एक सभा हुई
उसमें आंदोलन के नेता बुलाये गये
पहले वे आ नहीं रहे थे
फिर आ गये क्योंकि मैं भी सभा के
पक्ष में था
सभा अन्त होने लगी तब बाजा बज उठा,
उसके बन्द होते ही मंच पर अंधेरा हुआ
और मंच पर बैठे लोगों के पीछे आकृतियां खड़ी हो गयीं
रोशनी पीछे थी आकृतियां काली थीं
उन्होंने नेताओं पर बन्दूकें तान दीं
नेता पीछे से घिर गये और आगे वे उठकर जाना चाहते थे
तो आगे जनता की भीड़ थी जिसके बारे में आयोजक मानते थे
कि वह नेताओं को घेरकर उनसे जवाब मांगेगी
और उन्हें भागने नहीं देगी
जैसे ही पिस्तौलें तनती हैं नेता असलियत समझ खड़े हो जाते हैं
जनता भी खड़ी हो जाती है मानो उन्हें भागने से रोकेगी
उसमें कई तरह के चेहरे हैं : मैं भी हूं
विजय चौधरी से मैं कहता हूं-तुम यह लो नेताओं पर तान दो
वह (मेरे हाथ में एक बन्दूक है) बैठा रह जाता है
मैं ही तुरन्त यह सोचकर कि मैं जो कर रहा हूं इस वक़्त
वही सही है
रघुपति पर बन्दूक तान देता हूं
रघुपति पूछते हैं : आप किस तरफ़ हैं
मैं बहुत अर्थ भरे स्वर में कहता हूं आप ही की तरफ़
अर्थात मैं जो कर रहा हं देश के हित में
और आपके हित में कर रहा हूं
आप हमें स्वाकारें
रघुपति विस्मय में पड़कर मुझे एक क्षण देखते हैं
फिर अपनी निर्मल आंखें झुका सोच में डूब जाते हैं
न जाने कौन आदेश देता है कि बाहर चलें और नेताओं को
वहां ले जाकर
उनसे बात करेंगे (या उनको सज़ा देंगे ?)
लाइन बनाकर लोग बढ़ते हैं
कई नौजवान नेता जब बाहर (पण्डाल या कमरा?) पहुंचते हैं
तो उनके पीछे
बन्दूकधारी होते हैं न आगे जनता
वे लगभग आजाद हो जाते हैं
मैं सोचता हूं कि ये भाग जायेंगे
तभी देखता हूँ कि भीड़भाड़ हो गयी और जो योजना थी कि
हममें से कोई नेताओं को बतायेगा कि उनकी ग़लतियां क्या थीं
और कहेगा कि जनता नेताओं से जवाबतलब करे,
वह बिगड़ रही है
एक दरवाज़े से हरयाणा में दिखा कि लोग
निकलते दिखायी देते हैं
उन्हे योजना में दिलचस्पी नहीं है
उनसे कोई चिल्लाकर कहता है रुकिए
वे रुक नहीं रहे हैं
एक जुलूस रामलीला से निकला (बड़ी भारी पालकी)
किसी ने कहा : उसे रोककर उनको सब बातें समझा दो
तो ये जीवन में सुधार करेंगे
वह भी शोरगुल में होने से रह गया
मैं देखता हूं कि मैंने क्या कर डाला
बन्दूक मेरे हाथ में अब नहीं है
पर जब ज़रा देर को थी तब की तसवीर दीख जाती है
और मैं ग्लानि से भर जाता हूं
क्या जवाब दूंगा कि मैं तुम्हारी तरफ़ हूं
मैंने बहुत सोचकर के कहा था (मेरा मतलब यह था कि मुझे भी
आलोचना की ज़रूरत है) पर यह मैंने क्या कर डाला
यह भी दिखा था कि जनता संगठित होकर
आलोचना नहीं कर पा रही है
और बन्दूक हाथ से चली गयी है
मैं नहीं जानता कि रघुपति का क्या हुआ.
- रघुवीर सहाय
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]