गुरूचरण सिंह
लगता है संसद में मौजूद सभी पार्टियों ने एक दूसरे को ठीक से पहचान लिया है, तभी तो किसी भी मुद्दे पर गम्भीर चर्चा करने की बजाए सभी पार्टियां एक दूसरे को चोर साबित करने में अपना ज्यादा समय खर्च करती हैं. बेशक चोर तो सभी है ! यह अलग बात है कि कोई छोटा चोर है तो कोई बड़ा चोर !!
अब अपनी जड़ों की ओर जाने का भले ही कितना दावा करे सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा, हैं तो हम नकलची बन्दर ही. आजाद हुए तो गौरांग महाप्रभुओं की तरह बनना चाहा. सारी शासन प्रणाली ‘जस की तस’ रखी; पुलिस भी पहले जैसी खुरार्ट, डर का आलम साथ लिए चलने वाली, तमाम नौकरशाही भी पहले जैसी और कानून भी वैसे ही, कानून बनाने वाली संसद भी वैसी ही.
1962 में सपनों की इस उड़ान को पहला झटका लगा जब चीन ने अक्साई चिन और नेफा में हमला कर दिया और हज़ारों किलोमीटर जमीन पर कब्ज़ा करके बैठ गया. आज भी वह जब जी चाहे हमें घुड़की देता ही रहता है. कुछ दिन पहले ही अरुणाचल प्रदेश के एक सांसद ने सदन में यह कहकर सनसनी फैला दी थी कि चीन उसके राज्य में 50 किलोमीटर अंदर तक घुस आया है. बहानेबाजी करने के अलावा अपनी देशभक्ति पर अपनी पीठ खुद ही ठोकने वाली पार्टी ने फिर भी कुछ नहीं किया.
खैर, 1962 में हुई हार के चलते हमने सोवियत रूस जैसा बनने की सोची, कई चीजों के राष्ट्रीयकरण के जरिए कोशिश भी की लेकिन नकल के लिए भी अक्ल की जरूरत पड़ती है. अक्ल नहीं थी तभी तो आज तक जात पात की दकियानूसी जंजीरों में बंधे हुए हैं. आज भी ऊंच नीच करते रहते हैं इसलिए वहां भी असफल ही रहे ! रोज़े बख्शाने गए थे, नमाज़ गले पड़ गई !
1993 में वक्त ने फिर पलटी खाई और अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में अमरीका की तूती बोलने लगी. रूसी शासक गरबाचोव भी उसी के ही कसीदे पड़ने लगा, लिहाज़ा हम भी जिसकी ही झोली में जा बैठे. उसके हर अच्छे बुरे काम की नकल की ! एक बार उसकी मुद्रा संस्थाओं के कर्ज के मकड़जाल में उलझ गए तो फिर देश के हित अनहित की तमीज ही न रही.
चलता रहा है सब 2014 तक यों ही ढूचर ढूचर जब तक कि एक गुजराती गिरशेर ने हुंकार नहीं भरी और कहा हम तो विश्वगुरू हैं, बिल्कुल मौलिक हैं. हम विदेशियों का अनुकरण क्यों करें ? अनुकरण ही करना है तो अपने भाइयों का करेंगे, पाकिस्तान का करेंगे. बस वो दिन सो आज का दिन, हम तो पाकिस्तान की आत्मघाती राह पर ही चल रहे हैं !
दिलों में तो लगी ही हुई थी कब से, माकूल माहौल मिल गया तो सड़कों पर भी दिखने लगी यह आग. और यहां भी इसको भी भड़काने का काम हमेशा की तरह संघ के प्रशिक्षित लोगों ने किया, जिनमें से कई तो बेनकाब भी हो गए कैमरे के सामने ! पता नहीं किसने लिखा है, बहुत याद आ रहा है आज यह शे’र :
लगा के आग शहर को बादशाह ने कहा
उठा दिल में तमाशे का शौक बहुत है,
झुका के सर सभी शाहपरस्त बोल उठे
हजूर का शौक सलामत रहे, शहर और बहुत हैं !
जाहिर है दो हिस्सों में बंट चुके हैं मेरे देश के लोग; एक ‘अपने बादशाह’ की हर गलत सही बात की हिमायत किसी भी कीमत पर करने वाले और दूसरे न्याय, तर्क, विवेक की बात करने वाले ! ऐसे में जीत तो बिना सोचे काम कर देने वालों की ही हुआ करती है, गिनती जो ज्यादा होती है उनकी ! दरअसल ऐसे ही लोग कालिदास की तरह पेड़ की उस डाल को काटते हैं, जिस पर वे बैठे होते हैं. इसलिए कुछ लोग इस आगजनी के हादसों से बड़े खुश हैं; पिंजरे में अभी-अभी बंद किए गए खुंखार जंगली जानवर को ऊधम मचाते देख कर जैसे रिंगमास्टर खुश होता है, जैसे वक़्त के हुक्मरान खुश होते हैं कि उनके आदेश न मानने वाले लोगों पर पुलिस को लाठी-गोली चलाने का नैतिक आधार मिल गया. नागरिकता कानून का विरोध वाले लोगों को दो-दो विरोधियों का एक साथ सामना करना पड़ रहा है; एक तो बेरहम मौसम की मार का और दूसरे संवेदना से शून्य प्रशासन और पुलिस का !
