सुब्रतो चटर्जी
ममता बनर्जी ने मोदी को पत्र लिखकर वैक्सीन और कोरोना के उपचार में आने वाली दवाएं और अन्य उपकरणों पर जीएसटी से छूट देने का आग्रह किया. पत्र मिलते ही चालीस चोरों में हड़कंप मच गया. इस बार अलीबाबा इन चालीस चोरों का सरदार है.
आनन फ़ानन में भारत के सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री ने भारत के सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ वित्तमंत्राणी को मोर्चा संभालने को कहा. निर्देश दिया गया कि अभी तक बंगाल में हार को नरपिशाच पचा भी नहीं पाया कि ममता ने दूसरा गोल ठोक दिया. मुंह टेढ़ी ने एक मुख्यमंत्री की चिट्ठी का जवाब ट्वीटर पर देना शुरू किया – दे दनादन सोलह ट्वीट !
सारे ट्वीट का भावार्थ एक ही है; हम घूस खाकर वैक्सीन और अन्य चीजें बेच रहे हैं और आप इस पर आपत्ति जता रहे हैं ? तर्क देखिए. इन सब चीजों पर जीएसटी हटाने से कंपनियों को इनपुट टैक्स क्रेडिट नहीं मिलेगा और वे क़ीमतें बढ़ाकर जनता पर बोझ लादेंगी. विश्व के सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री को ये बर्दाश्त नहीं है.
अब क्रिमिनल लोगों की इस सरकार को कौन बताए कि इनपुट टैक्स क्रेडिट का किसी वस्तु या सेवा की क़ीमत से कोई संबंध नहीं है. दूसरे, प्रकारांतर में सरकार ये कहना चाहती है कि औद्योगिक घरानों से घूस खाकर इन्होंने आवश्यक वस्तु अधिनियम को ख़त्म कर दिया है, इसलिए अब ये किसी भी वस्तु या सेवा के लिए अधिकतम खुदरा मूल्य निर्धारित करने में अक्षम हैं. यानि, सरकार है ही नहीं; बस कॉरपोरेट दलालों का एक क्रिमिनल गिरोह है जिसकी प्राथमिकता में जनता नहीं है. इससे बड़ी स्वीकारोक्ति और क्या होगी ?
तुर्रा यह है कि पूनावाला जनता के पैसे से ही वैक्सीन बना कर जनता को बेच कर दुगुना मुनाफ़ा कमा रहा है. दूसरी तरफ़ सरकार कफ़न पर जीएसटी लगाकर लाशों पर भोज खा रही है. सुप्रीम कोर्ट टुकुर-टुकुर ताक रही है. मोदी भक्ति में लीन मध्यम वर्ग कुत्ते बिल्ली-सा मर रहा है. लॉकडाउन से करोड़ों निम्न मध्यम वर्ग परिवार ग़रीबी रेखा से नीचे चले गए और करोड़ों गरीब भीखमंगा हो गये. विपक्ष नरपिशाच को सुझाव दे रहा है मानव भक्षण की आदत छोड़ देने को. हम लोग सोशल मीडिया पर विरोध जता रहे हैं.
ज़मीन पर जो लड़े सारे या तो मार दिये गये या जेलों में बंद हैं. जूनियर नरपिशाच देश के सबसे बड़े राज्य को संपूर्ण मरघट में बदल दिया है. पूरी दुनिया हमें भिखारी समझ कर दान दे रही है.
क्या आपको भी लगता है कि ये सब उसी देश में पिछले छः सालों में गोबरपट्टी की कृपा से हुआ तो आपको सही लगता है. ये वही देश है जिसमें चेचक, ट्रिपल एंटिजेन से लेकर पल्स पोलियो तक सारे टीके मुफ़्त में लगे हैं. फ़र्क़ बस इतना है कि उन दिनों कोई नरपिशाच ताबूतनुमा सेंट्रल विष्ठा में लोकतंत्र को दफ़नाने की नहीं सोचता था. नीरेंद्र नाथ चक्रवर्ती इसे ही मृत्यु की उपत्यका कह कर गये.
विश्व प्रसिद्ध मेडिकल जर्नल लांसलेट के अनुसार अगस्त तक भारत में कोविड से दस लाख लोगों की मृत्यु हो सकती है. पत्रिका ने गांव में चिकित्सा सुविधाओं को बढ़ाने पर बल दिया है. इधर सुप्रीम कोर्ट ने एक राष्ट्रीय टास्क फ़ोर्स का गठन किया है. इसका काम विभिन्न सब ग्रुप के ज़रिए देश के हर कोने में ऑक्सीजन और अन्य चिकित्सा सुविधाओं को सुनिश्चित करना है. एक हफ़्ते के भीतर इनको रिपोर्ट बना कर कोर्ट में देना है.
