संजय श्याम, स्वतंत्र पत्रकार
राजसत्ता हमेशा निरंकुश होती है. वह शोषणकारी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए अपने नफा नुकसान के हिसाब से कानूनों को और सख्त करते रहती है. वह नौकरशाहों के इशारे पर नाचते रहती है. यह कोई नई चीज नहीं है. अंग्रेजों के समय में इस व्यवस्था ने जनता को लूटा, निचोड़ा , लाठियों-गोलियों से बेदर्दी से शिकार किया और बड़े-बड़े कीर्तिमान स्थापित किए. हर घंटे, हर दिन, हर साल इस आजादी तक अंग्रेजों की नौकरशाही ने जनता पर जुल्म ढाए. आजादी के बाद लूट, छूट, भोग और शोषण पर आधारित व्यवस्था में केवल एक परिवर्तन आया. बकौल भगत सिंह – गोरे साहबों के स्थान पर भूरे साहबों का कब्जा होना. इससे लूट-शोषण का न केवल वही ढांचा बना रहा बल्कि मौजूद व्यवस्था की हर हाल में हिफाजत करने में कितने जालियांवाला बाग को भारतीय नौकरशाही ने अंजाम दिया. इसकी कोई गिनती नहीं है.
उदारीकरण-निजीकरण लागू होने के बाद जिस तरह से महंगाई बढ़ी, बेरोजगारी बढ़ी, अमीरी-गरीबी की खाई चौड़ी हुई, मजदूरों-किसानों की समस्याएं बढ़ी, उसी हिसाब से सरकार ने नौकरशाही को चुस्त-दुरुस्त किया है. वह उदारीकरण- निजीकरण की नीतियों के क्रियान्वयन के परिणामों को पहले से ही कैलकुलेट करती रही है. चुनावी मदारियों के आंदोलन से उसे कोई खतरा नहीं है परंतु ऐसे आंदोलन जिसके न केवल संकेत मिल रहे हैं बल्कि कहीं-कहीं उभर रहे हैं या भविष्य में जिन की बहुत संभावना साफ दिख रही है, जिनका नेतृत्व क्रांतिकारी है या जिनका नेतृत्व जनता का सच्चा प्रतिनिधित्व कर रहा है, वह व्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक है. नौकरशाही को इस ढंग से गठित किया जा रहा है कि वह एक निरंकुश ढंग से सरकारी नीतियों को लागू करे. निरंकुश नौकरशाही व्यवस्था की जरूरत है.
नरेंद्र मोदी ने केंद्र की सत्ता पर बैठते ही सभी देशवासियों के लिए अच्छे दिन लाने के जुमले का जोर-शोर से प्रचार प्रसार किया. परंतु इसके उलट उसका काम रहा – जनता से झूठ बोलना, अंधराष्ट्रवाद का जहर फैलाना, धर्म की आड़ में अल्पसंख्यकों के प्रति नफरत फैलाना, जनतांत्रिक व प्रगतिशील शक्तियों को खत्म करने के लिए पहले की तुलना में अधिकाधिक दमनकारी कानून बनाना, घोर प्रतिक्रियावादी-फासीवादी मोदी सरकार द्वारा साम्राज्यवादियों-पूंजीपतियों की जी-हुजूरी में व आमजन के अधिकारों पर हमले में लगातार तेजी आई है.
जो थोड़े बहुत जनवादी अधिकार जनता को उनके संघर्षों से प्राप्त हुए थे, उनमें व्यापक संशोधन कर उन्हें जनता के दमन के औजार के रूप में इस्तेमाल करने की पूरी तैयारी है. गैर-कानूनी गतिविधि निवारण कानून संशोधन विधेयक, राष्ट्रीय जांच एजेंसी संशोधन विधेयक, सूचना का अधिकार कानून संशोधन विधेयक, मजदूरी कोड विधेयक, विशेष आर्थिक क्षेत्र संशोधन विधेयक, मानव अधिकार सुरक्षा कानून संशोधन विधेयक, जम्मू- कश्मीर पुनर्गठन विधेयक जैसे जन-विरोधी कानूनों को पारित कराकर मौजूदा सत्ता व्यवस्था दमनकारी व विनाशकारी रास्ते पर चलने को आमादा है. हम यहां कुछ कानूनों को एक-एक कर देखेंगे कि उन्हें किस तरह से और दमनकारी बनाया गया है.
