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अब तालिबान के रहमोकरम पर अफगानिस्तान में भारतीय निवेश

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अब तालिबान के रहमोकरम पर अफगानिस्तान में भारतीय निवेश

अफगानिस्‍तान के कई देशों के साथ द्विपक्षीय करार हुए थे और तालिबान के लौटते ही वो सभी करार अंधेरे में आ गए हैं. भारत को इस घटनाक्रम से सबसे ज्‍यादा चोट पहुंची है. अफगानिस्तान में जिस तरीके से तख्तापलट कर तालिबानियों ने कब्जा कर दिया उससे भारत के माथे पर चिंता की लकीरें दुनिया के अन्य मुल्कों से ज्यादा ही है.

विदेशी मामलों के जानकार डॉक्टर एल. एन. राव कहते हैं कि भारत की अफगानिस्तान से घनिष्ठता पाकिस्तान को सबसे ज्यादा अखरती भी थी क्योंकि उसके पड़ोसी मुल्क अफगानिस्तान में भारत का हद से ज्यादा दखल भी था, जो पाकिस्तान को भारत के दबाव में रहने के लिए मजबूर करता था.

डॉक्टर राव कहते हैं रणनीतिक समझौते के तहत भारत ने अफगानिस्तान में अब तक न केवल तकरीबन 23,000 करोड़ रुपये का निवेश ही किया था, बल्कि अफगानिस्तान की अर्थव्यवस्था चलाने के लिए बहुत मदद भी की. अब तालिबान की सत्ता बनने के साथ ही यह सारे प्रोजेक्ट और अर्थव्यवस्था में निवेश बीच अधर में फंस गया है. डॉ. राव कहते हैं कि अब आगे क्या होगा इस बारे में अभी कुछ कहना बहुत जल्दबाजी होगी.

1996 से 2001 के बीच जब भारत ने दुनिया के देशों के साथ अफगानिस्तान में तालिबान के राज को खत्म करने के लिए हाथ मिलाया था तब भारत के लिए यह एक बड़ा रणनीतिक कदम था. सिर्फ पाकिस्तान, यूएई और सऊदी अरब ने उस वक्त तालिबान का साथ दिया था. 9/11 के बाद भारत ने एक नए सिरे से अफगानिस्तान के साथ संबंध को आगे बढ़ाया.

कुल 3 बिलियन डॉलर का निवेश

भारत ने अफगानिस्तान में सड़क, डैम, बिजली ट्रांसमिशन लाइन, सब-स्टेशन, स्कूल, अस्पताल आदि के निर्माण में अहम योगदान दिया. भारत ने अफगानिस्तान में तकरीबन 3 बिलियन डॉलर यानि तकरीबन 23 हजार करोड़ रुपए का भारी निवेश किया था. यही नहीं भारत ने अपने देश के के बाजार में अफगानिस्तान के लिए ड्यूटी-फ्री बिजनेस की राह खोली.

दोनों देशों के बीच द्वीपक्षीय व्यापार 1 बिलियन डॉलर तक का था. 2020 में भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने जेनेवा कॉन्फ्रेंस में कहा था कि आज अफगानिस्तान का कोई ऐसा हिस्सा नहीं जहां भारत के प्रोजेक्ट ना हो, भारत के अफगानिस्तान में 400 से अधिक प्रोजेक्ट हैं, जिसे सभी 34 अफगानिस्तान के प्रांत में चलाया जा रहा है लेकिन अब इन प्रोजेक्ट का भविष्य अंधकार में नजर आ रहा है.

अफगानिस्तान में भारत के बड़े प्रोजेक्ट

सलमा डैम

अफगानिस्तान के हेरात प्रांत में सलमा डैम को भारत ने तैयार किया था, जिसका उद्घाटन खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2016 में किया था. इस डैम को फ्रैंडशिप डैम के रूप में भी जाना जाता है, जहां पर बड़े पैमाने पर तकरीबन 42 मेगावाॉट बिजली का उत्पादन होता है. यहां से तकरीबन 75 हजार हेक्टेयर जमीन को पानी मुहैया कराया जाता था.

जारंज हाईवे

अफगानिस्तान के निमरुज प्रांत की राजधानी जारंज में भारत ने हाईवे के निर्माण में काफी निवेश किया था. भारत ने यहां हाईवे का निर्माण इस उद्देश्य से किया था ताकि वह ईरान के चाबहार बंदराग के रास्ते जारंज शहर पहुंच सके और यहां से ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, किर्गिस्तान के साथ जुड़ सके.

