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नवम्बर क्रांति के अवसर पर : अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति की तैयारी और विजय का दौर

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नवम्बर क्रान्ति मानव इतिहास में घटित सबसे महान घटना है. यह ऐतिहासिक घटना सर्वहारा के जिस महान शिक्षक लेनिन के नेतृत्व में सम्पन्न हुई, वे इस क्रांति के साथ ही मानव इतिहास के पटल पर अपना अमिट छाप छोड़ गये. आज उसी ऐतिहासिक घटना का दिन है जब 103 वर्ष पूर्व इसे सम्पन्न किया गया. मानव इतिहास में सर्वहारा के प्रथम और द्वितीय शिक्षक कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स के नेतृत्व में सम्पन्न ‘पेरिस कम्युन’ ने समाजवादी व्यवस्था के जिस नींव को रखा, लेनिन ने उस विरासत को थाम कर सोवियत संघ की समाजवादी व्यवस्था की स्थापना कर दी.

मानव इतिहास में पहली बार सम्पन्न समाजवादी व्यवस्था को स्थापित करने में किन-किन कारणों, कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, इसका संक्षिप्त लेखा-जोखा सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी ने ‘सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) का इतिहास’ (संक्षिप्त कोर्स), सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की केन्द्रीय कमेटी के कमीशन द्वारा सम्पादित, सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) की केन्द्रीय कमेटी द्वारा वर्ष 1938 में अनुमोदित (हिंदी अनुवादक: रामविलास शर्मा) नामक एक ऐतिहासिक दस्तावेज जारी किया. यहां हम अपने पाठकों के लिए इस पुस्तक (दस्तावेज) का एक अध्याय ‘अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति की तैयारी और विजय के दौर में बोल्शेविक पार्टी (अप्रैल 1917-1918)’ यहां प्रस्तुत कर रहे हैं.

नवम्बर क्रांति के अवसर पर : अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति की तैयारी और विजय का दौर

अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति की तैयारी और विजय के दौर में बोल्शेविक पार्टी
(अप्रैल 1917-1918)

1. फरवरी क्रान्ति के बाद देश की परिस्थिति. गुप्त जीवन से पार्टी का निकलना और खुला राजनीतिक काम करना. लेनिन का पेत्रोग्राद आना. लेनिन की अप्रैल-थीसिस. समाजवादी क्रान्ति की ओर आगे बढ़ने की पार्टी की नीति.

घटनाक्रम और अस्थायी सरकार के आचरण से, नित नये सबूत मिलने लगे कि बोल्शेविक नीति सही है. यह बात अधिकाधिक जाहिर होती गयी कि अस्थायी सरकार जनता के पक्ष में नहीं है बल्कि जनता के खिलाफ है, शान्ति के पक्ष में नहीं है बल्कि युद्ध के पक्ष में है और वह जनता को शान्ति, जमीन या रोटी न तो दे सकती है, न देना चाहती है. बोल्शेविकों ने अपनी नीति समझाने के काम के लिए उपजाऊ जमीन पायी.

जब मजदूर और सैनिक जार सरकार का तख्ता उलट रहे थे और राज्यतंत्र की जड़ ही काट रहे थे, तब अस्थायी सरकार निश्चित रूप से राजतंत्र की रक्षा करना चाहती थी. 2 मार्च 1917 को, उसने गुप्त रूप से गुचकोव और शुल्गिन को जार के पास जाने और उससे मिलने के लिए मुकर्रर किया. पूंंजीपति चाहते थे कि सत्ता निकोलस रोमानोव के भाई माइकेल के हाथ में आ जाये. लेकिन, जब रेल-मजदूरों की एक सभा में गुचकोव ने अपने भाषण का अन्त करते हुए कहा : ‘सम्राट माइकेल जिन्दाबाद’, तो मजदूरों ने मांंग की कि गुचकोव को तुरन्त गिरफ्तार कर लिया जाये और उसकी खाना तलाशी ली जाये. मजदूरों ने गुस्से में कहा : ‘जैसे नागनाथ, वैसे सांंपनाथ!’

जाहिर था कि मजदूर राजतंत्र को बहाल नहीं होने देंगे.

जबकि मजदूर और किसान, जो क्रान्ति करते हुए अपना खून बहा रहे थे, आशा करते थे कि युद्ध बन्द कर दिया जायेगा; जबकि वे रोटी और जमीन के लिए लड़ रहे थे और आर्थिक अव्यवस्था को खत्म करने के लिए जोरदार उपाय करने की मांंग कर रहे थे, अस्थायी सरकार जनता की इन बेहद जरूरी मांंगों को अनसुना कर रही थी. इस सरकार में पूंंजीपतियों और जमीन्दारों के प्रतिनिधि तो थे ही, उसका कोई इरादा न था कि किसानों को जमीन देने की उनकी मांंग पूरी की जाये. न वह मेहनतकश जनता को रोटी दे सकती थी; क्योंकि ऐसा करने के लिए उसे गल्ले के बड़े व्यापारियों के हितों में हाथ लगाना पड़ता और हर मुमकिन उपाय से जमीन्दारों और कुलकों से गल्ला लेना पड़ता. और हुकूमत यह करने की हिम्मत न करती थी, क्योंकि वह खुद इन वर्गों के हितों से बंधी हुई थी. वह जनता को शान्ति नहीं दे सकती थी. अंग्रेज और फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों से उसका गठबन्धन तो था ही. अस्थायी सरकार की जरा भी मंशा न थी कि युद्ध खत्म किया जाये, उल्टे वह क्रान्ति से फायदा उठा कर साम्राज्यवादी युद्ध में रूस के और सक्रिय रूप से भाग लेने की कोशिश कर रही थी और इस तरह, कुस्तुन्तुनिया, दर्रे दानियाल और गैलीशिया पर कब्जा करने के अपने साम्राज्यवादी मंसूबे पूरे करना चाहती थी.

यह स्पष्ट था कि अस्थायी सरकार की नीति में जनता का विश्वास अवश्य ही जल्द खतम हो जायेगा.

यह बात साफ थी कि फरवरी क्रान्ति के बाद जिस दुहरी सत्ता का जन्म हुआ, वह ज्यादा दिन तक नहीं चल सकती थी. घटना-क्रम की मांंग थी कि सत्ता एक ही अधिकारी के हाथ में केन्द्रित हो: या तो अस्थायी सरकार के हाथ में, या सोवियतों के हाथ में.

यह ठीक था कि मेन्शेविकों और समाजवादी क्रान्तिकारियों की समझौतावादी नीति को अब भी आम जनता में समर्थन मिल जाता था. ऐसे काफी मजदूर थे और इनसे भी ज्यादा सैनिक और किसान थे जो अब भी समझते थे कि ‘विधान सभा जल्द ही आयेगी और सब कुछ शान्तिमय ढंग से ठीक कर देगी.’ और, ये लोग समझते थे कि युद्ध दूसरे देश जीतने के लिए नहीं, बल्कि जरूरत के लिए, राज्य की रक्षा करने के लिए हो रहा है. लेनिन ने ऐसे आदमियों को ईमानदारी से गलती करने वाले सुरक्षावादी कहा था. ये लोग अब भी समझते थे कि समाजवादी-क्रान्तिकारी और मेन्शेविक नीति, जो वादों और फुसलाने की नीति थी, सही नीति है. लेकिन, जाहिर था कि वादे करने और फुसलाने से ज्यादा दिन काम न चल सकता था, जैसा कि घटनाक्रम और अस्थायी सरकार के व्यवहार से आये दिन प्रकट हो रहा था. इससे साबित हो रहा था कि समाजवादी-क्रान्तिकारियों और मेन्शेविकों की समझौतावादी नीति काम को टालने और सीधे-सादे लोगों को बरगलाने की नीति है.

अस्थायी सरकार आम जनता के क्रान्तिकारी आन्दोलन के खिलाफ हमेशा छिपे संघर्ष से ही काम न लेती थी, क्रान्ति के खिलाफ छिपकर साजिशें करने से ही सन्तुष्ट नहीं थी. वह कभी-कभी जनवादी अधिकारों पर खुला हमला करने की कोशिश करती थी, ‘अनुशासन बहाल करने की कोशिश करती थी’, खास तौर से सैनिकों में कोशिश करती थी, ‘व्यवस्था कायम करने’ यानी क्रान्ति को ऐसी धाराओं में बहाने की कोशिश करती थी जो पूंंजीपतियों की जरूरतों के माकूल थी. लेकिन, इस दिशा में उसकी सभी कोशिशें नाकाम हुईं. लोग आतुरता से अपने जनवादी अधिकारों का, यानी भाषण, प्रेस, सभा-संगठन बनाने, मीटिंगें और प्रदर्शन करने की आजादी का इस्तेमाल करते थे. मजदूरों और सैनिकों ने कोशिश की कि हाल के जीते हुए जनवादी अधिकारों का पूरा उपयोग करें, जिससे कि वे देश के राजनीतिक जीवन में सक्रिय हिस्सा ले सकें, हालत को समझदारी से पहचान सकें और आगे क्या करना चाहिए इसका फैसला कर सकें.

फरवरी क्रान्ति के बाद, बोल्शेविक पार्टी के संगठन, जो जारशाही की बेहद कठिन परिस्थितियों में गैर-कानूनी तौर पर काम करते रहे थे, गुप्त जीवन से बाहर निकले और खुल कर राजनीतिक तथा संगठनात्मक काम आगे बढ़ाने लगे. उस समय, बोल्शेविक संगठनों के चालीस या पैंतालिस हजार से ज्यादा सदस्य न थे. लेकिन, ये सब संघर्ष में निखरे हुए पक्के क्रान्तिकारी थे. पार्टी-कमेटियाँ जनवादी केन्द्रीयता के उसूल पर फिर से संगठित की गयी. ऊपर से लेकर नीचे तक, सभी पार्टी संस्थाओं का निर्वाचित होना जरूरी हो गया.

जब पार्टी ने अपना कानूनी जीवन शुरू किया, तो उसके भीतरी मतभेद स्पष्ट होकर सामने आये। कामेनेव और मास्को-संगठन के कई मजदूर, मिसाल के लिए राइकोव, बुबनोव और नोगिन यह अर्द्ध-मेन्शेविक विचार पेश करते थे कि कुछ शर्तों के साथ अस्थायी सरकार और सुरक्षावादियों की नीति का समर्थन किया जाये. स्तालिन, जो हाल ही में निर्वासन से लौटे थे, मोलोतोव और दूसरों ने पार्टी के बहुमत के साथ अस्थायी सरकार में अविश्वास की नीति का समर्थन किया, सुरक्षावाद का विरोध किया और शान्ति के लिए सक्रिय संघर्ष करने के लिए, साम्राज्यवादी युद्ध के खिलाफ संघर्ष करने के लिए बुलावा दिया. पार्टी के कुछ कार्यकर्ताओं ने ढुलमुलपन दिखाया, जो उनके राजनीतिक पिछड़ेपन की निशानी थी, बहुत दिन तक जेल में या निर्वासन में रहने का नतीजा था.

पार्टी के नेता लेनिन का अभाव महसूस हो रहा था.

3 (16) अप्रैल 1917 को, निर्वासन की लम्बी अवधि के बाद लेनिन रूस लौटे. लेनिन का आना पार्टी और क्रान्ति के लिए अत्यन्त महत्त्व की बात थी.

लेनिन जब स्विट्जरलैण्ड में थे, तभी उन्होंने क्रान्ति की पहली खबर मिलने पर पार्टी और रूस के मजदूर वर्ग के नाम ‘सुदूर से पत्र’ लिखे थे, जिनमें उन्होंने कहा था :

‘मजदूरो, तुमने जारशाही के खिलाफ गुह-युद्ध में सर्वहारा की वीरता, जनता की वीरता के चमत्कार दिखाये हैं. अब क्रान्ति की दूसरी मंजिल में अपनी जीत के लिए रास्ता साफ करने के लिए तुम्हें संगठन के चमत्कार, सर्वहारा वर्ग और तमाम जनता के संगठन के चमत्कार दिखाने चाहिए.’ (लेनिन, सं.ग्रं., अं.स., मास्को, 1947, खण्ड 1, पृष्ठ 741).

3 अप्रैल की रात को, लेनिन पेत्रोग्राद आये. फिनलैण्ड रेलवे स्टेशन पर और स्टेशन के चैराहे पर उनका स्वागत करने के लिए हजारों मजदूर, सैनिक और जहाजी इकट्ठे हुए. लेनिन जब ट्रेन से उतरे, तब जनता का उत्साह अवर्णनीय था. उसने अपने नेता को कन्धों तक ऊँचा उठा लिया और स्टेशन के मुख्य वेटिंगरूम तक ले गयी. वहाँ पेत्रोग्राद-सोवियत की तरफ से मेन्शेविक चखाइत्जे और स्कोबेलेव ने ‘स्वागत’ भाषण आरम्भ कर दिये, जिसमें उन्होंने ‘आशा प्रकट की’ कि वे और लेनिन एक ‘मुश्तरका जबान’ पा सकेंगे. लेकिन, लेनिन उनकी बात सुनने के लिए रुके नहीं. उनके पास से तेजी से निकलते हुए, वह आम मजदूरों और सैनिकों के पास पहुँच गये. बख्तरबन्द गाड़ी पर चढ़ कर उन्होंने अपना प्रसिद्ध भाषण दिया, जिसमें उन्होंने समाजवादी क्रान्ति की विजय के लिए लड़ने के लिए आम जनता का आह्नान किया. ‘समाजवादी क्रान्ति जिन्दाबाद !’-इन शब्दों के साथ, निर्वासन की लम्बी अवधि के बाद लेनिन ने अपना यह पहला भाषण खत्म किया.

रूस में वापस आकर, लेनिन जोर-शोर से क्रान्तिकारी काम में जुट गये. आने के दूसरे दिन ही, युद्ध और क्रान्ति के विषय पर बोल्शेविकों की एक मीटिंग में उन्होंने रिपोर्ट दी और उसके बाद मेन्शेविकों और बोल्शेविकों की एक मिली-जुली मीटिंग में रिपोर्ट की सैद्धान्तिक स्थापनाओं (थीसिस) को दुहराया.

ये लेनिन की मशहूर अप्रैल थीसिस थी, जिससे पार्टी और सर्वहारा वर्ग को पूँजीवादी क्रान्ति से समाजवादी क्रान्ति की तरफ बढ़ने के लिए एक स्पष्ट क्रान्तिकारी नीति मिली.

लेनिन की सैद्धान्तिक स्थापनाएँ क्रान्ति के लिए और पार्टी के अगले काम के लिए भारी महत्त्व रखती थी. क्रान्ति देश के जीवन में बहुत ही महत्त्वपूर्ण मोड़ थी. जारशाही के खात्मे के बाद, संघर्ष की जो नयी हालत पैदा हुई, उसमें पार्टी के लिए एक नया दृष्टिकोण जरूरी था, जिससे कि वह हिम्मत और विश्वास के साथ नयी राह पर आगे बढ़ सके. लेनिन की इन स्थापनाओं ने पार्टी को यही दृष्टिकोण दिया.

लेनिन की अप्रैल की सैद्धान्तिक स्थापनाओं ने पूँजीवादी-जनवादी क्रान्ति से समाजवादी क्रान्ति की तरफ, क्रान्ति की पहली मंजिल से दूसरी मंजिल की तरफ-समाजवादी क्रान्ति की मंजिल की तरफ-बढ़ने के लिए संघर्ष की एक सुन्दर योजना रखी. पार्टी के समूचे इतिहास ने इस महान कार्य के लिए उसे तैयार किया था. 1905 के दिनों में भी लेनिन ने अपनी पुस्तिका जनवादी क्रान्ति में सामाजिक-जनवाद की दो कार्यनीतियाँ में कहा था कि जारशाही का खात्मा होने के बाद सर्वहारा वर्ग समाजवादी क्रान्ति करने के लिए बढ़ेगा. इन स्थापनाओं में नयी बात यह थी कि समाजवादी क्रान्त की तरफ बढ़ने की प्रारम्भिक मंजिल के लिए एक ठोस और सिद्धान्त पर आधारित योजना दी गयी थी.

आर्थिक क्षेत्र में, बीच के दौर के ये कदम उठाने थे: सारी जमीन का राष्ट्रीकरण और जागीरी जमीन की जब्ती, सभी बैंकों को मिलाकर एक राष्ट्रीय बैंक बनाना जो मजूदर प्रतिनिधियों की सोवियत के नियंत्रण में हो, और चीजों की सामाजिक पैदावार और उनके वितरण पर नियंत्रण कायम करना.

राजनीतिक क्षेत्र में, लेनिन ने प्रस्ताव किया कि संसदीय जनतंत्रा से सोवियतों के जनतंत्र की तरफ बढ़ा जाये. मार्क्सवाद के सिद्धान्त और अमल में यह एक आगे बढ़ा हुआ महत्त्वपूर्ण कदम था. अभी तक मार्क्सवादी सिद्धान्तकार यह समझते रहे थे कि समाजवाद की तरफ बढ़ने के लिए संसदीय जनतंत्र सबसे अच्छा राजनीतिक रूप है. अब लेनिन ने प्रस्ताव किया कि पूँजीवाद से समाजवाद की तरफ बढ़ने के दौर में संसदीय जनतंत्र की जगह सोवियत जनतंत्र ले, जो इस दौर के लिए समाज के राजनीतिक संगठन का सबसे उपयुक्त रूप होगा.

इन स्थापनाओं में कहा गया था:

‘रूस की मौजूदा हालत की अपनी विशेषता यह है कि वह क्रान्ति की पहली मंजिल से-जबकि मजदूरों में वर्ग-चेतना और संगठन नाकाफी होने से सत्ता पूँजीपतियों के हाथ में सौंप दी गयी-दूसरी मंजिल की तरफ बढ़ना है, जबकि सत्ता सर्वहारा वर्ग और किसानों के सबसे गरीब हिस्से के हाथ में जरूर आयेगी.’ (उप., खण्ड 2, पृ. 18).

और भी आगे:

”संसदीय जनतंत्र नहीं-मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियतों से संसदीय जनतंत्र की तरफ लौटना पीछे कदम उठाना होगा-बल्कि समूचे देश में, ऊपर से नीचे तक, मजदूर, खेत-मजदूर और किसान प्रतिनिधियों की सोवियतों का जनतंत्र.’ (उप., पृ. 18).

नयी हुकूमत में, अस्थायी सरकार के राज्य में, लेनिन ने कहा कि युद्ध का रूप अब भी लुटेरा साम्राज्यवादी बना हुआ है. पार्टी का यह काम था कि आम जनता को समझाये और उसे यह दिखलाये कि जब तक पूँजीपतियों का तख्ता नहीं उल्टा जायेगा, तब तक एक सच्ची जनवादी शान्ति करके, न कि लूट-खसोट की शान्ति करके, युद्ध खत्म करना असम्भव होगा.

जहाँ तक अस्थायी सरकार का सवाल था, लेनिन ने यह नारा दिया: ‘अस्थायी सरकार को कोई मदद न दो !’

इन स्थापनाओं में, लेनिन ने और आगे बताया कि सोवियतों में हमारी पार्टी अब भी अल्पसंख्या में है; सोवियतों पर मेन्शेविकों और समाजवादी क्रानितकारियों का गुट हावी है, जो कि सर्वहारा वर्ग पर पूँजीवादी असर फैलाने का साधन है. इसलिए, पार्टी का काम यह है :

‘आम जनता को यह समझाना चाहिए कि क्रान्तिकारी हुकूमत का एक ही मुमकिन रूप है, और वह है-मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियतें. इसलिए, हमारा काम है कि जब तक यह हुकूमत पूँजीपतियों के असर के सामने घुटने टेकती जाती है, तब तक उसकी गलतियाँ और उसकी कार्यनीति धीरज के साथ, बाकायदा और लगातार जनता को समझायें और जनता की अमली जरूरतों को खास तौर से ध्यान में रखते हुए समझायें. जब तक हम अल्पसंख्या में हैं, तब तक हम आलोचना करने और गलतियों के पर्दाफाश करने का काम करते रहेंगे और साथ ही इस बात का भी प्रचार करेंगे कि पूरी राज्य-शक्ति मजदूर प्रतिनिधियों की सोवियतों को सौंपना जरूरी है…’. (लेनिन, सं.ग्रं., रू.सं., खण्ड 20, पृष्ठ 88).

इसका मतलब यह था कि लेनिन अस्थायी सरकार के खिलाफ विद्रोह करने का बुलावा न दे रहे थे. उस समय, उसे सोवियतों का विश्वास प्राप्त था. लेनिन उसका तख्ता उलटने की माँग न कर रहे थे, बल्कि वह चाहते थे कि समझाने और भर्ती करने के काम के जरिये सोवियतों में बहुमत कायम किया जाये, सोवियतों की नीति बदली जाये और सोवियतों के जरिये हुकूमत की बनावट और नीति बदली जाये.

यह ऐसी नीति थी जो अपने तईं क्रान्ति का शान्तिमय विकास देखती थी.

