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अब भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) को बेचने की तैयारियां

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भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) एक बड़ी सरकारी संस्था है. भारत का हर पांचवां नागरिक इसका ग्राहक़ है. पिछले दिनों मोदी सरकार ने यह फ़ैसला किया है कि इस संस्था की ‘शुरुआती सार्वजनिक पेशकश’ (आईपीओ) की जाए जो कि 4 से 9 मई तक समाप्त भी हो गई है. शुरुआती सार्वजनिक पेशकश का अर्थ होता है सार्वजनिक स्टॉक एक्सचेंज में पहली बार किसी कंपनी के हिस्सों (शेयरों) की पेशकश करने की कार्यवाही. स्पष्ट शब्दों में कहें तो कंपनी के छोटे-छोटे हिस्से बनाकर उन्हें बेचने के लिए बाज़ार में पेश करना शुरुआती सार्वजनिक पेशकश कहलाता है.

मोदी सरकार ने भारतीय जीवन बीमा निगम की शुरुआती सार्वजनिक पेशकश कर दी है और इसकी पहली प्रक्रिया तक भी पूरी हो चुकी है. बहुत ही जल्दी और जारी किए गए हिस्सों से तीन गुना ज़्यादा भारतीय जीवन बीमा निगम के हिस्सों को ख़रीदने के प्रस्ताव आ गए हैं. सरकार ने भारतीय जीवन बीमा निगम के 3.5 फ़ीसदी हिस्से बेचने के लिए बाज़ार में पेश किए हैं, जिसकी क़ीमत 21,000 करोड़ रुपए मानी गई है. पहले दो दिनों के अंदर ही सभी हिस्से (शेयर) बिक गए थे. इस प्रकार इस बड़े सार्वजनिक संस्थान को मोदी सरकार ने निजीकरण की पहली सीढ़ी पर चढ़ा दिया है.

1947 में जब भारत का पूंजीपति वर्ग सत्ता में आया, तो इसने अपनी ज़रूरतों के लिए सार्वजनिक ढांचा खड़ा किया, इसके तहत राष्ट्रीयकरण की शुरुआत की गई. विभिन्न सरकारी, निजी छोटी-बड़ी 245 बीमा कंपनियों का राष्ट्रीयकरण करके सरकार ने इन्हें अपने हाथों में ले लिया और इन्हें मिलाकर भारतीय जीवन बीमा निगम नामक एक संस्था बना दी. पहले 5 करोड़ रुपए के निवेश से इसकी शुरुआत हुई थी.

जीवन बीमा निगम की स्थिति और महत्व

5 करोड़ रुपए के निवेश से शुरू हुई यह कंपनी आज 36 लाख करोड़ रुपए की हो चुकी है, जो कि रिलायंस उद्योग की क़ीमत से भी तीन गुना ज़्यादा है. वर्तमान में भारत में 22 बीमा कंपनियां काम कर रही हैं और अकेले भारतीय जीवन बीमा निगम की बाज़ार में हिस्सेदारी 70 प्रतिशत है. इस समय भारतीय जीवन बीमा निगम दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी बीमा कंपनी है.

सभी म्यूचुअल फ़ंड मिलकर भी भारतीय जीवन बीमा निगम की क़ीमत का केवल आधा ही बनते हैं. भारतीय जीवन बीमा निगम भारत के विकास में योगदान डालने वाली सबसे बड़ी कंपनी है. 1956 से अबतक 35 लाख करोड़ रुपए का योगदान भारत की अर्थव्यवस्था में डाल चुकी है. आज इसके ग्राहक़ों की गिनती 29 करोड़ है. 114,000 कर्मचारी और 14 लाख एजेंट इसमें काम करते हैं.

पूरे देश में सबसे महंगी जगहें भारतीय जीवन बीमा निगम के हिस्से आती हैं. देश की सड़कों, बांधों, बिजली, बैंकों और बहुत-सी कंपनियों को बचाने में भी इसकी पूंजी लगी हुई है. दिवालिया होने के किनारे खड़ी कई सार्वजनिक संस्थानों को इसकी मदद से बचाया जाता रहा है. 2020 में इसकी आमदनी 6 लाख 16 हज़ार करोड़ थी और शुद्ध लाभ 2713 करोड़.

