कथित आज़ादी के 75 वर्षों बाद आज हमारा देश जिस भयानक मोड़ पर खड़ा है, उसके लिए हमारे शासक वर्ग की नीतियां और यह शोषक व्यवस्था जिम्मेदार है. शहीदे आज़म भगत सिंह ने उसी समय यह स्पष्ट कर दिया था कि ‘गोरे अंग्रेज चले जाएं और भूरे अंग्रेज गद्दी पर बैठ जाएं तो इससे आज़ादी नहीं आने वाली.’ दूसरी महत्वपूर्ण बात जो भगत सिंह ने कही थी ‘सिर्फ आज़ादी हमारा मकसद नहीं है, हमारा मकसद एक ऐसा समाजवादी वतन बनाना है, जहां पर इंसान द्वारा इंसान का किसी भी प्रकार का शोषण असम्भव हो जाये.’
लेकिन जैसा कि 1947 में ब्रिटिश हुकूमत ने बकायदे ब्रिटिश संसद में ‘सत्ता हस्तांतरण अधिनियम’ पारित कर सत्ता को अपने दलाल कांग्रेस पार्टी के हाथ में सौंप दिया ताकि पहले से भारत में इन्वेस्ट की गई ब्रिटिश पूंजी व अन्य साम्राज्यवादी देशों की पूंजी की रक्षा की जा सके और अप्रत्यक्ष ढंग से साम्राज्यवादियों द्वारा भारत की लूट-खसोट जारी रहे और भारत को एक अर्द्ध उपनिवेश में बदल दिया जाए.
भूमि सुधारों के तमाम वादों व कानूनों के बावजूद भूमिहीनों को कृषि योग्य जमीन आज तक आवंटित नहीं की गयी. आज भी गांवों में दलितों व अति पिछड़ों के पास घूर फेकने भर भी जमीन नहीं है. वो बड़े भूस्वामियों के खेतों में सामंती शोषण व उत्पीड़न झेलने को विवश हैं. सामंती व्यवस्था थोड़े बहुत बदलावों के साथ आज भी बनी हुई है.
आत्मनिर्भर औद्योगीकरण के भारी अभाव की वजह से आज भी भारत की आधी से ज्यादा आबादी जीविका के लिए किसी न किसी प्रकार खेती पर निर्भर है. गांव सूदखोरों, शोषक व्यापारियों, साहूकारों, बिचौलियों से पटे पड़े हैं, जो बैठे बिठाए लोगों की मामूली आमदनी का भी बड़ा हिस्सा हड़प लेते हैं. रोजी-रोटी की तलाश व तमाम तरह के विस्थापन की वजह से गावों से जो आबादी उजड़ कर शहरों में आती है, उद्योग-धंधे न होने की वजह से वो कबाड़ बीनने, सफाई का काम करने, ठेला-खोमचा लगाने व लेबर चौराहों पर अपने खरीददारों का इंतजार करने को मजबूर है.
इन मेहनतकशों को बेहद अमानवीय परिस्थितियों में मलिन बस्तियों में रहना पड़ता है, इनके लिए जिंदगी नर्क के समान है. अकेले इलाहाबाद में ऐसी सैकड़ों मलिन बस्तियां आपको मिल जाएंगी, जहां लाखों की तादाद में मेहनतकश अमानवीय जिंदगी जीने को मजबूर हैं. दूसरी तरफ भारत के बाजार विदेशी मालों से पटे पड़े हैं.
साम्राज्यवादी पूंजी भारत के बड़े दलाल पूंजीपतियों के साथ मिलकर जनता का खून चूस रही है. कौड़ियों के भाव देश की प्राकृतिक संपदा व सस्ते श्रम को नीलाम किया जा रहा है. साम्राज्यवादियों व भारत के बड़े पूंजीपतियों की लूट से अपने जल-जंगल-जमीन को बचाने के लिए जो आदिवासी किसान संघर्ष कर रहे हैं, बड़े पैमाने पर सैन्य बलों का इस्तेमाल कर उनका दमन किया जा रहा है.
उनके पांवों के नीचे छिपी अकूत प्राकृतिक सम्पदा को लूटने और उनके प्रतिरोध को कुचलने के लिए आदिवासी इलाकों में कदम ब कदम सीआरपीएफ कैम्प लगाए जा रहे हैं, जिसके खिलाफ छत्तीसगढ़ में पिछले कई महीनों से आदिवासियों का आंदोलन चल रहा है लेकिन कोई मीडिया उसे नहीं दिखा रहा है.
