Home गेस्ट ब्लॉग मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिन के अवसर पर : प्रेमचंद और ईश्वर

मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिन के अवसर पर : प्रेमचंद और ईश्वर

12 second read
0
0
322
मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिन के अवसर पर : प्रेमचंद और ईश्वर
मुंशी प्रेमचंद के जन्मदिन के अवसर पर : प्रेमचंद और ईश्वर
जगदीश्वर चतुर्वेदी

हमारे कई फेसबुक मित्रों ने कहा है कि प्रेमचंद तो ईश्वर को मानते थे. हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं कि वे ईश्वर या ऐसे किसी तत्व की उपस्थिति मानने को तैयार नहीं थे जिसे देखा न हो. यह भी सवाल उठा है प्रेमचंद ने इस्लाम धर्म की आलोचना कहां की है ॽ हम इन दोनों सवालों के जवाब खोजने की कोशिश करेंगे. हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव का विस्तार से जिक्र करने के बाद प्रेमचंद ने ‘मनुष्यता का अकाल’ (जमाना, फरवरी 1924) निबंध में लिखा, ‘इतिहास में उत्तराधिकार में मिली हुई अदावतें मुश्किल से मरती हैं, लेकिन मरती हैं, अमर नहीं होतीं.’

उपरोक्त निष्कर्ष निकालने के पहले प्रेमचंद ने ‘मनुष्यता का अकाल’ में ही लिखा, ‘हमको यह मानने में संकोच नहीं है कि इन दोनों सम्प्रदायों में कशमकश और सन्देह की जड़ें इतिहास में हैं. मुसलमान विजेता थे, हिन्दू विजित. मुसलमानों की तरफ से हिन्दुओं पर अकसर ज्यादतियां हुईं और यद्यपि हिन्दुओं ने मौका हाथ आ जाने पर उनका जवाब देने में कोई कसर नहीं रखी, लेकिन कुल मिलाकर यह कहना ही होगा कि मुसलमान बादशाहों ने सख्त से सख्त जुल्म किये. हम यह भी मानते हैं कि मौजूदा हालात में अज़ान और कुर्बानी के मौक़ों पर मुसलमानों की तरफ से ज्यादतियां होती हैं और दंगों में भी अक्सर मुसलमानों ही का पलड़ा भारी रहता है. ज्यादातर मुसलमान अब भी ‘मेरे दादा सुल्तान थे’ नारे लगाता है और हिन्दुओं पर हावी रहने की कोशिश करता रहता है.’

इसी निबंध में पहली बार धार्मिक प्रतिस्पर्धा को निशाना बनाते हुए उन्होंने तीखी आलोचना लिखी. उस तरह की आलोचना सिर्फ ऐसा ही लेखक लिख सकता है जिसकी ईश्वर की सत्ता में आस्था न हो. उन्होंने लिखा, ‘दुनियावी मामलों में दबने से आबरू में बट्टा लगता है, दीन-धर्म के मामले में दबने से नहीं.’

आगे लिखा, ‘यह किसी मज़हब के लिए शान की बात नहीं है कि वह दूसरों की धार्मिक भावना को ठेस पहुंचाये. गौकशी के मामले में हिन्दुओं ने शुरू से अब तक एक अन्यायपूर्ण ढंग अख़्तियार किया है. हमको अधिकार है कि जिस जानवर को चाहें पवित्र समझें लेकिन यह उम्मीद रखना कि दूसरे धर्म को माननेवाले भी उसे वैसा ही पवित्र समझें, ख़ामख़ाह दूसरों से सर टकराना है. गाय सारी दुनिया में खायी जाती है, इसके लिए क्या आप सारी दुनिया को गर्दन मार देने क़ाबिल समझेंगे ॽ यह किसी खूं-खार मज़हब के लिए भी शान की बात नहीं हो सकती कि वह सारी दुनिया से दुश्मनी करना सिखाये.’