सबसे दुखद पहलू इस पूरे मामले का यह है कि एक ऐसा आदमी आज यह फैसला करता है कि कौन इस देश में रह सकता है, कौन नहीं जो खुद 95 दिन जेल में रहा था. जेल में भी वह किसी राजनीतिक आंदोलन में भाग लेने के चलते नहीं गया था बल्कि उसके काले कारनामों की वजह से भेजा गया था. यहां तक कि हिस्ट्रीशीटर की तरह वह तड़ीपार भी हुआ था. वही आदमी आज सदन में 1971 के पहले वाले पाकिस्तान के आंकड़े आज के बना कर परोस देता है कि पाकिस्तान में 23% हिंदू थे जो घट कर चार फ़ीसदी तक आ गए हैं जबकि असलियत यह है कि पकिस्तान मे हिन्दु आबादी 3.2% से बढ़कर 3.7% हो गयी है और तो और इस्लामिक राज्य होने के बावजूद दो सांसद भी हिन्दू हैं, यानि उन्हें राजनीतिक अधिकार भी मिले हुए हैं.
सच्चाई तो यही है कि सारे माहौल को बिगाड़ने की पूरी ज़िम्मेदारी सरकार की है, जो आंदोलनकारियों को उपद्रवी बता कर बदनाम करना चाहती थी और पुलसिया कार्रवाई के लिए नैतिक आधार जुटाना चाहती थी ! वरना किस प्रदेश का मुख्यमंत्री कहता है कि हम बदला लेंगे उससे जिसने जलाई है सम्पत्ति! कैसे- कैसे नेता पैदा के दिए है इस देश ने जो गुंडों की भाषा बोलते हैं !! मुझे ब्रेख्ट का एक कथन याद आ रहा है :
‘सबसे निकृष्ट अशिक्षित आदमी वह होता है, जो सियासी नज़रिए से अशिक्षित होता है. वह सुनता नहीं, बोलता नहीं, सियासी सरगर्मियों में हिस्सा नहीं लेता. इतना घामड़ होता है कि गर्व से कहता है वह राजनीति से नफरत करता है. वह कूड़मगज नहीं जानता कि उसकी राजनीतिक अज्ञानता ही एक गिरे हुए राजनेता को जन्म देती है, जो भ्रष्ट राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियों का नौकर होता है !’
यही तो हालात हो गए हैं इस देश के !!
किससे लेंगे आप बदला ? पहचान बताएंगे क्या उसकी ऐसे दिखते हैं ये लोग, इनका पहरावा आपसे अलग है, पूजा-आराधना का तौर तरीका अलग है !! सांप्रदायिक रंगत देने में केंद्र और राज्यों की सरकारें दोनों ही तो लगी हुई हैं कबसे. लेकिन असम और पूर्वोत्तर के राज्यों में कैसे दे पाएंगे यह सांप्रदायिक रंगत ? वहां पर भाषाई-सांस्कृतिक पहचान का संकट मुसलमानों के कारण तो आया नहीं है, हिंदुओं के चलते आया है. असम में असमी-बंगाली लडाई का इतिहास पुराना है. ‘बिहारियों’ के नाम पर हिंदीभाषियों पर हमले भी होते रहे हैं वहां. तमाम कोशिशों के बावजूद इन्हें मुसलमान-विरोधी रंगत तो आप दे नहीं पाए लेकिन बदला लेने का अहंकार अभी भी जस का तस बना हुआ है !
लाख समझा लें मगर सांप्रदायिक शेर की सवारी करता अपनी ही रौ में बहता सत्तारूढ़ दल विवेक बुद्धि की बात सुनने को तैयार ही नहीं है कि बंग्लादेश से भारत आए लोग हिन्दू या मुसलमान नहीं, बेहतर जीवन और रोजगार की तलाश मे आए लोग हैं, न कि वे किसी धार्मिक उत्पीड़न के कारण आए हैं !
उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम – सभी जगह विरोध हो रहा है इस कानून का. इसलिए केवल मुस्लिम बहुल इलाकों तक सीमित करके दिखना महज एक शरारत है हुक्मरानों की ! प्रसिद्ध इतिहासकार और लेखक रामचन्द्र गुहा को एक प्ले-कार्ड लिए चलने पर हिरासत में लिए जाने के बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा ने जो कहा, वह सत्तापक्ष की सोच को बताने के लिए काफी है, ‘क़ानून व्यवस्था में खलल डाल रहे शरारती तत्वों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जानी चाहिए और आम लोगों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए। अगर ऐसा कहीं होता है तो ज़िम्मेदार अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाएगी यानि विरोध प्रदर्शन भी अब क़ानून व्यवस्था में खलल डालना है और इस बयान में ढकी धमकी भी प्रशासन के लिए कि उसे वहीं करना होगा, जो सत्ता पक्ष चाहेगा !
इस कानून के तहत नागरिकता का सबूत देना नागरिक का काम है. ममता बनर्जी ने भाजपा नेताओं को चुनौती देते हुए कहा, ‘अगर आप मुझसे मेरे पिता का जन्म प्रमाण पत्र मांगते हो, तो पहले तुम भी उसे दो. क्या इन भाजपा नेताओं के पास अपने पिता का जन्म प्रमाण पत्र है ? भाजपा हमसे हमारे पूर्वजों का प्रमाण मांग उनका अपमान कर रही है.’
एक तरह से ठीक ही कह रही हैं ममता दी. कम से कम मेरी पीढ़ी के लोग तो जानते ही हैं जन्म प्रमाणपत्र की असलियत. गांव का चौकीदार ही महीने में एक बार थाने में इसकी सूचना दिया करता था. मुझे खुद अपनी जन्म की तारीख तक नहीं मालूम. मां ने अध्यापक को विभाजन के दौर का कुछ हवाला दिया और अध्यापक ने एक तारीख निश्चित कर दी मेरे लिए, जो आज तक मेरा मुंह चिढ़ाती है. ऐसे लोग कैसे बता पाएंगे पिताजी की जन्म की तारीख ?
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