गैर-कानूनी गतिविधि निवारण कानून (यूएपीए ) तथा एनआईए संशोधन विधेयक
यूएपीए संशोधन विधेेयक 2019 संसद द्वारा पारित हो चुका है. कहने को तो यह एक आतंकवाद निरोधी कानून है लेकिन इसका उद्देश्य मुख्यतः प्रगतिशील व क्रांतिकारी सामाजिक -राजनीतिक जमात, इसके कार्यकर्ताओं व नेताओं को प्रताड़ित करना है. इसमें कुल तीन संशोधन किये गये हैं. पहले दो काफी तकनीकी प्रकृति के हैं लेकिन तीसरा, धारा 35 एवं 15, वास्तव में काफी खतरनाक है. इन संशोधनों के जरिए केन्द्र सरकार को संगठन के अलावा किसी भी व्यक्ति को आतंकवादी घोषित करने का असीमित अधिकार प्राप्त हो जाता है. केन्द्र सरकार का बस यह कहना काफी होगा कि अमुक व्यक्ति किसी आतंकवादी कार्रवाई में लिप्त है, लिप्त होने के बारे में सोचता है या कुछ करने वाला है या किसी ऐसी चीज के बारे में पढ़ता-लिखता और बोलता है. यह अपने आप में स्पष्ट है कि कितने व्यापक अधिकार यह संशोधन केंद्र सरकार को देता है.
संशोधनपूर्व स्थिति यह थी कि किसी संगठन को आतंकवादी घोषित कर उसे प्रतिबंधित किया जा सकता था और उसकी तमाम गतिविधियों को गैर-कानूनी बता दिया जाता था. अब सरकार किसी एक व्यक्ति को भी आतंकवादी घोषित कर सकती है, उसे प्रतिबंधित कर सकती है. प्रतिबंधित करने की प्रक्रिया वही होगी जो संगठनों के साथ लागू होती है. उसकी किसी भी तरह की यात्रा पर रोक लगा दी जाएगी और उसकी तमाम संपत्ति जब्त कर ली जाएगी. इसका दायरा भी विशाल और सरकार की मनमर्जी को मदद करता है.
सरकार विरोधी चीज पढ़ना, सोचना, गीत लिखना व गाना, निबंध लिखना, प्रतिरोधात्मक कविता लिखना और उसे सुनाना या पढ़ना या सरकार के विरूद्ध प्रचार करना और भाषण देना आदि सभी को अशांति पैदा करने और सरकार के विरूद्ध लोगों को उकसाने व हिंसा भड़काने वाला करार देते हुए इसे किसी को आतंकवादी के रूप में आरोपित करने का कारण बताया जा सकता है. यहां तक कि ऐसी किसी बात के बारे में सोचना भी एक कारण बन सकता है. वहीं आतंकवाद क्या है, इसे किसी भी तरह से परिभाषित नहीं किया गया है. जो जांच करने वाली एजेंसी को अपनी मनमानी करने का बहुत बड़ा स्कोप दे दिया गया है.
किसी भी गतिविधि को बड़ी आसानी से आतंकवादी कार्रवाई कह दिया जा सकता है. इस पर किसी तरह की रोक का कोई रास्ता नहीं दिया गया. यह भी स्पष्ट नहीं किया गया है कि आरोपित व्यक्ति कितने दिनों के बाद न्यायालय में अपने ऊपर लगे आरोप के विरूद्ध अपील कर सकता है. कर भी सकता है या नहीं इसका भी खुलासा नहीं किया गया है. एकमात्र केंद्रीय सरकार ही किसी व्यक्ति के बारे में यह अधिसूचना जारी कर सकती है कि अमुक आदमी आतंकवादी है नहीं है या आतंकवाद के आरोप से दोषमुक्त हो चुका है या नहीं. बस यह कहा गया है कि उच्च न्यायालय के एक वर्तमान या निवर्तमान न्यायाधीश के नेतृत्व में एक तीन सदस्यीय रिव्यू कमिटी बनायी जाएगी, बाकी के इसके दो सदस्य कौन होंगे और उनकी क्या योग्यता होगी इसके बारे में कुछ भी साफ-साफ नहीं कहा गया है. इसमें ज्यूडिशियल रिव्यू जैसी बात संभव होगी, यह दिखता नहीं है क्योंकि इसके सभी सदस्य अनिवार्य रूप से केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किये जाएंगे और उसी के अधीन होंगे.
