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ठेका पर नौकरी : विचारहीनता और नीतिगत अपंगता के साथ कोई मोदी का राजनीतिक मुकाबला नहीं कर सकता

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हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

यानी, अब अगर बिहार के किसी कॉलेज में प्रोफेसर की कमी होती है तो कॉलेज के लोग किसी विकास ट्रेडर्स से संपर्क करेंगे. तब, वह विकास ट्रेडर्स उस कॉलेज को प्रोफेसर मुहैया करवाएगा, जिसे प्रति क्लास के हिंसाब से पैसा दिया जाएगा. जाहिर है, कॉलेज और प्रोफेसर के बीच में कंपनी बिचौलिया का काम करेगी तो उसे भी कमीशन के रूप में पैसा मिलेगा.

विकास ट्रेडर्स, जिसका एड्रेस मधुबनी जिले के किसी सुदूर देहात का मालूम पड़ता है, इस मामले में अकेली बिचौलिया कंपनी नहीं है. अलाना प्राइवेट लिमिटेड, फलाना प्राइवेट लिमिटेड टाइप की तीन और कंपनियां चयनित की गई हैं, जिनसे संपर्क कर कॉलेज अपनी जरूरत के हिंसाब से विषय विशेषज्ञ की सेवाएं ले सकते हैं.

असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर, जिस भी रैंक का विषय विशेषज्ञ चाहिए, ये प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां उपलब्ध करवाएंगी. यानी, अगर आप जुलाजी, बॉटनी, हिन्दी, इतिहास, फिजिक्स आदि में से किसी भी विषय के विशेषज्ञ विद्वान हैं तो उन कंपनियों में अपना निबंधन करवाएं, वे आपको कॉलेजों से जोड़ेंगी और तब आप वहां पर ज्ञान की धारा बहाएंगे. फिर, देश विश्वगुरु बनने की ओर तेजी से आगे बढ़ेगा और सामाजिक न्याय की ओर भी कुछ कदम बढ़ा ही देगा.

सामाजिक न्याय से याद आया, यह बिहार सरकार तो नीतीश कुमार के नेतृत्व और लालू प्रसाद के समर्थन से चल रही है, तेजस्वी यादव जिसके डिप्टी सीएम हैं, सीपीआई, सीपीएम और माले जैसे वाम संगठनों का भी जिसे समर्थन हासिल है.

मतलब, जद यू, राजद, कांग्रेस और वाम दल का संयुक्त महागठबंधन. बोले तो कंप्लीट पैकेज ऑफ सोशल जस्टिस. आजकल कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी तो सोशल जस्टिस पर बहुत जोर दे रहे हैं न ! तो, महागठबंधन सरकार को बताना चाहिए कि ऐसे निर्णयों से सामाजिक न्याय के उद्देश्य किस तरह पूरे होते हैं ?

अभी बिहार विधान सभा में सीपीआई माले के युवा विधायक संदीप सौरभ के एक पोस्ट में देखा कि ऐसी नियुक्तियों में आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं किया गया है. नहीं पता, महागठबंधन सरकार इस तरह की नियुक्तियों को रोजगार की किस श्रेणी में रखती है.

समझ में नहीं आता कि वे कौन से एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर साहेबान होंगे जो अलाना ट्रेडर्स और फलाना प्राइवेट लिमिटेड कंपनी से संपर्क कर अपने लिए रोजगार तलाशेंगे ? बहुत कुछ आगे का समय बताएगा.

स्कूलों के बाथरूम की सफाई से लेकर कॉलेजों में व्याख्यान देने तक के लिए अब प्राइवेट कंपनियों की भूमिका बढ़ती जा रही है. आउटसोर्सिंग पहले एक तकनीकी व्यवस्था थी जो ‘कॉस्ट एफिशिएंसी’ के उद्देश्य से विकसित हुई थी. यह उत्पादन करने वाली और सेवा देने वाली कंपनियों के लिए मुफीद और व्यावहारिक रास्ता था. अब जब, सरकार भी अपने संस्थानों को इसी रास्ते चलाना चाहती है तो सेवा और श्रम संबंधी नैतिक संहिताओं की ऐसी की तैसी तो होनी ही है.