लेनिन ने यह भी माँग की कि ‘पुरानी वर्दी’ उतार फेंकी जाये, यानी पार्टी अब अपने को सामाजिक-जनवादी पार्टी नहीं कहे। दूसरे इण्टरनेशनल की पार्टियाँ और रूसी मेन्शेविक अपने को सामाजिक-जनवादी कहते थे. अवसरवादियों ने, समाजवाद से दगा करने वालों ने इस नाम को जलील किया था और और उस पर कालिख पोत दी थी. लेनिन ने प्रस्ताव किया कि बोल्शेविकों की पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी कहलाये, जो नाम मार्क्स और एंगेल्स ने अपनी पार्टी को दिया था. यह नाम वैज्ञानिक रूप से सही था, क्योंकि बोल्शेविक पार्टी का अन्तिम उद्देश्य कम्युनिज्म हासिल करना था. मनुष्य जाति पूँजीवाद से सीधी बढ़ कर समाजवाद की तरफ ही जा सकती है, यानी पैदावार के साधनों की मिलीजुली मिल्कियत और हरेक के काम के अनुसार उपज के बँटवारे की तरफ ही जा सकती है. लेनिन ने कहा कि हमारी पार्टी इससे और आगे देखती है. यह लाजिमी है कि समाजवाद क्रमशः कम्युनिज्म की मंजिल में प्रवेश करे, जिसके झण्डे पर यह उसूल लिखा हुआ है: ‘हरेक से उसकी योग्यता के अनुसार, हरेक को उसकी जरूरत के अनुसार !’

अन्त में, लेनिन ने अपनी सैद्धान्तिक स्थापनाओं में माँग की कि एक नया इण्टरनेशनल, तीसरा कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल बनाया जाये, जो अवसरवाद और अन्धराष्ट्रवाद से मुक्त हो.

लेनिन की सैद्धान्तिक स्थापनाएँ देखकर, पूँजीपति, मेन्शेविक और समाजवादी-क्रान्तिकारी झल्लाकर चीख उठे.

मेन्शेविकों ने मजदूरों के नाम एक ऐलान निकाला, जिसकी शुरुआत इस चेतावनी से होती थी: ‘क्रान्ति खतरे में है !’ मेन्शेविकों की राय में, खतरा इस बात में था कि बोल्शेविकों ने मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों को सत्ता देने का नारा पेश किया था.

प्लेखानोव ने अपने अखबार येदीम्स्त्वो (एकता) में एक लेख लिखा, जिसमें लेनिन के भाषण को ‘पागल का प्रलाप’ बतलाया. उसने मेन्शेविक चखाइत्जे के इन शब्दों को उद्धृत किया: ‘अकेला लेनिन क्रान्ति से बाहर रहेगा और हम अपने रास्ते पर बढ़ते ही जायेंगे.’

14 अप्रैल को, बोल्शेविकों का पेत्रोग्राद नगर-सम्मेलन हुआ. सम्मेलन ने लेनिन की सैद्धान्तिक स्थापनाओं को मंजूर किया और उन्हें अपने काम का आधार बनाया.

थोड़े ही समय में, पार्टी के स्थानीय संगठनों ने भी लेनिन की स्थापनाओं को मंजूर कर लिया.

कामेनेव, राइकोव और प्याताकोव जैसे कुछ व्यक्तियों को छोड़ कर, समूची पार्टी ने लेनिन की स्थापनाओं को बहुत ही सन्तोष के साथ स्वीकार किया.

2. अस्थायी सरकार के संकट की शुरुआत. बोल्शेविक पार्टी की अप्रैल कान्फ्रेंस.

जबकि बोल्शेविक क्रान्ति को और आगे बढ़ाने की तैयारी कर रहे थे, तब अस्थायी सरकार जनता के खिलाफ काम करती जा रही थी. 18 अप्रैल को, अस्थायी सरकार के वैदेशिक मंत्राी मिल्यूकोव ने मित्रा देशों को सूचित किया कि ‘तमाम जनता विश्वयुद्ध को तब तक चालू रखना चाहती है जब तक कि निश्चित विजय न मिल जाये; और अस्थायी सरकार मित्र देशों के प्रति ली हुई अपनी जिम्मेदारी पूरी तरह से निभायेगी.’

इस तरह, अस्थायी सरकार ने जार की सन्धियों के प्रति अपनी वफादारी की कसम खाई और जनता का उतना खून बहाते जाने का वायदा किया जितना कि साम्राज्यवादियों को ‘निश्चित विजय’ के लिए दरकार हो.

19 अप्रैल को, मजदूरों और सैनिकों को इस बयान (मिल्यूकोव के नोट) का पता लगा. 20 अप्रैल को, बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने अस्थायी सरकार की साम्राज्यवादी नीति के खिलाफ विरोध प्रदर्शित करने के लिए कहा. 20-21 अप्रैल (3-4 मई) 1917 को, कम से कम एक लाख मजदूरों और सैनिकों ने मिल्यूकोव के नोट पर गुस्से में भर कर, प्रदर्शन में भाग लिया. उनके झण्डों पर ये माँगें लिखी हुई थीं : ‘गुप्त सन्धियाँ प्रकाशित करो !’-‘युद्ध मुर्दाबाद !’-सारी सत्ता सोवियतों को दो !’ मजदूर और सैनिक शहर के छोर से केन्द्र की तरफ चले, जहाँ अस्थायी सरकार की बैठक हो रही थी. नेव्स्की प्राॅस्पैक्ट और दूसरी जगहों पर पूँजीवादी गुटों से टक्करें हुईं.

ज्यादा खुले हुए क्रान्ति-विरोधियों, जैसे कि जनरल कार्निलोव, ने माँग की कि प्रदर्शनकारियों पर गोली चलायी जाये और इसके लिए हुक्म भी दे दिया, लेकिन सैनिकों ने हुक्म मानने से इन्कार कर दिया.

प्रदर्शन के दौर में, पेत्रोग्राद पार्टी-कमेटी के सदस्यों के एक छोटे से गुट (बगदात्येव वगैरह) ने यह नारा दिया कि अस्थायी सरकार को तुरन्त खत्म कर दिया जाये. बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने इन ‘वामपंथी’ दुस्साहसवादियों के व्यवहार की तीव्र निन्दा की और इस नारे को असामयिक और गलत समझा, जो सोवियतों में बहुमत बनाने की पार्टी की कोशिशों में बाधा डालता था और क्रान्ति के शान्तिमय विकास की पार्टी की नीति के खिलाफ पड़ता था.

20-21 अप्रैल की घटनाओं ने दिखला दिया कि अस्थायी सरकार का संकट शुरू हो गया है.

मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों की समझौतावादी नीति में यह पहली गम्भीर फूट पड़ी.

2 मई 1917 को, आम जनता के दबाव से मिल्यूकोव और गुचकोव अस्थायी सरकार से अलग कर दिये गये.

पहली संयुक्त अस्थायी सरकार बनायी गयी. पूँजीपतियों के प्रतिनिधियों के अलावा, इसमें मेन्शेविक (स्कोबेलेव और त्सेरेतली) और समाजवादी-क्रान्तिकारी (चरनोव, केरेन्स्की वगैरह) भी थे. इस तरह, जिन मेन्शेविकों ने 1905 में ऐलान किया था कि सामाजिक-जनवादी पार्टी के प्रतिनिधियों के लिए क्रान्तिकारी अस्थायी सरकार में हिस्सा लेना अनुचित है, उन्होंने अब अपने प्रतिनिधियों का क्रान्ति-विरोधी अस्थायी सरकार में हिस्सा लेना उचित समझा.

इस तरह, मेन्शेविक और समाजवादी-क्रान्तिकारी क्रान्ति-विरोधी पूँजीपतियों के खेमे से जा मिले थे.

24 अप्रैल 1917 को, बोल्शेविक पार्टी की सातवीं (अप्रैल) कान्फ्रेंस शुरू हुई. पार्टी के जीवन में पहली बार खुलेआम बोल्शेविक कान्फ्रेंस हुई. पार्टी के इतिहास में, इस कान्फ्रेंस का महत्त्व पार्टी कांग्रेस के बराबर है.

अखिल रूसी अप्रैल कान्फ्रेंस ने दिखला दिया कि पार्टी प्रबल वेग से बढ़ रही है. कान्फ्रेंस में 133 प्रतिनिधि ऐसे आये जो वोट दे सकते थे, और 18 ऐसे थे जो बोल सकते थे मगर वोट न दे सकते थे. ये पार्टी के 80,000 संगठित सदस्यों के प्रतिनिधि थे. युद्ध और क्रान्ति के सभी बुनियादी सवालों पर : मौजूदा हालत, युद्ध, अस्थायी सरकार, सोवियतें, खेती का मसला, राष्ट्रीयताओं का सवाल वगैरह पर कान्फ्रेंस ने विचार किया और पार्टी नीति निर्धारित की.

अपनी अप्रैल की स्थापनाओं में लेनिन ने जो सिद्धान्त पहले ही रखे थे, उन्हें अपनी रिपोर्ट में विस्तृत किया. पार्टी का काम था कि क्रान्ति की पहली मंजिल से दूसरी मंजिल की तरफ बढ़ना पूरा करे. पहली मंजिल ने ‘सत्ता पूँजीपतियों को सौंपी थी जबकि दूसरी मंजिल सर्वहारा वर्ग और किसानों के सबसे गरीब हिस्से के हाथ सत्ता सौंपेगी.’ (लेनिन). पार्टी को जिस रास्ते पर चलना था, वह समाजवादी क्रान्ति की तैयारी का रास्ता था. पार्टी का फौरी काम लेनिन ने इस नारे में पेश किया: ‘सारी सत्ता सोवियतों को दो !’

‘सारी सत्ता सोवियतों को दो !’-इस नारे का मतलब था कि दुहरी सत्ता को खत्म करना जरूरी है, यानी अस्थायी सरकार और सोवियतों के बीच सत्ता के बँटवारे को खत्म करना जरूरी है, सोवियतों को सारी सत्ता सौंपना जरूरी है और हुकूमत की संस्थाओं से जमीन्दारों और पूँजीपतियों के प्रतिनिधियों को निकाल बाहर करना जरूरी है.

कान्फ्रेंस ने तय किया कि पार्टी का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण काम अथक रूप से जनता को यह सच्चाई समझाना है कि ‘अस्थायी सरकार स्वभाव से ही जमीन्दारों और पूँजीपतियों की शासन-संस्था है’, और जनता को यह समझाना भी जरूरी है कि समाजवादी-क्रान्तिकारियों और मेन्शेविकों की समझौतावादी नीति कितनी घातक है, जो जनता को झूठे वादों से धोखा दे रहे थे और उन पर साम्राज्यवादी युद्ध और क्रान्ति-विरोध के प्रहार करवा रहे थे.

कान्फ्रेंस में कामेनेव और राइकोव ने लेनिन का विरोध किया. मेन्शेविकों की बात दुहराते हुए, उन्होंने दावा किया कि रूस समाजवादी क्रान्ति के लिए तैयार नहीं है और पूँजीवादी जनतंत्र ही रूस में सम्भव है. उन्होंने पार्टी और मजदूर वर्ग से सिफारिश की कि वे अपना काम अस्थायी सरकार पर ‘नियंत्रण’ कायम रखने तक सीमित रखें. हकीकत में, मेन्शेविकों की तरह वे पूँजीवाद और पूँजीपतियों की सत्ता को बनाये रखना चाहते थे.

कान्फ्रेंस में जिनोवियेव ने भी लेनिन का विरोध किया. विरोध इस सवाल पर था कि बोल्शेविक पार्टी जिमरवाल्ड मित्र-मण्डल के साथ रहे, या उससे नाता तोड़ ले और नया इण्टरनेशनल बनाये. जैसा कि युद्धकाल ने दिखला दिया था, यह मित्र-मण्डल शान्ति के लिए प्रचार तो करता था लेकिन वास्तव में युद्ध के पूँजीवादी हिमायतियों से नाता नहीं तोड़ता था. इसलिए, लेनिन ने इस मित्र-मण्डल से तुरन्त ही अलग हो जाने पर जोर दिय और एक नया कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल बनाने पर जोर दिया. जिनोवियेव ने प्रस्ताव किया कि पार्टी जिमरवाल्ड मित्र-मण्डल में ही रहे. लेनिन ने जिनोवियेव के प्रस्ताव की जोरों से निन्दा की और उसकी कार्यनीति को ‘घोर अवसरवादी और हानिकर’ बतलाया.

अप्रैल कान्फ्रेंस ने खेती और राष्ट्रीयताओं के मसले पर भी विचार किया.

खेती के सवाल पर, लेनिन की रिपोर्ट के सिलसिले में कान्फ्रेंस ने जागीरी जमीन को जब्त करने के लिए बुलावा देते हुए एक प्रस्ताव मंजूर किया. जब्त की हुई जागीरी जमीन किसान-कमेटियों के हाथ में हो. प्रस्ताव में जमीन के राष्ट्रीकरण की भी माँग की गयी. बोल्शेविकों ने किसानों से जमीन के लिए लड़ने को कहा और उन्हें दिखाया कि बोल्शेविक पार्टी ही एक क्रान्तिकारी पार्टी है, एकमात्र पार्टी है जो दरअसल जमीन्दारों का तख्ता उलटने में किसानों को मदद दे रही थी.

राष्ट्रीयताओं के सवाल पर, कामरेड स्तालिन की रिपोर्ट बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी. क्रान्ति के पहले ही जब साम्राज्यवादी युद्ध शुरू होने लगा था, लेनिन और स्तालिन ने राष्ट्रीयताओं के मसले पर बोल्शेविक पार्टी की नीति के बुनियादी उसूलों को विस्तृत रूप से पेश किया था. लेनिन और स्तालिन का कहना था कि सर्वहारा पार्टी को साम्राज्यवाद के खिलाफ पीड़ित जनता के राष्ट्रीय स्वाधीनता-आन्दोलन का समर्थन करना चाहिए. इसलिए, बोल्शेविक पार्टी राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार का इस हद तक समर्थन करती थी कि राष्ट्रीयताएँ, चाहें तो अलग भी हो जायें और अपने स्वतंत्र राज्य बना लें. कामरेड स्तालिन ने केन्द्रीय समिति की तरफ से कान्फ्रेंस में जो रिपोर्ट पेश की, उसमें इसी मत का समर्थन किया.

लेनिन और स्तालिन का विरोध प्याताकोव ने किया. युद्धकाल में ही, बुखारिन के साथ, उसने राष्ट्रीयताओं के मसले पर अन्धराष्ट्रवादी रुख अपनाया था. प्याताकोव और बुखारिन राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार का विरोध करते थे.

राष्ट्रीयताओं के मसले पर, पार्टी का रुख दृढ़ और सुसंगत था. राष्ट्रीयताओं की पूर्ण समानता के लिए और हर तरह के राष्ट्रीय उत्पीड़न और राष्ट्रीय विषमता को खत्म करने के लिए पार्टी ने संघर्ष किया. इस वजह से, पार्टी पीड़ित राष्ट्रीयताओं की सहानुभूति और उनका समर्थन हासिल कर सकी.

राष्ट्रीयताओं के मसले पर अप्रैल कान्फ्रेंस ने जो प्रस्ताव मंजूर किया, उसके शब्द ये थे :

‘निरंकुश सत्ता और बादशाही से विरासत के तौर पर मिली हुई, राष्ट्रीय उत्पीड़न की नीति का समर्थन जमीन्दार, पूँजीपति और निम्न-पूँजीवादी इसलिए करते हैं कि अपने वर्ग के विशेष अधिकारों को बनाये रखें और विभिन्न राष्ट्रीयताओं के मजदूरों में फूट डालें. आधुनिक साम्राज्यवाद, जो कमजोर राष्ट्रीयताओं को गुलाम बनाने के लिए अपनी कोशिशें बढ़ा देता है, एक नया तत्व है जो राष्ट्रीय उत्पीड़न को तेज कर देता है.

‘पूँजीवादी समाज में राष्ट्रीय उत्पीड़न का खात्मा जिस हद तक भी मुमकिन है,वह एक सुसंगत जनवादी गणतंत्र की व्यवस्था और ऐसे राज्य के शासन में ही मुमकिन है जो सभी राष्ट्रीयताओं और भाषाओं के लिए पूर्ण समानता की गारण्टी देता हो.

‘रूस में जितनी भी राष्ट्रीयताएँ शामिल हैं, उनके आजादी से अलग होने और स्वतंत्र राज्य बनाने के अधिकार को मंजूर करना चाहिए. उनके इस अधिकार को नामंजूर करना या अमल में उसे लागू करने की गारण्टी देने के लिए उपाय न करना, दूसरों पर कब्जा करने और उन्हें अपने राज में मिलाने की नीति का समर्थन करने के बराबर है. सर्वहारा वर्ग राष्ट्रीयताओं के अलग होने के हक को माने, तभी विभिन्न राष्ट्रीयताओं के मजदूरों का सम्पूर्ण भाईचारा पक्का हो सकता है और वास्तविक जनवादी आधार पर राष्ट्रीयताएँ एक-दूसरे के नजदीक आ सकती हैं…

‘राष्ट्रीयताओं के अलग होने के हक को किसी खास समय किसी जाति के अलग होने की उपयोगिता से न उलझा देना चाहिए. सर्वहारा वर्ग की पार्टी को चाहिए कि इस दूसरे सवाल को हर बार स्वतंत्र रूप से समूचे सामाजिक विकास के हितों को और समाजवाद के लिए मजदूरों के वर्गसंघर्ष के हितों को ध्यान में रखकर हल करे.

‘पार्टी माँग करती है कि बड़े पैमाने पर प्रादेशिक खुदमुख्तारी हो, ऊपर से निगरानी का अन्त हो, लाजिमी राजभाषा खत्म की जाये और खुदमुख्तार और स्वायत्त शासन के इलाकों की सीमाएँ स्थानीय जनता ही आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों, आबादी की राष्ट्रीय बनावट वगैरह का ध्यान रखते हुए तय करे.

‘सर्वहारा वर्ग की पार्टी, जिसे ‘राष्ट्रीय-सांस्कृतिक खुदमुख्तारी’ कहा जाता है, उसे दृढ़ता से नामंजूर करती है. इसके मातहत, शिक्षा वगैरह का काम राज्य के अधिकार से अलग कर दिया जाता है और किसी तरह की राष्ट्रीय सभाओं के अधिकार में दे दिया जाता है. राष्ट्रीय-सांस्कृतिक खुदमुख्तारी एक ही जगह रहने वाले और एक ही धन्धे में काम करने वाले मजदूरों को उनकी विभिन्न ‘राष्ट्रीय संस्कृतियों’ के अनुसार नकली तौर पर बाँट देती है. दूसरे शब्दों में, वह मजदूरों और विभिन्न राष्ट्रीयताओं की पूँजीवादी संस्कृति के बन्धन मजबूत कर देती है, जबकि सामाजिक-जनवादियों का लक्ष्य दुनिया के मजदूरों की अन्तरराष्ट्रीय संस्कृति को विकसित करना है.

‘पार्टी माँग करती है कि विधान में एक ऐसा बुनियादी कानून रखा जाये जो किसी भी राष्ट्रीयता को मिले हुए तमाम विशेषाधिकारों को खत्म कर दे और राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर सभी तरह के आघात बन्द कर दे.

‘मजदूर वर्ग के हितों की माँग है कि रूस की सभी राष्ट्रीयताओं के मजदूरों के सामान्य सर्वहारा संगठन हों: राजनीतिक, ट्रेड यूनियन, सहयोग-समितियों की शिक्षा-संस्थाएँ वगैरह. इस तरह, विभिन्न राष्ट्रीयताओं के मजदूरों के सामान्य संगठन होने से ही सर्वहारा वर्ग अन्तरराष्ट्रीय पूँजी और पूँजीवादी राष्ट्रवाद के खिलाफ सफलतापूर्वक संघर्ष कर सकेगा.’ (सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) के प्रस्ताव, रू.सं., खण्ड 1, पृष्ठ 239-40).

इस तरह, अप्रैल कान्फ्रेंस ने कामेनेव, जिनोवियेव, प्याताकोव, बुखारिन, राइकोव और उनके थोड़े से अनुयायियों के अवसरवादी, लेनिनवाद-विरोधी दृष्टिकोण का पर्दाफाश किया.

सभी महत्त्वपूर्ण सवालों पर एक स्पष्ट रुख अपनाकर और ऐसा रास्ता अपनाकर जिससे समाजवादी क्रान्ति की विजय हो, कान्फ्रेंस ने एक राय होकर लेनिन का समर्थन किया.

3. राजधानी में बोल्शेविक पार्टी की सफलता। अस्थायी सरकार की फौजों का असफल हमला। मजदूरों और सैनिकों के जुलाई प्रदर्शन का दमन।

अप्रैल कान्फ्रेंस के फैसलों के आधार पर, आम जनता को अपनी तरफ करने के लिए और लड़ाई के लिए उसे शिक्षित और संगठित करने के लिए पार्टी ने बड़े पैमाने पर काम चलाया. उस दौर में, पार्टी की नीति यह थी कि धीरज से बोल्शेविक नीति समझा कर और मेन्शेविकों तथा समाजवादी-क्रान्तिकारियों की समझौतावादी नीति का पर्दाफाश करके इन पार्टियों को जनता से अलग कर दिया जाये और सोवियतों में बहुमत कायम किया जाये.

