थियेटर ओलम्पिक्स प्रथमतः और अंततः भारतीय रंगमंच को नष्ट-भ्रष्ट करने, उसे एक बाज़ारू, भ्रष्ट और समाज-विरोधी कला बनाने, उस पर ब्राह्मणवादी वर्चस्व कायम करने तथा रंगकर्म को पश्चिमी संस्कृति का गुलाम और उपनिवेश बनाने की एक घृणित साजिश के अलावा और कुछ नहीं. हम मानते हैं कि सत्ता रंगमंच की जनतांत्रिकता, बहादुराना प्रतिरोध से भरे उसके इतिहास, प्रगतिशीलता और समानता के मूल्यों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता से भय खाती है, इसलिये वह कभी अनुदान के नाम पर, कभी बड़े महोत्सवों के नाम पर, कभी सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों के प्रचार के नाम पर करोड़ों रुपये लुटाती है, और रंगकर्मियों के बीच सत्ता समर्थक और सत्ता-विरोधी जैसा विभाजन पैदा कर रंगमंच को कमज़ोर और बीमार करने की साज़िश रचती रहती है.
दुनिया भर के इतिहास और अपने देश की रंग-परम्पराओं को देखते-समझते हुए हमारा यह अनुभव है कि रंगमंच का विकास उत्सवों या अनुदान की बन्दरबांट से कभी नहीं हो सकता. ऐसे क्रियाकलाप अनिवार्य रूप से कुछ मुट्ठी भर सत्ता में बैठे लोगों और उनके लग्गुओं-भग्गुओं को ही फ़ायदा पहुंचाते हैं और वे रंगमंच तथा उससे जुड़े लोगों की व्यापक आबादी को तेजी से हाशिये और बदहाली के अन्धेरों की तरफ ढकेलते हैं. रंगमंच का विकास करने के लिये देश में एक बुनियादी ढांचा, प्रशिक्षण की विकेन्द्रीकृत व्यवस्था, आधुनिक किन्तु सस्ते पूर्वाभ्यास एवं प्रदर्शन-स्थलों की व्यापक रूप से उपलब्धता और रंगकर्मियों की आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा के लिये समुचित योजनाओं का क्रियान्वयन बेहद ज़रूरी है.
सरकारें और संगीत नाटक अकादमी जैसी उसकी एजेन्सियां इस दिशा में इसलिये कभी कुछ नहीं करतीं, क्योंकि वे रंगमंच को अपने गर्हित स्वार्थों के लिये ख़तरा मानती हैं. ऐसी सरकारों और उसके संस्थानों द्वारा रंगमंच का विकास करने के नाम पर किये जाने वाले भारत रंग महोत्सव और ओलम्पिक्स जैसे उत्सव एक जुमला या ढकोसले से ज़्यादा अहमियत नहीं रखते. वे केवल जन-धन की बरबादी और संगठित लूट के अवसर ही मुहैय्या कराते हैं.
विडम्बना है कि रंगकर्मियों का एक सुविधा-लोलुप और अवसरपरस्त तबका हमेशा ब्राह्मणवादी सत्ता के प्रलोभन में फंस जाता है और वह अपनी ही रंगमंचीय बिरादरी के खि़लाफ सत्ता के मोहरे की तरह इस्तेमाल होता है, जिसके बदले में उसकी तरफ कुछ टुकड़े उछाल दिये जाते हैं. ग़ौर करने वाली बात है कि जो भाजपा सरकार एक तरफ ‘मित्रता का ध्वज‘ लिये विश्व पटल पर भारतीय रंगमंच को स्थापित करने और देश में उसका विकास करने के ढपोरशंखी जुमले, स्वांग और करोड़ों के बजट के साथ एक अज्ञात विदेशी एनजीओ की छत्रछाया में ‘थियेटर ओलम्पिक्स‘ का राष्ट्रव्यापी आयोजन करवा रही है, वही देश के भीतर स्वतंत्र विचारों तथा नाटक और रंगमंच में असहमति की आवाज़ों को छल-बल से कुचल रही है.