इस बात का भी कोई जवाब संशोधन में नहीं दिया गया है कि अगर कोई दोषमुक्त करार दिया जाता है तो क्या बाजप्ता उसे डिनोटीफाई किया जाएगा या फिर वह पूरी उम्र पहले की ही तरह एक अवांछित व्यक्ति ही बना रहेगा ? अवांछित व्यक्ति को कानून की नजर में कोई प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं होती है, न ही उसे मौलिक अधिकार का हकदार माना जाता है. इस तरह देखा जाए तो संशोधित कानून किसी नये तरह के अपराध, जिसके लिए मुकदमा चलाया जाएगा, को नहीं लाता है अपितु एक ऐसी नौकरशाही प्रक्रिया तैयार करता है जिसका मुख्य उद्देश्य आरोपित व्यक्ति के सारे मौलिक अधिकार तथा स्वतंत्रता को पलक झपकते ही छीन लेना है.
जहां तक इसके दुरुपयोग की बात है तो कौन नहीं जानता है कि सभी आतंकनिरोधी कानून दुरुपयोग के लिए जाने जाते हैं. इसके अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं और लोग जानते भी हैं कि कई लोग (जाहिर है ज्यादातर मुस्लिम ) 20 से 25 सालों तक जेल से दोषमुक्त हो रिहा हुए और सारे आरोप निराधार व फर्जी पाये गये. चाहे टाडा (TADA) हो या पोटा (POTA ) या फिर आज का यूएपीए (UAPA) , इन सभी का खुलकर दुरुपयोग हुआ है और हो रहा है. इसमें नामित व्यक्ति के लिए जमानत पाना काफी कठिन है. संशोधन के बाद तो जमानत का सवाल ही नहीं है, मुकदमा कितना भी कमजोर ही क्यों न हो. ऐसे कानूनों का लोगों की जिंदगियां बर्बाद करने का काफी पुराना रिकार्ड है. संशोधन के बाद केंद्रीय सरकार को अपनी मनमर्जी चलाने की जो विशाल छूट मिली है, इससे इस संभावना को ही बल मिलता है कि इस खतरनाक कानून का उपयोग राजनीतिक तथा वैचारिक विरोधियों के खिलाफ किया जाएगा. इस संशोधन का यही उद्देश्य भी है.
एनआईए ( संशोधन ) कानून, 2019 संसद के द्वारा 8 जुलाई को पारित हो गया. इसमें तीन बड़े संशोधन किये गये हैं. इसमें खतरनाक बात यह है कि एनआईए के आफिसर अब देश के किसी भी कोने में जाकर बिना किसी राज्य सरकार की अनुमति के ही जांच करने का काम कर सकते हैं. इसका अर्थ यह है कि इस मामले में केंद्र सरकार के हाथों में राज्य सरकारों के अधिकारों का भी केंद्रीकरण हो जाता है. केंद्र-राज्य के संघीय ढांचे और इससे जुडे अन्य संबंधों पर इसका असर पड़ेगा, यह तो है ही लेकिन मुख्य बात यह समझना है कि केंद्र सरकार प्रत्येक मामले में मनमानी करने के लिए अत्यधिक खतरनाक तरीके से समस्त शक्तियों का केंद्रीकरण करती चली जा रही है, जो कि वर्तमान सरकार की मुख्य प्रवृत्ति है जैसा कि पिछले 6 सालों से स्पष्ट दिख रहा है.
मानवाधिकार सुरक्षा ( संशोधन ) कानून
वर्ग विभाजित समाज में मानवाधिकार कभी भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं रह सकता है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इसके लिए लड़ा जाना गलत है. जब तक वर्ग विभाजन मिट नहीं जाता, तब तक हमें इसकी जरूरत तथा इसकी सुरक्षा की बात करनी चाहिए. इसी संदर्भ में हमें मौजूदा अति-प्रतिक्रियावादी राजनीति के तीव्र उभार के मौजूदा काल में मानवाधिकार आयोग की स्वायतता , निष्पक्षता, स्वतंत्रता और इसकी मजबूती के सवाल को जोर-शोर से उठाना चाहिए.
9 जुलाई, 2019 को लोकसभा द्वारा पारित ‘मानवाधिकार सुरक्षा ( संशोधन ) कानून’ द प्रोटेक्शन ऑफ हयुमन राइट्स ( एमेंडमेंट ) ऐक्ट के जरिए कानूनों में ऐसे बदलाव किये गये हैं, जिससे इसकी बची-खुची प्रतिष्ठा भी धराशायी हो जाएगी, कार्यकुशलता तो नष्ट हो ही जाएगी. ऊपर से ये संशोधन जनवादीकरण करने वाले लग सकते हैं , लेकिन वास्तव में इनका मकसद इसे पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में ले लेना है. पिछली कांग्रेसी सरकारों के काल में भी इसे विकृत करने या उसको कमजोर या निष्क्रिय करने तथा मनमाने तरीके से उपयोग करने का काम किया गया है.
