हमारे आंखों के सामने एक संसार गढ़ा जा रहा है
और एक संसार मिटाया जा रहा है
विकास के सागर में एक गांव नहीं, एक शहर नहीं,
एक देश नहीं
पूरी दुनिया को डुबाया जा रहा है.
जिसके चीखों से गूंज रहा है आकाश
और धरती फटी जा रही है
फिर भी पूरे देश में विकास का गीत गाया जा रहा है,
जिसे सुनना उन चीख़ों से मुंह मोड़ना है
जो हमारे समय के सबसे जरूरी और मजबूत आवाज है.
जिसमें सपना है, संघर्ष है, दुनिया को बदलने का संकल्प है,
जो आ रही है जंगलों से, खेतों से, कारखानों से
जिनके स्वर में स्वर मिलाने के सिवाय
आज कविता का कोई काम नहीं है.
मैं जा रहा हूं उनके गीतों को गाने
उनके संघर्षों में हाथ बंटाने
ओ मेरे देश, ओ मेरे लोगों, ओ मेरी मां, ओ मेरी प्रेयसी…
तुम सब के लिए जी तो नहीं पाया
पर मरना चाहता हूं
मुझे क्षमा करना !
अब मेरे पास बिल्कुल समय नहीं है
कि कुछ पल तुम्हारे साथ रहूं,
तुम्हें प्यार करूं,
मैं जा रहा हूं तुम्हारे खुशियों के लिए,
तुम्हारे सपनों के लिए
जिसके लिए अब तक भटकता रहा हूं,
टूटपुंजिया नौकरियों के बहाने,
खुद को बेचता रहा हूं
पर कहां तुम्हारे सपने पूरा कर पाया
कहां तुम्हारे दिल की गहराईयों में उतर पाया इसीलिए
अब बाजार से नहीं,
युद्ध से तुम्हारे लिए खुशियां लाऊंगा.
जो कब का शुरू हो चुका है,
न जाने कब से मुझे बुलावा आ रहा है
पर अब तक टालता रहा
खुद को भ्रम में डालता रहा
कि बिना लड़े भी जिया जा सकता है,
जी तोड़ मेहनत करूं तो क्या नहीं पाया जा सकता है ?
पर भ्रम तो भ्रम है
श्रम तो श्रम है
जिसमें खून पसीना बहता है,
मैंने भी जी भर बहाया है
बदले में इसकी क़ीमत तो दूर
इस समाज (अर्द्ध सामंती-अर्द्ध औपनिवेशिक) में
इज़्ज़त भी नहीं पाया.
इस समाज में जीना पल-पल मरना है
जीते हुए वर्ग का अधीनता स्वीकार करना है,
जो मैं अब कर नहीं सकता,
इसे सह नहीं सकता
बहुत रो लिया,
गिड़गिड़ा लिया,
दया का पात्र बनने के लिए क्या-क्या नहीं किया ?
पर इस समाज मे दया एक माया है
जिसके हाथ में शासन है,
उसकी छाया है,
यह उसी पर पड़ता है,
जो इसके नीचे झुकता है
और जो इसके नीचे झुकता है,
वो फिर कभी नहीं उठता है.
आज मैंने जान लिया है
खुद को पहचान लिया है
कि मैं मरा नहीं ज़िन्दा हूं,
गुलाम नहीं आज़ाद हूं
दुनिया को सुंदर बनाने में बराबरी का हकदार हूं
बराबरी का हिस्सेदार हूं.
- विनोद शंकर
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