हाल में उत्तर प्रदेश में देश के प्रसिद्ध नाटककार राजेश कुमार के नये नाटक ‘गाय‘ को मंचन से पहले सरकार ने रोक दिया. सवाल उठता है कि जो भाजपा सरकार यूपी के एक छोटे-से शहर शाहजहांपुर के एक साधनहीन नाट्य-दल के किसी नाटक को अपनी राजनीति और वर्चस्व के लिये इतना बड़ा ख़तरा मानती है कि प्रस्तुति के प्रारम्भ होने से ठीक पहले पुलिस भेज कर उसका मंचन रुकवा देती है, उसी सरकार को ‘थियेटर ओलम्पिक्स‘ जैसे आयोजन पर क्यों कोई ऐतराज नहीं होता जिसमें कि लगभग 500 नाटकों का देश के 17 प्रांतों में प्रदर्शन किया जा रहा है ?
इससे ज़ाहिर होता है कि सरकार केवल उसी रंगमंच को बढ़ावा देना चाहती है जो सरकार की आलोचना न करे और उसका बाजा बजाये. क्या भाजपा-आरएसएस के लोगों को मालूम है या क्या उन्होंने पहले ही यह सुनिश्चित कर लिया था कि ओलम्पिक में मंचित हो रहे नाटक राजनीतिक रूप से उसके विरोध में कोई बात नहीं करेंगे, इसलिये सरकार ने बढ़-चढ़ कर उसका पोषण और संरक्षण किया है, और यह जान कर भी कि वह पूरी तरह विफल रहा है, उस पर करोड़ों रुपये लुटाये जा रही है.
रंगकर्म को रोटी, सम्मान और विचार चाहिये, लेकिन वामन केन्द्रे और रतन थियाम जैसे उसके व्यापारियों को केवल बाज़ार ! जिसे खाने को नहीं मिलता, जिसकी जेब ख़ाली है, जिसका बच्चा सरकारी स्कूल में लाचारी पढ़ रहा है, उसको बाज़ार नहीं सूझता. ओलम्पिक्स ऐसे लोगों की जिन्दगियों में क्या बदलाव लेकर आयेगा भला ? और हम यह भी जानते हैं कि देश के सुदूर शहरों, गांवों-क़स्बों में इन स्थितियों में रंगकर्म करने वाले लोगों की तादाद बहुत बड़ी है. वे कुल आबादी के पंचानवे फीसदी होंगे.
भारत रंग महोत्सव या ओलम्पिक्स का फ़ायदा महज पांच फ़ीसदी रंगकर्मी ही उठा पाते हैं, शेष पंचानवे फ़ीसदी तो उनके जाड़ों के लिये अपनी पीठ पर ज़िन्दगी भर ऊन की फ़सल ढोते रहने को विवश हैं. इसे ही नियति मान बैठे हैं, क्योंकि उन्हें विश्वास हो गया है कि पांच फ़ीसदी लोगों ने पंचानवे फ़ीसदी संसाधनों पर कब्जा जमा रखा है, और सत्ता उनके ही इशारों पर नाचती है.
आंखें खोल कर देखिये तो रंगकर्म में आज हर तरफ एक हाहाकार दिखायी देगा, सन्नाटे की तरह गूंजता हाहाकार. उत्सव दुःख की गहरी खाई को पार करने के लिये पुल भी बन सकते हैं, पर वैसे उत्सव अब कहां हैं ? उनके चारों तरफ ऐसी अदृश्य और अलंघ्य दीवारें खड़ी कर दी गयी हैं कि कोई सामान्य रंगकर्मी उधर झांक भी नहीं सकता. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय देश का विशेष आर्थिक क्षेत्र यानी ‘एसईज़ेड‘ और विशेष सांस्कृतिक क्षेत्र यानी ‘एससीज़ेड‘ बन कर रह गया है- ऐश्वर्य और ब्राह्मणवादी आभिजात्य का दुर्भेद्य किला !
