहने भर को अपनी इंसानी शख्सियत और संवैधानिक हैसियत मानते हैं. भुखमरी, गरीबी, बेकारी, बेरोजगारी, हेट स्पीच, हिंसा, शिक्षा और स्वास्थ्य का अभाव, गौतम अडानी, पेगासस, मणिपुर, चीनी घुसपैठ और न जाने कितने मुद्दे हैं जिनसे जूझना और हल निकालना किसी भी कल्याणकारी राज्य और सरकार का बुनियादी दायित्व है, वह सब सिफर है.

असल में इसके पीछे एक पेंच है. कभी लोकसभा चुनाव में भाजपा और बाकी दलों को बहुमत मिले तो यह मांग फिर उठ सकती है कि संविधान को बर्खास्त कर अमेरिकी पद्धति की तरह राष्ट्रपति शासन प्रणाली का चुनाव किया जाए. उसके एक उम्मीदवार तो नरेन्द्र मोदी घोषित ही हैं. भारत के प्रधानमंत्री को लोकतंत्र के बावजूद शायद अमेरिका के राष्ट्रपति से ज़्यादा अधिकार हैं. उसके कहे बिना किसी संवैधानिक पद पर राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, केन्द्रीय निर्वाचन आयोग, केन्द्रीय सूचना आयोग वगैरह कहीं नियुक्त नहीं हो सकती. किसी भी मंत्री को हटा देता है. संसद के नए भवन के उद्घाटन में राष्ट्रपति को नहीं बुलाता. केन्द्र के इशारे पर उन राज्यों को धन का आवंटन कम या देर से होता है, जहां उसकी पार्टी की सरकारें नहीं हैं.

प्रधानमंत्री मोदी फितूर के सियासी खिलाड़ी हैं. असंभावनाओं और उन्माद के बीच की विभाजक रेखा मिटा देते हैं. संविधान की अनुसूची में 28 राज्य हैं. इनके चुनाव राजनीतिक हालातों के चलते अलग अलग समय पर होते हैं. सभी का कार्यकाल 5 वर्षों का ही तय है. राजनीति चिड़ियाघर या संग्रहालय नहीं है. वहां मनुष्यों अर्थात् विधायिका के प्रतिनिधियों के करतब से कभी कभार पांच साल से पहले भी मध्यावधि और आकस्मिक चुनाव होते जाते हैं.

लोकसभा का भी कार्यकाल नियत 5 वर्ष से कभी ज़्यादा तो कभी कम राजनीति के खिलाड़ियों द्वारा किया जाता रहा है. इसमें तमाम पेचीदगियां, लोकतांत्रिक मुद्दे, आर्थिक कठिनाइयां और न्यायिक दखल की संभावनाएं रहेंगी. अपनी पार्टी और NDA नाम के जमावडे़ की राजनीतिक उम्मीदों का चेहरा चमकाने की मुहिम में खब्तख्याली, कठिन और कारगर नहीं दीखने वाली संभावनाओं में भी लोगों के सोच को उलझाया जा रहा है.

केन्द्र सरकार या प्रधानमंत्री की किसी मंशा को मंजूर नहीं करना संविधान का उल्लंघन नहीं है. तो प्रदेश की सरकारों का कार्यकाल खत्म कैसे हो सकता है ? खुद को ताकतवर समझते प्रधानमंत्री की निरंकुश हुकूमत संविधान को चुनौती दे रही है. प्रधानमंत्री को हर बार लगता होगा संविधान उनके राजपथ पर पड़ा हुआ एक रोड़ा ही तो है, वह जबरिया उन्हें जनपथ पर चलने की नसीहत क्यों देता रहता है. यह रोड़ा हटा देना उनका अधिकार है, फिर सपाट चिकनी सड़क का नाम होगा ‘एक नेशन, एक इलेक्शन.’

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