2021 में यह मुनाफ़ा 2907 करोड़ रुपए हो गया था. 1990 की आर्थिक नीतियों के बाद बीमा उद्योग में निजी कंपनियां भी आईं, लेकिन इसका हिस्सा अभी भी 70% है. आपने इन सभी तथ्यों से सार्वजनिक क्षेत्र में इसके महत्व का अंदाज़ा लगा ही लिया होगा लेकिन फिर भी सरकार इसे बेचने में लगी हुई है.

निजीकरण के लिए किए जा रहे दावे

मोदी सरकार भारतीय जीवन बीमा निगम को बेचने के लिए अपने कुछ तर्क दे रही है –

  • पहला है विनिवेश के ज़रिए अपने लिए पैसा जुटाना. विनिवेश का मतलब है सरकार की ओर से अपना हिस्सा उन संस्थानों से वापस निकालना, जिनमें घाटा हो रहा हो. मतलब यह हुआ कि सरकार अब उस संस्थान में कोई योगदान नहीं देगी और उसे पूंजीपतियों को कौड़ियों के दाम सौंपकर अपने लिए पूंजी जुटाएगी.
  • दूसरा कि सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है और इसकी भरपाई के लिए कंपनियों को बेचा जा रहा है.

सरकार के ये तर्क पूरी तरह से झूठे और ग़लत हैं. विनिवेश से केवल पैसा इकट्ठा नहीं होता, इसमें साथ ही निजी मालिकों के प्रवेश के लिए भी रास्ता खुलता है और सरकार इसकी क़ीमत से कम पर ही इसे बेच रही है. दरअसल सरकार ने साल 2019-20 में विनिवेश के लिए 65,000 करोड़ रुपए का लक्ष्य रखा था, जिसे 2021 में बढ़ाकर 2.10 लाख करोड़ रुपए कर दिया गया था, इसे पूरा करने के लिए भारतीय जीवन बीमा निगम को भी बेचा जा रहा है. यह पैसा सरकार कोई जनता की भलाई के लिए ख़र्च करने नहीं जा रही, बल्कि यह पैसा अंबानी-अडानी को ही दिया जाएगा.

मौजूदा समय में मोदी सरकार लगातार सरकारी संस्थानों को बेचने में लगी हुई है. सभी संस्थानों को बेचने के बाद अब शेष सभी बड़े संस्थानों का भी ख़ात्मा किया जा रहा है. एयर इंडिया को कौड़ियों के दाम पर बेचना, 3700 करोड़ की कंपनी पवन हंस को 211 करोड़ रुपए में आधी बेच देना आदि इसके उदाहरण हैं. पहले बहाना हुआ करता था कि सरकारी संस्थान मुनाफ़ा नहीं कमा रहे, इसलिए इन्हें बेचा जा रहा है, लेकिन आपने ऊपर पढ़ा है कि भारतीय जीवन बीमा निगम मुनाफ़ा कमा रही है, दूसरों का क़र्ज़ा तक भी चुका रही है, फिर भी इसके निजीकरण की प्रक्रिया शुरू कर दी गई है. क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था की सरकारों का काम पूंजीपतियों की सेवा करना होता है.

सरकार को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि सरकारी संस्थानों की बिक्री से जनता के पैसे से स्थापित किए गए संस्थान जनता के किसी काम के नहीं रहेंगे और भारत आने वाले समय में इस आर्थिक संकट में और गहरे धंसेगा.

सरकार को अपने राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए अमीरों पर कर बढ़ाना चाहिए, लेकिन सरकार इसकी बजाय लोगों के पैसे से करोड़ों के खड़े किए गए संस्थानों को ही बेचकर घाटा पूरा करना ही एकमात्र रास्ता सोचती है. भारतीय जीवन बीमा निगम के हिस्सों को सार्वजनिक करने से सरकार को 70,000 करोड़ रुपए की आमदनी होगी. यह सारा पैसा लोगों की जगह जोकों के मुनाफ़े को पूरा करने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा.

सरकार लोगों को और पाॅलिसी ग्राहक़ों को यह विश्वास दिला रही है कि केवल 3.5 प्रतिशत हिस्सा है, जो स्टॉक एक्सचेंज में सूचीबद्ध किया गया है, बाक़ी हम नहीं बेचेंगे लेकिन झूठ बोलने में भी यह सरकार आगे है, क्योंकि स्टॉक एक्सचेंज के नियमों के मुताबिक़ जब आप अपनी मालि‍की के हिस्से सूचीबद्ध करते हैं, तो आपको अपनी मालि‍की 100 फ़ीसदी से घटाकर 75 फ़ीसदी करनी होती है. इसका मतलब है कि अब यह प्रक्रिया 3.5 फ़ीसदी तक नहीं रुकेगी, इसे कम-से-कम अपनी 25 फ़ीसदी हिस्सेदारी बेचनी होगी. अगर यह निजीकरण नहीं है, तो फिर सरकार को बताना चाहिए कि निजीकरण क्या होता है ?