वह दरिद्र और निस्सहाय भारतीय रंगमंच का ‘शाइनिंग इण्डिया‘ है, उत्तर-आधुनिक ‘स्मार्ट सिटी‘ है, जिसमें रहने-जीने वाले ‘बुलेट ट्रेन‘ पर सवार हैं. रंगमंच के इस ‘शाइनिंग इण्डिया‘ को ‘ग्लोबल एक्सपोजर‘ चाहिये, ‘अकूत मुनाफा‘ चाहिये, जिसके लिये शेष भारत के रंगकर्म को कुचलना ज़रूरी है. उसे बौद्धिक और आर्थिक उपनिवेश बनाना ज़रूरी है. ओलम्पिक्स को वे इस मकसद का ब्रह्मास्त्र मानते हैं.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय संस्कृति, विशेष रूप से रंगमंच के सभी मामलों में भारत सरकार की नोडल एजेन्सी है, जिसका अतीत बहुत समृद्ध रहा है. भारत में रंगकला के सांस्थानिक और व्यवस्थित प्रशिक्षण की शुरुआत वहीं से हुई और उससे प्रशिक्षण प्राप्त कर निकले रंगकर्मियों ने एक लंबे दौर तक भारत में आधुनिक रंगमंच के स्वरूप का निर्धारण करते हुए उसे विश्वव्यापी पहचान भी दिलायी, परन्तु विगत एक-डेढ़ दशकों से वह अपने योगदान की वजह से नहीं, बल्कि दूसरी वजहों से चर्चा के केन्द्र में है और यह केन्द्रीयता बेहद विवादास्पद और नकारात्मक है.
आज देश भर के रंगकर्मियों की यह आम धारणा है कि यदि भारत रंग महोत्सव का आयोजन और विभिन्न ग्रांट बांटने का काम उससे वापस ले लिया जाये, तो बतौर ड्रामा स्कूल उसकी अहमियत दो कौड़ी की नहीं रह जायेगी ! देश के कई श्रेष्ठ रंगकर्मियों ने यह बात बार-बार विभिन्न अवसरों पर कही है. ऐसे रंगकर्मियों में हबीब तनवीर, प्रसन्ना, भानु भारती, अरविन्द गौड़, अभिलाष पिल्लई, राजेश कुमार, महेश दत्ताणी आदि वरिष्ठ रंगकर्मियों से लेकर आज के कई सक्रिय और महत्वपूर्ण युवा रंगकर्मी भी शामिल हैं.
इस देश की जनता ने एनएसडी या सरकार से कभी थियेटर ओलम्पिक्स नहीं मांगा. वह तो रोजी-रोटी, घर, सुरक्षा और सम्मान मांगती है, जो उसे कोई नहीं देता. रंगजगत से ही कब किसने पूछा ? यह तो थोपा गया है कुछ मुट्ठी भर व्यापारियों द्वारा देश के ऊपर. टैक्स चुकाने वाले लोगों पर. कहां जनता की भागीदारी है ओलम्पिक्स में ? देश के रंगकर्मियों की बात छोड़िये, क्या दिल्ली के ही रंगकर्मियों की राय मांगी थी एनएसडी ने ? उनसे भागीदारी की कोई अपील की थी ? कौन से रंगकर्मी उसे अपना उत्सव समझ कर उसमें हाथ बंटा रहे ? कुछ लोग जिन्हें या तो शो दिया गया, या जिन्हें कुछ टुकड़े मिलने की आस है, वही तो मंडरा रहे हैं वहां. फिर यह भारत की जनता का या रंगजगत का ही उत्सव किस प्रकार माना जाये ?
रंगमंच जो बुनियादी संरचना के भयावह संकट से जूझ रहा है, रोजी-रोटी, सामाजिक सुरक्षा और स्पेस के अभाव में दम तोड़ रहा है, उसे यह करोड़ों का उत्सव कैसे जीवन देगा ? जब भारंगम से रंगकर्म और रंगकर्मियों को कुछ नहीं मिला, उलटे जिन्हें कभी अवसर नहीं मिला, वे हीनता और अपमान के शिकार होते रहे, तब ओलम्पिक्स में भी कुछ नहीं मिल सकता. हर बार संसाधनों की बंदरबांट हो जाती है. भाई-भतीजों को, मित्रों को कुछ लाभ दे दिया जाता है, वे ही उसकी वकालत करते रहते हैं हमेशा. उनकी वकालत समझ में भी आती है, पर इसे भारतीय जनता के, रंगजगत के माथे पर थोपना एकदम अनुचित है. यह चलने वाला नहीं है.