सोवियतों में काम करने के साथ-साथ, बोल्शेविकों ने टेªड यूनियनों और मिल-कमेटियों में बड़े पैमाने पर काम जारी रखा.

खास तौर से, बोल्शेविकों का काम फौज में ज्यादा फैला हुआ था. हर जगह सैनिक संगठन बनने लगे. युद्ध के मोर्चे पर और उसके पीछे सैनिकों और जहाजियों का संगठन करने के लिए, बोल्शेविक अथक रूप से काम करते रहे. सैनिकों को सक्रिय क्रान्तिकारी बनाने में, युद्ध के मोर्चे पर बोल्शेविक अखबार अकोपनाया प्राव्दा (खन्दकों का सत्य) ने खास तौर से महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी.

बोल्शेविक आन्दोलन और प्रचार की वजह से, क्रान्ति के प्रारम्भिक महीनों में ही बहुत से शहरों में मजदूरों ने सोवियतों के, खास तौर से जिला सोवियतों के, नये चुनाव किये, मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों को निकाल बाहर किया और उनके बदले बोल्शेविक पार्टी के अनुयायियों को चुना.

बोल्शेविकों के काम का सुन्दर फल निकला, खास तौर से पेत्रोग्राद में.

30 मई से 3 जून 1917 तक, मिल कमेटियों की पेत्रोग्राद कान्फ्रेंस हुई. इस कान्फ्रेंस में ही तीन-चैथाई प्रतिनिधि बोल्शेविकों के समर्थक थे. लगभग समूचे पेत्रोग्राद का सर्वहारा वर्ग इस बोल्शेविक नारे का समर्थन करता था-‘सारी सत्ता सोवियतों को दो !’

3 (16) जून 1917 को, सोवियतों की पहली अखिल रूसी कांग्रेस हुई. सोवियतों में बोल्शेविक अब भी अल्पसंख्या में थे. 700 या 800 मेन्शेविकों, समाजवादी-क्रान्तिकारियों वगैरह के मुकाबले में, इस कांग्रेस में उनके 100 से कुछ ऊपर प्रतिनिधि थे.

सोवियतों की पहली कांग्रेस में, बोल्शेविकों ने पूँजीपतियों से समझौता करने के भयानक नतीजों पर लगातार जोर दिया और युद्ध के साम्राज्यवादी रूप का पर्दाफाश किया. कांग्रेस में लेनिन ने भाषण दिया, जिसमें उन्होंने दिखलाया कि बोल्शेविक नीति क्यों सही है. उन्होंने कहा कि सोवियतों की सरकार ही मेहनतकश जनता को रोटी, किसानों को जमीन दे सकती है, शान्ति हासिल कर सकती है और अराजकता से देश को उबार सकती है.

उन दिनों, पेत्रोगाद के मजदूर-जिलों में एक प्रदर्शन का संगठन करने के लिए और सोवियतों की कांग्रेस के सामने माँगें पेश करने के लिए आम जनता में आन्दोलन चलाया जा रहा था. इस चिन्ता में कि हमारी आज्ञा के बिना मजदूर प्रदर्शन न करें और इस उम्मीद में कि आम जनता के क्रान्तिकारी भावों को अपने हित में इस्तेमाल करें, पेत्रोग्राद सोवियत की कार्यकारिणी समिति ने फैसला किया कि 18 जून (1 जुलाई) को प्रदर्शन कराया जाये. मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों को आशा थी कि यह प्रदर्शन बोल्शेविक-विरोधी नारों के साथ होगा. बोल्शेविक पार्टी इस प्रदर्शन के लिए जोरदार तैयारियाँ करने लगी. कामरेड स्तालिन ने प्राव्दा में लिखा, ‘…हमारा यह काम है कि इस बात को पक्का कर दें कि 18 जून को पेत्रोग्राद में होने वाला प्रदर्शन हमारे क्रान्तिकारी नारों पर ही हो.’

क्रान्ति के शहीदों की समाधि पर, 18 जून 1917 का प्रदर्शन हुआ. यह प्रदर्शन बोल्शेविक पार्टी की शक्ति का सचमुच प्रदर्शन ही हुआ. उसने आम जनता की बढ़ती हुई क्रान्तिकारी भावना और बोल्शेविक पार्टी में उसका बढ़ता हुआ विश्वास जाहिर किया. अस्थायी सरकार में विश्वास प्रकट करने और युद्ध जारी रखने पर जोर देने वाले मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों के नारे बोल्शेविक नारों के समुद्र में डूब गये. चार लाख प्रदर्शनकारी झण्डे लिये हुए थे, जिन पर ये नारे लिखे हुए थे : ‘युद्ध मुर्दाबाद !’, ‘दसों पूँजीवादी मंत्री मुर्दाबाद !’, ‘सारी सत्ता सोवियतों को दो !’ मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों की पूरी हार हुई. देश की राजधानी में अस्थायी सरकार की हार हुई.

फिर भी, अस्थायी सरकार को सोवियतों की पहली कांग्रेस का समर्थन मिला और उसने साम्राज्यवादी नीति चालू रखने का फैसला किया. उसी दिन 18 जून को, अंग्रेज और फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों का हुक्म मानते हुए, अस्थायी सरकार ने युद्ध के मोर्चे पर सैनिकों को हमला करने के लिए हाँक दिया. पूँजीपति समझते थे कि क्रान्ति को खत्म करने का यही एक रास्ता है. अगर हमला सफल होता तो पूँजीपति उम्मीद करते थे कि सारी सत्ता अपने ही हाथ में ले लेंगे, सोवियतों को मैदान से बाहर निकाल देंगे और बोल्शेविकों को कुचल देंगे. और अगर हमला असफल हुआ, तो सारा दोष बोल्शेविकों के माथे मढ़ा जा सकेगा कि उन्होंने फौज को भीतर से तोड़ दिया है.

इसमें कोई सन्देह नहीं था कि हमला असफल होगा. और, वह असफल हुआ. सिपाही चूर हो चुके थे. हमला क्यों हो रहा है, वे नहीं समझते थे. अपने अफसरों में, जो उनके लिए गैर थे, उन्हें विश्वास नहीं था. गोला-बारूद और तोपों की कमी थी. इन सब बातों से, हमले का असफल होना पहले से ही तय था.

युद्ध के मोर्चे पर हमले और उसके बाद उसकी असफलता की खबर ने राजधानी को उत्तेजित कर दिया. मजदूरों और सैनिकों के गुस्से का पार न था. यह बात स्पष्ट हो गयी कि जब अस्थायी सरकार शान्ति की नीति का ऐलान कर रही थी, तब वह जनता की आँखों में धूल झोंक रही थी और यह बात भी जाहिर हो गयी कि अस्थायी सरकार साम्राज्यवादी युद्ध चालू रखना चाहती है. यह बात स्पष्ट हो गयी कि सोवियतों की अखिल रूसी केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति और पेत्रोग्राद सोवियत अस्थायी सरकार की मुजरिमाना हरकत को रोकना नहीं चाहती, या रोक नहीं सकती और खुद उसके पीछे घिसट रही है.

पेत्रोग्राद के मजदूरों और सैनिकों का क्रान्तिकारी गुस्सा उबल पड़ा. 3 (16) जुलाई को, पेत्रोग्राद के विबोर्ग जिले में अपने-आप प्रदर्शन शुरू हुए. सारे दिन प्रदर्शन जारी रहे. अलग-अलग प्रदर्शन मिल कर एक विशाल आम हथियारबन्द प्रदर्शन बन गये, जिनकी माँग थी कि सत्ता सोवियतों की हो. उस समय बोल्शेविक पार्टी हथियारबन्द कार्रवाई के खिलाफ थी, क्योंकि उसका विचार था कि क्रान्तिकारी संकट अभी पका नहीं है, राजधानी में विद्रोह का समर्थन करने के लिए फौज और सूबे अभी तैयार नहीं हैं और वक्त से पहले और अलग-अलग विद्रोह करने से क्रान्ति के हिरावल को कुचलने में क्रान्ति-विरोधियों को आसानी ही हो सकती है. लेकिन, जब यह जाहिर हो गया कि आम जनता को प्रदर्शन करने से रोकना नामुमकिन है तो पार्टी ने प्रदर्शन में हिस्सा लेने का फैसला किया, जिससे कि उसे शान्तिपूर्ण और संगठित रूप दे सके. बोल्शेविक पार्टी यह करने में कामयाब हुई. लाखों मर्द-औरत पेत्रोग्राद सोवियत और सोवियतों की अखिल रूसी केन्द्रीय कार्यकारिणी के हेडक्वार्टर की तरफ बढ़े, जहाँ उन्होंने माँग की कि सोवियतें सत्ता अपने हाथ में लें, साम्राज्यवादी पूँजीपतियों से नाता तोड़ दें और शान्ति की सक्रिय नीति पर चलें.

प्रदर्शन के शान्तिमय रूप के बावजूद, उसके खिलाफ प्रतिक्रियावादी दस्ते-अफसरों और कैडेटों के दस्ते-लाये गये. पेत्रोग्राद की सड़कें मजदूरों और सैनिकों के खून से लाल हो गयी. मजदूरों का दमन करने के लिए, युद्ध के मोर्चे से फौज के सबसे जाहिल और क्रान्ति-विरोधी दस्ते बुलाये गये.

मजदूरों और सैनिकों के प्रदर्शन का दमन करने के बाद, पूँजीपतियों और गद्दार जनरलों के सहयोग से मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों ने बोल्शेविक पार्टी पर हमला किया. प्राव्दा के प्रकाशन की जगह तोड़फोड़ डाली गयी. प्राव्दा, सोल्दात्स्काया प्राव्दा (सैनिक सत्य) और दूसरे कई बोल्शेविक अखबार बन्द कर दिये गये. वोईनोव नाम के मजदूर को सिर्फ लिस्तोक प्राव्दी (प्राव्दा बुलेटिन) बेचने पर कैडेटों ने सड़क पर मार डाला. रेड गार्ड दस्तों के हथियार छीनना शुरू हुआ. पेत्रोग्राद छावनी के क्रान्तिकारी दस्ते राजधानी से हटा दिये गये और मोर्चे पर भेज दिये गये. युद्ध के मोर्चे पर और उसके पीछे गिरफ्तारियाँ हुई. 7 जुलाई को, लेनिन को पकड़ने के लिए वारण्ट जारी हुआ. बोल्शेविक पार्टी के कई प्रमुख सदस्य गिरफ्तार कर लिये गये. त्रूद छापाखाना, जहाँ बोल्शेविक अखबार छपते थे, नष्ट कर दिया गया. पेत्रोग्राद की सेशन अदालत के सरकारी वकील (प्रोक्यूरेटर) ने ऐलान किया कि लेनिन और दूसरे कई बोल्शेविकों पर ‘राजद्रोह’ और सशस्त्र विद्रोह के संगठन का जुर्म लगाया जा रहा है. लेनिन के खिलाफ जनरल देनीकिन के हेडक्वार्टर में अभियोग रचा गया और उसका आधार जासूसों और उकसावा पैदा करने वाले दलालों की गवाही था.

इस तरह, संयुक्त अस्थायी सरकार-जिसमें त्सेरेतेली, स्कोबेलेव, केरेन्स्की और चर्नोव जैसे मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों के प्रमुख प्रतिनिधि शामिल थे-ठेठ साम्राज्यवाद और क्रान्ति-विरोध के नीच स्तर तक उतर आयी. शान्ति की नीति के बदले, उसने युद्ध चालू रखने की नीति अपनायी. जनता के जनवादी अधिकारों की रक्षा करने के बदले, उसने इन अधिकारों को खत्म करने और हथियारों की ताकत से मजदूरों और सैनिकों का दमन करने की नीति अपनायी.

पूँजीपतियों के प्रतिनिधि गुचकोव और मिल्यूकोव जो कुछ करने में हिचकिचाते थे, उसे केरेन्स्की और त्सेरेतेली, चर्नोव और स्कोबेलेव जैसे ‘समाजवादियों’ ने कर दिखाया. दुहरी सत्ता खत्म हो गयी. वह खत्म हुई पूँजीपतियों के हित में, क्योंकि सारी सत्ता अस्थायी सरकार के हाथ में आ गयी और सोवियतें, अपने समाजवादी-क्रान्तिकारी और मेन्शेविक नेताओं के साथ, अस्थायी सरकार का पुछल्ला बन गयी थीं.

क्रान्ति का शान्तिमय दौर खत्म हो चुका था, क्योंकि अब कार्यक्रम में संगीन शामिल कर ली गयी थी.

बदली हुई हालत को ध्यान में रखते हुए, बोल्शेविक पार्टी ने अपनी कार्यनीति बदलने का फैसला किया. पार्टी अण्डरग्राउण्ड हो गयी. अपने नेता लेनिन के लिए उसने एक हिफाजत की जगह छिपने के लिए तय की और इस उद्देश्य से विद्रोह की तैयारी में लग गयी कि पूँजीपतियों की सत्ता को हथियारों की ताकत से खत्म किया जाये और सोवियतों की सत्ता कायम की जाये.

4. बोल्शेविक पार्टी सशस्त्रा विद्रोह की तैयारी का रास्ता अपनाती है.

छठी पार्टी कांग्रेस.

बोल्शेविक पार्टी की छठीं कांग्रेस पेत्रोग्राद में उस समय हुई जब कि पूँजीवादी और निम्न-पूँजीवादी अखबारों में बोल्शेविकों के खिलाफ धुआँधार प्रचार हो रहा था. पाँचवीं (लन्दन) कांग्रेस के दस बरस बाद और बोल्शेविकों की प्राग कान्फ्रेंस के पाँच साल बाद, यह कांग्रेस हो रही थी. कांग्रेस गुप्त रूप से हुई और 26 जुलाई से 3 अगस्त 1917 तक उसका अधिवेशन जारी रहा. अखबारों में इतना ही छपा कि कांग्रेस होगी, कहाँ होगी, यह गुप्त रखा गया. पहला अधिवेशन विबोर्ग जिले में हुआ, बाद के अधिवेशन नारवा फाटक के पास एक स्कूल में हुए, जहाँ पर अब संस्कृति गृह है. पूँजीवादी अखबारों ने माँग की कि प्रतिनिधियों को गिरफ्तार कर लिया जाये. बदहवास जासूस शहर की खाक छानते रहे कि कांग्रेस कहाँ हो रही है, लेकिन सब बेकार.

और इस तरह, जारशाही के खात्मे के पाँच महीने बाद ही बोल्शेविकों को गुप्त रूप से मिलने के लिए मजबूर होना पड़ा जबकि सर्वहारा पार्टी के नेता लेनिन को छिपने के लिए विवश होना पड़ा और उन्होंने राजलिव स्टेशन के पास एक झोपड़ी में आसरा ढूँढ़ा.

अस्थायी सरकार के कुत्ते उन्हें हर तरफ खोजने में लगे हुए थे और इसलिए लेनिन कांग्रेस में शामिल नहीं हो सके. लेकिन, अपने छिपने की जगह से अपने नजदीकी साथी और शिष्य, जो पेत्रोग्राद में थे, स्तालिन, स्वेर्दलोव, मोलोतोव और और्जोनिकित्स के जरिये वह उसके काम का पथ-प्रदर्शन करते रहे.

कांग्रेस में 157 वोट देने वाले प्रतिनिधि थे, और 128 बोलने वाले, लेकिन वोट न देने वाले प्रतिनिधि थे. उस समय, पार्टी के लगभग 2 लाख 40 हजार सदस्य थे. 3 जुलाई को, यानी इसके पहले कि मजदूर प्रदर्शन भंग किया गया, जबकि बोल्शेविक अभी कानूनी तौर से काम कर रहे थे, पार्टी के 41 प्रकाशन थे, जिनमें 29 रूसी में थे और 12 दूसरी भाषाओं में.

जुलाई के दिनों में, बोल्शेविकों और मजदूर वर्ग पर जो दमन हुआ, उससे पार्टी का असर कम होना तो दूर, और बढ़ा. सूबों से आये हुए प्रतिनिधियों ने बहुत से तथ्य दिये, जिनसे पता चलता था कि झुण्ड के झुण्ड मजदूर और सैनिक मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों से टूटने लगे हैं और नफरत से उन्हें ‘सामाजिक जेलर’ कहने लगे हैं. मेन्शेविक और समाजवादी-क्रान्तिकारी पार्टियों के मजदूर और सैनिक गुस्से और नफरत से अपनी सदस्यता के कार्ड फाड़ कर फेंक रहे थे और वे बोल्शेविक पार्टी में भर्ती होने के लिए अर्जियाँ देने लगे थे.

कांग्रेस में जिन मुख्य बातों पर बहस हुई, वह केन्द्रीय समिति की राजनीतिक रिपोर्ट थी और राजनीतिक परिस्थिति थी. इन दोनों सवालों पर, कामरेड स्तालिन ने रिपोर्ट पेश की. उन्होंने बहुत ही स्पष्टता से दिखाया कि क्रान्ति को दबाने के लिए पूँजीपतियों की तमाम कोशिशों के बावजूद वह बढ़ रही है और विकसित हो रही है. उन्होंने बताया कि क्रान्ति ने फौरी कार्यक्रम के लिए ये काम पेश कर दिये हैं : उपज की पैदावार और बँटवारे पर मजदूरों का नियंत्रण कायम किया जाये, जमीन किसानों को दी जाये और सत्ता पूँजीपतियों से लेकर मजदूर वर्ग और गरीब किसानों को दी जाये. उन्होंने कहा कि क्रान्ति समाजवादी क्रान्ति का रूप ले रही है.

देश की राजनीतिक हालत जुलाई के दिनों के बाद बुनियादी तौर से बदल गयी थी. दुहरी सत्ता का खात्मा हो चुका था. समाजवादी-क्रान्तिकारियों और मेन्शेविकों द्वारा संचालित सोवियतों ने पूरी सत्ता लेना नामंजूर कर दिया था और इसलिए, अब सारी सत्ता उनके हाथ से निकल गयी थी. अब सत्ता पूँजीवादी अस्थायी सरकार के हाथ में केन्द्रित थी और यह सरकार क्रान्ति को निःशस्त्र करती जा रही थी, उसके संगठनों को तोड़ती और बोल्शेविक पार्टी का नाश करती जा रही थी. क्रान्ति के शान्तिमय विकास की सम्भावना खत्म हो चुकी थी. कामरेड स्तालिन ने कहा कि सिर्फ एक चीज बाकी रह गयी है और वह यह कि अस्थायी सरकार का तख्ता उलट कर बल के बूते पर सत्ता छीनो. और गरीब किसानों के सहयोग से, सर्वहारा वर्ग ही बल के बूते पर सत्ता छीन सकता है.

जिन सोवियतों पर मेन्शेविक और समाजवादी-क्रान्तिकारी अब भी हावी थे, वे पूँजीपतियों के खेमे में पहुँच गयी थीं और उस समय की हालत में उनसे यही उम्मीद की जा सकती थी कि वे अस्थायी सरकार के पुछल्ले का काम करेंगी. कामरेड स्तालिन ने कहा कि अब जुलाई के दिनों के बाद ‘सारी सत्ता सोवियतों को दो !’-यह नारा वापस लेना था. लेकिन, अस्थायी तौर से इस नारे को वापस लेने का मतलब यह जरा भी नहीं था कि सोवियतों की सत्ता के लिए संघर्ष छोड़ दिया जाये. सवाल क्रान्तिकारी संघर्ष की संस्थाओं के रूप में आम सोवियतों का नहीं था, बल्कि सिर्फ मौजूदा सोवियतों का था, उन सोवियतों का जिन पर मेन्शेविक और समाजवादी-क्रान्तिकारी हावी थे.

कामरेड स्तालिन ने कहा :

‘क्रान्ति का शान्तिमय दौर खत्म हो चुका है; एक गैर शान्तिमय दौर, टक्करों और विस्फोटों का दौर शुरू हुआ है.’ (रू.सा.ज.म.पा. की छठी कांग्रेस की शब्दशः रिपोर्ट, रू.सं., पृष्ठ 111)

पार्टी सशस्त्र विद्रोह की तरफ बढ़ रही थी.

पार्टी में कुछ ऐसे लोग थे जो पूँजीवादी असर जाहिर करते हुए समाजवादी क्रान्ति का रास्ता अपनाने का विरोध कर रहे थे.

त्रात्स्कीपंथी प्रेओब्राजेन्स्की ने प्रस्ताव रखा कि सत्ता हासिल करने के मसौदे में यह कहा जाये कि पश्चिम में सर्वहारा क्रान्ति होने पर ही देश समाजवाद की तरफ संचालित होगा.

कामरेड स्तालिन ने इस त्रात्स्कीपंथी प्रस्ताव का विरोध किया.