आगे लिखा, ‘हिन्दुओं को अभी यह जानना बाक़ी है कि इन्सान किसी हैवान से कहीं ज्यादा पवित्र प्राणी है, चाहे वह गोपाल की गाय हो या ईसा का गधा, तो उन्होंने अभी सभ्यता की वर्णमाला भी नहीं समझी. हिन्दुस्तान जैसे कृषि-प्रधान देश के लिए गाय का होना एक वरदान है, मगर आर्थिक दृष्टि के अलावा उसका और कोई महत्व नहीं है लेकिन गोरक्षा का सारे हो-हल्ले के बावजूद हिन्दुओं ने गोरक्षा का ऐसा सामूहिक प्रयत्न नहीं किया जिससे उनके दावे का व्यावहारिक प्रमाण मिल सकता. गौरक्षिणी सभाएं कायम करके धार्मिक झगड़े पैदा करना गो रक्षा नहीं है.’

प्रेमचंद का मानना है – ‘वर्तमान समय में धर्म विश्वासों के संस्कार का साधन नहीं, राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि का साधन बना लिया गया है. उसकी हैसियत पागलपन की-सी हो गयी है जिसका वसूल है कि सब कुछ अपने लिए और दूसरों के लिए कुछ नहीं. जिस दिन यह आपस की होड़ और दूसरे से आगे बढ़ जाने का ख़याल धर्म से दूर हो जायेगा, उस दिन धर्म-परिवर्तन पर किसी के कान नहीं खड़े होंगे.’

प्रेमचंद ने हिन्दू और मुसलमानों को धर्म के नाम पर भड़काने वालों और धर्म के नाम पर राजनीति करने वालों की तीखी आलोचना की है. ‘मिर्जापुर कांफ्रेस में एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव’ (अप्रैल1931) में लिखा – ‘जब तक अपना हिन्दू या मुसलमान होना न भूल जायेंगे, जब तक हम अन्य धर्मावलम्बियों के साथ उतना ही प्रेम न करेंगे जितना निज धर्मवालों के साथ करते हैं, सारांश यह कि जब तक हम पंथजनित संकीर्णता से मुक्त न हो जायेंगे, इस बेड़ी को तोड़कर फेंक न देंगे, देश का उद्धार होना असंभव है.’

इसमें ही वे आगे कहते हैं – ‘धर्म को राजनीति से गड़बड़ न कीजिए’. एक अन्य निबंध ‘गोलमेज़ परिषद में गोलमाल’ (अक्टूबर 1931) में लिखा – ‘भारत का उद्धार अब इसी में है कि हम राष्ट्र-धर्म के उपासक बनें, विशेष अधिकारों के लिए न लड़कर, समान अधिकारों के लिए लड़ें. हिन्दू या मुसलमान, अछूत या ईसाई बनकर नहीं, भारतीय बनकर संयुक्त उन्नति की ओर अग्रसर हों, अन्यथा हिन्दू मुसलमान, अछूत और सिक्ख सब रसातल को चले जायेंगे.’ यह भी लिखा – ‘धर्म का सम्बन्ध मनुष्य से और ईश्वर से है. उसके बीच में देश, जाति और राष्ट्र किसी को भी दखल देने का अधिकार नहीं. हम इस विषय में स्वाधीन हैं.’

शिवरानी देवी से बातचीत करते हुए प्रेमचंद ने ईश्वर के बारे में कहा – ‘ईश्वर पर विश्वास नहीं होता कि अगर वह सचमुच ईश्वर है तो क्या दुखियों को दु:ख देने में ही उसे मजा आता है ॽ फिर भी लोग उसे दयालु कहते हैं ? वह सबका पिता है. फला-फूला बाग उजाड़कर वह देखता है और खुश होता है. दया तो उसे आती नहीं. लोगों को रोते देखकर शायद से खुशी ही होती है. जो अपने आश्रितों के दु:ख पर दु:खी न हो.वह कैसा ईश्वर है ?’