ओलम्पिक्स वास्तव में सम्पन्न पश्चिमी देशों की उपभोक्तावादी संस्कृति की श्रेष्ठता को भारतीय रंगमंच पर थोपने की एक क़वायद है. यह बात अब साफ़ हो गयी है कि यह एक अज्ञात विदेशी एनजीओ का खाऊ-पकाऊ ब्राण्ड है जिसका मकसद थियेटर का भला करना नहीं, दुनिया भर के कुछ बेहद चालाक और निहायत आत्मकेन्द्रित निर्देशकों के एक गिरोह को असीमित आर्थिक लूट का वैश्विक ठेका दिलवाना है. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय का ब्राह्मणवादी ढांचा इसे मुक्त स्पेस मुहैय्या करा रहा है. वह इसे ‘सार्वजनीन संस्कृति‘ के पाखण्ड में लपेट कर पेश कर रहा है, पर वास्तविकता यह है कि यह हमारी सांस्कृतिक विभिन्नताओं को या तो नष्ट करेगा या बाहरी तत्वों के घालमेल से उसे भ्रष्ट कर देगा.
वैश्विक एनजीओ थियेटर ओलम्पिक्स के भीतर जो साम्राज्यवादी तत्व हैं, उनकी पहचान अब स्पष्ट होने लगी है. यह भारतीय रंगमंच को निष्काषित कर उस पर हावी होना चाहता है. यह नवउदारवादी संस्कृति बाज़ार की एक खोज है, जिसका मूलतत्व है विज्ञापन और प्रतिस्पर्धा तथा केन्द्रीय मूल्यबोध है- बाज़ारू लोकप्रियता. मनुष्य उसके हाशिये पर भी नहीं है, और उसके लिये वही रंगमंच श्रेष्ठ और सार्थक है जिसके ग्राहकों की संख्या और आमदनी अधिक हो. उसे हमारी अंतरंग भावनाओं, आकांक्षाओं, ज़रूरतों, संघर्षों और त्रासदियों से कोई वास्ता नहीं है. धीरे-धीरे एक ऐसे रंगमंच को प्रतिष्ठापित करने की मुहिम चलायी जा रही है, जिसके मूल्यांकन का आधार होगा सतही वासनाओं की पूर्ति या चटखारा प्रदान करना. बाज़ारूपन और अपसंस्कृति और किसे कहते हैं ?
रतन थियाम और वामन केन्द्रे ने मिल कर पहले भारत रंग महोत्सव नाम के बड़े और विश्वप्रसिद्ध भारतीय ब्रांड को ख़त्म करने की साज़िश रची और फिर भारत सरकार को बरगला कर इस बात के लिये राज़ी कर लिया कि वह एक अज्ञात एनजीओ का ब्रांड ख़रीद ले और उसकी छतरी के नीचे थियेटर ओलम्पिक्स के आयोजन का खर्च उठाये. इसमें कोई शक नहीं कि रतन थियाम और वामन केन्द्रे ने ठगी का ऐसा कीर्तिमान बनाया है, जिसकी कोई सानी नहीं मिलेगी. सारे नियम-क़ायदों-नैतिकताओं को गटर में डाल कर ओलम्पिक्स में मनमाने निर्णय लिये गये, झूठ-मूठ की बिना रीढ़ वाली कमिटियां बनायी गयीं और उनका इस्तेमाल मुहर के तौर पर किया गया.
बाद में ऐसा सुनने में आया कि श्रेय, अर्थलाभ और मुनाफे़ के बंटवारे को लेकर वामन और रतन थियाम में टकराव शुरू हो गया, जिसके कारण रतन थियाम को एनएसडी के अध्यक्ष की कुर्सी भी गंवानी पड़ी. पहले यह तय हो चुका था कि कार्यकाल पूरा होने के बाद भी रतन थियाम एक साथ एनएसडी के कार्यकारी अध्यक्ष और ओलम्पिक्स के आर्टिस्टिक डायरेक्टर भी बने रहेंगे. जब कुर्सी नहीं रही तो इस क्षति की पूर्ति के लिये रतन थियाम ने थियेटर ओलम्पिक्स की अन्तर्राष्ट्रीय कमिटि को मोहरा बना कर एनएसडी तथा सरकार के साथ चूहे-बिल्ली का खेल शुरू कर दिया.