आज फिर जिस तरीके से इसकी स्वायतता, स्वतंत्रता तथा निष्पक्षता को खत्म करने की साजिश की जा रही है उसके विरूद्ध फौरी तौर पर आवाज उठाना जरूरी है क्योंकि आज खुलेआम वर्तमान निजाम की विचारधारा, जो घोर रूप से मानवाधिकार विरोधी विचारधारा है, का प्रचार-प्रसार हो रहा है और मानवाधिकार की अवधारणा को देश के हितों के विपरीत घोषित करने का काम किया जा रहा है. मूल बात यह है कि संशोधनों के बाद उच्चतम न्यायालय के कोई पूर्व न्यायाधीश भी एनएचआरसी (नेशनल हयूमन राइट्स कमीशन) के चेयरमैन हो सकते हैं, जबकि इसके पहले एकमात्र देश के मुख्य न्यायाधीश ही इसके चेयरमैन हो सकते थे.
इसी तरह अब उच्च न्यायालय के कोई पूर्व न्यायाधीश एसएचआरसी (स्टेट ह्यूमन राइट्स कमीशन ) के चेयरमैन हो सकते हैं. ज्ञातव्य है कि 2019 के पारित हो चुके संशोधन से यह साफ है कि एक दिन के अनुभव वाले सुप्रीम कोर्ट के जज को भी एनएचआरसी का अध्यक्ष नियुक्त किया जा सकता है. इससे अध्यक्ष की नियुक्ति के मामले में मोदी सरकार के मनमानेपन के लिए दायरा अत्यधिक बढ़ जाता है. यह संशोधन एनएचआरसी इससे सुप्रीम कोर्ट के जजों के बीच अध्यक्ष बनने की एक होड़ शुरू हो जाएगी. झुकने के लिए कहने पर रेंगने वाले जजों की कमी भारत में नहीं है.
इसके अलावा अध्यक्ष और इसके सदस्यों के बीच अनुभव और वरीयता को लेकर आंतरिक झगड़ा भी शुरू हो सकता है. नियुक्ति कमिटी में एकमात्र राजनैतिक प्रतिनिधित्व है, जिसमें सरकारी पक्ष का बहुमत सुनिश्चित किया गया है. जाहिर है यह स्वतंत्र और निष्पक्ष कमिटी नहीं है. इसके सदस्य नामचीन मानवाधिकार विशेषज्ञ भी नहीं हैं. अधिकांश मानवाधिकार के प्रति प्रतिबद्धता भी नहीं रखते हैं. यह विशुद्ध रूप से एक सरकारी कमिटी है. ऐसी हालत में अगर नियुक्ति की कोई स्पष्ट प्रक्रिया नहीं होगी, तो सरकार की मनमानी बढ़ेगी, जिससे आयोग की निर्भरता सरकार पर बढ़ेगी.
एक और संशोधन में, राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्षों, राष्ट्रीय बाल अधिकार सुरक्षा आयोग के अध्यक्षों तथा अपंगता से ग्रसित लोगों के सहायतार्थ नियुक्त आयुक्तों ये सभी इस कानून की धारा 12 की उपधारा ( इ ) से लेकर ( र ) में वर्णित दायित्वों के निर्वहण के लिए जिम्मेवार होते हैं, को भी आयोग की मानद सदस्यता देने की बात की गई है. इससे भी सरकारी हस्तक्षेप बढ़ेगा, न कि इसका जनवादीकरण होगा क्योंकि ऐसे सभी सरकारी पार्टी के अत्यंत प्रभाव वाले लोग होते हैं. तब सरकार अपने कुकर्मों और कुकृत्यों को सही ठहराने के लिए इसका दुरूपयोग कर सकती है.
सबसे बड़ा और खतरनाक संशोधन यह है कि एनएचआरसी और एसएचआरसी दोनों के अध्यक्षों और सदस्यों की कार्यावधि 5 साल से घटाकर 3 साल कर दी गई है. इसके जरिये भी सरकार की मंशा को स्पष्टत: समझा जा सकता है. इससे दो बातें होंगी –
पहली तो यह कि एक ही सरकार (एक सरकार का सामान्यतः पाँच सालों का कार्यकाल होता है) आयोग के अध्यक्ष को पुनः नियुक्त कर सकेगी. मतलब इसका सीधा दबाव यह होगा कि मानवाधिकार आयोग के चेयरमन सरकार से पुनः नियुक्ति पाने की लालसा में सरकार को खुश करने की ओर सहज रूप से प्रवृत होंगे । वे सरकार को संतुष्ट करने और कृपा पात्र बनने की सहज कोशिश करेंगे ।
दूसरे, सरकार को कष्टप्रद स्थिति में डालने वाले चैयरमैन और कमीशन सदस्यों से मुक्ति पाना आसान हो गया है क्योंकि सरकार जिससे खुश नहीं होगी, उसे पुनः नियुक्त नहीं करके उसे हटाने की दुरूह प्रक्रिया में जाने से बच जाएगी. इसके अतिरिक्त , सेक्रेटरी जेनरल की प्रशासकीय और वित्तीय शक्ति को भी पूरे कमीशन की अधीनता से अलग हटाकर सिर्फ इसके अध्यक्ष के नियंत्रण के अधीन ले आया गया है. इसका मकसद आखिर क्या हो सकता है ?