उन्होंने कहा :

‘यह बात सम्भावना से परे नहीं है कि रूस ही वह देश होगा जो समाजवाद के लिए रास्ता बनायेगा… हमें यह घिसा-पिटा विचार छोड़ देना चाहिए कि यूरोप ही हमें रास्ता दिखा सकता है. एक कठमुल्लेपन का मार्क्सवाद होता है और दूसरा रचनात्मक मार्क्सवाद. मैं दूसरे का समर्थक हूँ.’ (उप., पृष्ठ 233-34).

बुखारिन का रुख त्रात्स्कीवादी था. उसने कहा कि किसान युद्ध का समर्थन करते हैं, उनकी गुटबन्दी पूँजीपतियों से है और वे मजदूर वर्ग का साथ न देंगे.

बुखारिन को मुँहतोड़ जवाब देते हुए, कामरेड स्तालिन ने दिखाया कि किसान तरह-तरह के हैं. धनी किसान हैं जो साम्राज्यवादी पूँजीपतियों का समर्थन करते हैं, और गरीब किसान हैं जो मजदूर वर्ग से मित्रता करना चाहते हैं और क्रान्ति की जीत के लिए लड़ाई में उसका समर्थन करेंगे.

कांग्रेस ने प्रेओब्राजेन्स्की और बुखारिन के संशोधन रद्द कर दिये और कामरेड स्तालिन के पेश किये हुए प्रस्ताव को मंजूर किया.

कांग्रेस ने बोल्शेविकों के आर्थिक कार्यक्रम पर विचार किया, और उसे मंजूर किया. उसकी मुख्य बातें ये थीं : जागीरी जमीन की जब्ती और तमाम जमीन का राष्ट्रीकरण, बैंकों का राष्ट्रीयकरण, बड़े पैमाने के उद्योग-धन्धों का राष्ट्रीयकरण और पैदावार तथा वितरण पर मजदूरों का नियंत्रण.

कांग्रेस ने पैदावार पर मजदूरों के नियंत्रण के लिए संघर्ष करने के महत्त्व पर जोर दिया. इस नियंत्रण को आगे चलकर बड़े कल-कारखानों के राष्ट्रीयकरण के दौर में महत्त्वपूर्ण पार्ट अदा करना था.

छठी कांग्रेस ने अपने सभी फैसलों में समाजवादी क्रान्ति की जीत के लिए एक शर्त के रूप में सर्वहारा और गरीब किसानों के सहयोग के लेनिन के सिद्धान्त पर खास तौर से जोर दिया.

कांग्रेस ने इस मेन्शेविक मत की निन्दा की कि ट्रेड यूनियन तटस्थ रहें. उसने बताया कि रूस के मजदूर वर्ग के सामने जो युगान्तरकारी कार्य हैं वे तभी पूरे हो सकते हैं जब ट्रेड यूनियन बोल्शेविक पार्टी का राजनीतिक नेतृत्व मानने वाले लड़ाकू वर्ग-संगठन बने रहें.

कांग्रेस ने नौजवान सभाओं पर, जो उस समय अकसर अपने-आप बन जाया करती थीं, एक प्रस्ताव मंजूर किया. आगे चलकर पार्टी की कोशिशों के फलस्वरूप, ये तरुण संगठन निश्चित रूप से पार्टी के साथ हो गये और उसकी (रिजर्व) शक्ति बन गये.

कांग्रेस ने इस बात पर विचार किया कि लेनिन मुकदमे में हाजिर हों या न हों. कामेनेव, राइकोव, त्रात्स्की वगैरह कांग्रेस से पहले भी कहते थे कि लेनिन को क्रान्ति-विरोधी अदालत के सामने आना चाहिए. कामरेड स्तालिन मुकदमे में लेनिन के हाजिर होने का बहुत जोरों से विरोध करते थे. छठी कांग्रेस का मत भी यही था, क्योंकि उसका विचार था कि यह मुकदमा नहीं होगा बल्कि जानमारी होगी. कांग्रेस को जरा भी शक न था कि पूँजीपति सिर्फ एक चीज चाहते हैं और वह यह कि पूँजीपतियों के सबसे खतरनाक दुश्मन-लेनिन-को जान से मार डाला जाये. कांग्रेस ने पूँजीपतियों द्वारा क्रान्तिकारी सर्वहारा के पुलिस-दमन का विरोध किया और लेनिन का अभिवादन करते हुए एक सन्देश भेजा.

छठी कांग्रेस ने नयी पार्टी नियमावली मंजूर की. इस नियमावली में कहा गया था कि सभी पार्टी संगठन जनवादी केन्द्रीयता के उसूल पर बनाये जायेंगे. इसका मतलब यह था :

  1. ऊपर से लेकर नीचे तक, पार्टी की सभी संचालक समितियाँ चुनी जायेंगी;
  2. पार्टी संस्थाएँ अपने-अपने पार्टी-संगठनों को समय-समय पर अपनी कार्रवाई की रिपोर्टें देंगी;
  3. पार्टी में कठोर अनुशासन होगा और अल्पमत बहुमत के मातहत रहेगा;
  4. ऊँची समितियों के सभी फैसले नीचे की समितियों और सभी पार्टी सदस्यों के लिए कतई मान्य होंगे.

पार्टी नियमावली में कहा गया था कि दो पार्टी सदस्यों की सिफारिश और स्थानीय संगठन के आम सदस्यों की सभा की मंजूरी पर पार्टी में नये सदस्य स्थानीय पार्टी-संगठनों के जरिये भर्ती किये जायेंगे.

छठी कांग्रेस ने मेजरायोन्त्सी और उसके नेता त्रात्स्की को पार्टी में भर्ती किया. यह एक छोटा-सा गुट था, जो पेत्रोग्राद में सन् 1913 से था और जिसमें त्रात्स्की पंथी मेन्शेविक और कुछ पहले के बोल्शेविक थे जो पार्टी से अलग हो गये थे. युद्धकाल में मेजरायोन्त्सी एक मध्यमार्गी संगठन था. वे बोल्शेविकों से लड़ते थे, लेकिन बहुत-सी बातों में मेन्शेविकों से असहमत थे और इस तरह उनकी स्थिति बीच की, मध्यमार्गी, ढुलमुलपन की थी. छठी कांग्रेस में मेजरायोन्त्सी ने ऐलान किया कि वे सभी बातों पर बोल्शेविकों से सहमत हैं और उन्होंने पार्टी में दाखिल होने की प्रार्थना की. कांग्रेस ने इस उम्मीद में उनकी प्रार्थना मंजूर की कि समय बीतने पर वे सच्चे बोल्शेविक बन जायेंगे. मेजरायोनत्सी में से कुछ, जैसे वोलोदास्र्की और ऊरीत्स्की, दरअसल बोल्शेविक बन गये. जहाँ तक त्रात्स्की और उसके कुछ नजदीकी दोस्तों का सवाल था, ये लोग, जैसा कि आगे चलकर मालूम हुआ, पार्टी के हित में काम करने के लिए नहीं बल्कि उसे भीतर से तोड़ने और नष्ट करने के लिए पार्टी में शामिल हुए थे.

छठी कांग्रेस के सभी फैसलों का उद्देश्य यह था कि सर्वहारा वर्ग और सबसे गरीब किसानों को सशस्त्र विद्रोह के लिए तैयार किया जाये. छठी कांग्रेस ने पार्टी को सशस्त्र विद्रोह के लिए, समाजवादी क्रान्ति के लिए आगे बढ़ाया. कांग्रेस ने एक पार्टी घोषणापत्र निकाला, जिसमें पूँजीपतियों से निर्णायक युद्ध करने के लिए मजदूरों, सैनिकों और किसानों से अपनी शक्ति बटोरने के लिये कहा गया. उसके अन्तिम शब्द ये थे :

‘इसलिए, साथियो, नयी लड़ाइयों के लिए तैयारी करो. दृढ़ता से, बहादुरी से और शान्ति से, बिना उकसावे में आये हुए अपनी शक्ति बटोरो और अपनी लड़ाकू कतार बनाओ ! मजदूरो और सिपाहियो, पार्टी के झण्डे के नीचे इकट्ठे हो ! गाँव के सताये हुए लोगो, हमारे झण्डे के नीचे इकट्ठे हो !’

5. क्रान्ति के खिलाफ जनरल कार्निलोव का षड्यंत्र. षड्यंत्र का दमन. पेत्रोग्राद और मास्को सोवियतों का बोल्शेविकों से जा मिलना.

समूची सत्ता हथियाकर, पूँजीपतियों ने अब यह कोशिश शुरू की कि कमजोर पड़ चुकी सोवियतों को कुचल दें और खुला क्रान्ति-विरोधी अधिनायकत्व कायम करें. करोड़पति रियाबुशिन्स्की ने बदतमीजी से ऐलान किया कि परिस्थिति से निकलने का एक ही चारा है कि ‘अकाल और तबाही का फौलादी पंजा जनता के झूठे दोस्तों-जनवादी सोवियतों और कमेटियों-का गला दबा दे.’ युद्ध के मौके पर कोर्ट मार्शल करके, सैनिकों से भयानक बदला लिया जाता था और झुण्ड के झुण्ड लोगों को मौत की सजा दी जाती थी. 3 अगस्त 1917 को, प्रधान सेनापति जनरल कार्निलोव ने माँग की कि युद्ध के मोर्चे के पीछे भी मौत की सजा चालू की जाये.

12 अगस्त को, मास्को के बड़े नाटकघर में अस्थायी सरकार की बुलाई हुई राज्य समिति की बैठक शुरू हुई. उसका उद्देश्य पूँजीपतियों और जमीन्दारों की शक्ति को बटोरना था. उसमें ज्यादातर जमीन्दारों के प्रतिनिधि, पूँजीपति, जनरल, अफसर और कज्जाक आये थे. सोवियतों के प्रतिनिधि मेन्शेविक और समाजवादी-क्रान्तिकारी थे.

राज्य समिति को बुलाने के विरोध में, बोल्शेविकों ने उसकी बैठक के पहले दिन मास्को में आम हड़ताल का बुलावा दिया. हड़ताल में अधिकांश मजदूर शामिल हुए. उसके साथ ही, और कई शहरों में भी हड़तालें हुईं.

समाजवादी-क्रान्तिकारी केरेन्स्की ने राज्य समिति में डींग हाँकते हुए धमकी दी कि क्रान्तिकारी आन्दोलन की हर कोशिश, जिसमें जमीन्दारों की जमीन पर किसानों द्वारा अनधिकार कब्जा करने की कोशिश की थी, ‘लोहे और खून’ से दबा दी जायेगी.

क्रान्ति-विरोधी जनरल कार्निलोव ने सीधे-सीधे माँग की कि ‘कमेटी और सोवियतें खत्म कर दी जायें.’

बैंक-साहूकार, सौदागर और कारखानेदार कार्निलोव के जनरल हेडक्वार्टर पर इकट्ठे होने लगे और उसे धन और मदद देने का वायदा करने लगे.

‘मित्र-देशों’, ब्रिटेन और फ्रांस के प्रतिनिधि भी जनरल कार्निलोव के पास आये और माँग की कि क्रान्ति के खिलाफ कदम उठाने में देर न की जाये.

क्रान्ति के खिलाफ जनरल कार्निलोव का षड्यंत्र पक रहा था.

कार्निलोव ने खुल्लमखुल्ला अपनी तैयारी की. लोगों का ध्यान बँटाने के लिए, षड्यंत्रकारियों ने यह अफवाह फैला दी कि बोल्शेविक विद्रोह की तैयारी कर रहे हैं जो पेत्रोग्राद में 27 अगस्त को-क्रान्ति के छह महीनों के बाद-होगा. केरेन्स्की के नेतृत्व में, अस्थायी सरकार ने खूँख्वार तरीके से बोल्शेविकों पर हमला किया और सर्वहारा पार्टी के खिलाफ अपना आतंक और भी फैलाया. इसके साथ ही, जनरल कार्निलोव ने फौज इकट्ठी की, जिससे कि उसे पेत्रोग्राद के खिलाफ ले जा सके, सोवियतें खत्म करे और एक फौजी तानाशाही कायम करे.

अपने इस क्रान्ति-विरोधी काम के लिए, कार्निलोव पहले ही केरेन्स्की से समझौता कर चुका था. लेकिन जैसे ही कार्निलोव का काम शुरू हुआ, वैसे ही केरेन्स्की ने अचानक पैंतरा बदला और अपने दोस्त से अलग हो गया. केरेन्स्की को डर लगा कि आम जनता कार्निलोवपंथियों के खिलाफ उठ खड़ी होगी और उन्हें कुचल देगी, साथ ही वह केरेन्स्की की पूँजीवादी सरकार का भी सफाया कर देगी, अगर उसने तुरन्त ही अपने को कार्निलोव-काण्ड से अलग न किया.

25 अगस्त को, कार्निलोव ने जनरल क्रिमोव की कमान में तीसरे घुड़सवार दस्ते को पेत्रोग्राद के खिलाफ भेजा और ऐलान किया कि वह ‘पितृभूमि की रक्षा’ करना चाहते हैं. कार्निलोव-विद्रोह देख कर, बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने मजदूरों और सैनिकों को बुलावा दिया कि वे क्रान्ति-विरोध का सक्रिय रूप से हथियारबन्द विरोध करें. मजदूर जल्दी-जल्दी हथियारबन्द होने लगे और मुकाबले की तैयारी में लग गये. उन दिनों, रेड गार्ड दस्ते भारी तादाद में बने।ट्रेड यूनियनों ने अपने सदस्यों को बटोरा. पेत्रोग्राद के क्रान्तिकारी फौजी दस्ते लड़ाई के लिए तैयार रखे गये. पेत्रोग्राद के चारों तरफ खाइयाँ खोद दी गयीं, कँटीले तारों की जाली लगा दी गयी और शहर की तरफ आने वाली रेलों की पटरियाँ उखाड़ डाली गयी. शहर की रक्षा करने के लिए, कई हजार हथियारबन्द जहाजी क्रोन्स्तात से आये. पेत्रोग्राद की तरफ बढ़ने वाली ‘खूँख्वार पल्टन’ के पास प्रतिनिधि भेजे गये. ‘खूँख्वार पल्टन’ में काकेशस के पहाड़ी लोग थे. जब प्रतिनिधियों ने कार्निलोव की कार्रवाई का उद्देश्य उन्हें समझाया, तो उन्होंने आगे बढ़ने से इन्कार कर दिया. कार्निलोव के दूसरे दस्तों के लिए भी प्रचारक भेजे गये. जहाँ भी खतरा था, कार्निलोव से लड़ने के लिए क्रान्तिकारी समितियाँ और हेड क्वार्टर बनाये गये.

उन दिनों, अपनी जान के लिए बुरी तरह डरे हुए समाजवादी-क्रान्तिकारी और मेन्शेविक नेता, जिनमें केरेन्स्की भी था, बोल्शेविकों से जान बचाने की प्रार्थना करने लगे. उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि राजधानी में बोल्शेविक ही एक समर्थ शक्ति हैं, जो कार्निलोव को हरा सकते हैं.

लेकिन, कार्निलोव-विद्रोह को कुचलने के लिए आम जनता को बटोरते हुए, बोल्शेविकों ने केरेन्स्की हुकूमत के खिलाफ अपना संघर्ष बन्द नहीं किया. उन्होंने आम जनता के सामने केरेन्स्की सरकार, मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों का पर्दाफाश किया और बताया कि दरअसल उनकी समूची नीति कार्निलोव के क्रान्ति-विरोधी षड्यंत्र की मदद कर रही है.

इन उपायों का फल यह हुआ कि कार्निलोव-विद्रोह दबा दिया गया. जनरल क्रिमोव ने आत्महत्या कर ली. कार्निलोव और उसके साथी षड्यंत्रकारी देनीकिन और लुकोम्स्की गिरफ्तार कर लिये गये. (लेकिन, केरेन्स्की ने बहुत जल्द ही उन्हें छुड़वा दिया).

कार्निलोव-विद्रोह की हार ने पल भर में दिखला दिया कि क्रान्ति और क्रान्ति-विरोध की ताकत कितनी-कितनी है. उसने दिखला दिया कि सारे क्रान्ति-विरोधी खेमे की, जनरलों और संवैधानिक जनवादी पार्टी से लेकर पूँजीपतियों के जाल में फँसने वाले मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों तक का अन्त नजदीक आ पहुँचा है. यह बात स्पष्ट हो गयी कि लड़ाई के असह्य बोझ को बनाये रखने की नीति से और लम्बी लड़ाई से पैदा होने वाली आ£थक अव्यवस्था की वजह से, आम जनता में मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों का असर पूरी तरह कमजोर पड़ चुका है.

कार्निलोव-विद्रोह की हार ने यह भी दिखला दिया कि बोल्शेविक पार्टी क्रान्ति की निर्णायक शक्ति बन चुकी है और क्रान्ति-विरोध की कोई भी कोशिश खत्म कर सकती है. हमारी पार्टी अभी शासक पार्टी नहीं थी, लेकिन कार्निलाव के दिनों में उसने सच्ची हुकूमत करने वाली ताकत की तरह काम किया. मजदूर और सैनिक बिना हिचकिचाहट के उसके निर्देश पालन करते थे.

अन्त में, कार्निलोव-विद्रोह की हार ने दिखला दिया कि ऊपर से मुर्दा दीखने वाली सोवियतों में दरअसल क्रान्तिकारी प्रतिरोध करने की भारी शक्ति छिपी हुई है. इसमें कोई शक नहीं था कि सोवियतों और उनकी क्रान्तिकारी कमेटियों ने ही कार्निलोव के दस्तों का रास्ता रोक लिया था और उनकी कमर तोड़ दी थी.

कार्निलोव के खिलाफ संघर्ष ने मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की मुरझाती हुई सोवियतों में नयी जान डाल दी. उसने उन्हें समझौते की नीति के असर से मुक्त किया. वह उन्हें क्रान्तिकारी संघर्ष की खुली राह पर ले आया और उसने उन्हें, बोल्शेविक पार्टी की तरफ मोड़ दिया.

सोवियतों में बोल्शेविकों का असर पहले से भी ज्यादा बढ़ गया.

देहात के जिलों में भी उनका असर तेजी से बढ़ा.

कार्निलोव-विद्रोह ने आम किसान जनता के सामने यह बात साफ कर दी कि अगर जमीन्दार और जनरल बोल्शेविकों और सोवियतों को कुचल पाये, तो उसके बाद वे किसानों पर ही हमला करेंगे. इसलिए, गरीब किसान बोल्शेविकों के चारों तरफ और नजदीक सिमटने लगे. जहाँ तक मध्यम किसानों का सम्बन्ध था, उनके ढुलमुलपन ने अप्रैल से अगस्त 1917 तक के दौर में क्रान्ति के विकास को रोका था. कार्निलोव की हार के बाद, वे बोल्शेविक पार्टी की तरफ निश्चित रूप से झुकने लगे और गरीब किसानों से एका करने लगे. आम किसान जनता यह महसूस करने लगी थी कि बोल्शेविक पार्टी उसे युद्ध से मुक्त कर सकती है और यही पार्टी जमीन्दारों को कुचल सकती है और किसानों  को जमीन देने के लिए तैयार है. सितम्बर और अक्टूबर 1917 के महीनों में, किसानों द्वारा जागीरी जमीन पर अधिकार करने की घटनाएँ बेहद बढ़ गयीं. बिना पूछे हुए, जमीन्दारों के खेत जोतना आम हो गया. किसानों ने क्रान्ति की राह पकड़ ली थी और पुचकारने से या सजा देने वाले दस्ते भेजने से अब वे रुक नहीं सकते थे.

क्रान्ति का ज्वार उठ रहा था.

सोवियतों के पुनर्जीवन का दौर आया, उनकी बनावट बदलने, उनके बोल्शेवीकरण का दौर आया. कारखानों, मिलों और फौजी दस्तों में नये चुनाव हुए और उन्होंने मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों की जगह सोवियतों में बोल्शेविक पार्टी के प्रतिनिधि भेजे. 31 अगस्त को, कार्निलोव पर जीत हासिल करने के दूसरे दिन, पेत्रोग्राद-सोवियत ने बोल्शेविक नीति मंजूर की. पेत्रोग्राद-सोवियत के पुराने मेन्शेविक और समाजवादी-क्रान्तिकारी सभापति मण्डल ने, जिसका अग्रणी चखाइत्से था, इस्तीफा दे दिया और इस तरह, बोल्शेविकों के लिए रास्ता साफ कर दिया. 5 सितम्बर को, मजदूर प्रतिनिधियों की मास्को-सोवियत बोल्शेविकों की तरफ आ गयी. मास्को-सोवियत के समाजवादी-क्रान्तिकारी और मेन्शेविक सभापति-मण्डल ने भी इस्तीफा दे दिया और बोल्शेविकों के लिए रास्ता साफ कर दिया.

इसका मतलब यह था कि सफल विद्रोह के लिए मुख्य शर्तें पूरी हो चुकी थी.

‘सारी सत्ता सोवियतों को दो !’-यह नारा फिर कार्यक्रम में शामिल हो गया था.

लेकिन यह पुराना नारा नहीं था, मेन्शेविक और समाजवादी-क्रान्तिकारी सोवियतों को सत्ता सौंपने का नारा नहीं था. अब यह अस्थायी सरकार के खिलाफ सोवियतों के विद्रोह का नारा था, जिसका उद्देश्य था कि सोवियतों के हाथ में देश की सारी सत्ता सौंप दी जाये जो अब बोल्शेविकों के नेतृत्व में थी.

