हिमांशु कुमार
भारतीय इतिहास में वेदों या पुराणों में राजाओं की कहानियां हैं. इन राजाओं को ब्राह्मणों ने भगवान बताया. किसानों, मजदूरों, कारीगरों की कहानियों को बाहर रखा गया. आज़ादी से पहले बड़ी जातियों, साहूकारों, योद्धा जातियों के मजे थे. काम करने वालों को नीच जातियां घोषित कर सामजिक, आर्थिक और राजनैतिक सत्ता बड़ी जातियों, साहूकारों, योद्धा जातियों और ब्राह्मणों ने अपने हाथ में रखी हुई थी.
आज़ादी की लड़ाई के दौरान जब भारत को एक राष्ट्र के रूप में बनाने का सोचा गया, तब सभी भारतीय नागरिकों की समानता का विचार सामने आया. आज़ादी के बाद भारतीय राजनीति का मकसद इसी बराबरी को हासिल करना था. लेकिन हमेशा से सत्ता में रहे वर्ग इस बराबरी से घबराए हुए थे.उन्हें लग रहा था कि बराबरी आ गई तो उनकी ऐश की जिंदगी खतम हो जायेगी. इसलिए इन वर्गों ने बड़ी चालाकी से भारत की राजनीति में साम्प्रदायिक मुद्दे खड़े किये.
इन्होने कहा कि भारत की राजनीति का मकसद यह नहीं है कि सभी नागरिक सामान हों बल्कि भारत की राजनीति का मकसद यह होना चाहिये कि राम मंदिर बनेगा कि नहीं ? इन लोगों ने कहा कि भारत की राजनीति का मकसद हिंदु गौरव की पुनर्स्थापना होगी.
इन चालाक लोगों ने भारतीय मेहनतकश जातियों, किसानों, मजदूरों और औरतों की बराबरी की राजनीति को नष्ट करने के लिए मंदिर, दंगे, हिंदू स्वाभिमान, आदि गैरराजनैतिक काल्पनिक मुद्दों को भारतीय राजनीति का मुख्य मुद्दा बना दिया. इन ताकतों ने भारतीय चिंतन को खींच कर सबसे निचले स्तर पर पहुंचा दिया.
भारत की जिस आज़ादी का सपना आज़ाद होने के बाद सारी दुनिया में समानता के लिए काम करने का था, वह भारतीय राजनीति अपने ही देश के अल्पसंख्यकों, दलित जातियों और औरतों की समानता के विरुद्ध हो गयी. आज का दौर भारतीय समाज के पतन की चरम अवस्था है.
भारत के वैज्ञानिक, आधुनिक चिंतन और सारी वैचारिक प्रगति पर इन कूप मंडूक और धूर्त लोगों ने बुरी तरह हमला किया है. इसी चालाकी के दम पर अपराधी लोग आज भारत के भाग्य विधाता बने हुए हैं. जिन अपराधियों को जेलों में होना चाहिये था वे आज सत्ता में बैठ कर देश के लिए काम करने वाले सामजिक कार्यकर्ताओं की सूचियां बनवा रहे हैं ताकि उन्हें जेलों में डाल सकें. यह निराशा का नहीं इसे बदलने की चुनौती स्वीकारने का समय है.
जिस वास्तविक वैज्ञानिक और तर्कशील सोच का रास्ता पश्चिम द्वारा कुछ ही कुछ ही सौ वर्ष पूर्व अपनाया गया, भारत के पास वह वैज्ञानिक सोच बहुत पहले मौजूद था. भारत के श्रमण नास्तिक चार्वाक, लोकायत, बुद्ध, महावीर की शानदार परंपरा थी. इन्होंने ईश्वर, आत्मा, पुनर्जन्म जैसी किसी भी बकवास को स्वीकार नहीं किया. इन्होंने वास्तविकता पर आधारित अनुभव तथा संसार को बदलने और जीवन को सुखमय बनाने का रास्ता बताया.
लेकिन फिर पाखंडी लोग आ गए. इन्होंने लोगों को बेवकूफ बनाकर अपने लिए धन-संपत्ति जमा करने के लिए ईश्वर, पुनर्जन्म, आत्मा, पाप, पुण्य जैसी झूठी बकवास जनता के बीच में फैलाई और भारत जो वैज्ञानिक सोच के रास्ते पर दुनिया भर में आगे जा सकता था, वह अंधविश्वास और मूर्खता के कीचड़ में डूब गया.
इन पाखंडियों ने वर्ण व्यवस्था बनाई, जाति का निर्माण किया और भारत में भयानक भेदभाव वाली व्यवस्था खड़ी कर दी. आज भारत का युवा इसी मूर्खता के दलदल में लिथड़ रहा है. वह वैज्ञानिक सोच से नफरत करता है. वह अपने आसपास के दूसरे समुदायों से नफरत करता है. वह जातिवादी है, वह अंधविश्वासी, सांप्रदायिक और ढोंगी बन गया है. यहां से अब हमें आगे जाना है. इस पाखंडी विचारधारा को मिटाए बिना भारत का कोई भविष्य नहीं है.
लड़ाई सत्ता से है. सत्ता मतलब एक इंसान का दूसरे इंसान के बारे में फ़ैसला लेने का हक. आप मर्द हैं तो आप सत्तावान हैं. आपके सामने औरत सत्ताहीन है. आप शहर में रहते हैं तो आप सत्तावान हैं. आपके सामने गांव वाला सत्ताहीन है. आपने कुछ किताबें पढ़ ली हैं तो आप सत्तावान हैं. आपके सामने किताबें ना पढ़ा हुआ सत्ताहीन है.