मई 2016 में इं‍डिया पोर्ट्स ग्‍लोबल और अरिया बानादेर इरानियन पोर्ट एंड मैरीन सर्विसेज कंपनी ने एक डील साइन की थी. इस डील के तहत चाबहार पोर्ट फेज-I को 85.21 मिलियन डॉलर के पूंजी निवेश और 22.95 मिलियन के रेवेन्‍यू के साथ 10 साल की लीज पर दिया गया था. कार्गो से हासिल होने वाले रेवेन्‍यू को भारत और ईरान आपस में साझा करते.

संसद

काबुल स्थित अफगानिस्तान की संसद का निर्माण भारत ने कराया था, इसके लिए भारत ने कुल 90 मिलियन डॉलर का निवेश किया था. इसे 2015 में खोला गया था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसका उद्घाटन किया था. उद्घाटन के दौरान भाषण देते हुए पीएम मोदी ने रूमी का जिक्र किया था और ‘यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी’ गाने का जिक्र किया था.

पीएम मोदी ने इस बिल्डिंग को अफगानिस्तान के लोकतंत्र के लिए भारत का सम्मान बताया था. बिल्डिंग में एक ब्लॉक का नाम पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर भी रखा गया है.

स्टोर पैलेस

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अफगानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने 2016 में इसका उद्घाटन किया था. इसे मूल रूप से 19वीं शताब्दी में बनाया गया था लेकिन 2009 में भारत और अफगानिस्तान के बीच इस बिल्डिंग के जीर्णोद्धार के लिए करार किया गया था. आगा खान ट्रस्ट फॉर कल्चर ने इस प्रोजेक्ट को 2013 से 2016 के बीच पूरा कर लिया था.

ऊर्जा के क्षेत्र में निवेश

भारत ने ऊर्जा के क्षेत्र में भी अफगानिस्तान में बड़ा निवेश किया था. पूर्वी काबुल की स्थित बघलान में 220 केवी डीसी ट्रांसमिशन लाइन को तैयार किया गया था, जिससे राजधानी पुल ए खुमारी में बिजली मुहैया कराई जा सके. भारतीय कॉन्ट्रैक्टर और वर्कर्स ने कई प्रांतों में टेलीकम्युनिकेशन इंफ्रास्ट्रक्चर को भी फिर से स्थापित किया था.

इंदिरा गांधी इस्टिट्यूट

काबुल में भारत ने इंदिरा गांधी इंस्टिट्यूट फॉर चाइल्ड हेल्थ की पुन: निर्माण कराया था. यह सेंर युद्ध के समय जर्जर हो गया था जिसे भारत ने 1985 में फिर से खड़ा करने में मदद की थी. इसके अलावा भारत ने बल्ख, कंधार, खोश्त, कुनार, निमरुज, पाकतिया, नूरिस्तान में भी क्लीनिक बनवाए थे.

भारत के 400 से अधिक प्रोजेक्ट

भारत ने अफगानिस्तान में रोड, डैम, बिजली ट्रांसमिशन लाइन और सब स्टेशन, स्कूल-अस्पताल आदि बनाए हैं. भारत के विदेश मंत्रालय के मुताबिक अफगानिस्तान में भारत ने 400 से अधिक छोटे-बड़े प्रोजेक्ट पर काम किया है.

किंकर्तव्यविमूढ़ भारत की मोदी सरकार

बहरहाल, अफगानिस्तान से अमेरिका का पलायन और तालिबान के सत्तारूढ़ होने से सबसे ज्यादा नुकसान भारत को ही होने जा रहा है. उपरोक्त सारी योजनाएं अधर में लटक गई है. अगर तालिबान ने समस्त विदेशी पूंजी को जप्त कर अपना राष्ट्रीय पूंजी घोषित कर देता है (जिसकी संभावना सबसे ज्यादा है) तो सबसे ज्यादा भारतीय पूंजी ही जप्त होगी.

भारत की मोदी सरकार को अफगानिस्तान की इस तख्तापलट ने काठ मार दिया है. उसे कुछ सूझ नहीं रहा है. परन्तु शीर्षस्थ अधिकारी का कहना है कि फिलहाल अभी थोड़ा इंतजार करना होगा और साफ तस्‍वीर आने तक धैर्य रखने की जरूरत है. देखना है कि मोदी सरकार की यह ‘धैर्य’ क्या रंग लायेगी ?