समझौतावादी पार्टियाँ भीतर से टूटने लगी.

क्रान्तिकारी किसानों के दबाव से, समाजवादी-क्रान्तिकारी पार्टी में एक वामपंथी दल बन गया. इसे ‘वामपंथी’ समाजवादी-क्रान्तिकारी दल कहते थे. ये लोग पूँजीपतियों से समझौता करने की नीति नामंजूर करते थे.

मेन्शेविकों में भी ‘वामपंथियों’ का एक गुट, तथाकथित ‘अन्तरराष्ट्रीयतावादी’ गुट पैदा हो गया, जो बोल्शेविकों की तरफ झुकता था.

जहाँ तक अराजकतावादियों का सवाल था, इनका असर तो पहले ही नहीं के बराबर था. अब वे छोटी-छोटी टुकड़ियों में बँट गये, जिनमें से कुछ तो चोरों और जासूसों, समाज के सबसे घटिया लोगों, बदमाशों वगैरह से मिल गये. दूसरे लोग दूसरों का माल हड़पने वाले हो गये. और, वे दूसरों का माल हड़पने में ‘विश्वास’ करने लगे ! ये किसानों और शहर के मामूली लोगों को लूटते थे और मजदूर क्लबों की जगह और उनकी जमा-पूँजी हथिया लेते थे. कुछ दूसरे और थे, जो खुल कर क्रान्ति-विरोधी खेमे से जा मिले, और पूँजीपतियों के चाकर बन कर अपनी जेबें गरम करने लगे. ये लोग हर किसी तरह के प्रभुत्व के खिलाफ थे, खास तौर से मजदूरों और किसानों के क्रान्तिकारी प्रभुत्व के खिलाफ थे, क्योंकि वे जानते थे कि क्रान्तिकारी हुकूमत उन्हें जनता को लूटने और जन-सम्पत्ति चुराने की छूट नहीं देगी.

कार्निलोव की हार के बाद, मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों ने एक बार और कोशिश की कि क्रान्ति का उठता हुआ ज्वार दब जाये. इस उद्देश्य से, उन्होंने 12 सितम्बर 1917 को एक अखिल रूसी प्रजातांत्रिक सम्मेलन बुलाया। इसमें सोशलिस्ट पार्टियों, समझौतावादी सोवियतों, ट्रेड यूनियनों, जेम्स्त्वों, व्यापारी और औद्योगिक हल्कों और फौजी दस्तों के प्रतिनिधि आये थे. सम्मेलन ने जनतंत्र की एक अस्थायी समिति बनायी, जिसका नाम प्रेद पार्लियामेण्ट था. समझौतावादियों को उम्मीद थी कि इसकी मदद से वे क्रान्ति रोक लेंगे और देश को सोवियत क्रान्ति के रास्ते से हटा कर पूँजीवादी वैधानिक विकास की राह पर, पूँजीवादी संसदगीरी की राह पर ले आयेंगे. लेकिन, यह राजनीति के दिवालियों की नाकाम कोशिश थी जो क्रान्ति के चक्र को रोकने के लिए की गयी थी. उसका नाकाम होना लाजिमी था, और वह नाकाम होकर रही. मजदूर समझौतावादियों की इन संसद-सम्बन्धी कोशिशों का मजाक बनाते थे और प्रेद पार्लियामेण्ट (संसद से पूर्व) को ‘प्रेद बान्निक’ (स्नानगृह से पूर्व) कहते थे.

बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने प्रेद पार्लियामेण्ट का बायकाट करने का फैसला किया. यह सही है कि प्रेद पार्लियामेण्ट में कामेनेव और तेओदोरोविच जैसे लोगों का बोल्शेविक गुट उससे अलग नहीं होना चाहता था, लेकिन पार्टी की केन्द्रीय समिति ने उसे इसके लिए मजबूर किया.

कामेनेव और जिनोवियेव ने इस बात की बहुत जिद की कि प्रेद पार्लियामेण्ट में हिस्सा लिया जाये. इस तरह, वे कोशिश कर रहे थे कि पार्टी को विद्रोह की तैयारी करने की राह से हटा दिया जाये. अखिल रूसी जनवादी सम्मेलन के बोल्शेविक गुट की बैठक में बोलते हुए, कामरेड स्तालिन ने प्रेद पार्लियामेण्ट में हिस्सा लेने का जोरों से विरोध किया. उन्होंने कहा कि प्रेद पार्लियामेण्ट ‘कार्निलोव का गर्भपात’ है.

लेनिन और स्तालिन का विचार था कि कुछ दिनों के लिए भी प्रेद पार्लियामेण्ट में हिस्सा लेना गलत होगा, क्योंकि इससे आम जनता में यह झूठी आशा पैदा हो सकती थी कि प्रेद पार्लियामेण्ट मेहनतकश जनता के लिए सचमुच कुछ कर सकती है.

इसके साथ ही, बोल्शेविकों ने सोवियतों की दूसरी कांग्रेस बुलाने के लिए जोरदार तैयारियाँ कीं. उन्हें आशा थी कि इस कांग्रेस में उनका बहुमत होगा. बोल्शेविक सोवियतों के दबाव से, अखिल रूसी केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति में मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों की चालबाजियों के बावजूद, सोवियतों की दूसरी अखिल रूसी कांग्रेस अक्टूबर 1917 के दूसरे पखवारे में बुलाई गई.

6. पेत्रोग्राद में अक्टूबर विद्रोह और अस्थायी सरकार की गिरफ्तारी. सोवियतों की दूसरी कांग्रेस और सोवियत सरकार का निर्माण. शान्ति और जमीन पर सोवियतों की दूसरी कांग्रेस के आज्ञा-पत्र. समाजवादी क्रान्ति की विजय. समाजवादी क्रान्ति की विजय के कारण.

बोल्शेविकों ने विद्रोह की जोरदार तैयारियाँ शुरू कीं. लेनिन ने कहा कि दोनों राजधानियों-मास्को और पेत्रोग्राद-में मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की सोवियतों में बहुमत हासिल करने के बाद, बोल्शेविक अपने हाथ में राज्यसत्ता ले सकते हैं, और उन्हें लेना चाहिए. तय किये हुए रास्ते पर नजर डालते हुए, लेनिन ने इस बात पर जोर दिया कि ‘जनता का बहुमत
हमारे साथ है.’ अपने लेखों और केन्द्रीय समिति और बोल्शेविक संगठनों के नाम अपने खतों में, लेनिन ने विद्रोह की एक विस्तृत योजना बनायी और बतलाया कि फौजी दस्ते, जल-सेना और रेड गार्ड दस्तों को किस तरह इस्तेमाल करना चाहिए, विद्रोह की सफलता निश्चित करने के लिए पेत्रोग्राद के किन मुख्य स्थानों पर कब्जा करना चाहिए, इत्यादि.

सात अक्टूबर को, लेनिन गुप्त रूप से फिनलैण्ड से पेत्रोग्राद आये. 10 अक्टूबर 1917 को, पार्टी की केन्द्रीय समिति की ऐतिहासिक बैठक हुई जिसमें अगले कुछ दिनों में सशस्त्र विद्रोह आरम्भ करने का फैसला किया गया. पार्टी की केन्द्रीय समिति के ऐतिहासिक प्रस्ताव में, जिसे लेनिन ने लिखा था, कहा गया था :

‘केन्द्रीय समिति यह समझती है कि रूसी क्रान्ति की अन्तरराष्ट्रीय परिस्थिति (जर्मन जल-सेना में विद्रोह, जो समूचे यूरोप में विश्व समाजवादी क्रान्ति का चरम प्रदर्शन है; रूस की क्रान्ति का गला घोंटने के उद्देश्य से साम्राज्यवादियों के बीच शान्ति की धमकी), साथ ही सैनिक परिस्थिति (रूसी पूँजीपतियों और केरेन्स्की एण्ड कम्पनी का यह निश्चित फैसला कि पेत्रोग्राद जर्मनों को सौंप दिया जाये) और सोवियतों में सर्वहारा पार्टी का बहुमत हासिल करना-यह सब और इसके साथ यह कि किसान-विद्रोह हो रहे हैं और आम जनता का विश्वास तेजी से पार्टी पर जम रहा है (मास्को के चुनाव), और अन्त में एक दूसरे कार्निलोव काण्ड के लिए जो खुली तैयारी हो रही है (पेत्रोग्राद से फौज वापस बुलाना, पेत्रोग्राद में कज्जाक भेजना, कज्जाकों द्वारा मिन्स्क का घेरा डालना)-इन सब कारणों से सशस्त्र विद्रोह फौरी कार्यक्रम में शामिल हो गया है.’

‘इसलिए, यह समझकर कि सशस्त्र विद्रोह होकर रहेगा और उसके लिए वक्त बिल्कुल आ गया है, केन्द्रीय समिति सभी पार्टी संगठनों को निर्देश देती है कि वे सभी काम इसी बात को ध्यान में रखकर करें और इसी दृष्टिकोण से सभी अमली सवालों पर (उत्तरी प्रदेश की सोवियतों की कांग्रेस, पेत्रोग्राद से फौजें हटाना, मास्को और मिन्स्क में हमारी जनता की कार्रवाई वगैरह पर) विचार करें और फैसला करें.’ (लेनिन, सं.ग्र., अं.सं. मास्को, 1947, खण्ड 2, पृष्ठ 135).

केन्द्रीय समिति के दो सदस्य, कामेनेव और जिनोवियेव, इस ऐतिहासिक प्रस्ताव के खिलाफ बोले और उन्होंने उसके विरुद्ध वोट दिया. मेन्शेविकों की तरह, वे पूँजीवादी संसदीय जनतंत्र का सपना देखते थे और मजदूर वर्ग पर यह कह कर कीचड़ उछालते थे कि समाजवादी क्रान्ति करने के लिए वह काफी मजबूत नहीं है, कि वह सत्ता हाथ में लेने के लिए काफी परिपक्व नहीं है.

हालाँकि इस बैठक में त्रात्स्की ने सीधे इस प्रस्ताव के खिलाफ वोट नहीं दिया, फिर भी उसने एक संशोधन रखा जिससे विद्रोह की सम्भावना नहीं के बराबर हो जाती और विद्रोह निष्फल हो जाता. उसने प्रस्ताव रखा कि सोवियतों की दूसरी कांग्रेस शुरू होने से पहले विद्रोह शुरू नहीं किया जाये. इस प्रस्ताव का मतलब था-विद्रोह में विलम्ब करना, उसकी तारीख जाहिर कर देना और अस्थायी सरकार को आगाह कर देना.

बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने विद्रोह का संगठन करने के लिए अपने प्रतिनिधियों को दोन्येत्स प्रदेश, यूराल, हैलसिंगफोर्स, क्रोन्स्तात, दक्षिण-पश्चिमी मोर्चा और दूसरी जगहों पर भेजा. पार्टी ने खास तौर से सूबों में विद्रोह का संचालने करने के लिए कामरेड वोरोशिलोव, मोलोतोव, जेरजिन्स्की, ओर्जोनिकित्से, किरोव, कगानोविच, कुइवीशेव, फ्रुन्जे, यारोस्लाव्स्की और दूसरे साथियों को मुकर्रर किया. कामरेड ज्दानोव ने यूराल में शाद्रिन्स्क की फौज में काम जारी रखा. केन्द्रीय समिति के प्रतिनिधियों ने सूबों के बोल्शेविक संगठनों के प्रमुख सदस्यों को विद्रोह की योजना बतायी और पेत्रोग्राद के विद्रोह का समर्थन करने के लिए उन्हें तैयार रहने के लिए बटोरा.

पार्टी की केन्द्रीय समिति के निर्देश से, पेत्रोग्राद-सोवियत की एक क्रान्तिकारी फौजी कमेटी बनायी गयी. यह संस्था विद्रोह का कानूनी तौर पर चलने वाला हेडक्वार्टर बन गयी.

उधर क्रान्ति-विरोधी भी जल्दी-जल्दी अपनी शक्ति बटोर रहे थे. फौज के अफसरों ने एक क्रान्ति-विरोधी संगठन बनाया, जिसका नाम अफसरों की सभा था. हर जगह क्रान्ति-विरोधियों ने लड़ाकू दस्ते बनाने के लिए हेडक्वार्टर कायम किये. अक्टूबर के अन्त तक, क्रान्ति-विरोधियों की कमान में 43 लड़ाकू दस्ते बन गये. सेण्ट जार्ज के क्रास के मानने वालों के खास दस्ते बनाये गये.

केरेन्स्की की सरकार ने शासन केन्द्र पेत्रोग्राद से मास्को ले जाने के सवाल पर विचार किया. इससे स्पष्ट हो गया कि शहर में विद्रोह रोकने के लिए वह पेत्रोग्राद को जर्मनों के हाथ सौंपने की तैयारी कर रही है. पेत्रोग्राद के मजदूरों और सैनिकों के विरोध ने अस्थायी सरकार को पेत्रोग्राद में ही रहने पर मजबूर किया.

16 अक्टूबर को, पार्टी की केन्द्रीय समिति की एक विस्तृत बैठक हुई. इस बैठक में विद्रोह का संचालन करने के लिए एक पार्टी केन्द्र चुना गया, जिसके अगुआ कामरेड स्तालिन थे. यह पार्टी केन्द्र पेत्रोग्राद-सोवियत की क्रान्तिकारी फौजी कमेटी का प्रमुख नेतृत्व था और समूचे विद्रोह का अमली संचालन उसके हाथ में था.

केन्द्रीय समिति की बैठक में, समर्पणवादियों-जिनोवियेव और कामेनेव ने विद्रोह का फिर विरोध किया. यहाँ मुँहकी खाकर, उन्होंने विद्रोह के खिलाफ, पार्टी के खिलाफ खुल्लमखुल्ला अखबारों में लिखा. 18 अक्टूबर को, मेन्शेविक अखबार नोवाया जीज़्न (नव जीवन) ने कामेनेव और जिनोवियेव का बयान छापा, जिसमें कहा गया था कि बोल्शेविक विद्रोह की तैयारी कर रहे हैं और वे (कामेनेव और जिनोवियेव) समझते हैं कि यह दुस्साहसपूर्ण जुआ खेलना है. इस तरह, कामेनेव और जिनोवियेव ने दुश्मन को केन्द्रीय समिति का विद्रोह-सम्बन्धी फैसला बता दिया; उन्होंने यह प्रकट कर दिया कि कुछ ही दिनों में विद्रोह शुरू करने की योजना बनायी गयी है. यह गद्दारी थी. इस सिलसिले में, लेनिन ने लिखा था: ‘कामेनेव और जिनोवियेव ने सशस्त्र विद्रोह के बारे में अपनी पार्टी की केन्द्रीय समिति का फैसला दगाबाजी से रोद्जियांको और केरेन्स्की को बतला दिया है.’ लेनिन ने केन्द्रीय समिति के सामने जिनोवियेव और कामेनेव को पार्टी से निकालने का सवाल रखा.

गद्दारों से चेतावनी पाकर, क्रान्ति के दुश्मन तुरन्त ही इस बात के उपाय करने लगे कि विद्रोह को रोक दें और क्रान्ति के संचालक दल-बोल्शेविक पार्टी-का नाश कर दें. अस्थायी सरकार ने एक गुप्त बैठक बुलायी, जिसमें बोल्शेविकों का मुकाबला करने के लिए क्या उपाय किये जायें, इसका फैसला हुआ. 19 अक्टूबर को, अस्थायी सरकार ने युद्ध के मोर्चे से
जल्दी-जल्दी फौजें पेत्रोग्राद बुलायी. सड़कों पर भारी पहरा लगा दिया गया. क्रान्ति-विरोधी खास तौर से मास्को में भारी फौज इकट्ठी करने में कामयाब हुए. अस्थायी सरकार ने एक योजना बनायी कि सोवियतों की दूसरी कांग्रेस शुरू होने से पहले बोल्शेविक केन्द्रीय समिति के हेडक्वार्टर स्मोल्नी पर हमला किया जाये और उस पर कब्जा कर लिया जाये और
बोल्शेविक संचालन-केन्द्र का नाश कर दिया जाये. इसी उद्देश्य से, हुकूमत ने पेत्रोग्राद में वह फौज बुलाई जिसकी वफादारी पर उसे भरोसा था.

लेकिन, अस्थायी सरकार की जिन्दगी के दिन और घण्टे भी गिनती के रह गये थे. समाजवादी क्रान्ति की विजय-यात्रा को अब कोई भी नहीं रोक सकता था.

21 अक्टूबर को, बोल्शेविकों ने सभी क्रान्तिकारी फौजी दस्तों के पास क्रान्तिकारी फौजी समिति के कमिसार भेजे. विद्रोह होने से पहले के बचे हुए दिनों में फौजी दस्तों, मिलों और कारखानों में कार्रवाई की जोरदार तैयारी की गयी. युद्धपोत अव्रोरा और जारियास्वोबोदी के लिए भी निश्चित निर्देश भेजे गये.

पेत्रोग्राद सोवियत की एक बैठक में, त्रात्स्की ने डींग हाँकने की जीम में दुश्मन को वह तारीख बतला दी कि जबकि बोल्शेविक सशस्त्रा विद्रोह शुरू करने वाले थे. केरेन्स्की सरकार विद्रोह को असफल न कर दे, इसलिए पार्टी की केन्द्रीय समिति ने फैसला किया कि निश्चित किये हुए समय से पहले ही विद्रोह शुरू कर दिया जाये और आखिरी मंजिल तक ले जाया जाये. उसने विद्रोह की तारीख सोवियतों की दूसरी कांग्रेस के शुरू होने से पहले के दिन रखी.

24 अक्टूबर (6 नवम्बर) को सुबह तड़के, केरेन्स्की ने हमला शुरू कर दिया. उसने बोल्शेविक पार्टी के केन्द्रीय पत्र रबोचीपूत (मजदूर पथ) को बन्द करने का हुक्म दिया और सम्पादकीय दफ्तर और बोल्शेविकों के छापेखाने पर हथियारबन्द गाड़ियाँ भेजीं. लेकिन 10 बजे सबेरे तक, कामरेड स्तालिन के निर्देश पर, रेड गार्डों के दस्तों और क्रान्तिकारी
सैनिकों ने हथियारबन्द गाड़ियों को पीछे ठेल दिया और छापेखाने और रबोचीपूत के सम्पादकीय दफ्तरों पर और ज्यादा पहरा बिठा दिया. लगभग 11 बजे सबेरे रबोचीपूत प्रकाशित हुआ, जिसमें अस्थायी सरकार का तख्ता उलट देने के लिए आह्नान था. उसी समय, विद्रोह के पार्टी केन्द्र के निर्देश से क्रान्तिकारी सैनिकों और रेड गार्डों के दस्ते स्मोल्नी की तरफ दौड़ाये गये.

विद्रोह शुरू हो गया.

24 अक्टूबर की रात को, लेनिन स्मोल्नी आ पहुँचे और उन्होंने खुद विद्रोह के संचालन का भार सँभाला. उस रात भर फौज के क्रान्तिकारी दस्ते और रेड गार्डों के जत्थे बराबर स्मोल्नी आते रहे. बोल्शेविकों ने शरद प्रासाद घेरने के लिए, जहाँ अस्थायी सरकार ने अपना अड्डा बनाया था, उन्हें राजधानी के केन्द्र की तरफ भेजा.

25 अक्टूबर (7 नवम्बर) को, रेड गार्डों के दस्तों और क्रान्तिकारी सैनिकों ने रेलवे स्टेशनों, डाकखानों, तारघरों, मंत्रालयों और राज्य बैंक पर कब्जा कर लिया.

प्रेद पार्लियायामेण्ट भंग कर दी गयी.

बोल्शेविक केन्द्रीय समिति और पेत्रोग्राद सोवियत का हेडक्वार्टर, स्मोल्नी, क्रान्ति का हेडक्वार्टर बन गया, जहाँ से लड़ाई के बारे में सभी हुक्म भेजे जाते थे.

पेत्रोग्राद के मजदूरों ने उन दिनों दिखला दिया कि बोल्शेविक पार्टी की देखरेख में उन्होंने कैसी महान शिक्षा पाई है. फौज के क्रान्तिकारी दस्तों ने, जिन्हें बोल्शेविकों के काम ने विद्रोह के लिए तैयार किया था, नपे-तुले ढंग से लड़ाई की आज्ञाओं का पालन किया और वे रेड गार्डों के दस्तों के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर लड़े. जल सेना फौज से पीछे नहीं रही. क्रोन्स्तात बोल्शेविक पार्टी का गढ़ था और बहुत दिन पहले ही अस्थायी सरकार का प्रभुत्व मानने से इनकार कर चुका था. युद्धपोत अव्रोरा ने अपनी तोपें शरद प्रासाद की तरफ मोड़ दीं और, 25 अक्टूबर को, उनकी घन गर्जन ने एक नया युग आरम्भ किया, महान समाजवादी क्रान्ति का युग आरम्भ किया.