इन सबके बीच बिचौलिए की भूमिका निभाने वाली कंपनियों की तो पौ बारह होगी. है भी. जरा नजर उठा कर देख लीजिए, विश्वविद्यालयों, कॉलेजों, अन्य सरकारी संस्थानों में विभिन्न श्रेणी के कर्मचारी मुहैया करवाने वाली आउटसोर्सिंग कंपनियों के मुनाफे का लेवल क्या है ! वह कहावत है न, ‘हर्रे लगे न फिटकिरी, रंग चोखा आए.’ फिर, संस्थान और कंपनियों के बीच करार में भूमिका निभाने वाले अधिकारियों के भी अपने लाभ कहे जा रहे हैं.

संदीप सौरभ के पोस्ट से ही जानकारी मिली कि इन कंपनियों के नाम पर ठगों का गिरोह भी सक्रिय हो गया है जो एक बेरोजगार युवक से रजिस्ट्रेशन के नाम पर तीस हजार रु. ले कर लापता है. जाहिर है, निरीह बेरोजगारों से ऐसी ठगी की घटनाएं बढ़ने वाली हैं, खूब बढ़ने वाली हैं.

बात यहां पर किसी नौकरशाह के लिए गए निर्णय की नहीं है. बात है सरकार के निर्णय की. इस तरह के बड़े निर्णय, जो नीतिगत श्रेणी में आते हैं, क्या बिना राजनीतिक स्तर पर हुए फैसलों के हो सकते हैं ? समझ में नहीं आ रहा.

सरकार नीतीश और तेजस्वी की है और समर्थन कांग्रेस और वाम दलों का है तो जिम्मेदारी भी उन सबकी ही है, निर्णय चाहे जिस लेवल पर हुए हों. यह महागठबंधन में शामिल राजनीतिक समूहों का वैचारिक स्खलन है.

सवाल उठता है कि इस तरह की नीतियों का क्रियान्वयन करने-करवाने वाली महागठबंधन की सरकार किस आधार पर नवउदारवादी भाजपा से राजनीतिक मुकाबला करने की बात करती है ? अगर ऐसी ही नीतियों को आगे बढ़ाना है तो फिर वैचारिकी के स्तर पर भाजपा के मुक़ाबिल होने का मतलब ही क्या है ?

नरेंद्र मोदी, आरएसएस और कार्पोरेट की जुगलबंदी का राजनीतिक मुकाबला अगर आप विचारों और नीतियों के स्तर पर नहीं कर सकते तो कुछ सार्थक हासिल नहीं कर सकते. राहुल गांधी के ओबीसी राग और नीतीश-लालू के जातीय गणना राग के बावजूद हिंदी पट्टी के तीन राज्यों के चुनाव परिणाम बताते हैं कि 2024 की चुनौतियां कितनी कठिन हैं.

किसी भी राजनीतिक समूह या नेता को यह समझना होगा कि भाजपा से मुकाबले के लिए जन सापेक्ष विचारों पर आधारित वैकल्पिक नीतियां ही उनके लिए निर्णायक अस्त्र बन सकती हैं. फिलहाल तो न किसी का चेहरा मोदी का मुकाबला करने में प्रभावी लग रहा है, न किसी तरह की राजनीतिक शोशेबाजियां.

नजरें उठा कर देखिए जरा, जनता के जीवन से जुड़े मुद्दों पर तमाम विफलताओं के बावजूद राजनीतिक शोशेबाजियों की बदौलत मोदी जी का चेहरा आज भी कितना चमक रहा है.

विचारहीनता और नीतिगत अपंगता के साथ कोई मोदी का राजनीतिक मुकाबला नहीं कर सकता. अगर आप इतना बड़ा राजनीतिक समूह, जिसे ‘महागठबंधन’ कहा जा रहा है, बना कर भी किसी ट्रेडर्स के माध्यम से सफाईकर्मी से लेकर प्रोफेसर तक बहाल करने की नीतियों पर ही चलते हैं तो आपका विजन आपको मोदी के मुकाबले कहीं का नहीं रखने वाला है.

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