14 अगस्त, 1947 बंटवारे का दिन है…आम सोच है कि हिंदू और मुसलमानों ने इसे दो हिस्से मे बांट लिया. क्या ऐसा सोचना ठीक है ?? यह ओवरसिंप्लीफिकेशन आपको एक कम्यूनल ऐंगल देता है, किसी पार्टी, किसी खास विचारधारा के लिए यह सूट करता है. पर गंभीरता से देखेंगे, तो आपको कुछ अलग रंग दिखाई देंगे.
इस नक्शे से ही शुरूआत करें, जो उस दिन भारत की राजनीतिक अवस्था को बताता है. उस दिन कोई 600 से ज्यादा पॉलिटिकल यूनिट्स थी. आप उन्हें रजवाडे कहते हैं. वे एक दूसरे से स्वतंत्र ताकतें थी. रक्षा, विदेश, संचार के मामले वे ब्रिटिश को सम्हालने देते थे, मगर तमाम प्रेक्टिकल रीजन मे ये स्वतंत्र देश की तरह ही थे.
तो इतने सारे देशों का 14 अगस्त को बंटवारा नहीं, एकीकरण हो रहा था. ब्रिटिश द्वारा सीधे इलाके भी इसी नव-एकीकरण का हिस्सा थे. दिक्कत यह थी, कि दो संस्कृतियां एक साथ रहने को तैयार नहीं थी. जो चुनावी नारें आप आज सुनते हैं, जो व्हाट्सप आप आज पढते हैं, उनका स्रोत उसी दौर से है. वह सोच, जो मोहम्मद घोरी और बाबर की संतानों से एक हजार साल पुराना बदला भंजाना चाहता है.
उन्हें सेकेण्ड क्लास सिटिजन बनाना चाहता है. सत्य यह कि मुठ्ठी भर लोग ही तुर्क और अरब थे, शेष इसी धरती के निवासी थे. मगर धर्म बदल लिया था, तो हमारे बीच के कुछ लोग उन्हें इस भूमि पर जगह देने को तैयार नहीं थे.
दूसरी ओर भी ऐसे लोग थे, जिन्हे फ्यूडल दौर की राजनीतिक सुप्रीमेसी का हैंगओवर था. यह वो मुस्लिम एलीट था, जिसे लगता था कि एकीकृत देश में उनकी राजनीतिक भूमिका गौण हो जाएगी. वे गलत भी नहीं थे. आज 80 बरस बाद, संसद और विधानसभाओं मे उनकी संख्या उन्हें सही साबित करती है.
तो उन्हें अपनी अवाज, अपनी भागीदारी चाहिए थी. इस सोशोपॉलिटिकल खाई के बीच, भारतीय उपमहाद्वीप के भू-राजनीतिक इलाकों का एकीकरण दो ढेरियों मे हुआ. तो बंटवारा शब्द, जो किसी एक चीज के हिस्से करता है, उस पर मेरी असहमति है. 14 अगस्त दरअसल 600 टुकडों का एकीकरण है. मगर अफसोस, एक नहीं…दो खेमों में एकीकरण है.
जब आप यह समझ लेगें, तो यह भी स्पस्ट हो जाएगा कि जिम्मेदार कौन था. तब आपको तय करने में आसानी होगी, कि वे लोग, जो हिंदू मुसलमान को बराबर बताते हुए उन्हे एक होने की समझाइश देते थे, क्या वे दो देशों के जन्म के जिम्मेदार हैं या वे लोग दोषी हैं, जिन्होने कहा कि हिंदू और मुसलमान दो पृथक संस्कृति है, ये कभी साथ नहीं रह सकती..! यही टू नेशन थ्योरी है.
लेकिन यहीं न रूकिये. टू नेशन थ्योरी तो 30 साल से चल रही थी. जिन्ना द्वारा उसे उठाये 8 साल ही हुए थे. क्या नेहरू, जिन्ना या किसी भी भारतीय राजनीतिज्ञ, अथवा उसके दल में ये ताकत थी, कि वह बंटवारा करवा देता ??
कोई आंदोलन चलता है, बढता है, थकता है, खत्म होता है. गर्वमेन्ट ऑफ द डे, उसपर जो फैसला करती है, जो रूख लेती है .. इतिहास की धारा उससे बनती है. जैसे कश्मीर को विलग करने के लिए आतंकी तंजीमों मे खूब कोशिश की. नक्सली आंदोलन सन 64 से शुरू हुआ था, क्या हुआ ?? जीरो बटे सन्नाटा !!
तैलंगाना बना, झारखंड बना. तब बना जब गर्वमेण्ट आफ द डे ने बनाना चाहा. तो यह आंदोलन का नतीजा कम, सरकार का निर्णय ज्यादा था. छत्तीसगढ के लिए भला किसने आंदोलन किया ?? अभी कश्मीर को तोड़कर दो यूयिन टेरेटरी बना दिये गए, किसने आंदोलन किया ?? अब फारूख अब्दुल्ला, या महबूबा मुफ्ती को कश्मीर के विभाजन का दोषी बताना मूर्खता होगी. उतना ही मूर्खतापूर्ण है जिन्ना या नेहरू, या इवन सावरकर को भारत विभाजन का दोषी बताना.
ब्रिटिश सरकार इस मामले को 10 और साल खीेंच देती, जिन्ना, लियाकत, गांधी, सरदार सब स्वर्गवासी हो चुके होते. ब्रिटिश की मर्जी थी, उसके जियोपॉलिटिकल इंट्रेस्ट थे. उसने हमारी फॉल्ट लाइंस का फायदा उठाया, दो देश बनाए. आखिर पाकिस्तान के दो टृकड़े, शेख मुजीब ने नहीं, इंदिरा गांधी ने किये. उसकी मर्जी थी, भारत के जियोपॉलिटिकल इंट्रेस्ट थे. उसने दो देश बनाए.
मेरी निगाह मे 14 अगस्त यही बताता है कि राष्ट्र कोई अजर अमर चीज नहीं. इसकी उम्र, तत्समय प्रवृत पॉपुलर डेफिनेशन.. क्या बनाइ गई, उस पर निर्भर करता है. आप धर्म, भाषा, संस्कृति, खानपान को एक देश की परिभाषा में रखते हैं …??? या तमाम विविधताओं के बावजूद, जो इस धरती पर है … उसकी डिग्निटी, उसकी भागीदारी, उसके कल्चर, भाषा को सम्मान देते हुए सबमे एकता का भाव भरने का प्रयास करते हैं ??
फॉल्ट लाइंस को मेाहब्बत से भरते हैं. किसी निहित स्वार्थ को देश बांटने का कोई मौका नहीं देते हैं. यह गांधी की अवधारणा है, नेहरू का रास्ता है. तब उनकी जिन्होने न मानी, बंटवारे का दंश दिया. आज भी जो न मानेंगे, बंटवारें का ही दंश देंगे.
- मनीष सिंह
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