पहले चेयरमैन को नमनीय बनाया गया और अब हम पाते हैं कि फिर सेक्रेटरी जनरल को शक्ति देने के संदर्भ में पूरे कमीशन की शक्ति को कमजोर कर दिया गया है. शुरूआत में, सेक्रेटरी जनरल की शक्ति को निर्देशित करने की शक्ति एकमात्र कमीशन के पास थी. 2006 में इस शक्ति को कमीशन और चेयरमैन दोनों को दी गई. मोदी सरकार द्वारा 2019 में किये गये संशोधन में यह शक्ति सिर्फ आयोग के चेयरमैन को दे दी गई है. इससे सरकार की मंशा साफ हो जाती है कि वह सेक्रेटरी जनरल को भी अध्यक्ष के जरिए मुट्ठी में करना चाहती है.
श्रमकानूनों में सुधार
मोदी के नेतृत्व में केन्द्र सरकार लगातार श्रम कानूनों में प्रतिगामी बदलाव लाकर मजदूर वर्ग पर लगातार हमले बोल रही है लेकिन 2019 में दोबारा सत्ता में आने के बाद उसका हमला और तेज हो गया है. कारखाना अधिनियम , 1948 ; अपरेन्टिस एक्ट 1961 एवं कुछ उद्यमों में रिटर्न भरने एवं रजिस्टर रखने से छूट संबंधी अधिनियम , 1988; बाल श्रम ( निषेध एवं नियमन ) अधिनियम , 1986 और 44 श्रम कानूनों से बनी पूरी श्रम कानून प्रणाली पर हमला बोल दिया गया है. कांग्रेस व अन्य सभी बुर्जुआ पार्टियों का इसमें समर्थन प्राप्त है.
कारखाना अधिनियम, 1948 में किये गये बदलाव के तहत कारखाने की परिभाषा को ही बदल दिया गया है. नये संशोधन आने के पहले बिजली चालित 10 मजदूरों वाले एवं हस्तचालित 20 मजदूरों वाले उद्यम को कारखाना माना जाता था. अब नये कानून के तहत, बिजली चालित 20 मजदूरों एवं हस्तचालित 40 मजदूरों वाले उद्यमों को कारखाना माना जायेगा. इसका अर्थ है कि इससे कम मजदूरों वाले उद्यमों को लघु उद्योग का दर्जा मिलेगा और वहां कारखाना अधिनियम लागू नहीं होगा. इससे 70 प्रतिशत कारखाने के मजदूर कारखाना अधिनियम के दायरे से बाहर हो जायेंगे.
इसी तरह, पहले महिलाओं से शाम के 7 बजे से लेकर सुबह 6 बजे तक काम कराना निषिद्ध था, लेकिन अब इसे हटा कर पूंजीपतियों को महिलाओं से रात्रिकाल में भी काम लेने का अधिकार दे दिया गया है जबकि महिला कामगार की सुरक्षा को लेकर कोई सुस्पष्ट बात नये कानून में नहीं की गई है. इतना ही नहीं, प्राइम मुवर सहित खतरों वाली जगहों पर भी महिलाओं से काम लेने का अधिकार पूंजीपति को प्रदान किया गया है (व्यावसायिक सुरक्षा संहिता की धारा 42). ठेके पर काम करने वाले किसी मजदूर की अगर कार्यस्थल पर मृत्यु हो जाती है, तो उसके प्रति ठेकेदार की कोई जिम्मेवारी नहीं बनेगी और न ही उस पर कोई आपराधिक मुकदमा ही चलाया जा सकेगा.