थियेटर ओलम्पिक्स की अन्तर्राष्ट्रीय कमिटि द्वारा ब्रांड का अधिकार छीनने की अचानक मिली धमकी से सरकार और उसका मंत्रालय सकते में आ गया और आनन-फानन में कमिटि की सारी वैध-अवैध शर्तें मान ली गयी. एक प्रचंड बहुमत वाली सरकार एक दो कौड़ी के एनजीओ के सामने पस्त हो गयी. ऐसी अफ़वाहें भी सुनने में आयी कि आर्टिस्टिक डायरेक्टर रतन थियाम को दुगुनी फ़ीस एडवांस में देकर इस बात के लिये राज़ी किया गया कि वे आर्टिस्टिक डायरेक्टर बने रहें, पर पूरे आयोजन से दूर रहें. शायद यही वजह हो कि उद्घाटन समारोह से लेकर अब तक रतन थियाम को आयोजन में शामिल होते नहीं देखा जा रहा. इस देश में कोई कभी यह सवाल नहीं करेगा कि रतन थियाम को किस काम के बदले इतनी भारी फीस चुकायी गयी है !
इस नाटकीय घटनाक्रम में सरकार और एनएसडी प्रशासन की इस बात में रुचि ही नहीं रही कि उसे आयोजन की तैयारी और प्रचार-प्रसार भी करना चाहिये. नतीज़ा यह हुआ है कि आज दिल्ली से लेकर कोलकाता, पटना, भोपाल, वाराणसी, चेन्नई, बैंगलोर हर जगह नाटक दर्शकों के लिये तरस रहे हैं और इसका कोई उपाय भी उन्हें नहीं सूझ रहा. यहां तक कि टिकट की व्यवस्था समाप्त कर प्रवेश को मुक्त कर दिये जाने का भी कुछ फ़ायदा नहीं हो रहा. कुल मिला कर यह आयोजन पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है और वे बस दिन गिन रहे हैं कि कब यह समाप्त हो जाये.
ओलम्पिक्स को जहां सोशल मीडिया से लेकर दिल्ली, पटना, भोपाल, मुम्बई और कोलकाता आदि सभी शहरों में रंगकर्मियों के अभूतपूर्व और व्यापक विरोध का सामना करना पड़ रहा है, वहीं दर्शकों ने भी स्वतःस्फूर्त तरीके से इसकी प्रस्तुतियों का बहिष्कार कर दिया है. देश के कई नामचीन निर्देशकों और रंग-समीक्षकों ने प्रारम्भ में ही अपना यह रुख साफ़ कर दिया था कि वे ओलम्पिक्स को एक निहायत गैरज़रूरी आयोजन मानते हैं और सरकार को ऐसे पाखण्ड के पीछे करोड़ों रुपये फूंकने की बजाय देश में रंगमंच का एक बुनियादी ढांचा तैयार करने की तरफ ध्यान देना चाहिये, क्योंकि आज सबसे अधिक ज़रूरत उसी की है.
वामन केन्द्रे और रतन थियाम जैसे ओलम्पिक्स के कर्णधारों ने रंगजगत के सवालों और सुझावों को अनसुना किया और अपनी मूर्खताओं से रंगजगत ही नहीं, देश का सिर भी शर्म से झुका दिया है ! करोड़ों रुपये पानी में बहा दिये गये पर नतीजा शून्य. विश्वस्तरीय आयोजन का दावा करने वाले अब बिलों में छिप गये हैं. कोई भी सामने आकर इस भयावह दुर्गति की जवाबदेही नहीं ले रहा. कोई यह नहीं बता रहा कि देश की करदाता जनता की खून-पसीने की कमाई से दस-दस लाख रुपये देकर बुलायी गयी प्रस्तुतियों को देखने के लिये दर्शक क्यों नहीं आ रहे ?