बहरहाल, तस्वीरें अब यही दिखाती है कि अफगानिस्तान में भारतीय पूंजी निवेश, जो अफगानिस्तान की जनता को लूटने और मुनाफा कमाने के उद्देश्य से अमेरिकी साम्राज्यवाद के पीछे-पीछे भारतीय विस्तारवादियों ने अपना दौलत लगाया था, अमेरिकी साम्राज्यवाद के उल्टे पांव भागने के बाद अब तालिबानी रहमोकरम पर टिक गया है. भारतीय विस्तारवादियों द्वारा अब गिड़गिड़ाना अथवा तालिबान की शर्तों पर निर्भर रहना होगा.

कहना नहीं होगा भारतीय विस्तारवादियों की हालत उस कहानी के समान हो गई है, जब एक भेड़िया किसी मरे हुए खूंखार बाघ को खाने जाता है, तो उसके पीछे पीछे गली का कुत्ता भी चला जाता है. कुत्ता ज्यों ही बाघ को खाने के लिए मूंह मारता है कि वह बाघ जी उठता है. जिन्दा बाघ को देखकर भेड़िया तो भाग खड़ा होता है लेकिन कुत्ता उसके चंगुल में फंसा दया की भीख मांगता हुआ असहाय सा खड़ा रहता है. आज भारत की दशा उस कुत्ता के समान बन गई है.

इस दया की भीख मांगता असहाय सा कुत्ता बने भारत की पुष्टि इस तथ्य से भी हो जाती है जब अफगानिस्तान से आये कई लोगों एयरपोर्ट से ही वापस लौटा दिया गया. भारत किसी भी सूरत में अफगानिस्तान के तालिबानी शासक के साथ युद्ध की स्थिति नहीं चाहेगा.

राजनयिक अमर सिन्हा अफ़ग़ानिस्तान में भारत के राजदूत रहे हैं, उन्होंने इसी सवाल के जवाब में बीबीसी से कहते हैं कि भारत के पास विदेश नीति के कई विकल्प हैं, लेकिन ज़ाहिर है कि इसमें भारत का युद्ध क्षेत्र में उतरना शामिल नहीं है. जाहिर है अगर आप युद्ध नहीं करेंगे तो समझौता ही करेंगे, जिसके लिए भारत के कॉरपोरेट की रीढ़विहीन भ्रष्ट दलाल सरकार ‘बैकचैनल’ से बात कर रही है.

खबरों के अनुसार, अफगानी तालिबानी शासक चीन, रुस और पाकिस्तान को तबज्जो दे रही है और भारत की ‘डंका बजाने वाली’ इस नकारा मोदी सरकार ने अमेरिकी भक्ति में डूबकर इन सभी के साथ अपना सम्बन्ध न केवल खराब ही कर लिया है, अपितु पूरी दुनिया में खुद को हास्यास्पद बना लिया है. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि यह भारत सरकार भारतीय निवेश को बचाने के लिए किस किस के दरवाजे पर नाक रगड़ेगी.

पंजशीर के ससुर

राजीव कुमार मनोचा लिखते हैं – पौने 2 लाख आबादी और गोआ जितना क्षेत्रफल है अफ़ग़ानी प्रांत ‘पंजशीर’ का. अब इस आबादी में पंसारी, लुहार, कुम्हार, क्लर्क और दुकानदार भी होंगे, सब तो सिपाही होंगे नहीं. औरतें और बच्चे भी होंगे, सो अलग. मतलब हथियारबंद बागियों के कुछ लड़ाकू दस्ते हैं प्रतिरोधी बल के नाम पर.

प्रतिरोध वाली बात इतनी सी है कि ताजिकों की पटती नहीं पख़्तूनों से और तालिबान पर वर्चस्व है पख़्तून प्रजाति का. पहाड़ों से घिरी पंजशीर घाटी से धांय धांय कर ये कुछेक हज़ार ताजिक जोशीले विद्रोही तेवर दिखा रहे हैं. क्या करें, पुरानी आदत है मसूद के बाग़ी बंदों की !

लेकिन इधर भारत में छातियां धक धक कर रही हैं. फुल-ऑन शो चल रहा है यहां. जोकर मीडिया धांसू परफॉरमेंस दे रहा है, बाक़ायदा खाड़कू हाव भाव बना कर. दो अंतरराष्ट्रीय नस्ल के गधे टकटकी लगा कर देख रहे हैं. यारों मित्रों से ‘पंजशीर-पंजशीर’ इस तरह कर रहे हैं जैसे इस अन्जान सी वादी का चप्पा चप्पा जानते हैं. इनकी बेटी ब्याही है वहां और दामाद मसूद के लड़ाकों का कमांडर है ! इनकी सोचें सुन कर हंसी आ रही है.