इसी तरह कारखाना अधिनियम में किये गये बदलाव के तहत मालिक अब मजदूरों को कारखाने में रोके रखने का समय अर्थात स्टैंड ओवर टाइम को साढ़े दस से बढ़ाकर 12 घंटा कर दिया है. इसके अलावा, एक तिमाही में ओवर टाइम की सीमा को 50 घंटे से बढ़ाकर 100 घंटा कर दिया गया है. साथ ही किसी इलाके में साप्ताहिक अवकाश बिजली की उपलव्यता के आधार पर तय की जाएगी और इसे तय करने का अधिकार सीधे पूंजीपतियों को दे दिया गया है. साफ है , मजदूरों के काम के घंटों को बढ़ाने और इस तरह इन्हें यूनियन करने के अधिकार से वंचित रखने की यह कुटिल कोशिश है. अपरेन्टिस ( प्रशिक्षु ) एक्ट, 1961 में भी बदलाव किया गया है.
यह बदलाव कुशल मजदूरों को सस्ते मजदूरों के रूप में पूंजीपतियों को उपलब्ध कराने के लिए किया गया है. पहले के कानून के अनुसार नियोक्ता को केवल इंजीनियरिंग और तकनीकी कार्यों में ही प्रशिक्षु (अपरेन्टिस) बहाल करने की अनुमति प्राप्त थी. अब इंजीनियरिंग के अलावा गैर-इंजीनियरिंग तथा गैर-तकनीकी कार्यों में अपरेंटिस भर्ती करने का अधिकार मिल गया है. यही नहीं, पूंजीपतियों के द्वारा ही यह तय किये जाने का प्रावधान शामिल कर दिया गया है कि उनकी अपरेंटिसशीप कब खत्म होगी. यही नहीं , इस काल में हुए वेतनखर्च का एक अच्छा-खासा हिस्सा सरकार वहन करेगी. इससे पूंजीपतियों को अपार फायदा हो रहा है क्योंकि एक तो कुशल मजदूरों को ये कम से कम वेतन ( एक तिहाई वेतन ) पर लंबे समय तक खटा सकते हैं और इनके वेतन पर हुए खर्च का भार भी पूरी तरह पूंजीपतियों पर नहीं पड़ने वाला है. इसके अलावा , तथाकथित लघु उद्यमों में (उन उद्यमों में जिन्हें कारखाना अधिनियम में हुए संशोधनों ने 19 मजदूरों से 39 मजदूरों तक विस्तारित कर दिया है) रिटर्न दाखिल करने एवं रजिस्टर रखने से भी पूंजीपतियों व मालिकों को छूट दे दी गई है.
बाल श्रम ( निषेध एवं नियमन ) अधिनियम, 1986 में संशोधन लाने का प्रथम प्रयास 2012 में मनमोहन सिंह सरकार द्वारा किया गया था, लेकिन तब वह राज्य सभा द्वारा गठित स्टेन्डिंग कमेटी में अटक गई थी. मई, 2014 में जब देश में मोदी की सरकार आयी तो इसने इसे मंत्री समूह के सुपुर्द कर दिया और जुलाई 2016 में राज्य सभा द्वारा पारित करा लिया. इसमें किये गये संशोधनों के तहत अब बच्चे बेहद सस्ते श्रमिक के रूप में पंजीपतियों द्वारा शोषित किये जा सकेंगे. जैसे कि घरेलू एवं कुटीर उद्योगों में पारिवारिक श्रम के तहत लगे बच्चों के श्रम को बाल श्रम नहीं माना जाएगा और ऐसे उद्योगों में 14 साल से कम उम्र के बच्चों को भी लगाया जा सकता है.
इसी तरह , खतरनाक उद्योगों की सूची को महज तीन बिंदुओं में अर्थात खनन , ज्वलनशील एवं विस्फोटक प्रक्रियाओं वाले उद्योगों में समेट दिया गया है. इसका सीधा मतलब यही निकलता है कि ऊपर चिन्हित तीन बिंदुओं में सिमटे खतरनाक उद्योगों को छोड़कर अन्य खतरनाक उद्योगों में 14 से 18 वर्ष के किशोरों को काम पे लगाया जा सकता है. संपूर्ण श्रम कानून प्रणाली का चार श्रम कोडों में समेटने की कार्रवाई से यह स्पष्ट पता चलता है कि मोदी सरकार की मंशा श्रम कानूनों की पूरी प्रणाली को खत्म कर देने की है. यह मजदूरों के लिए अधिकारविहीनता की स्थिति पैदा करेगा.
