वर्ष 2019 में सम्भावित, सम्भावित इसलिए क्योंकि अभी इस बात को लेकर असमंजस बना हुआ है कि सरकार जो लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों को साथ-साथ कराने के पक्ष में है, के मन की बात निकल कर सामने नहींं आई है. सरकार को, जब भी समय अपने अनुकूल लगेगा, अपने मन की बात देश को बतायेगी. सरकार के मन की बात जानने से पहले, यानी लोकसभा के चुनाव कब होंगे ये जानने के पहले, देश के “नागरिक समाज” को ये जानना भी बहुत जरूरी है कि- क्या भाजपा की वर्तमान मोदी सरकार, न्याय करने की कुर्सियों पर बैठने वालों को, सत्ता और सत्ता के कारकुरंदों के गंदे कपड़े धोने के काम पर लगाने से बाज रहेगी ? और अगर वह अपने आचरण में अपेक्षित सुधार नही करती, तो क्या यह नैतिकता के धरातल पर या न्याय के मान्य सिद्धांतों पर उचित ठहराया जा सकेगा ? प्रश्न इसलिए कि, न्याय के मंदिर समझे जाने सुप्रीमकोर्ट की चाहरदिवारी के भीतर बैठने वालों ने, यह बात देश के संज्ञान में लायी है कि- “न्यायालय में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है. लोकतंत्र खतरे में है.”
भाजपा की मोदी सरकार का जो सबसे बड़ा फैसला 31 दिसम्बर, 2014, यानी सत्ता सम्भालने के ठीक नौ माह और पांच दिन बाद, “राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग क़ानून” (NJAC Act) उसके मानस पुत्र के रूप में पैदा हो गया. सत्ता में आने के ठीक नौ महीने बाद, मानो सत्ता की कुर्सी पर बैठने के साथ ही, देश के सर्वोच्च न्याय करने वाले संस्थान को, अपना चाकर बनाने का विचार उसके मानसिक गर्भ में च्यवनित हो गया हो.
यहांं उल्लेखनीय है कि 16 अक्टूबर, 2015 यानी NJAC Act के लिए किये गए संविधान संशोधन किये जाने के साढ़े दस महीने बाद, सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, जस्टिस केहर की अगुआई में गठित पांच जजों की बेंच ने, चार के मुकाबले एक मतों से, संविधान के इस 99 वें संशोधन, जिसके तहत इस क़ानून को अधिसूचित किया गया है, को न्यायपालिका की स्वतंत्रता का उलंघन करने वाला, और इसी आधार पर इसे संविधान के मूल ढांंचे में परिवर्तन करने वाला और न्यायपालिका को पंगु बनाने वाला प्रयास बताते हुए, रद्द कर दिया. रद्द करने के कारणों में, इसके अंतर्गत गठित आयोग में, देश की सबसे बड़ी मुकदमेंबाज (LITIGANT) सरकार के प्रतिनिधि के रूप में सरकार के क़ानून मंत्री को सदस्य बनाया जाना और सुप्रीम कोर्ट के जजों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व न दिया जाना, ये दो अहम् कारण रहे. इसे कार्यपालिका (सरकार) का न्यायपालिका के स्वतंत्र अधिकार क्षेत्र में दखल देने के प्रयास के रूप में भी देखा गया.
वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में वरीयता क्रम में चार अन्य जजों, कुल पांच जजों की संविधान पीठ, जिसे ‘कोलेजियम’ नाम दिया गया है, जजों का चयन और नियुक्ति करती है. यह व्यवस्था 25 वर्षों (1993) से लागू है. NJAC को रद्द किये जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को और अधिक पारदर्शी बनाने की गरज से एक “मेमोरंडम ऑफ़ प्रोसीजर”(MOP) तैयार किया और सरकार की अनुशंसा के लिए भेज दिया. सरकार के पास उक्त MOP पिछले 30 माह से लम्बित है. सरकार इस पर कुंडली मारे बैठी है, न अस्वीकार कर रही है न स्वीकार. सुप्रीमकोर्ट में जजों के कुल सृजित 31 पद हैं, जिनमें सात खाली पड़े हैं. सरकार, न्यायपालिका के स्वतंत्र संबैधानिक अधिकार क्षेत्र में अपना दखल बनाना चाहती है, जिसे लेकर पिछले ढ़ाई साल से दोनों के बीच रस्सा-कसी चल रही है. सर्वोच्च न्यायालय, सरकार की जिस कार्रवाही को संविधान के बुनियादी ढांंचे को बदलने वाला मानता है, सरकार, लोकसभा में पूर्ण बहुमत होने के दम्भ के चलते, उसे ही अंजाम तक पहुंंचाने की जिद्द पकड़े हुए है.