आप व्यापारी हैं तो आप सत्तावान हैं. आपके सामने किसान सत्ताहीन है. आप हवाई जहाज उड़ाते हैं तो आप सत्तावान हैं. आपके सामने बैलगाड़ी चलाने वाला सत्ताहीन है. आप अंग्रेज़ी जानते हैं इसलिये आप सत्तावान हैं. आपके सामने अंग्रेज़ी ना जानने वाला सत्ताहीन है. आप गोरे हैं इसलिये आप सत्तावान हैं. आपके सामने काले लोग सत्ताहीन हैं.
आप ऊंची जाति के हैं इसलिये आप सत्तावान हैं. आपके सामने छोटी जाति वाला सत्ताहीन है. आप हथियारधारी हैं इसलिये सत्तावान हैं. आपके सामने निहत्था सत्ताहीन है. आप धनी हैं तो आप सत्तावान है. आपके सामने गरीब सत्ताहीन है.
क्रान्ति का अर्थ है एक ऐसी दुनिया के लिये कोशिश करना, इनमें से किसी भी कारण से कोई सत्ता वाला नहीं बना रहेगा. एक ऐसी दुनिया जिसमें किसी की सत्ता किसी दूसरे पर नहीं चलेगी. इसलिये आप देखते हैं कि क्रांतिधर्मी कार्यकर्ता हमेशा पुरुषवाद, धनी, शहरी सवर्ण, अंग्रेज़ी वर्चस्व के खिलाफ लड़ता रहता है !
ऊपर के सारे कारण गैरबराबरी को भी बनाए रखने वाले है इसलिये बराबरी लाने की लड़ाई लड़ने वाले इनके खिलाफ लड़ते है. लेकिन आप सोचते हैं कि सिर्फ सरकार बदलने से सब ठीक हो जाएगा लेकिन क्रांतिकारी जानता है सरकार बदलने से कुछ नहीं बदलता इसलिए क्रांतिकारी समाज बदलने के लिए लड़ता है. वह आपकी सोच के खिलाफ लड़ता है इसलिए आप क्रांतिकारियों को पसंद नहीं करते.
जय सेना करने वाले भक्तों के घर में छह महीने के लिये एक सैनिक को रख दिया जाय. आपके घर में आपकी बहन होगी, पत्नी होगी, बेटी होगी, मां होगी, वह सैनिक भी वहीं रहेगा. आपका बाथरूम इस्तेमाल करेगा, आपके किचन में खाना बनाकर खाएगा, आपके ड्राइंग रूम में सोएगा. अगर आप खुश रहेंगे तो उसके आपके घर में रहने की अवधि 3 साल बढ़ा दी जाएगी. इतना तो आप देश के लिए खुशी-खुशी कर लेंगे ना ?
क्या कहा आप तैयार नहीं है ! आपको परेशानी होगी ! बिल्कुल ठीक कहा. जो परेशानी आपको होगी और जिसकी कल्पना करके आपके सिर के बाल खड़े हो गए, ठीक वही परेशानी उन आदिवासियों को हो रही है जो सुरक्षा बलों के कैंप अपने गांव में खोलने के विरोध में आदिवासी इलाकों में आंदोलन कर रहे हैं.
सरकार तो मुंह फाड़ के फटाक से बोल देती है कि इन लोगों को माओवादी भड़का रहे हैं लेकिन बयान देने वाले नेता बताएं कि वह अपने घर के भीतर सिपाहियों को रखने के लिए तैयार हैं क्या ?
किसी इलाके के सैन्यीकरण के क्या दुष्परिणाम होते हैं यह आप में से कोई समझने के लिए तैयार है क्या ? उस इलाके के लोगों की जिंदगी कैसे तबाह हो जाती है, आपको पता है ? कोई अनुभव है क्या ?
जब किसी गांव में कोई सैनिक कैंप खोला जाता है तो वह सैनिक उस गांव के जल स्रोतों पर कब्जा कर लेते हैं, चाहे वह तालाब हो या नदी फिर वहां औरतें नहीं जा पाती. आसपास के जंगलों से आदिवासी औरतें सूखी लकड़ियां जमा करती थी, लेकिन सैकड़ों की संख्या में सिपाही जब वहां आ जाते हैं तो वह जंगल की लकड़ियां काटकर अपने कैंप में भर लेते हैं और गांव की औरतों को खाना पकाने के लिए जलाऊ लकड़ी नहीं मिल पाती.
इसके अलावा महिलाओं के साथ सैनिकों द्वारा बलात्कार तेजी से बढ़ जाते हैं. नौजवानों की पिटाई और उन्हें जेलों में डालना शुरू हो जाता है. कश्मीर के लोग यह कई वर्षों तक भुगतते रहे हैं.
आदिवासी इलाकों में चूंकि अडानी और दूसरे पूंजी पतियों के लिए जमीनों पर कब्जा किया जा रहा है इसलिए बड़ी संख्या में सैनिकों को गांव-गांव में भरा जा रहा है. सैन्यीकरण के विरोध में बस्तर में जगह-जगह आंदोलन चल रहे हैं लेकिन भारत के लोग उस तरफ ध्यान नहीं दे रहे. आदिवासी की आवाज कोई नहीं सुनता.
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