हिन्दू गधे सोच रहे हैं कि ये मुट्ठी भर ताजिक बाग़ी तालिबान को पीट दें तो मज़ा आ जाए. उधर मुस्लिम गधे डर रहे हैं कि काफ़िर पीट ही न डालें कहीं. धार्मिक मूर्खों का ‘रामलीला क्लब’ बनता जा रहा है भारत. आइए मुफ़्त मनोरंजन कीजिए.

बेचारा भारत

राजीव कुमार मनोचा आगे लिखते हैं, पाकिस्तान राग अलापते-अलापते और उसी के गिर्द परिक्रमा करते-करते भारत ने ख़ुद का दर्जा इतना हल्का कर लिया है कि जिस अफ़ग़ानी तख़्तापलट से उसे कई स्तरों पर नुक़सान होगा, उसे वह किनारे पर बेबस खड़ा देख रहा है लेकिन हैरत किस बात की है ? छोटी सोच रखने का सदा यही तो नतीजा होता आया.

अपने क्षेत्रफल, सैन्यबल और भौगोलिक स्थिति के मद्देनज़र भारत को अफ़ग़ानिस्तान में वह दमदार रोल अदा करना चाहिए था, जो अमरीकी प्रशासन ने कभी कोसोवो और कुवैत के मुआमले में किया था. इज़राइल ने इराक़ के परमाणु रिएक्टर पर हमले की बारी किया था. वस्तुतः भारत में हौसले और जुर्रत की सदा कमी रही. इसी कमी के चलते साधारण-सा पाकिस्तान परमाणु बम बना पाया, बेहद दुस्साहसी होता गया. इतना कि पंजाब व कश्मीर में आतंकवाद प्रायोजित किया और अफ़ग़ानिस्तान जैसे संवेदनशील देश में अमरीकी मिलीभगत से चौधरी बन बैठा.

आज हमारी आंखों के सामने हमारे पड़ोस में पाक, चीन और अमरीका अपने-अपने विनाशकारी खेल खेलते फिर रहे हैं और हमारा मूर्ख प्रधानसेवक विभाजन विभीषिका के सियापे ले कर बैठ गया है. जाने किस उल्लू के चरख़े ने इस नाज़ुक वक़्त में इस मूढ़ को यह फ़िज़ूल आईडिया दिया है !

किसी ने ठीक कहा था कि भारत बहुत अमीर देश है पर ग़रीब लोगों से भरा पड़ा है. मैं इसमें एक बात और जोड़ता हूं भारत एक बहुत समर्थ और विराट संभावनाओं वाला देश है पर कायरों और छिछोरों से भरा पड़ा है. यही कारण है जब से अमेरिका अफगानिस्तान से भागा है और तालिबान ने सत्ता संभाला है, कायर संघियों के सुर बदल गये हैं

संघ गायकों की आश्चर्यजनक प्रतिक्रिया

जब से अमेरिका अफगानिस्तान से भागा है और तालिबान ने सत्ता संभाला है, कायर संघियों के सुर बदल गये हैं. मैं उनकी करुणामई टिप्पणियों से आश्चर्यचकित हूं. उनकी टिप्पणियां इस प्रकार है –

यह तालिबान अपने पिछले संस्करण से अलग हैं. वे पढ़े लिखे हैं. इनमें से कई के पास पश्चिमी विश्वविद्यालयों की डिग्री है. उन्होंने अपनी पिछली गलतियों से सीखा है. वह बहादुरी से लड़े हैं एक अमेरिकी समाजवाद के साथ लेकिन फिर भी वह निर्दयी नहीं हैं और उन्होंने अफगानिस्तान सरकार को आत्मसमर्पण करने के लिए शांतिपूर्ण मौका दिया है. जरा इनकी शालीनता को देखो, वह देश के मालिक होने का दावा नहीं करते, इसके विपरीत अफगानिस्तान के विनम्र नौकरों के रूप में खुद दयालु को बताया है. शायद ही इस बार कोई बुरा हाल हो. चलो उन्हें खुद को साबित करने का मौका दें. तालिबान को एक मौका और दो.

देर सबेर भारत की कायर डरपोक संघी मोदी सरकार की अफगानिस्तान और तालिबान के प्रति नीति होगी.

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