मुद्दे को आगे बढाने से पहले जरा एक नजर उस संबैधानिक दांचे पर भी, मोटे तौर पर नजर डाल लें, (बारीकी से तो संविधान विशेषज्ञ ही बताएंंगे) कि, आखिर ये बला क्या है : “संविधान सर्वोपरी है; देश में राज क़ानून का चलेगा, किसी राजनैतिक पार्टी का नहीं; न्यायपालिका की स्वतंत्रता यानी सत्ताधारी पार्टी के दबाव से मुक्त न्यायपालिका की सत्ता बनी रहेगी; विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अधिकारों का विभाजन, कोई किसी के अधिकार क्षेत्र में दखल नहीं देगा; संघीय ढांचा यानी प्रांतीय सरकारों का समानुपातिक प्रतिनिधित्व (राज्यसभा); धर्मनिरपेक्षता यानी सरकारें किसी धर्म विशेष की तरफ नही झुकेंगी या उसे विशेष प्रश्रय नही देंगी; लोकतांत्रिक गणतंत्र की सार्वभौमिकता का सम्मान यानी धर्म, जाती, बोली-भाषा, रीति-रिवाज, खान-पान, परम्पराओं, राजनैतिक विचारों का समर्थन-विरोध और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता; एक वोट एक मूल्य; विकास के अवसरों और उसके फलों (परिणामों) में सामान भागीदारी; निष्पक्ष और बाधा रहित चुनाव कराना; राज्य का कर्तव्य लोककल्याण है, आदि-आदि, संविधान के मूल ढांंचे का हिस्सा होते हैं.
आज से 45 साल पहले भी (24 अप्रैल, 1973) सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालिन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.एम. सीकरी के नेतृत्व में 12 अन्य जजों यानि कुल 13 जजों की संविधान पीठ ने सात के मुकाबले छः जजों ने फैसला दिया कि संसद (पार्लियामेंट) संविधान के पवित्र मूल ढांंचे में रद्दो-बदल नहींं कर सकती. सुप्रीम कोर्ट का ये फैसला बहुचर्चित केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में आया था.
इस फैसले से तिलमिलाई कांंग्रेस की तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने न्यायपालिका पर जोरदार प्रहार करते हुए न्यायमूर्ती ए.एन. रे जो कि निर्णय से असहमति रखने वाले उन छः जजों में से एक थे, जो वरिष्ठता क्रम में चौथे नम्बर पर थे, को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश बना दिया. ये तीनों जज, न्यायमूर्ति जे.एम्. शेलत, न्यायमूर्ति ए.एन. ग्रोवर, और न्यायमूर्ति के.एस. हेगड़े, उन सात जजों में शामिल थे जिन्होंने उक्त फैसला सुनाया था.
न्यायमूर्ति ए.एन. रे को मुख्य न्यायाधीश बनाने के तत्काल बाद, केशवनन्द भारती मामले में आये फैसले को पलटने के लिए एक राजनैतिक कुचक्र रचा गया. सरकार के महाधिवक्ता नीरेन डे ने बिना किसी पुनर्विचार याचिका प्रस्तुत किये ही, सुप्रीम कोर्ट को अपने फैसले पर पुनर्विचार करने को कहा. उम्मीद के विपरीत, मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे ने “मास्टर ऑफ़ रोस्टर” होने के नाते, तुरत-फुरत में 13 जजों की संबैधानिक पीठ गठित कर, मामले को विचार हेतु उसके समक्ष भेज दिया, जो कि खुद में एक बेमिसाल निर्णय था, इस उम्मीद में कि छः जजों के अल्पमत वाले निर्णय (1973) को 1975 में, बहुमत का जामा पहरा दिया जाय. दो दिनों तक मामले पर गरमा-गरम बहस के बाद, मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे पर इतना मानसिक दबाव बन गया कि उन्होंने अचानक अपने ही द्वारा गठित 13 जजों की उस पीठ को भंग कर दिया, जिसका गठन उन्होंने खुद ही किया था. देश को गर्व है, उस समय की बार के सदस्यों और न्यायधीशों पर जिन्होंने सर्वोच्च न्यायपालिका की गरिमा को विषम परिस्थियों में भी अक्षुण्ण बनाए रखा.