25 अक्टूबर (7 नवम्बर) को, बोल्शेविकों ने ‘रूस के नागरिकों के नाम’ एक घोषणापत्र निकाला. इसमें कहा गया था कि पूँजीवादी अस्थायी सरकार हटा दी गयी है और राज्यसत्ता सोवियतों के हाथ में आ गयी है.

अस्थायी सरकार ने कैडेटों और लड़ाकू जत्थों की छत्राछाया में शरद प्रासाद में शरण ली थी. 25 अक्टूबर की रात को क्रान्तिकारी मजदूरों, सैनिकों और जहाजियों ने शरद प्रासाद पर हल्ला बोल कर कब्जा कर लिया और अस्थायी सरकार को गिरफ्तार कर लिया.

पेत्रोग्राद में सशस्त्र विद्रोह की विजय हुई.

सोवियतों की दूसरी अखिल रूसी कांग्रेस 25 अक्टूबर (7 नवम्बर) 1917 की शाम को 10 बजकर 45 मिनट पर स्मोल्नी में शुरू हुई, जबकि पेत्रोग्राद का विद्रोह विजय गौरव से दमक रहा था और राजधानी में सत्ता सचमुच पेत्रोग्राद सोवियत के हाथ में आ गयी थी.

कांग्रेस में बोल्शेविकों को भारी बहुमत मिला. मेन्शेविकों, बुन्दवादियों और दक्षिणपंथी समाजवादी-क्रान्तिकारियों ने देखा कि अब उनके दिन बीत चुके हैं, इसलिए वे कांग्रेस से बाहर चले गये और उन्होंने ऐलान किया कि वे कांग्रेस के काम में हिस्सा लेने से इनकार करते हैं. सोवियतों की कांग्रेस में उनका एक बयान पढ़ा गया, जिसमें उन्होंने अक्टूबर क्रान्ति को एक ‘फौजी षड्यंत्र’ बताया था. कांग्रेस ने मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों की निन्दा की और उनके चले जाने पर अफसोस करना तो दूर, उसका स्वागत किया. कांग्रेस ने ऐलान किया कि गद्दारों के चले जाने से अब वह मजदूर और सैनिक प्रतिनिधियों की सच्ची क्रान्तिकारी कांग्रेस हो गयी है.

कांग्रेस ने ऐलान किया कि सारी सत्ता सोवियतों के हाथ में आ गयी है. सोवियतों की दूसरी कांग्रेस के घोषणापत्र में कहा गया :

‘मजदूरों, सैनिकों और किसानों के भारी बहुमत का समर्थन पाकर और पेत्रोग्राद में होने वाले मजदूरों और सैनिकों के सफल विद्रोह का समर्थन पाकर, कांग्रेस अपने हाथ में सत्ता लेती है.’

26 अक्टूबर (8 नवम्बर) 1917 की रात को, सोवियतों की दूसरी कांग्रेस ने शान्ति-सम्बन्धी आज्ञा-पत्रा स्वीकार किया. कांग्रेस ने युद्ध करने वाले देशों को बुलावा दिया कि कम से कम तीन महीने के लिए युद्धविराम कर लें, जिससे शान्ति की बातचीत की जा सके. कांग्रेस ने एक तरफ तो युद्ध करने वाले देशों की जनता और वहाँ की सरकारों से अपनी बात कही, दूसरी तरफ उसने ‘संसार के तीन आगे बढ़ी हुई राष्ट्रीयताओं और मौजूदा युद्ध में हिस्सा लेने वाले सबसे बड़े राज्यों यानी ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के वर्ग-चेतन मजदूरों से’ अपील की. उसने इन मजदूरों से कहा कि वे ‘शान्ति के उद्देश्य को सफलता की मंजिल तक ले जाने में और साथ ही सभी तरह की गुलामी और शोषण से मेहनतकश और शोषित जनता की मुक्ति के उद्देश्य को सफलता की मंजिल तक ले जाने में’ मदद करें.

उसी रात को, सोवियतों की दूसरी कांग्रेस ने भूमिसम्बन्धी आज्ञापत्र स्वीकार किया जिसमें कहा गया था : ‘भूमि पर जमीन्दारों की मिल्कियत बिना मुआवजे के तुरन्त खत्म की जाती है.’ खेती के इस कानून का आधार किसानों का एक निर्देश-पत्र (मैण्डेट) था, जो अलग-अलग जगहों के किसानों के 242 मैण्डेटों को मिला कर बनाया गया था. इसके अनुसार, जमीन पर व्यक्तिगत मिल्कियत हमेशा के लिए खत्म कर दी गयी और उसके बदले सार्वजनिक या राज्य की मिल्कियत कायम हुई. जमीन्दारों, जार के परिवार और मठों की जमीन बिना पैसा दिये हुए सभी मेहनतकशों को इस्तेमाल के लिए देने का हुक्म हुआ.

इस आज्ञा-पत्र से, किसानों ने अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति से 15 करोड़ देसियातिन (40 करोड़ एकड़ से ऊपर) जमीन पायी जो पहले जमीन्दारों, पूँजीपतियों, जार के परिवार, मठों और गिरजाघरों के पास थी.

इसके अलावा, किसानों को उस लगान से मुक्त कर दिया गया जो वे जमीन्दारों को देते थे और जो सालाना 50 करोड़ स्वर्ण रूबल होता था. खनिज पदार्थों के तमाम साधन (तेल, कोयला, धातुएँ, वगैरह), जंगल और जलाशय जनता की सम्पत्ति हो गये.

अन्त में, सोवियतों की दूसरी अखिल रूसी कांग्रेस ने पहली सोवियत सरकार बनायी-जन कमिसारों की समिति बनायी जिसमें सभी बोल्शेविक थे. जन कमिसारों की पहली समिति के पहले सभापति लेनिन चुने गये.

इससे सोवियतों की दूसरी ऐतिहासिक कांग्रेस का काम खत्म हुआ.

कांग्रेस के प्रतिनिधि इधर-उधर बिखर गये, जिससे कि पेत्रोग्राद में सोवियतों की जीत की खबर फैला दें और सोवियतों की सत्ता सारे देश में फैलाने का काम निश्चित करें.

हर जगह सोवियतों के हाथ तुरन्त ही सत्ता नहीं आ गयी। जब पेत्रोग्राद में सोवियत सरकार बन चुकी थी, तब मास्को में कई दिन तक डट कर और घनघोर लड़ाई होती रही। सत्ता मास्को-सोवियत के हाथ में न जाये, इसके लिए क्रान्ति-विरोधी मेन्शेविक और समाजवादी-क्रान्तिकारी पा£टयों ने गद्दारों और कैडेटों से मिल कर मजदूरों और सैनिकों के खिलाफ हथियारबन्द लड़ाई शुरू कर दी। बागियों को हराने और मास्को में सोवियतों की सत्ता कायम करने में कई दिन लग गये।

खुद पेत्रोग्राद में और उसके कई जिलों में क्रान्ति की जीत के शुरू के दिनों में ही सोवियत सत्ता को खत्म करने की क्रान्ति-विरोधी कोशिशें की गयीं। 10 नवम्बर 1917 को, केरेन्स्की ने, जो विद्रोह के समय पेत्रोग्राद से उत्तरी मोर्चे को भाग गया था, कई कज्जाक दस्ते इकट्ठे किये और जनरल क्रासनोव की कमान में उन्हें पेत्रोग्राद के खिलाफ भेजा। 11 नवम्बर 1917 को, एक क्रान्ति-विरोधी संगठन ने पेत्रोग्राद में कैडेटों से बगावत करायी। इस संगठन के नेता समाजवादी-क्रान्तिकारी थे, और उसका नाम रखा था-‘पितृभूमि और क्रान्ति के उद्धार की कमेटी’। लेकिन, बिना ज्यादा कठिनाई के बगावत दबा दी गयी।

एक ही दिन में, 11 नवम्बर की शाम तक, जहाजियों और रेड गार्डाें के दस्तों ने कैडेट-विद्रोह दबा दिया और 13 नवम्बर को जनरल क्रासनोव पुलकोवो पहाड़ियों के पास हरा दिया गया। लेनिन ने व्यक्तिगत रूप से सोवियत-विरोधी बगावत दबाने का संचालन किया, जैसे उन्होंने व्यक्तिगत रूप से अक्टूबर विद्रोह का संचालन किया था। उनकी अटूट दृढ़ता और विजय में उनके शान्त विश्वास ने जनता को प्रेरित और संगठित किया। दुश्मन कुचल दिया गया। क्रासनोव गिरफ्तार कर लिया गया और उसने ‘वचन दिया’ कि सोवियत सत्ता के खिलाफ लड़ाई बन्द कर देगा। ‘वचन देने पर’ वह छोड़ दिया गया। लेकिन जैसा कि आगे मालूम हुआ, जनरल ने अपना वचन तोड़ दिया। जहाँ तक केरेन्स्की का सम्बन्ध था, वह औरत का भेष बनाकर ‘किसी अज्ञात दिशा में गायब’ हो गया।

फौज के जनरल हेडक्वार्टर पर, मोगीलेव में प्रधान सेनापति जनरल दुखोनिन ने भी बगावत करने की कोशिश की। जब सोवियत सरकार ने उसे हुक्म दिया कि जर्मन कमान से सुलह करने के लिए तुरन्त बातचीत चलाओ, तो उसने इनकार कर दिया। इस पर, सोवियत सरकार के हुक्म से उसे हटा दिया गया। क्रान्ति-विरोधी जनरल हेडक्वार्टर तोड़ दिया गया और खुद दुखोनिन को उसके खिलाफ विद्रोह करने वाले सैनिकों ने मार डाला।

पार्टी के भीतर कुछ नामी-गिरामी अवसरवादियों-कामेनेव, जिनोवियेव, राइकोव, श्लियापनीकोव, वगैरह-ने भी सोवियत सत्ता के खिलाफ धावा बोला। उन्होंने माँग की कि एक ‘संयुक्त समाजवादी सरकार’ बनायी जाये, जिसमें मेन्शेविक और समाजवादी-क्रान्तिकारी भी शामिल किये जायें जिन्हें अक्टूबर क्रान्ति ने अभी-अभी परास्त किया था। 15 नवम्बर 1917 को, बोल्शेविक पार्टी की केन्द्रीय समिति ने एक प्रस्ताव पास किया जिसमें इन क्रान्ति-विरोधी पा£टयों के साथ समझौता करना नामंजूर कर दिया गया और कामेनेव तथा जिनोवियेव को क्रान्ति का हड़ताल-तोड़क कहा गया। 17 नवम्बर को, पार्टी की नीति से असहमत होते हुए कामेनेव, जिनोवियेव, राइकोव और मिल्यूतिन ने ऐलान किया कि वे केन्द्रीय समिति से इस्तीफा देते हैं। उसी दिन, 17 नवम्बर को, नोगिन ने अपनी तरफ से और जन कमिसार समिति के सदस्यों-राइकोव, वी. मिल्यूतिन, तियोदोरोविच, ए. श्लियापनीकोव, डी. रियाजानोव, यूरेनेव और लारिन-की तरफ से ऐलान किया कि वे पार्टी की केन्द्रीय समिति की नीति से असहमत हैं और जन कमिसार समिति से इस्तीफा देते हैं। इन मुट्ठी भर गद्दारों के भाग खड़े होने से, अक्टूबर क्रान्ति के दुश्मनों के यहाँ खुशियाँ मनायी जाने लगीं। पूँजीपति और उनके पिट्ठू खुशी से फूल कर कहने लगे कि बोल्शेविज्म खत्म हो गया और बोल्शेविक पार्टी जल्द ही समाप्त होने वाली है। लेकिन इन मुट्ठी भर गद्दारों की वजह से, पार्टी एक क्षण के लिए भी विचलित नहीं हुई। पार्टी की केन्द्रीय समिति ने घृणा के साथ उन्हें क्रान्ति से भाग खड़े होने वाला और पूँजीपतियों का साझीदार कहकर उनकी निन्दा की और अपने आगे के काम में लग गयी।

जहाँ तक ‘वामपंथी’ समाजवादी-क्रान्तिकारियों का सवाल था, वे किसान जनता पर अपना असर बनाये रखना चाहते थे। किसानों की हमदर्दी निश्चित रूप से बोल्शेविकों के साथ थी। इसलिए, ‘वामपंथी’ समाजवादी-क्रान्तिकारियों ने फैसला किया कि बोल्शेविकों से झगड़ा नहीं करें और फिलहाल उनके साथ संयुक्त मोर्चा बनाये रहें। नवम्बर 1917 में, किसान सोवियतों की कांग्रेस हुई। उसने अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति से हासिल हुए सभी लाभों को स्वीकार किया और सोवियत सरकार के आज्ञा-पत्रों का समर्थन किया। ‘वामपंथी’ समाजवादी-क्रान्तिकारियों के साथ एक समझौता हुआ और उनमें से कई को जन कमिसार समिति में जगहें दी गयीं (कोलेगायेव, स्पिरिदोनोवा, प्रोश्यान और स्टाइनबर्ग)। लेकिन, यह समझौता ब्रेस्ट-लिटोव्स्क की सन्धि होने और गरीब किसानों की कमेटियाँ बनने तक ही कायम रहा। उसके बाद किसानों में गहरी दरार पड़ी। ‘वामपंथी’ समाजवादी-क्रान्तिकारी अधिकाधिक कुलक हित जाहिर करने लगे। उन्होंने बोल्शेविकों के खिलाफ बगावत की और सोवियत सत्ता ने उन्हें परास्त कर दिया।

अक्टूबर 1917 से फरवरी 1918 तक, देश के विशाल प्रदेशों में सोवियत क्रान्ति इतनी तेजी से फैली कि लेनिन ने उसे सोवियत सत्ता की ‘विजय-यात्रा’ कहा।

महान अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति विजयी हुई।

रूस में समाजवादी क्रान्ति की इस अपेक्षाकृत आसान विजय के कई कारण थे। नीचे लिखे हुए मुख्य कारण ध्यान देने योग्य हैं:

(1) अक्टूबर क्रान्ति का दुश्मन अपेक्षाकृत ऐसा कमजोर, ऐसा असंगठित और राजनीतिक रूप से ऐसा अनुभवहीन था जैसे कि रूसी पूँजीपति। रूसी पूँजीपति आ£थक रूप से अब भी कमजोर थे और पूरी तरह सरकारी ठेकों पर निर्भर थे। उनमें राजनीतिक आत्मनिर्भरता और पहलकदमी इतनी नहीं थी कि परिस्थिति से निकलने का रास्ता ढूँढ़ सकें। मसलन, बड़े पैमाने पर राजनीतिक गुटबन्दी और राजनीतिक दगाबाजी में उन्हें फ्रांसीसी पूँजीपतियों का सा तजुर्बा नहीं था, और न ही अंग्रेज पूँजीपतियों की तरह उन्होंने विशद रूप से सोचे हुए चतुर समझौते करने की शिक्षा पायी थी। हाल ही में, उन्होंने जार से समझौता करने की कोशिश की थी। फरवरी क्रान्ति ने जार का तख्ता उलट दिया था और सत्ता खुद पूँजीपतियों के हाथ में आ गयी थी लेकिन बुनियादी तौर से घृणित जार की नीति पर ही चलने के सिवा उन्हें और कुछ न सूझ पड़ा। जार की तरह, उन्होंने ‘विजय तक युद्ध करने’ का समर्थन किया, हालाँकि युद्ध चलाना देश की शक्ति से परे था और जनता तथा फौज दोनों युद्ध से बुरी तरह चूर हो चुके थे। जार की तरह, कुल मिला कर वे भी बड़ी जागीरी जमीन बनाये रखने के पक्ष में थे, हालाँकि जमीन की कमी और जमीन्दारों के जुवे के बोझ से किसान मर रहे थे। जहाँ तक उनकी मजदूर नीति का सम्बन्ध था, वे मजदूर वर्ग से नफरत करने में जार के भी कान काट चुके थे। उन्होंने कारखानेदार के जुवे को बनाये रखने और मजबूत करने की ही कोशिश नहीं की, बल्कि उन्होंने बड़े पैमाने पर तालेबन्दी करके उसे असहनीय बना दिया।

कोई ताज्जुब नहीं कि जनता ने जार की नीति और पूँजीपतियों की नीति में कोई बुनियादी भेद नहीं देखा, और जो घृणा उसके दिल में जार के लिए थी वही पूँजीपतियों की अस्थायी सरकार के लिए हो गयी।

जब तक समाजवादी-क्रान्तिकारी और मेन्शेविक पा£टयों का थोड़ा-बहुत असर जनता पर था, तब तक पूँजीपति उन्हें पर्दे की तरह इस्तेमाल कर सकते थे और अपनी सत्ता बनाये रख सकते थे। लेकिन, जब मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों ने जाहिर कर दिया कि वे साम्राज्यवादी पूँजीपतियों के दलाल हैं और इस तरह जनता में उन्होंने अपना असर खो दिया, तब पूँजीपतियों और उनकी अस्थायी सरकार का कोई मददगार नहीं रहा।

(2) अक्टूबर क्रान्ति का नेतृत्व रूस के मजदूर वर्ग जैसे क्रान्तिकारी वर्ग ने किया। यह ऐसा वर्ग था जो संघर्ष की आँच में तप चुका था, जो थोड़ी ही अवधि में दो क्रान्तियों से गुजर चुका था और जो तीसरी क्रान्ति के शुरू होने से पहले शान्ति, जमीन, स्वाधीनता और समाजवाद के लिए संघर्ष में जनता का नायक माना जा चुका था। अगर क्रान्ति का नेता रूस के मजदूर वर्ग जैसा न होता, ऐसा नेता जिसने जनता का विश्वास पा लिया था, तो मजदूरों और किसानों की मैत्राी न होती और इस तरह की मैत्राी के बिना अक्टूबर क्रान्ति की विजय असम्भव होती।

(3) रूस के मजदूर वर्ग को क्रान्ति में गरीब किसानों जैसा समर्थ साथी मिला, जो किसान जनता का भारी बहुसंख्यक भाग था। जहाँ तक आम मेहनतकश किसानों का सवाल था, क्रान्ति के आठ महीनों का तजुर्बा बेकार नहीं गया। इस तजुर्बे की तुलना ‘साधारण’ विकास के बीसियों सालों के तजुर्बे से निस्सन्देह की जा सकती है। इन दिनों, उन्हें मौका मिला कि वे अमल में रूस की तमाम पा£टयों को परख लें और अपनी दिलजमई कर लें कि न तो संवैधानिक जनवादी और न समाजवादी-क्रान्तिकारी या मेन्शेविक ही जमीन्दारों से कोई गम्भीर झगड़ा मोल लेंगे, या किसानों के हित के लिए अपना
बलिदान करेंगे, कि रूस में एक ही पार्टी है-बोल्शेविक पार्टी-जिसका जमीन्दारों से कोई सम्बन्ध नहीं है और जो उन्हें किसानों की जरूरतें पूरी करने के लिए कुचलने को तैयार है।

सर्वहारा और गरीब किसानों की मैत्राी का यह दृढ़ आधार था। मजदूर वर्ग और गरीब किसानों की इस मैत्राी के कायम होने से, मध्यम किसानों की गति निश्चित हो गयी। ये मध्यम किसान बहुत दिन तक ढुलमुल रहे थे और अक्टूबर विद्रोह के शुरू होने से पहले ही पूरी तरह क्रान्ति की तरफ आये थे और उन्होंने गरीब किसानों से नाता जोड़ा था। कहना न होगा कि इस मैत्राी के बिना अक्टूबर क्रान्ति विजयी न होती।

(4) मजदूर वर्ग का नेतृत्व राजनीतिक संघर्षों में तपी और परखी हुई बोल्शेविक पार्टी जैसी पार्टी ने किया था। बोल्शेविक पार्टी इतनी साहसी पार्टी थी कि निर्णायक हमले में जनता का नेतृत्व कर सके। वह इतनी सावधान पार्टी थी कि मंजिल की तरफ जाने के रास्ते में ढँकी-मुँदी खाई-खन्दकों से बच कर निकल सके। ऐसी ही पार्टी विभिन्न क्रान्तिकारी आन्दोलनों को चतुराई से एक ही सामान्य क्रान्तिकारी धारा में मिला सकती थी। शान्ति के लिए आम जनवादी आन्दोलन, जागीरी जमीन छीनने के लिए किसानों का जनवादी आन्दोलन, राष्ट्रीय स्वाधीनता और राष्ट्रीय समानता के लिए उत्पीड़ित राष्ट्रीयताओं का
आन्दोलन और पूँजीपतियों का तख्ता उलटने के लिए और सर्वहारा अधिनायकत्व कायम करने के लिए सर्वहारा वर्ग का समाजवादी आन्दोलन-इन सबको ऐसी ही पार्टी एक सामान्य क्रान्तिकारी धारा में मिला सकती थी।

इसमें सन्देह नहीं कि इन विभिन्न क्रान्तिकारी धाराओं के एक ही सामान्य शक्तिशाली क्रान्तिकारी धारा में मिलने ने रूस में पूँजीवाद की तकदीर का फैसला कर दिया।