ज़ाहिर है कि सुप्रीम कोर्ट को भी मोदी सरकार की क्षमता पर कोई विश्वास नहीं रह गया है. जब अदालतें कार्यपालिका का काम करने लगे तो समझ जाईए कि सरकार नाम की कोई चीज़ नहीं रह गई है. वैसे भी मोदी सरकार का काम हिंदू मुस्लिम करना, देश बेचना और चुनाव लड़ने के सिवा 2014 से ही कुछ नहीं रहा है.
हम एक वीभत्स युग में जीने को अभिशप्त हैं. राज्य की अवधारणा बदल रही है. राज्य की पहुंच पूरी तरह से नकारात्मक है. जन कल्याणकारी राज्य का अर्थ तो नब्बे के दशक से ही धीरे-धीरे ख़त्म हो रहा था, लेकिन आज राजसत्ता का अर्थ सिर्फ़ जनसंहार रह गया है. कोर्ट अपनी असीमित शक्तियों का प्रयोग करते हुए शायद ही इस देशद्रोही और नरपिशाच सरकार को हटाए. इसके लिए जनता को ही सड़क पर उतर आना होगा.
मेरे अनुमान से भारत कम से कम दस करोड़ लोगों को इस बीमारी से नहीं बल्कि भुखमरी और बेरोज़गारी से आने वाले एक साल में खो देगा. मैं खुद को ग़लत साबित होते देखना चाहूंगा, लेकिन सच यही है.
जैसे लंबे चले युद्ध के बाद किसी भी देश में अनाथ बच्चों की संख्या बेतहाशा बढ़ जाती है, उसी तरह कोरोना के बाद भारत में भी होगा. यतीम, बेसहारा बच्चे, लाचार, औलाद खोए बूढ़े, बेरोज़गार युवा, बंद पड़े कारख़ाने, उजड़े बाज़ार, बंद स्कूल, भुखमरी झेलते लोग, खेती से भागते किसान, लाशों से पटी हुई सड़कें, ये सब यथार्थ होने जा रहा है बहुत जल्द.
पिछले एक साल में खुदरा महंगाई दर दो सौ प्रतिशत हो गई है. खाद्य तेल, प्रोसेस्ड अनाज, सब्जां फल, सूखे मेवे की क़ीमतें डेढ़ गुणा बढ़ी हैं. आवश्यक दवाओं के दाम भी इसी अनुपात में बढ़े हैं. मूल्य वृद्धि का सीधा संबंध रुपए के गिरते मूल्य से होता है. डॉलर के मुक़ाबले रुपये का अवमूल्यन कभी भी तेज़ी से हो सकता है.
जीडीपी माइनस में है और अनिश्चित काल तक रहेगा. उत्पादन क्षेत्र मंदी की चपेट में है और यह ढ़ांचागत मंदी है. सस्ता रुपया निर्यात को बढ़ावा देने में असमर्थ रहेगा, क्योंकि उत्पादन ही नहीं है. बैंकों को पूर्णत: डूबना होगा. जमा पर 2% ब्याज भी एक साल बाद नहीं दे पाएंगे. परिणामस्वरूप लोग लिक्विडिटी को कैश के रूप में रखना पसंद करेंगे.
सरकार की आमदनी दिन ब दिन घटती जाएगी. टैक्स का भार बढ़ेगा और साथ में टैक्स चोरी भी. काला धन के समानांतर अर्थव्यवस्था क़ायम होगी. हर सेक्टर माफ़िया के हवाले हो जाएगा. मज़दूर बंधुआ बनेंगे और किसान भिखारी. युवा वर्ग में आत्महत्या का प्रतिशत बेतहाशा बढ़ेगा. स्कूलों से लंबे समय तक महरूम बच्चों के मानसिक, शारीरिक विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. वे बड़े हो कर असामाजिक तत्व बन जाएंगे.
इन सबके लिए हमारी पीढ़ी ज़िम्मेदार होगी. हमने नरसंहार करने वालों को हीरो बनाया. हमने नोटबंदी से लेकर लॉकडाउन तक का समर्थन किया. हमने मुस्लिम घृणा के नाम पर अपने ही बच्चों की बलि ले ली. कोरोना तो एक बहाना है. अगर ये आपदा नहीं भी आती तो भी हम दो सालों बाद खुद को वहीं पाते जहां आज हैं.
जनता के विरुद्ध क्रिमिनल लोगों की सरकार के जिस अघोषित युद्ध में हम निर्लज्ज हो कर भागीदार रहे हैं उसकी क़ीमत तो हमारे बच्चों को चुकानी ही पड़ेगी.
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