उसी गरिमा के पुनः खतरे में पड जाने के दर्द को, सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ जजों न्यायमूर्ति चेमलेश्वर, न्यायमूर्ति एम.बी. लोकुर, न्यायमूर्ति कुरियन जोसेफ, और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई को अभूतपूर्व तरीके से इसी वर्ष, 12 जनवरी को, प्रेस- कांम्फ्रेंस करके देश के सामने रखना पड़ा था.
इन 43 (1975 से) सालों के अंतराल के बाद भी कुछ नहीं बदला. संदेश एक ही है कि आवश्यकता से अधिक सत्ता का एक ही पार्टी के हाथों में सिमट जाने से उस पार्टी की सरकारें बौरा जाती है, देश की संबैधानिक संस्थाओं को मनमर्जी से चलाने या अपना चाकर समझ लेने की गफलत पाल लेती हैं.
बात 1975 में केशवानंद भारती मामले से पहले 10 अगस्त, 1975 को संविधान के अनुच्छेद 329A में 39वां संशोधन पेश कर दिया गया. इस के तहत प्रधानमन्त्री और लोकसभा के सभापति के चुनावों को न्यायिक परीक्षण से बाहर कर दिया गया यानी इस मामलों को न्यायालय की विवेचना से मुक्ति मिल गयी. उद्देश्य 12 जून, 1975 को इंदिरा गांधी के चुनाव को इलाहबाद हाईकोर्ट द्वारा, जिसे अवैध एवं शून्य घोषित कर दिया गया था, के परिणामों का सामना करने से बचना था. इंदिरा गांधी की अपील पर निर्णय लम्बित होने पर भी, निर्णय का इन्तजार नहीं किया गया और संविधान में संशोधन कर दिया गया. यह खुल्लम-खुल्ला विधायिका द्वारा न्यायपालिका के अधिकारों पर चोट था यानी संविधान के मूल ढांंचे के साथ छेड़-छाड़ का मामला था. आगे चल कर 28 अप्रैल, 1976 को देश में आपातकाल घोषित कर दिया गया जो आज भी लोकतंत्र के इतिहास का काला अध्याय माना जाता है.
आपातकाल के बाद 1977 में हुए छठी लोकसभा के चुनावों में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा था. खुद इंदिरा गांंधी चुनाव हार गयी और आपातकाल के दौरान सत्ता में हनक कायम करने वाले उनके पुत्र संजय गांधी को भी, चुनाव में हार का मुंंह देखना पड़ा था. देश में तब पहली बार गैर-कांंग्रेसी सरकार बनी जिसके मुखिया मोरार जी भाई देसाई बने, वो भी गुजरात के ही थे. कांग्रेस सरकार द्वारा 1975 में किये गए उक्त विवादित संशोधन को 1979 में पलट दिया गया था. संक्षेप में ये कांंग्रेस की कारगुजारियों की दास्तान है.
वर्तमान में नागरिक समाज, जब भी सरकार की कारगुजारियों पर ऊंंगली उठाता है तो सबसे पहले भाजपाई नेता और कार्यकर्ता उसे कांग्रेसी बताने लगते हैं, फिर कहते हैं, “कांंग्रेस के समय भी ऐसे गलत काम होते थे, तब तुम क्यों चुप रहे ? अब हमारी सरकार को बदनाम करने की नियत से ऐसे आरोप लगाते हो.” और भाजपा गाहे-बघाये ये भी कहती रहती है कि, “अमुक गलत काम कांग्रेस की सरकार के समय भी होते रहे हैं या ये गलत काम कांंग्रेस सरकार की देन हैं,” यह भाजपा सरकार के नैतिक पतन का संकेत भर ही नहीं है, यह भी बताता है कि सरकार कितनी डरी हुई है. एक ताकतवर परन्तु डरी हुई सरकार नैतिकता की तमाम बंदिशों को तोड़ किस हद तक गिर सकती है, ये हम ऊपर देख और समझ ही चुके हैं.
कुरुक्षेत्र के मैदान में हुआ खून खराबा भी तो अतुल साम्यर्थवान सत्ता के नैतिक पतन और नैतिक बंदिशों को तोड़ने का ही परिणाम था. तब क्या मान लिया जाय कि भाजपा की सरकार भी उसी दिशा में आगे बढ़ रही है ?
-विनय ओसवाल
वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विशेषज्ञ
सम्पर्क नं. 7017339966
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Sakal Thakur
April 26, 2018 at 5:47 am
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