(5) अक्टूबर क्रान्ति ऐसे समय आरम्भ हुई जबकि साम्राज्यवादी युद्ध अभी जोरों पर था, जबकि प्रमुख पूँजीवादी राज्य दो विरोधी खेमों में बँटे हुए थे और जब परस्पर युद्ध में फँसे रहने और एक-दूसरे की जड़ें काटने में लगे रहने से, वे ‘रूसी मामलों’ में सफलता से दखल नहीं दे सकते थे और सक्रिय रूप से अक्टूबर क्रान्ति का विरोध नहीं कर सकते थे।

निस्सन्देह, अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति की जीत में इस बात से बहुत मदद मिली।

7. सोवियत सत्ता को मजबूत करने के लिए बोल्शेविक पार्टी का संघर्ष। ब्रेस्ट-लिटोव्स्क की शान्ति। सातवीं पार्टी कांग्रेस।

सोवियत सत्ता को मजबूत करने के लिए पुरानी पूँजीवादी राज्य की मशीन का नाश करना जरूरी था और एक नयी सोवियत राज्य की मशीन उसकी जगह कायम करनी थी। इसके सिवा, समाज में वर्ण-भेद और राष्ट्रीय उत्पीड़न की व्यवस्था के अवशेष खत्म करने थे, चर्च के विशेषाधिकारों को खत्म करना था, क्रान्ति-विरोधी प्रेस और हर तरह के कानूनी
और गैर-कानूनी क्रान्ति-विरोधी संगठनों को दबाना था और पूँजीवादी विधानसभा भंग करनी थी। जमीन के राष्ट्रीकरण के बाद, बड़े पैमाने के उद्योग-धन्धों का भी राष्ट्रीकरण होना था। और अन्त में, युद्ध की हालत खत्म करनी थी, क्योंकि सबसे ज्यादा युद्ध ही सोवियत सत्ता को मजबूत बनाने के काम को रोक रहा था।

ये सभी कदम 1917 के अन्त से 1918 के मध्य तक थोड़े ही महीनों में उठाये गये।

समाजवादी-क्रान्तिकारियों और मेन्शेविकों के इशारे पर पुराने मंत्रिमण्डलों के कर्मचारियों ने जो तोड़-फोड़ की, वह कुचल दी गयी और उस पर सोवियत सत्ता हावी हो गयी। मंत्रिमण्डल तोड़ दिये गये और उनकी जगह सोवियत शासनतंत्रा और उपयुक्त जन कमिसार समितियों ने ली। राष्ट्रीय अर्थतंत्रा की प्रधान समिति कायम की गयी, जो देश के उद्योग-धन्धों
सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) का इतिहास / 215 का संचालन करे। अखिल रूसी असाधारण समिति (वेचेका) बनायी गयी, जो क्रान्ति-विरोध और तोड़-फोड़ का मुकाबला करे। फेलिक्स जेरजिन्स्की उसके प्रधान बनाये गये। लाल फौज और जल सेना के निर्माण के लिए आज्ञा-पत्रा निकाला गया। विधानसभा के चुनाव अधिकतर अक्टूबर क्रान्ति से पहले हुए थे। यह विधानसभा शान्ति, जमीन और सोवियतों के सत्ता लेने के बारे में दूसरी सोवियत कांग्रेस के आज्ञा-पत्रा मानने से इन्कार करती थी। इसलिए, वह भंग कर दी गयी।

सामन्तवाद, जागीरी जमीन की व्यवस्था और सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में असमानता के अवशेष खत्म करने के लिए आज्ञा-पत्रा निकाले गये। इनसे जागीरी जमीन और जाति या धर्म के आधार पर रचे हुए नियंत्राण खत्म किये गये। चर्च राज्य से और स्कूल चर्च से अलग कर दिये गये। स्त्रिायों की समानता और तमाम रूसी राष्ट्रीयताओं की समानता कायम की गयी।

सोवियत सरकार ने एक विशेष आज्ञा-पत्रा निकाला, जिसका नाम ”रूसी जनता के अधिकारों की घोषणा“ था; उसमें कानून के तौर पर यह कहा गया था कि रूस के लोगों को बेरोक विकास करने और पूरी समानता का अधिकार है।

पूँजीपतियों की आ£थक शक्ति कमजोर करने और एक नया सोवियत राष्ट्रीय अर्थतंत्रा बनाने और सबसे पहले नये सोवियत उद्योग-धन्धे रचने के लिए बैंकों, रेलों, विदेशी व्यापारी बेड़ा और उद्योग-धन्धों की सभी शाखाओं में सभी बड़े कारखानों-कोयला, धातुएँ, तेल, रसायन, मशीनें बनाना, सूती कपड़े, शक्कर, वगैरह-का राष्ट्रीकरण हो गया।

अपने देश को आ£थक रूप से विदेशी पूँजीपतियों से मुक्त करने के लिए और उनके शोषण से आजाद करने के लिए, रूसी जार ने और अस्थायी सरकार ने जो विदेशी ऋण लिया था वह रद्द कर दिया गया। हमारे देश की जनता ने वह कर्ज अदा करने से इनकार कर दिया जो दूसरों का राज हड़पने वाला युद्ध जारी करने के लिए लिया गया था और जिसने हमारे देश को विदेशी पूँजी का गुलाम बना दिया था।

इन, और ऐसे ही उपायों ने पूँजीपतियों, जमीन्दारों, प्रतिक्रियावादी अफसरों और क्रान्ति-विरोधी पा£टयों की जड़ ही कमजोर कर दी और देश में सोवियत सरकार की स्थिति काफी मजबूत थी।

लेकिन जब तक रूस जर्मनी और आस्ट्रिया से युद्ध की दशा में था, तब तक सोवियत सरकार की स्थिति पूरी तरह सुरक्षित नहीं समझी जा सकती थी। सोवियत सत्ता को पूरी तरह मजबूत करने के लिए युद्ध खत्म करना जरूरी था। इसलिए, पार्टी ने अक्टूबर क्रान्ति की विजय के क्षण से ही शान्ति के लिए संघर्ष छेड़ दिया था।

सोवियत सरकार ने ‘सभी युद्ध करने वाली जनता और उसकी सरकारों से तुरन्त ही न्यायपूर्ण और जनवादी शान्ति के लिए बातचीत शुरू करने के लिए’ कहा। लेकिन, ‘मित्र देशों’-ग्रेट ब्रिटेन और फ्रांस-ने सोवियत सरकार का प्रस्ताव मानने से इनकार किया। इस नामंजूरी की वजह से, सोवियत सरकार ने सोवियतों की इच्छा के अनुकूल जर्मनी और आस्ट्रिया से बातचीत शुरू करने का फैसला किया।

तीन दिसम्बर को, ब्रेस्ट-लिटोव्स्क में बातचीत शुरू हुई। 5 दिसम्बर को, सुलह पर दस्तखत हुए।

सुलह की बातचीत ऐसे वक्त हुई जब देश आ£थक अव्यवस्था की हालत में था, जब युद्ध की थकान हर तरफ फैली हुई थी, जब हमारी फौजें मोर्चे की खाइयाँ छोड़ रही थीं और युद्ध का मोर्चा ढह रहा था। बातचीत के दौर में साफ हो गया कि जर्मन साम्राज्यवादी भूतपूर्व जारशाही साम्राज्य के भारी प्रदेश हड़पना चाहते थे और पोलैण्ड, उक्रेन और बाल्टिक देशों को जर्मनी के मातहत देश बनाना चाहते थे।

ऐसी हालत में, युद्ध चलाने का मतलब होता-नवजात सोवियत गणतंत्रा के जीवन को ही दाँव पर लगा देना। मजदूर वर्ग और किसानों के सामने यह आवश्यकता पैदा हुई कि शान्ति की कष्टदायी शर्तें स्वीकार करें, उस समय के सबसे खतरनाक डाकू-जर्मन साम्राज्यवाद-के सामने पीछे हटें, जिससे कि सोवियत सत्ता को मजबूत करने और एक नयी फौज, लाल फौज
बनाने के लिए अवकाश मिल सके जो दुश्मन के हमले से देश की रक्षा कर सके।

सभी क्रान्ति-विरोधियों ने, मेन्शेविकों और समाजवादी-क्रान्तिकारियों से लेकर एकदम खुले गद्दारों तक ने शान्ति करने के खिलाफ धुआँधार आन्दोलन किया। उनकी नीति स्पष्ट थी: वे सुलह की बातचीत भंग करना चाहते थे, जर्मन हमले के लिए उकसावा पैदा करना चाहते थे और इस तरह, उस समय तक कमजोर सोवियत सत्ता को खतरे में डालना और मजदूरों और किसानों ने जो कुछ भी हासिल किया था उसे संकट में डालना चाहते थे।

इस भयानक अभिसन्धि में, उनके साथी त्रात्स्की और उसका साझीदार बुखारिन थे। रादेक और प्याताकोव के साथ, बुखारिन एक ऐसे गुट का नेता था जो पार्टी-विरोधी था लेकिन अपने को ‘वामपंथी कम्युनिस्ट’ कहकर छिपाता था। पार्टी के भीतर त्रात्स्की और ‘वामपंथी कम्युनिस्टों’ के गुट ने युद्ध को जारी रखने की माँग करते हुए लेनिन के खिलाफ घोर संघर्ष शुरू किया। ये लोग स्पष्ट ही जर्मन साम्राज्यवादियों और देश के क्रान्ति-विरोधियों के हाथ में खेल रहे थे, क्योंकि वे तरुण सोवियत गणतंत्रा को, जिसके पास अभी फौज नहीं थी, जर्मन साम्राज्यवाद का आघात सहने के लिए आगे ठेल रहे थे।

दरअसल यह उकसावा पैदा करने वालों की नीति थी, जो चतुराई से अपने को वामपंथी लफ्फाजी से छिपाये हुए थे।

10 फरवरी 1918 को, ब्रेस्ट-लिटोव्स्क में सन्धि-वार्ता भंग कर दी गयी। हालाँकि पार्टी की केन्द्रीय समिति की तरफ से लेनिन और स्तालिन ने जोर दिया था कि शान्ति कर ली जाये, लेकिन त्रात्स्की ने, जो बे्रस्ट-लिटोव्स्क में सोवियत प्रतिनिधि-मण्डल का प्रमुख था, दगेबाजी से बोल्शेविक पार्टी के सीधे निर्देश भंग किये। उसने ऐलान किया कि जर्मनी की प्रस्तावित शर्तों पर सोवियत गणतंत्रा सन्धि नहीं करेगा। इसके साथ ही, उसने जर्मनों को सूचना दी कि सोवियत गणतंत्रा लड़ेगा नहीं और अपनी फौज तोड़ता जायेगा।

नीचता की हद हो गयी। जर्मन साम्राज्यवादी सोवियत देश के हितों के प्रति इस गद्दार से और कुछ ज्यादा न चाह सकते थे। जर्मन हुकूमत ने सुलह तोड़ दी और हमला शुरू कर दिया। जर्मन फौज के हमले के सामने, हमारी पुरानी फौज के अवशेष बिखर गये और तितर-बितर हो गये। जर्मन तेजी से आगे बढ़े। विशाल प्रदेश पर उन्होंने कब्जा कर लिया और पेत्रोग्राद के लिए खतरा पैदा कर दिया। जर्मन साम्राज्यवाद ने सोवियत देश पर इसलिए हमला किया था कि सोवियत सत्ता को खत्म कर दे और हमारे मुल्क को अपना उपनिवेश बना ले। पुरानी जारशाही फौज के खण्डहर जर्मन साम्राज्यवाद के हथियारबन्द झुण्डों का मुकाबला नहीं कर सकते थे और वे उनके प्रहार के सामने बराबर पीछे हटते गये।

लेकिन, जर्मन साम्राज्यवाद की हथियारबन्द दखलन्दाजी देश में एक विराट क्रान्तिकारी उभार का संकेत बन गयी। पार्टी और सोवियत सरकार ने नारा दिया: ‘समाजवादी पितृभूमि खतरे में है!’ और इसके जवाब में, मजदूर वर्ग जोरशोर से लाल फौज की पलटनें बनाने लगा। नयी फौज-क्रान्तिकारी जनता की फौज-के तरुण दस्तों ने वीरता से सिर से पैर तक अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित जर्मन डाकुओं का मुकाबला किया। नारवा और प्स्कोव में जर्मन हमलावरों को दृढ़ता से पीछे हटाया गया। पेत्रोग्राद की तरफ उनकी प्रगति रोक ली गयी। 23 फरवरी का दिन-वह दिन जबकि जर्मन साम्राज्यवाद की फौज को पीछे ठेला गया था-लाल फौज का जन्म दिवस माना जाता है।

18 फरवरी 1918 को, पार्टी की केन्द्रीय समिति ने लेनिन के इस प्रस्ताव को स्वीकार किया कि तुरन्त शान्ति स्थापित करने के लिए जर्मन हुकूमत को तार भेजा जाये। लेकिन और अच्छी शर्तें हासिल करने के लिए, जर्मन आगे बढ़ते ही गये और 22 फरवरी को जाकर जर्मन सरकार ने सन्धि करने की इच्छा जाहिर की। अब जो शर्तें रखी गयीं, वे पहले से भी कठोर थीं।

केन्द्रीय समिति में लेनिन, स्तालिन और स्वेर्दलोव ने त्रात्स्की, बुखारिन और दूसरे त्रात्स्कीपंथियों के खिलाफ जमकर संघर्ष किया और तभी शान्ति स्थापित करने के पक्ष में फैसला किया जा सका। लेनिन ने कहा कि बुखारिन और त्रात्स्की ने ”दरअसल जर्मन साम्राज्यवादियों की मदद की है और जर्मनी में क्रान्ति की बढ़ोत्तरी और विकास को रोका है।“ (लेनिन, सं.ग्रं., अं.सं., मास्को, 1947, खण्ड 2, पृष्ठ 287)।

23 फरवरी को, केन्द्रीय समिति ने फैसला किया कि जर्मन कमान की शर्तें मान ली जायें और शान्ति-सन्धि पर दस्तखत कर दिये जायें। सोवियत गणतंत्रा को त्रात्स्की और बुखारिन की गद्दारी के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ी। पोलैण्ड का तो कहना ही क्या, लातविया और एस्तोनिया भी जर्मनों के हाथ में पहुँच गये। उक्रेन सोवियत गणतंत्रा से अलग कर दिया गया और जर्मन राज्य के मातहत कर लिया गया। सोवियत गणतंत्र ने जर्मनों को हर्जाना देना स्वीकार किया।

उधर, लेनिन के खिलाफ ‘वामपंथी कम्युनिस्टों’ ने अपना संघर्ष जारी रखा। वे अधिकाधिक गद्दारी के दलदल में फँसते गये।
पार्टी के मास्को प्रादेशिक ब्यूरो ने, जिस पर कुछ दिनों के लिए ‘वामपंथी कम्युनिस्टों’ (बुखारिन, आसिन्स्की, याकूवलेवा, स्तूकोव और मान्स्सेव) ने कब्जा कर लिया था, केन्द्रीय समिति पर अविश्वास का प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव का उद्देश्य था-पार्टी में फूट डालना। ब्यूरो ने ऐलान किया कि उसकी राय में ‘बहुत ही निकट भविष्य में पार्टी शायद ही फूट से बच सकेगी।’ ‘वामपंथी कम्युनिस्ट’ अपने प्रस्ताव में इस हद तक पहुँच गये कि उन्होंने सोवियत-विरोधी रुख अपनाया। उन्होंने कहा: ”अन्तरराष्ट्रीय क्रान्ति के हित में, हम यह जरूरी समझते हैं कि सोवियत सत्ता के सम्भावित खात्मे से हम सहमत हो जायें जो सत्ता कि अब सिर्फ नाम को रह गयी है।“

लेनिन ने इस फैसले को ‘अजीब और बेहूदा’ बताया।

उस समय, त्रात्स्की और ‘वामपंथी कम्युनिस्टों’ के इस पार्टी-विरोधी व्यवहार का ठीक सबब अभी पार्टी के सामने साफ नहीं था। लेकिन, अभी हाल में सोवियत-विरोधी ‘दक्षिणपंथियों और त्रात्स्कीपंथियों के गुट’ पर (1938 से शुरू होने वाला) जो मुकदमा लाया गया है, उससे मालूम हुआ है कि बुखारिन और उसके नेतृत्व में काम करने वाला ‘वामपंथी कम्युनिस्टों’ का गुट त्रात्स्की और ‘वामपंथी’ समाजवादियों के साथ उस समय गुप्त रूप से सोवियत सरकार के खिलाफ षड्यंत्रा कर रहा था। अब पता चला है कि बुखारिन, त्रात्स्की और उनके साथी षड्यंत्राकारियों ने तय कर लिया था कि बे्रस्ट-लिटोव्स्क की
शान्ति भंग कर दी जाये; लेनिन, स्तालिन और स्वेर्दलोव को गिरफ्तार कर लिया जाये, उनकी हत्या कर दी जाये और एक नयी सरकार बनायी जाये जिसमें बुखारिनपंथी, त्रात्स्कीवादी और ‘वामपंथी’ समाजवादी-क्रान्तिकारी हों।

छिपे-छिपे यह क्रान्ति-विरोधी षड्यंत्रा करते हुए, ‘वामपंथी’ कम्युनिस्टों का गुट त्रात्स्की की मदद से खुल कर बोल्शेविक पार्टी पर हमला करता था। उसकी कोशिश थी कि पार्टी में फूट डाल दी जाये और उसकी सफें तोड़ दी जायें। लेकिन, इस कठिन घड़ी में पार्टी लेनिन, स्तालिन और स्वेर्दलोव के चारों ओर सिमट आयी और शान्ति के मसले पर और
दूसरे सभी मसलों पर भी उसने केन्द्रीय समिति का समर्थन किया।

‘वामपंथी कम्युनिस्ट’ गुट अकेला कर दिया गया और हरा दिया गया। शान्ति के मसले पर पार्टी अपना अन्तिम फैसला दे दे, इसके लिए सातवीं पार्टी कांग्रेस बुलायी गयी।

6 मार्च 1918 को, कांग्रेस शुरू हुई। पार्टी ने जब से सत्ता हाथ में ली थी, तब से यह पहली कांग्रेस थी। इसमें 1 लाख 45 हजार पार्टी के सदस्यों की तरफ से 46 प्रतिनिधि वोट देने वाले और 58 प्रतिनिधि बोलने वाले लेकिन वोट न दे सकने वाले आये। वास्तव में, उस समय पार्टी की सदस्यता 2 लाख 70 हजार से कम न थी, लेकिन इस असंगति का कारण यह था कि कांग्रेस जल्दी में बुलायी गयी थी, इसलिए बहुत से संगठन अपने प्रतिनिधि वक्त से नहीं भेज सके। और वे संगठन जो जर्मनों के अधिकार किये हुए प्रदेशों में थे, वे प्रतिनिधि भेज ही नहीं पाये।

ब्रेस्ट-लिटोव्स्क शान्ति पर कांग्रेस में रिपोर्ट पेश करते हुए, लेनिन ने कहा, ”… अपने भीतर एक वामपंथी विरोधी दल बनने के सबब से पार्टी जिस गम्भीर संकट को महसूस कर रही है, वह रूसी क्रान्ति के अनुभव में एक बहुत ही गम्भीर संकट है।“ (लेनिन, संग्रं., अं.सं., मास्को, 1947, खण्ड 2, पृष्ठ 299)।

बे्रस्ट-लिटोव्स्क शान्ति के विषय पर लेनिन ने जो प्रस्ताव रखा, 30 वोट उसके पक्ष में और 12 विपक्ष में आये; 4 तटस्थ रहे। इस तरह, वह मंजूर हो गया।

प्रस्ताव मंजूर होने के दूसरे दिन, लेनिन ने ”कष्टपूर्ण शान्ति“ नाम से एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने कहा था :

”शान्ति की शर्तें बेहद कठिन हैं। फिर भी, इतिहास का हक उसे मिलेगा ही…। हमें चाहिये कि संगठन करें, संगठन करें और संगठन करें। तमाम परीक्षाओं के बावजूद, भविष्य हमारा है।“ (लेेिेिनिन ग्रंथ्ंथ््रंथावली, रूसी संस्करण, खण्ड 22, पृष्ठ 228)।

अपने प्रस्ताव में कांग्रेस ने ऐलान किया कि सोवियत गणतंत्रा पर साम्राज्यवादी राज्यों के और फौजी हमले होना लाजिमी है। इसलिए, कांग्रेस यह समझती है कि पार्टी का यह बुनियादी काम है कि वह आत्मानुशासन और मजदूरों तथा किसानों का अनुशासन मजबूत करने के लिए, कुर्बानी देकर समाजवादी देश की रक्षा करने को आम जनता को तैयार करने के लिए, लाल फौज को संगठित करने के लिए और आम फौजी शिक्षा आरम्भ करने के लिए, पार्टी बहुत ही दृढ़ और शक्तिशाली उपाय करे।

बे्रस्ट-लिटोवस्क की शान्ति के बारे में लेनिन की नीति का समर्थन करते हुए, कांग्रेस ने त्रात्स्की और बुखारिन के मत की निन्दा की और कांग्रेस के भीतर ही हारे हुए ‘वामपंथी कम्युनिस्टों’ की फूट डालने वाली कार्रवाई जारी रखने की निन्दा की।