क्यों उन प्रस्तुतियों को लगातार तीन-तीन दिनों तक प्रदर्शित किया जा रहा है, जिनके पहले प्रदर्शन में भी पचास दर्शक नहीं मिल पा रहे, और उनमें से भी आधे लोग दस मिनट बाद ऊब कर, गालियां देते हुए बाहर निकल जा रहे हैं ? इन हालात में 17 राज्यों में ओलम्पिक्स के लिये आरक्षित सभागारों को लगातार दो महीनों तक लाखों रुपये का किराया आखिर किस औचित्य और तर्क के साथ चुकाया जा रहा है, जिसका आर्थिक बोझ देश की उस सामान्य करदाता जनता को वहन करना पड़ेगा, जिससे कभी पूछा ही नहीं गया कि उसको ओलम्पिक्स जैसा आयोजन चाहिये भी या नहीं ?
स्वाल तो यह भी उठता है कि ओलम्पिक्स के कथित ‘विश्वस्तरीय‘ आयोजन में प्रदर्शन की पात्रता रखने वाले नाटकों के चयन के लिये गठित ‘विशेषाधिकार समिति‘ में वे कौन से लोग थे जिन्होंने उत्कृष्टता के चयन का ढोल पीट कर वाहियात नाटकों को चुन लिया ? यह क्यों नहीं माना जाये कि चयन समिति में शामिल लोगों के पास उत्कृष्टता की पहचान कर सकने लायक न्यूनतम योग्यताओं और समझदारी का भी नितान्त अभाव ही था ? उन्होंने किस बात की फ़ीस ली और तमाम सरकारी सुविधाओं का उपभोग किया, जब उन्हें यह काम आता ही नहीं ?
हालांकि समिति के सदस्य थोड़े साहस का परिचय देते हुए यह कह सकते थे कि चयन समिति केवल नाम के लिये बनायी गयी थी और उसके पास प्रस्तुतियों के बारे में निर्णय का कोई अधिकार था ही नहीं ! यों ऐसे साहस की उम्मीद बेमानी ही लगती है, क्योंकि सम्भव है ऐसी ही शर्तों के आधार पर चयन समिति का सदस्य बनने का मौक़ा दिया गया हो कि वे स्कूल निदेशक और ओलम्पिक्स के कला-निर्देशक द्वारा व्यक्तिगत सुविधानुसार चयनित नाटकों की सूची का केवल अनुमोदन भर कर देंगे और भरपूर फ़ीस लेकर चुपचाप अपने घर लौट जायेंगे ! कुछ भी सम्भव है !
आप देखिये कि इस ओलम्पिक्स में कहां हैं हमारी देशज और लोक नाट्य परंपराएं ? कहां दिखायी पड़ते हैं हमारे नाटककार, निर्देशक और अभिनेता ? कौन हैं वे लोग जो यह सब तय कर रहे हैं ? ओलम्पिक्स निश्चित रूप से हमारे सार्थक सांस्कृतिक जीवन के लिये, हमारे रंगमंच के लिये एक बड़ा ख़तरा है, जिसे या तो हम समझना नहीं चाहते, या समझ कर भी एक दुविधा की स्थिति में हैं. आज पूंजीवादी-उपभोक्तावादी संस्कृति का व्यामोह ऐसा है कि सामने विनाश को देखते हुए भी हममें राह बदलने का साहस नहीं रहा. लेकिन जीवन की इच्छा अंततः हमें राह बदलने पर मज़बूर करेगी. अपने अस्तित्व की इस चुनौती से हमें टकराना ही होगा.
रंगमंच में एक छोटा सा ‘बिचौलिया वर्ग‘ है, जिसमें रातों-रात कुबेर बनने की हवस है, जबकि दूसरी तरफ़ आम रंगकर्मियों का जीवन दूभर हो रहा है. रंगमंच को पालतू, परजीवी और आत्मकेन्द्रित होते जाने से बचाने, उसे मानवीय संवाद का सार्थक माध्यम बनाने और उसकी सामाजिक भूमि और भूमिका को बचाने के लिये हमें अपनी चुप्पी तोड़ कर एक बार जोर से चीखना ही होगा.
- राजेश चन्द्र, वरिष्ठ रंग-समीक्षक
यह आलेख 25 मार्च, 2018 को महाराष्ट्र के शीर्ष अखबार दिव्य मराठी के रविवारीय संस्करण में मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था, आप इसे हिन्दी में यहां पढ़ रहे हैं.
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