इसके लिए सरकार ने 44 केन्द्रीय श्रम कानूनों को 4 कोडों ( नियमावलियों ) में समेट देने की योजना बनाई है. ये चार श्रम कोड हैं – औद्योगिक संबंध , वेतन , सामाजिक सुरक्षा एवं संरक्षा तथा कल्याण कोड. इन्हीं चार नियमावलियों में संपूर्ण श्रम प्रणाली को समेट दिया जाएगा. इनमें से एक वेज कोड को संसद से पारित भी करा लिया गया है. सामाजिक सुरक्षा संबंधी कोड को भी मोदी की कैबिनेट की हरी झंडी मिल चुकी है. इनके प्रावधान अत्यंत घातक हैं.
ट्रेड यूनियन के पंजीकरण में पहले जहां 7 श्रमिकों की ही जरूरत थी. अब इसके लिए कुल श्रमिकों के 10 प्रतिशत की संख्या अनिवार्य कर दी जाएगी. इसी तरह असंगठित क्षेत्र के यूनियनों में अधिकतम दो बाहरी लोग ही पदाधिकारी बनाये जा सकते हैं, वहीं संगठित क्षेत्र के यूनियनों में कोई भी बाहरी व्यक्ति पदाधिकारी नहीं बन सकेगा.
औद्योगिक संबंध नियमावली के हड़ताल संबंधी प्रावधानों के तहत अब मजदूरोंं को हडताल की नोटिस 14 के बजाय 42 दिन पूर्व देनी होगी. ऐसा नहीं करने पर हड़ताल गैर-कानूनी मानी जायेगी और इसमें शामिल हर मजदूर पर 50 हजार से 2 लाख तक जुर्माना एवं एक माह की कैद की सजा हो सकती है. इसको समर्थन देने वाले व्यक्ति पर भी 50 हजार का जुर्माना ठोका जाएगा. यूनियन का चुनाव कराने, रिटर्न दाखिल करने एवं रिकार्ड व अकाउंट मेंनटेन करने में किसी भी किस्म की देरी या लापरवाही व चूक होने पर एक तो जुर्माना हो सकता है या यूनियन का रजिस्टेशन रह हो सकता है.
इसी तरह 300 या इससे कम मजदूरों वाले कारखाने में मालिकों को मजदूरों की छंटनी, ले-आफॅ एवं तालाबंदी के लिए सरकार की अनुमति नहीं लेनी पड़ेगी. पहले इसकी सीमा 100 थी. यह नियमावली समझौता वार्ता एवं लेबर कोर्ट आदि को भी समाप्त कर अलग-अलग स्तरों पर ऐसे ट्राइब्यूनल गठित करने की बात करती है, जिनके फैसले को किसी ऊपर के कोर्ट में भी चुनौती नहीं दी जा सकेगी.
पारित हो चुके मजदूरी ( वेज ) कोर्ड के अनुसार, मजदूरों-कर्मचारियों को घंटे व दिन के हिसाब से भी काम पर रखा जा सकेगा. 8 घंटे के कार्य दिवस का प्रावधान हटा दिया गया है. सरकार तय करेगी कि कार्यदिवस कितने घंटे का होगा. यह आठ घंटे से ज्यादा का भी हो सकता है. 15 साल से कम उम्र वाले बच्चों को भी काम पर रखना कानूनी हो जाएगा. बोनस या वेतन में धोखाधड़ी पर मालिक की गिरफ्तारी का प्रावधान खत्म कर दिया गया है और मुकदमा करने पर भी क्रिमिनल की जगह सिविल केस बनेगा. इससे मालिक जुर्माना भर कर आरोप और सजा दोनों से मुक्त हो जाएगा. असंतोषजनक काम के बहाने मालिक को वेतन काटने की छूट रहेगी. मजदूरों का वेतन तय करने का अब कोई पारदर्शी मानक नहीं रहेगा. अब यह सरकार तय करेगी. स्किल, जगह, समय जैसी किसी भी चीज का ध्यान रखना जरूरी नहीं होगा यानी, बेतहाशा मनमानी के लिए पूरी जगह दी गई है.
सामाजिक सुरक्षा कोड के अनुसार निर्माण मजदूर वेलफेयर बोर्ड बंद कर दिया जाएगा. अभी इसमें 4 करोड़ निर्माण मजदूर निबंधित हैं. उनको तथा उनके परिवार को मिलने वाली तमाम सुविधाएं जैसे पेंशन, बच्चों की स्कॉलरशिप आदि बंद हो जाएंगी. इसके अलावा इसके तहत असंगठित क्षेत्र के सभी मजदूरों को अपनी मजदूरी की 25 प्रतिशत राशि सरकार की सामाजिक सुरक्षा फंड में जमा करना अनिवार्य हो जाएगा जबकि इससे मिलने वाली सुविधाओं के बारे में कुछ भी निश्चित और स्पष्ट नहीं है.