ब्रेस्ट-लिटोव्स्क की शान्ति ने, पार्टी को अवकाश दिया, जिसमें वह सोवियत सत्ता को दृढ़ करे और देश के आ£थक जीवन को संगठित करे। शान्ति से यह मुमकिन हुआ कि दुश्मन की ताकतों को बिखेरने के लिए, सोवियत आ£थक व्यवस्था संगठित करने के लिए और लाल फौज बनाने के लिए, साम्राज्यवादी खेमे के परस्पर संघर्षों से (मित्रा देशों के साथ, आस्ट्रिया और जर्मनी के युद्ध से, जो अभी चल रहा था) फायदा उठाया जाये।

शान्ति से सर्वहारा वर्ग के लिए यह सम्भव हुआ कि किसानों का समर्थन कायम रखे और गृहयुद्ध में गद्दार सेनापतियों को हराने के लिए शक्ति-संचय करे।

अक्टूबर क्रान्ति के दौर में, लेनिन ने बोल्शेविक पार्टी को सिखाया कि जब आगे बढ़ने के लिए परिस्थिति अनुकूल हो तब कैसे निडर होकर और दृढ़ता से आगे बढ़ना चाहिए। बे्रस्ट-लिटोव्स्क शान्ति के दौर में, लेनिन ने पार्टी को सिखाया कि जब स्पष्टतः दुश्मन की ताकत अपने से ज्यादा हो तब पूरी शक्ति से नये हमले की तैयारी करने के लिए किस तरह व्यवस्थित ढंग से पीछे हटना चाहिए।

इतिहास ने लेनिन की नीति की सच्चाई को पूरी तरह साबित कर दिया है।

सातवीं कांग्रेस में तय किया गया कि पार्टी का नाम और पार्टी का कार्यक्रम बदल दिया जाये। पार्टी का नाम रूसी कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक)-रू.क.पा. (बो.) रखा गया। लेनिन ने प्रस्ताव किया कि हमारी पार्टी कम्युनिस्ट पार्टी कहलाये, क्योंकि यह नाम पार्टी के उद्देश्य यानी कम्युनिज्म प्राप्त करने के बिल्कुल अनुकूल था।

एक नया पार्टी कार्यक्रम तैयार करने के लिए एक विशेष कमीशन बनाया गया, जिसमें लेनिन और स्तालिन थे। लेनिन के कार्यक्रम का मसौदा आधार के रूप में मंजूर किया गया।

इस तरह, सातवीं कांग्रेस ने एक गम्भीर ऐतिहासिक महत्त्व का काम पूरा किया। उसने पार्टी की कतारों में छिपे हुए दुश्मन, ‘वामपंथी कम्युनिस्ट’ गुट और त्रात्स्कीपंथियों को हराया। वह देश को साम्राज्यवादी युद्ध से अलग करने में कामयाब हुई। उसने शान्ति और अवकाश हासिल किया। उसने लाल फौज के संगठन के लिए पार्टी को वक्त दिया और उसने पार्टी के सामने यह काम रखा कि राष्ट्रीय अर्थतंत्रा में समाजवादी व्यवस्था चालू करे।

8. समाजवादी निर्माण के प्रारम्भिक कदम उठाने के लिए लेनिन की योजना। गरीब किसानों की समितियाँ और कुलकों पर नियंत्राण। ‘वामपंथी’ समाजवादी-क्रान्तिकारियों का विद्रोह और उसका दमन। सोवियतों की पाँचवीं कांग्रेस और रूसी सोवियत समाजवादी जनतंत्रा संघ के विधान की स्वीकृति।

शान्ति करके अवकाश हासिल करने के बाद, सोवियत सरकार समाजवादी निर्माण के काम में लग गयी। नवम्बर 1917 से फरवरी 1918 तक के दौर को लेनिन ने ‘राजधानी पर लाल दस्तों के हमले’ की मंजिल कहा था। 1918 के पूर्वार्द्ध में, सोवियत सत्ता पूँजीपतियों की आ£थक शक्ति तोड़ने में, अपने हाथों में राष्ट्रीय अर्थतंत्रा के मर्मस्थलों (मिलों, कारखानों, बैंकों, रेलों, विदेशी व्यापारी बेड़ा, वगैरह) को केन्द्रित करने में, राज्य सत्ता की पूँजीवादी मशीन चूर करने में और सोवियत सत्ता को खत्म करने के लिए क्रान्ति-विरोध की पहली कोशिशों को विजयपूर्वक कुचलने में कामयाब हुई।

लेकिन, इतना काफी नहीं था। अगर प्रगति करनी थी, तो पुरानी व्यवस्था का नाश करने के बाद नयी को बनाना भी था। इसलिए, 1918 के वसन्त में ‘शोषकों की सम्पत्ति जब्त करने के बाद’ समाजवादी निर्माण की नयी मंजिल की तरफ प्रगति शुरू हुई-अब तक की पायी हुई विजय को संगठन के रूप में दृढ़ करने की तरफ, सोवियत राष्ट्रीय अर्थतंत्र रचने की तरफ प्रगति शुरू हुई। लेनिन का कहना था कि समाजवादी आ£थक व्यवस्था की नींव डालने के लिए अवकाश से ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाना चाहिए। बोल्शेविकों को सीखना था कि नये तरीके से उत्पादन का संगठन और उसका प्रबन्ध कैसे करें। लेनिन ने लिखा था कि बोल्शेविक पार्टी रूस को विश्वास दिला चुकी है, बोल्शेविक पार्टी रूस को अमीरों से गरीबों के लिए जीत चुकी है। लेनिन ने कहा कि अब बोल्शेविक पार्टी को सीखना चाहिए कि रूस पर शासन कैसे किया जाये।

लेनिन का कहना था कि मौजूदा मंजिल में मुख्य काम यह था कि देश जो कुछ पैदा करे उसका हिसाब रखा जाये और सारी उपज के बँटवारे पर नियंत्राण रखा जाये। देश की आ£थक व्यवस्था में मध्यवित्त लोगों की बहुतायत थी। शहरों और देहातों में लाखों छोटी मिल्कियत के लोग पूँजीवाद के लिए उपजाऊ जमीन थे। ये छोटे मालिक न तो श्रम का अनुशासन मानते थे और न नागरिक अनुशासन मानते थे। वे राज्य की तरफ से हिसाब रखने और नियंत्राण करने की व्यवस्था मानने को तैयार नहीं थे। विशेष रूप से खतरनाक बात यह थी कि इस कठिन परिस्थिति में निम्न-पूँजीवादियों में सट्टे और मुनाफाखोरी की
हवा चल पड़ी थी और छोटी पूँजी वाले तथा व्यापारी जनता की जरूरतों से मुनाफा कमाने सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) का इतिहास / 221 की कोशिश करते थे।

पार्टी ने काम में ढिलाई के खिलाफ, उद्योग-धन्धों में श्रम-अनुशासन के अभाव के खिलाफ जोरदार लड़ाई शुरू की। श्रम की नयी आदतें सीखने में लोगों को देर लगती थी। इसलिए, इस दौर में श्रम-अनुशासन कायम करने के लिए संघर्ष मुख्य काम हो गया था। लेनिन ने बताया कि उद्योग-धन्धों में समाजवादी होड़ लगाना जरूरी है, काम के हिसाब से मजदूरी देना जरूरी है; हरेक को बराबर तनख्वाह मिले, यह बात फिलहाल खत्म करनी चाहिए। लेनिन ने बताया कि सिखाने और समझाने के अलावा उन लोगों के साथ जोर-जबर्दस्ती के तरीके भी इस्तेमाल करने चाहिए जो राज्य से जितना बन सके हथियाना चाहते थे और जो लोग काहिल और मुनाफाखोर थे। लेनिन का कहना था कि नया अनुशासन-श्रम-सम्बन्धी अनुशासन, भाईचारे के सम्बन्धों का अनुशासन, सोवियत अनुशासन-एक ऐसी चीज है जिसे लाखों श्रमिक जनता अपने दिन-प्रतिदिन के अमली काम में पैदा करेगी, और ”यह काम पूरा करने के लिए एक पूरा ऐतिहासिक युग लग जायेगा।“ (लेनिन गं्रथावली, रू. सं., खण्ड 23, पृष्ठ 44)।

लेनिन ने समाजवादी निर्माण की इन समस्याओं की चर्चा, उत्पादन के नये समाजवादी सम्बन्धों की समस्याओं की चर्चा, अपनी प्रसिद्ध कृति सोवियत सरकार के फौरी काम में की।

समाजवादी-क्रान्तिकारियों और मेन्शेविकों के साथ मिलकर, ‘वामपंथी कम्युनिस्टों’ ने इन सवालों पर भी लेनिन से संघर्ष किया। बुखारिन, आसिन्स्की वगैरह इस बात का विरोध करते थे कि अनुशासन लागू किया जाये, उद्योग-धन्धों में एक आदमी का प्रबन्ध हो, उद्योग-धन्धों में पूँजीवादी विशेषज्ञ काम करें और काम-धन्धे के कारगर तरीके लागू किये जायें। वे लेनिन पर यह कह कर कीचड़ उछालते थे कि इस नीति का मतलब पूँजीवादी परिस्थितियों की तरफ लौट चलना होगा। इसके साथ ही, ‘वामपंथी कम्युनिस्ट’ इस त्रात्स्कीवादी मत का प्रचार करते थे कि रूस में समाजवादी निर्माण और समाजवाद की विजय असम्भव है।

‘वामपंथी कम्युनिस्टों’ की ‘वामपंथी’ लफ्फाजी इस बात को छिपाती थी कि वे कुलकों, काहिलों और मुनाफाखोरों का समर्थन करते हैं जो अनुशासन का विरोध करते थे और राज्य द्वारा आ£थक जीवन के संचालन के विरोधी थे, हिसाब-किताब रखने और नियंत्राण करने के विरोधी थे।

नये सोवियत उद्योग-धन्धों के संगठन के उसूल तय करने के बाद, पार्टी ने देहातों की समस्याओं में हाथ लगाया। इस समय देहातों में गरीब किसानों और कुलकों के बीच संघर्ष जोरों पर था। कुलक शक्तिशाली बन रहे थे और जमीन्दारों से छीनी हुई जमीन पर कब्जा कर रहे थे। गरीब किसानों को मदद की जरूरत थी। कुलक सर्वहारा राज्य से लड़ते थे और निश्चित भाव पर गल्ला बेचने से इनकार करते थे। वे चाहते थे कि सोवियत राज्य को भूखा मार कर उसका समाजवादी निर्माण का काम बन्द कर दिया जाये। पार्टी ने क्रान्ति-विरोधी कुलकों को कुचल देने का काम अपने सामने रखा। औद्योगिक मजदूरों के दस्ते देहातों में इस उद्देश्य से भेजे गये कि कुलकों के खिलाफ गरीब किसानों के संगठन बनायें और उनके संघर्ष को सफल बनायें और कुलकों से फालतू गल्ले की उपज छुटवायें जो वे रोके हुए थे।

लेनिन ने लिखा था:

”साथी मजदूरो, याद रखो कि क्रान्ति नाजुक दौर से गुजर रही है। याद रखो कि तुम्हीं क्रान्ति की रक्षा कर सकते हो, दूसरा कोई नहीं कर सकता। हमें चाहिए लाखों चुने हुए, राजनीतिक रूप से आगे बढ़े हुए मजदूर, जो समाजवाद के प्रति वफादार हों, जो घूसखोरी और चोरी के लोभ में फँस ही न सकें और जो कुलकों, मुनाफाखोरों, डाकुओं, घूसखोरों और अव्यवस्था पैदा करने वालों के खिलाफ एक फौलादी शक्ति खड़ी कर दें।“ (लेनिन ग्रंथावली, रूसी संस्करण, खण्ड 23, पृष्ठ 25)।

लेनिन ने कहा था: ”रोटी की लड़ाई समाजवाद की लड़ाई है।“ यह नारा देकर, मजदूर दस्तों को देहात के जिलों में भेजने का काम संगठित किया गया। अन्न के बारे में अधिनायकत्व कायम करते हुए और निश्चित दरों पर गल्ला खरीदने के लिए
जन-खाद्य-कमीसारियत की संस्थाओं को विशेषाधिकार देते हुए, कई आज्ञा-पत्रा जारी किये गये।

11 जून, 1918 को, गरीब किसानों की समितियाँ बनाने के लिए एक आज्ञा-पत्रा निकाला गया। इन समितियों ने कुलकों के खिलाफ संघर्ष में, जब्त की हुई जमीन को फिर से बाँटने और खेती के औजार बाँटने में, कुलकों से फालतू अनाज इकट्ठा करने में और मजदूर केन्द्रों और लाल फौज को अन्न भेजने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। कुलकों की 5 करोड़ हेक्टेर भूमि गरीब और मध्यम किसानों के हाथ में आ गयी। कुलकों के पैदावार के साधनों का एक बड़ा भाग जब्त कर लिया गया और गरीब किसानों को दे दिया गया।

गरीब किसानों की समितियों का बनना देहातों में समाजवादी क्रान्ति के विकास की अगली मंजिल थी। गाँवों में ये समितियाँ सर्वहारा अधिनायकत्व का गढ़ थीं। ज्यादातर इन्हीं के जरिये किसानों में लाल फौज के लिए भर्ती की गयी।

गाँव के जिलों में सर्वहारा आन्दोलन और गरीब किसानों की समितियों के संगठन ने देहातों में सोवियत सत्ता को मजबूत किया। मध्यम किसानों को सोवियत सत्ता की ओर लाने में इनका जबर्दस्त राजनीतिक महत्त्व था।

1918 के अन्त में, जब उनका काम खत्म हो गया तब गरीब किसानों की समितियाँ गाँव की सोवियतों में मिला दी गयीं। इस तरह, उनका अस्तित्व खत्म हुआ। 4 जुलाई, 1918 को शुरू होने वाली सोवियतों की पाँचवीं कांग्रेस में, ‘वामपंथी’ समाजवादी-क्रान्तिकारियों ने कुलकों की हिमायत में लेनिन पर बड़ा कड़ा हमला किया।

उन्होंने माँग की कि कुलकों के खिलाफ लड़ाई बन्द की जाये और देहातों में मजदूरों के अन्न-सम्बन्धी दस्ते भेजना खत्म किया जाये। जब ‘वामपंथी’ समाजवादी-क्रान्तिकारियों ने देखा कि कांग्रेस का बहुमत उनकी नीति का दृढ़ता से विरोध करता है, तो उन्होंने मास्को में बगावत शुरू कर दी। उन्होंने त्रयोखस्वयातितेल्स्की मार्ग पर कब्जा कर लिया और वहाँ
से क्रेमलिन पर गोलाबारी करने लगे। बोल्शेविकों ने कुछ घण्टों में ही इस मूर्खतापूर्ण विद्रोह को दबा दिया। ‘वामपंथी’ समाजवादी-क्रान्तिकारियों ने देश के दूसरे हिस्सों में भी बगावत की कोशिश की, लेकिन हर जगह यह विद्रोह तुरन्त ही दबा दिये गये।

सोवियत-विरोधी ‘दक्षिणपंथी और त्रात्स्कीपंथियों के गुट’ पर चलने वाले मुकदमे ने अब यह निश्चित कर दिया है कि ‘वामपंथी’ समाजवादी-क्रान्तिकारियों का विद्रोह बुखारिन और त्रात्स्की की जानकारी और उनकी रजामन्दी से हुआ था।

सोवियत सत्ता के खिलाफ बुखारिनवादियों, त्रात्स्कीपंथियों ओर ‘वामपंथी’ समाजवादी-क्रान्तिकारियों के आम
क्रान्ति-विरोधी षड्यंत्र का ही यह एक अंग था। इसी मौके पर, ब्लूमकिन नामक एक ‘वामपंथी’ समाजवादी-क्रान्तिकारी ने, जो आगे चलकर त्रात्स्की का दलाल बना, जर्मनी से युद्ध का उकसावा पैदा करने के लिए, जर्मन दूतावास में मास्को-स्थित जर्मन राजदूत मीरबाख की हत्या कर दी। लेकिन, सोवियत सरकार ने युद्ध नहीं होने दिया और क्रान्ति-विरोधियों की उकसावा पैदा करने वाली चालें व्यर्थ कर दीं।

सोवियतों की पाँचवीं कांग्रेस ने पहला सोवियत विधान, रूसी सोवियत संघीय समाजवादी जनतंत्रा का विधान स्वीकार किया।

सारांश

फरवरी से अक्टूबर 1917 तक आठ महीनों में, बोल्शेविक पार्टी ने मजदूर वर्ग के बहुमत को अपनी तरफ करने, सोवियतों में अपना बहुमत स्थापित करने और समाजवादी क्रान्ति के लिये लाखों किसानों का समर्थन हासिल करने का बहुत ही कठिन काम पूरा किया।

उसने निम्न-पूँजीवादी पा£टयों (समाजवादी-क्रान्तिकारियों, मेन्शेविकों और अराजकतावादियों) की नीति का पर्दाफाश करके और पग-पग पर यह दिखला कर कि यह नीति मजदूर जनता के हितों के खिलाफ है, आम जनता को इनके असर से बचाया। बोल्शेविक पार्टी ने युद्ध के मोर्चे पर और उसके पीछे अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति के लिए आम जनता को तैयार करने के लिए बड़े पैमाने पर राजनीतिक काम किया।

इस दौर में, पार्टी के इतिहास में निर्णायक महत्त्व की घटनाएँ थीं: विदेश में निर्वासन से लेनिन का आना, उनका अप्रैल का सैद्धान्तिक निबन्ध (अप्रैल थीसिस), अप्रैल की पार्टी कान्फ्रेंस और छठी पार्टी कांग्रेस। पार्टी के फैसले से मजदूर वर्ग को बल मिला और विजय में उसका विश्वास बढ़ा। इन फैसलों में मजदूरों को क्रान्ति की महत्त्वपूर्ण समस्याओं के समाधान मिले।

अप्रैल कान्फ्रेंस ने पार्टी के सारे काम को पूँजीवादी जनवादी क्रान्ति से समाजवादी क्रान्ति की तरफ बढ़ने के संघर्ष की ओर लगाया। छठी कांग्रेस ने पूँजीपतियों और उनकी अस्थायी सरकार के खिलाफ सशस्त्रा विद्रोह करने के लिए पार्टी को आगे
बढ़ाया।

समझौतावादी समाजवादी-क्रान्तिकारी और मेन्शेविक पा£टयों, अराजकतावादियों और दूसरी गैर-कम्युनिस्ट पा£टयों ने अपने विकास का चक्र पूरा कर लिया: अक्टूबर क्रान्ति से पहले ही वे सब पूँजीवादी पा£टयाँ बन गयी थीं और वे पूँजीवादी व्यवस्था की रक्षा करने और उसे अटूट बनाये रखने के लिए लड़ीं। बोल्शेविक पार्टी ही एक पार्टी थी जिसने पूँजीपतियों का तख्ता उलटने के लिए और सोवियतों की सत्ता कायम करने के लिए आम जनता के संघर्ष का नेतृत्व किया।

इसके साथ ही, पार्टी के भीतर समर्पणवादियों-जिनोवियेव, कामेनेव, राइकोव, बुखारिन, त्रात्स्की और प्याताकोव-की कोशिशों को बोल्शेविकों ने नाकाम कर दिया। ये कोशिशें इसलिए थीं कि पार्टी को समाजवादी क्रान्ति के रास्ते से हटाया जाये।

बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में, गरीब किसानों के सहयोग से और फौजियों और जहाजियों की मदद से मजदूर वर्ग ने पूँजीपतियों की सत्ता खत्म कर दी, सोवियतों की सत्ता कायम की, एक नयी तरह का राज्य-समाजवादी सोवियत राज्य-कायम किया, जमीन पर जमीन्दारों की मिल्कियत खत्म की, किसानों के काम के लिए जमीन दे दी, देश की तमाम भूमि का राष्ट्रीकरण किया, पूँजीपतियों की सम्पत्ति जब्त की, रूस को युद्ध से हटाया और शान्ति हासिल की, यानी बहुत जरूरी अवकाश प्राप्त किया और इस तरह, समाजवादी निर्माण के विकास के लिए परिस्थितियाँ पैदा कीं।

अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति ने पूँजीवाद का नाश किया, पूँजीपतियों से पैदावार के साधन छीन लिये और मिलों, कारखानों, रेलों और बैंकों को तमाम जनता की सम्पत्ति, सार्वजनिक सम्पत्ति बना दिया।

अक्टूबर समाजवादी क्रान्ति ने सर्वहारा अधिनायकत्व कायम किया और विशाल देश की हुकूमत का काम मजदूर वर्ग को सौंप दिया। इस तरह, उसे शासक वर्ग बना दिया। इस तरह, अक्टूबर की समाजवादी क्रान्ति ने मनुष्य जाति के इतिहास में एक नया युग, सर्वहारा क्रान्तियों का युग आरम्भ किया।

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ROHIT SHARMA

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