आगे वकौल शिवरानी देवी, प्रेमचन्द पूछते हैं – ‘तब कैसे ईश्वर हमसे अन्याय कराता है ! जो अच्छा समझे वही हमसे कराये, हम जिससे दु:खी न हो सकें. कुछ नहीं. यह सब धोखे में डालने वाली भावनायें हैं, बस अपने को धोखे में डालने के लिए यह सब प्रपंच रचे गए हैं. और नहीं तो हम प्रत्यक्षतः कोई बुरा काम नहीं करते तो लोग कहते हैं – अगले जन्म में बुरा काम किया होगा,उ सी का फल है, और मैं कहता हूं, यह सब गोरखधंधा है.’

प्रेमचंद मानते थे – ‘भगवान मन का भूत है, जो इन्सान को कमजोर कर देता है. ईश्वर का आधार अन्धविश्वास है और इस अंधविश्वास में पड़ने से तो रही सही अक्ल भी मारी जाती है.’ प्रेमचंद का जैनेन्द्र के साथ लगातार पत्र-व्यवहार होता था, दोनों गहरे मित्र थे. प्रेमचन्द ने 9 दिसम्बर 1935 को जैनेन्द्र कुमार को लिखा, ‘ईश्वर पर विश्वास नहीं आता, कैसे श्रद्धा होती. तुम आस्तिकता की ओर जा रहे हो, जा ही नहीं रहे हो बल्कि भगत बन गये हो. मैं संदेह से पक्का नास्तिक होता जा रहा हूं.’

और एक दिन जैनेन्द्र कुमार को दो-टूक उत्तर दे दिया, ‘जब तक संसार में यह व्यवस्था है, मुझे ईश्वर पर विश्वास नहीं आने का. अगर मेरे झूठ बोलने से किसी की जान बचती है तो मुझे कोई संकोच नहीं होगा. मैं प्रत्येक कार्य को उसके मूल कारण से परखता हूं. जिससे दूसरों का भला न हो, जिससे दूसरों का नुकसान हो वही झूठ है.’

मृत्यु से कुछ दिन पहले रोग-शैय्या पर पड़े हुए प्रेमचंद ने जैनेन्द्र कुमार से कहा – ‘जैनेन्द्र, लोग इस समय ईश्वर को याद किया करते हैं. मुझे भी याद दिलाई जाती है. पर अभी तक मुझे ईश्वर को कष्ट देने की जरूरत नहीं मालूम हुई.’ ‘जैनेन्द्र ! मैं कह चुका हूं, मैं परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता. मैं उतना उत्साह नहीं कर सकता. कैसे करूं, जब देखता हूं बच्चा बिलख रहा है, रोगी तड़प रहा है. यहां भूख है, क्लेश है, ताप है, वह ताप इस दुनिया में कम नहीं है. तब उस दुनिया में मुझे ईश्वर का साम्राज्य नहीं दीखे तो मेरा क्या कसूर है ? मुश्किल तो है कि ईश्वर को मानकर उसको दयालु भी मानना होगा. मुझे वह दयालुता नहीं दीखती, तब उस दया सागर में विश्वास कैसे हो ?’

ईश्वरतंत्र पर प्रहार करते हुए प्रेमचंद ने लिखा, ‘ईश्वर के नाम पर उनके उपासकों ने भू-मण्डल पर जो अनर्थ किये हैं, और कर रहे हैं, उनके देखते इस विद्रोह को बहुत पहले उठ खड़ा होना चाहिए था. आदमियों के रहने के लिये शहरों में स्थान नहीं है, मगर ईश्वर और उनके मित्रों और कर्मचारियों के लिए बड़े-बड़े मंदिर चाहिए. आदमी भूखों मर रहे है मगर ईश्वर अच्छे से अच्छा खायेगा, अच्छे से अच्छा पहनेगा और खूब विहार करेगा.’

‘कर्मभूमि’ में गजनवी के मुंह से प्रेमचंद कहलवाते हैं – ‘मज़हब का दौर खत्म हो रहा है बल्कि यों कहो कि खत्म हो गया है, सिर्फ हिन्दुस्तान में इसकी कुछ जान बाकी है. यह मुआशयात का दौर है. अब कौम में दार ब नदार, मालिक और मजदूर अपनी-अपनी जमातें बनायेंगे.’

