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एकबार फिर पलटी के बाद नीतीश कुमार का कोई भविष्य शेष नहीं रहेगा

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एकबार फिर पलटी के बाद नीतीश कुमार का कोई भविष्य शेष नहीं रहेगा
एकबार फिर पलटी के बाद नीतीश कुमार का कोई भविष्य शेष नहीं रहेगा
राम अयोध्या सिंह

अब, जब बिहार में मुख्यमंत्री नितीश कुमार का पुनः एक बार पलटी मारकर एनडीए में शामिल होना और महागठबंधन सरकार का भंग होना तय हो गया है, बिहार में एक नया सियासत का खेल शुरू होने वाला है. नीतीश कुमार के इस पैंतरे से न सिर्फ बिहार की राजनीति, बल्कि भारत की राजनीति में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन के संकेत मिल रहे हैं.

समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा लगाकर फासीवादी भाजपा के साथ लंबे समय तक राजनीति करना और सरकार चलाना उनकी राजनीतिक परिपक्वता और करिश्मा माना जाता है, वहीं लगातार अपने संदेहास्पद और अविश्वसनीय शतरंजी चालों से स्वयं को अविश्वसनीय बना लिया है.

राजनीतिक पेंच लड़ाने के विशेषज्ञ के तौर पर नीतीश कुमार 2006 के बाद से हमेशा ही स्वयं को एक अपरिहार्य राजनीतिक ताकत के रूप में स्थापित किए है पर, इसी के साथ उन्होंने अपनी छबि पर लगते दाग को भी आमंत्रित किया है. अमरबेल की तरह जिस पौधे के सहारे वे ऊपर चढ़ते हैं सबसे पहले उसी को समाप्त करते हैं.

भारतीय राजनीति में जिस जार्ज फर्नांडीस के सहारे उन्होंने समता पार्टी को स्थापित किया और केन्द्र में एनडीए घटक के सदस्य के रूप में लंबे समय तक मंत्री रहे, उसी जार्ज फर्नांडीस को न सिर्फ दल से अलग-थलग किया, बल्कि उन्हें अपमानित कर घुटघुटकर मरने के लिए मजबूर भी कर दिया.

अपनी यही रणनीति उन्होंने दिग्विजय सिंह, शरद यादव, विजय कृष्ण, रामचंद्र प्रसाद सिन्हा, जीतनराम मांझी और अनंत सिंह जैसे लोगो के साथ भी अपनाकर अपनी राजनीति को स्थापित किया. अपनी अविश्वसनीयता को ही अपनी राजनीतिक सफलता की सीढ़ी बनाने वाले नीतीश कुमार भारत के एकमात्र नेता हैं.

लेकिन, 2014 के बाद से जिस तरह से उन्होंने पाला बदलकर कभी महागठबंधन और कभी एनडीए के साथ राजनीतिक पेंग मारते रहे हैं, और हर बार स्वयं को बिहार की राजनीति में मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित किया है, वह इनकी खुराफाती और षडयंत्रकारी राजनीति का शिखर है.

जयप्रकाश नारायण, लोहिया, जार्ज फर्नांडीस, कर्पूरी ठाकुर जैसे समाजवादियों के नाम और सामाजिक न्याय का राग अलापते हुए वे विचारधारा का माखौल उड़ाते रहे हैं, वह साबित करता है कि नीतीश कुमार के लिए विचारधारा पान की पीक से ज्यादा महत्व नहीं है.

अपने स्वार्थ के प्रति अखंड प्रतिबद्धता रखने वाले नीतीश कुमार स्वयं को महान अशोक का आधुनिक उत्तराधिकारी के रूप में प्रक्षेपित करते रहे हैं. जातीय राजनीति और जातीय समीकरण की बिसात पर शतरंज की चाल चलने वाले नीतीश कुमार के लिए स्वयं को बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में स्थापित करने के अलावा और कोई भी राजनीति नहीं है.

अबतक बिहार की राजनीति और प्रशासन में खुराफात और जोड़तोड़ के अलावा और कुछ भी साकारात्मक योगदान नीतीश कुमार का नहीं है. नीतीश कुमार ने राजनीति में नैतिकता के सारे मानदंडों को ध्वस्त कर दिया है.

बिहार में शिक्षा की अर्थी निकालने का महत्वपूर्ण काम जरूर उन्होंने किया है. बिहार में शराबबंदी का ढिंढोरा जितना भी कोई पीट ले, पर यह कोई भी नहीं कह सकता है कि बिहार में शराब नहीं बिकता है. सच तो यही है कि बिहार में शराब बिकता है, और खूब बिकता है. बालू माफिया की एक समानांतर व्यवस्था है.

रोजगार का भी ढिंढोरा ही पीटा जाता है. सच्चाई तो यही है कि बिहार में बेरोजगारी भारत में सबसे ज्यादा है. पर्यटन, उद्योग, सेवा क्षेत्र, निर्माण क्षेत्र और अन्य क्षेत्रों में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है, जिससे रोजगार के अवसर प्राप्त हो सके. सड़क, पुल और पुलिया तथा मेट्रो तो वास्तव में विकास का पैमाना नहीं, बल्कि ठेकेदारी, दलाली और कमीशनखोरी के प्रमाण हैं.

जिस तरह से विधानसभा में जनसंख्या नियंत्रण के लिए परिवार नियोजन की महत्ता को स्पष्ट करते हुए परिवार नियोजन की प्रक्रिया को जिस तरह से नीतीश कुमार समझा रहे थे, वह किसी भी मुख्यमंत्री के लिए डूब मरने की बात थी. कोई मुख्यमंत्री भी कहीं इतनी गंदी बात और वह भी विधानसभा में बोल सकता है क्या ? वैसे भी नीतीश कुमार का अगर आप भाषण सुनें, तो स्पष्ट हो जाता है कि उन्हें हिन्दी भी बोलने नहीं आती है.

सच बात तो यह है कि नीतीश कुमार को इंडिया गठबंधन से यह उम्मीद और महत्वाकांक्षा जगी थी कि वे अब भारत के प्रधानमंत्री बनने ही वाले हैं, जिसका फ्यूज इंडिया गठबंधन की दूसरी मिटिंग में ही लालू प्रसाद यादव ने कांग्रेस के महत्व को स्वीकार करते हुए उड़ा दिया, और उसी समय से नीतीश कुमार के मन में खटास उत्पन्न हुआ. नीतीश कुमार सब कुछ बर्दाश्त कर सकते हैं, पर अपनी महत्वाकांक्षा पर रोक को किसी भी कीमत पर नहीं बर्दाश्त कर सकते हैं.

जातीय राजनीति की एक सीमा होती है, जो चाहकर भी बहुत दूर तक नहीं जा सकती. आज न कल, उसे जातीय दलदल में फंसना ही है, और बिहार में जातीय राजनीति एक बार फिर दलदल में फंस चुकी है. भविष्य चाहे जो हो, पर इतना तय है कि यह नीतीश कुमार के राजनीतिक जीवन के नाटक का अंतिम दृश्य है, जिसके बाद नीतीश कुमार का कोई भविष्य शेष नहीं रहेगा.

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