पढ़े-लिखे लोगों व बुद्धिजीवियों के बीच से भी उनके लिए आवाज बहुत कम ही उठती है मानो वो इंसान ही न हों जबकि आदिवासियों की आबादी भारत में लगभग 10 करोड़ है. छत्तीसगढ़ जहां पिछले कई महीनों से आदिवासी सैन्य बलों की बर्बरता के खिलाफ व उनके कैम्पों को हटाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं, वहां कांग्रेस की सरकार है.
जिस राज्य में कांग्रेस की सरकार नहीं है, वहां उसकी तथाकथित जनपक्षधरता देखने लायक है लेकिन छत्तीसगढ़ की बात आते ही कांग्रेस के बड़े-बड़े नेता चुप्पी साध लेते हैं. जनता को लूटने में ये सारी संसदीय पार्टियां एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं, इनकी नीतियों में कोई फर्क नहीं है. एक सांपनाथ है तो दूसरा नागनाथ.
हम मानते हैं कि आज सबसे ज्यादा आक्रामक फासीवादी पार्टी भाजपा है लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि भाजपा के हारने मात्र से जनता का शोषण, लूट व दमन खत्म हो जाएगा या फासीवाद का खतरा टल जाएगा, जैसा कि कुछ लोग प्रचार कर रहे हैं. सरकारों के आने-जाने से शोषण व उत्पीड़न का ढांचा नहीं बदलता, जब तक कि शोषक वर्गों का नाश न किया जाए, जो कि इस व्यवस्था में संभव नहीं है.
अगर आप को हर तरह के शोषण व उत्पीड़न को खत्म करना है तो आपको इस व्यवस्था को ही पूरी तरह खत्म करना होगा. यह व्यवस्था सबको नौकरी, शिक्षा और सम्मानजनक जिंदगी दे ही नहीं सकती. इसके लिए आपको इस शोषणकारी व्यवस्था को नष्ट कर एक सच्ची नवजनवादी-समाजवादी व्यवस्था कायम करनी होगी जहां शोषकों व परजीवियों का नहीं बल्कि मेहनतकशों का राज होगा. संपत्ति व संसाधनों पर पूरी जनता का बराबर का अधिकार होगा. ऐसी व्यवस्था सिर्फ और सिर्फ क्रांतिकारी संघर्षों से ही कायम की जा सकती है.
दुनिया भर के क्रांतिकारियों के प्रेरणाश्रोत व नेता लेनिन ने बताया था कि ‘संसदीय लोकतंत्र शोषक-शासक वर्गों का मुखौटा है. संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में हर पांच साल पर जनता अपने शोषकों व उत्पीड़कों का चुनाव करती है.’ आज व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई के लिए दिन प्रतिदिन परिस्थितियां अनुकूल होती जा रही हैं.
किसान आंदोलन ने और ऐसे तमाम आंदोलनों ने यह दिखा दिया है कि केवल लड़कर ही अपना अधिकार हासिल किया जा सकता है. संसद व विधानसभा तो केवल जनता को गुमराह करने के माध्यम हैं, खून से सनी लाशों के ऊपर बिछी रेशमी चादरे हैं. असली सत्ता तो लुटेरे व उत्पीड़क साम्राज्यवादियों, देश के बड़े दलाल पूंजीपतियों, सामंतों व अन्य शोषक वर्गों के हाथ में है.
आज वक़्त की मांग है कि छोटे-बड़े सभी आंदोलनों को, बेरोजगार युवाओं व जनता के असंतोष को देश व जनता के असली दुश्मनों के खिलाफ मोड़ा जाए. इंक़लाबी छात्र मोर्चा समस्त छात्र-छात्राओं, बुद्धिजीवियों, मेहनतकशों, प्रगतिशील व धर्मनिरपेक्ष नागरिकों से यह अपील करता है कि व्यवस्था परिवर्तन की लड़ाई में शामिल हों व उसे तेज करें.
इंक़लाब ज़िंदाबाद !
- रितेश विद्यार्थी
(आगामी विधानसभा चुनावों पर इंक़लाबी छात्र मोर्चा के पर्चे का एक अंश)
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