शिवरानी देवी से बातचीत के दौरान प्रेमचंद ने नास्तिकता के सम्बन्ध में साफ कहा – ‘नास्तिकता का तब तक प्रचार संभव नहीं जब तक जनता सचेत नहीं हो जाती’. उन्होंने लिखा – ‘और फिर जो जनता सदियों से भगवान पर विश्वास किये चली आ रही है, वह यकायक अपने विचार बदल सकती है ? अगर एकाएक जनता को कोई भगवान से अलग करना चाहे तो संभव नहीं है.’

आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने ‘इस्लाम का विष वृक्ष’ किताब लिखी. इस किताब पर प्रेमचंद ने विरोध करते हुए जैनेन्द्र कुमार को लिखा – ‘और इनको क्या हो गया है कि ‘इस्लाम का विष-वृक्ष’ ही लिख डाला. इसकी एक आलोचना तुम लिखो, वह पुस्तक मेरे पास भेजो. इस कम्युनल प्रोपेगेण्डा का जोरों से मुकाबला करना होगा.’

प्रेमचन्द का किसी भी परम्परागत धर्म में विश्वास नहीं था. इस सम्बन्ध में उर्दू के प्रसिद्ध विद्वान मुहम्मद आकिल साहब ने लिखा है ‘प्रेमचन्दजी ने मुझसे कहा कि मुझे रस्मी मज़हब पर कोई एतबार (विश्वास) नहीं है, पूजा-पाठ और मन्दिरों में जाने का मुझे शौक नहीं. शुरू से मेरी तबियत का यही रंग है. बाज़ लोगों की तबियत मज़हबी होती है. बाज़ लोगों की ला मज़हबी. मैं मज़हबी तबियत रखने वालों को बुरा नहीं कहता, लेकिन मेरी तबियत रस्मी मजहब की पाबन्दी को बिल्कुल गवारा नहीं करती.’

शिवरानी देवी से मज़हबी सवाल के जवाब में प्रेमचंद ने कहा – ‘अवश्य मेरे लिए कोई मज़हब नहीं है. मेरा कोई खास मज़हब नहीं है.’ इसका कारण क्या है ? इसका कारण है – ‘धर्म से ज्यादा द्वेष पैदा करने वाली वस्तु संसार में नहीं है.’, ‘आज दौलत जिस तरह आदमियों का खून बहा रही है, उसी तरह उससे ज्यादा बेदर्दी धर्म ने आदमियों का खून बहाकर की. दौलत कम से कम इतनी निर्दयी नहीं होती, इतनी कठोर नहीं होती, दौलत वही कर रही है जिसकी उससे आशा थी, लेकिन धर्म तो प्रेम का संदेश लेकर आता है और काटता है आदमियों के गले. वह मनुष्य के बीच ऐसी दीवार खड़ी कर देता है, जिसे पार नहीं किया जा सकता.’

शिवरानी जी ने प्रेमचंद से सवाल किया – ‘आप मुसलमानों की ओर हैं या हिन्दुओं की ओर ?’ जवाब दिया – ‘मैं एक इन्सान हूं और जो इन्सानियत रखता हो, इन्सान का काम करता हो, मैं वही हूं और मैं उन्हीं लोगों को चाहता हूं. मेरे दोस्त अगर हिन्दू हैं तो मेरे कम दोस्त मुसलमान भी नहीं हैं और इन दोनों में मेरे नजदीक कोई खास फ़र्क नहीं है. मेरे लिए दोनों बराबर हैं.’

Read Also –

31 जुलाई : महान कथाकार प्रेमचंद के जन्मदिन पर हमलावर होते अतियथार्थ के प्रदूषण
प्रेमचंद के किसान और कुलक का चरित्र : एक अध्ययन
‘इस्लामी सभ्यता’ पर मुंशी प्रेमचंद
लेव तोलस्तोय : रूसी क्रांति के दर्पण के रूप में – व्ला. इ. लेनिन
प्रेमचंद की पुण्यतिथि पर : प्रेमचन्द, एक प्रेरणादायी व्यक्तित्व

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…