इस तरह इस संस्थान का निजीकरण बढ़ता जाएगा और एक दिन यह पूरी तरह से अंबानी और अडानी के हाथ में होगा. आज भारत के सबसे बड़े संस्थान को बेचना आसान नहीं है और ना ही कोई इसे एक झटके में ख़रीद सकता है, निगम के कर्मचारी लगातार अपना रोष व्यक्त कर रहे हैं, इस प्रक्रिया के ख़िलाफ़ हड़ताल भी कर रहे हैं.

इससे भी आगे मोदी सरकार ने भारत में विदेशी निवेश को 49 प्रतिशत से बढ़ा दिया है और अब भारत में जीवन बीमा निगम में यह निवेश 74 प्रतिशत तक की अनुमति देता है. सरकार का कहना है कि यह निजीकरण नहीं है, लेकिन आप इन आंकड़ों से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि सरकार कितना बड़ा झूठ बोल रही है.

इन संस्थानों को डुबाना सरकार का नया काम नहीं है. 1991 से शुरू हुई नवउदारवाद की नीतियों के तहत यह काम चल रहा है और 2014 में भाजपा सरकार के आने पर इसमें ओर भी तेज़ी आई है. मोदी सरकार की पूंजीपति पक्षधर नीतियों का नतीजा यह है कि भारतीय जीवन बीमा निगम की ग़ैर-क्रियाशील संपत्तियां (एनपीए) भी लगातार बढ़ रही हैं. ये ग़ैर-क्रियाशील संपत्तियां सीधे तौर पर निगम की नहीं होती हैं, दरअसल निगम दिवालिया होने जा रहे संस्थानों को बचाने के लिए सरकार के इशारे पर इनमें निवेश करता है और लगातार ऐसे कई संस्थान डूबने से बचाए भी हैं.

लेकिन इन संस्थानों में लगाई गई पूंजी बड़े पूंजीपतियों के खाते में चली जाती है. विजय माल्या, नीरव मोदी और अन्य बड़े-बड़े पूंजीपति इन संस्थानों का क़र्ज़ा नहीं चुकाते, जिसका नतीजा है कि इन क़र्ज़ों को विनिमय खाते में डाल दिया जाता है. मतलब अब यह क़र्ज़ा वापिस आने की कोई उम्मीद नहीं है. इस तरह निगम द्वारा दी गई पूंजी बट्टेखाते में डाल दी जाती है. निगम अब तक 4 लाख करोड़ का क़र्ज़ा अन्य संस्थानों को दे चुका है और इसके 34,934 करोड़ रुपए बट्टेखाते में जा चुके हैं.

अब आप ख़ुद सोचिए कि कौन ऐसे संस्थान को बेचना चाहेगा, जो भविष्य में भी सरकार के लिए काम आए, लेकिन मोदी सरकार की पूंजीपतियों की सेवा भावना के कारण ही यह हो सकता है. पिछले समय से यह नया चलन सामने आया है कि लगातार सरकारी संस्थान, जो भी मुनाफ़ा कमा रहे हैं, उन्हें पूंजीपतियों के मुनाफ़े के लिए खुला छोड़ा जा रहा है. यह चलन भी फ़ासीवादी भाजपा की सरकार ही आगे बढ़ा सकती है, क्योंकि आज पूंजीपतियों की पसंदीदा सरकार वही होगी, जो उनके मुनाफ़े पर रोक ना लगने दे और संकट का सारा बोझ मेहनतकशों पर डाल दे.

इसके लिए सरकारी संस्थानों का निजीकरण किया जाता रहा है, सरकार जनता पर होने वाले ख़र्चे कम करके अपनी आमदनी को पूंजीपतियों की जेब भरने के लिए इस्तेमाल करती है. अस्थाई रूप से संकट से राहत पाने के लिए इन कोशिशों से देश का आर्थिक संकट और गहराएगा. आम लोगों की ज़िंदगी में और समस्याएं, कठिनाइयां जुड़ती जाएंगी और इसके समाधान के लिए जनता को आज से ही इस व्यवस्था को बदलने की तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।

  • गुरप्रीत गुरी (मुक्ति संग्राम)

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ROHIT SHARMA

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