सूचना का अधिकार ( संशोधन ) विधेयक, 2019
यह कानून 2005 में बना था । पूरे देश में हुए तमाम विरोध के बावजूद सूचना का अधिकार (संशोधन) बिल 25 जलाई को संसद से पारित हो गया. इसके जरिए इस कानून में कई बदलाव किये गये हैं जिससे इस कानून के काफी हद तक कमजोर हो जाने का खतरा उपस्थित हो गया है. यह संशोधन सूचना आयुक्तों सहित मुख्य सूचना आयुक्त को भी अपने कार्यकाल और वेतन तथा भत्ते आदि जैसे मामलों में केंद्र सरकार पर पूरी तरह निर्भर बनाता है. ऐसे में सूचना आयोग, जो पहले से ही सरकार के दबाव में काम करती रही है उसका पहले की तरह कार्य करना क्या संभव रह जाएगा ? क्या यह कागजी शेर में नहीं बदल जाएगा ?
केंद्र और राज्यों दोनों के मुख्य सूचना आयुक्तों और सूचना आयुक्तों के पहले से तय 5 सालों के कार्यकाल को खत्म कर दिया गया है और आगे से इसके बारे में निर्णय लेने की शक्ति केंद्र सरकार को दे दी गई है. उनकी कार्यसीमा की परिभाषा भी केंद्र सरकार तय करेगी. यही स्थिति उनके वेतन, भत्ते और सेवा से जुड़ी अन्य शर्तों के साथ भी की गई है. इसके जरिये ये केंद्र सरकार के प्रति जवाबदेह बना दिये गये हैं. ऐसे में यह तो स्पष्ट ही है कि इनकी आजादी और निष्पक्षता और भी ज्यादा सीमित हो जाएगी.
यह सच है कि सारी सीमाओं के बावजूद यह कानून जनता की जनतांत्रिक पहलकदमी व सतर्कता को बढ़ाने में काफी सहायक साबित भी हुआ था लेकिन अब यह बिना नाखून व दांत वाला शेर बनकर रह जाएगा. इन कारणों से नैतिक रूप से अत्यधिक मजबूत और पूरी तरह समर्पित, निडर व ईमानदार सूचना आयुक्त ही केंद्र सरकार की तरफ से पड़ने वाले दबावों को झेलने की स्थिति में होंगे. तब भी क्या नये संशोधनों के आलोक में उन्हें काम करने दिया जाएगा, इसके बारे में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है. सरकार तो अपनी मंशा प्रकट कर ही चुकी है.
दरअसल आज का समय कानूनी और गैर-कानूनी के बीच के फर्क के मिट जाने, दोनों के एक दूसरे में हो चुके विस्तार और विलय को दर्शाने वाला समय है. ‘राज्य’ और ‘राज्येत्तर’ काली ताकतों का यह संधि काल है. यह वह काल है जब सरकार समाज में अमन व चैन कायम करने की जिम्मेवारी को छोड़ कानूनों को बदलने के लिए गैर-कानूनी संशोधनों की फेहरिस्त लेकर आ रही है. इसके बाद ‘जनतांत्रिक व्यवस्था’ के बलात अपहरण का रास्ता और भी अधिक प्रशस्त हो जाएगा. बौद्धिक तबकों के लोगों के पहले से बंद पडे होठों पर मोटा ताला जड़ जाएगा और न्याय के लिए तथा अन्याय के विरूद्ध उठने वाली आवाज या तो पूरी तरह दबा दी जाएगी या फिर इसकी भारी कीमत अदा करनी पड़ेगी.
जनविरोधी कानूनों की मोटी होती पोथी यह बता रही है कि समाज में अंधकार कायम करने वाली ताकतें पूरी तरह अपनी चाक-चौबंद में लगी हैं. 2014 से लेकर आज तक, खासकर 2019 में भारी जीत के बाद मोदी की सरकार की अब तक की कार्रवाइयों से यह स्पष्ट है कि अगर जनता आगे नहीं आएगी, तो समाज की बर्बादी और तबाही सन्निकट है. पूरे मुल्क में जन विरोधी कानूनों का जबरदस्त विरोध हो रहा है. संशोधन से इन्हें ज्यादा दमनकारी बनाया गया है. इस कोशिश के खिलाफ आक्रोश स्वाभाविक है. प्रगतिशील, जनवादी व क्रांतिकारी शक्तियों के द्वारा विभिन्न माध्यमों से इसका विरोध जारी है, पर छोटे-मोटे प्रतिरोधों से अब काम नहीं चलने वाला है. आज जनांदोलन की आंधी ही इस हमले के तूफान का मुकाबला कर सकती है.
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