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निजी मुनाफे के कारण है हाथियों और आदिवासियों की त्रासदी

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निजी मुनाफे के कारण है हाथियों और आदिवासियों की त्रासदी

यह घटना 2006 या 2007 की है. ओडिशा के ढेंकनाल ज़िले के एक सुदूर गांंव में थे. बड़ी मुश्किल से वहांं पहुंंच पाए थे. तेज़ बारिश और अचानक आई बाढ़ की वजह से खड़गपुर रेल ब्रिज ढह गया था और सभी ट्रेनें या तो स्थगित कर दी गई थीं या फिर दूसरे मार्गों से होकर भुवनेश्वर पहुंंच रही थीं. ऐसी ही एक ट्रेन में हम सवार थे.

ट्रेन मिदनापुर के पास 12-14 घंटों से खड़ी थी. बारिश थी की रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी. दूसरी तरफ़ भूख और सिगरेट की तलब बेदम किए दे रही थी. ट्रेन में मौजूद पानी की बोतलें भी ख़त्म हो गई थी. कुल मिलाकर राजधानी एक्सप्रेस में सवार यात्रियों की हालत आजकल की ट्रेनों जैसी ही हो चुकी थी. हम सब बिना दाना-पानी के, बिना जानकारी के कि कब मंज़िल तक पहुंचेंगे, आस-निरास के बीच झूल रहे थे.

अगली सुबह ट्रेन चली, बताया गया कि हम वापस टाटानगर जाएंगे और वहांं से झारसुगुड़ा होते हुए एक दूसरे रास्ते होकर भुवनेश्वर पहुंचेंगे. ट्रेन लगभग हर स्टेशन पर रुकती तो बस रुक ही जाती. फिर कुछ ज़्यादा ग़ुस्सेवर यात्री स्टेशन मास्टर के पास शिकायतों के पुलिंदे लेकर पहुंंचते, चीख़ते-चिल्लाते. बेचारे स्टेशन मास्टर के पास न तो हमें कुछ बताने को था न वे कुछ करने में सक्षम होते. ख़ैर, किसी तरह घिसटते-रेंगते ट्रेन झारसुगुड़ा स्टेशन पहुंंची. हमने अपना झोला-झण्डा उठाया और उतर पड़े. सहयात्रियों ने आगाह किया, ‘ये तो झारसुगुड़ा है यहांं-कहांं जा रहे हैं ?’

हम ट्रेन से उतरे, अनंत भाई को फ़ोन किया और उनके घर पहुंच गए. मज़े में बढ़िया खाना खाया, भर मन बतियाए और लंबी तान कर सो गए. अगले दिन भोरे-भोर भाई ने ढेंकनाल की ट्रेन में बिठा दिया और हम कुछ ही घंटों में आदिवासी चेतना संगठन के साथी अमूल्या नायक के दरवाज़े पर खड़े थे. उनकी मोटरसाइकिल के पीछे लदकर अगले कुछ घंटों में उस गांंव पहुंंचे जो इस कहानी की धरती बना.

संगठन की एक-दो बैठकों के बाद हम सब एक स्कूल में रात्रि-विश्राम के लिए पहुंंचे. वहीं सबने मिलकर भात पसाया और देसी अंडों की करी बनाई. भोजन के पहले हड़िया और रासी का भी एहतेमाम था सो खा-पीकर लुढ़क लिए. थकान तो थी ही, फ़ौरन ही खर्र-पर्र चालू हो गई.

रात का कोई एक-सवा बजा होगा कि मोबाइल की घंटी से नींद टूट गई. मेरा ही फ़ोन बज रहा था. स्क्रीन पर स्वाति का नाम. इस वक़्त फ़ोन क्यों कर रही है…? फ़ोन उठाया पर नेटवर्क कमज़ोर होने की वजह से बात समझ नहीं आ रही थी सो दरवाज़ा हौले से खोल कर बाहर निकल आए. उधर से आवाज़ आई कि ‘साहिर की तबियत बिगड़ गई है और उसे हस्पताल लेकर जाना पड़ेगा. अजय से बात हो गई है, BN गाड़ी लेकर आ रहा है.’ और फिर फ़ोन कट गया.

थकान, नींद, हड़िया-रासी की ख़ुमारी के अलावा ज़ोरदार सुसु का एहसास हुआ सो उस वक़्ती बैतुल कदा से थोड़ा आगे बढ़ गए. चांंद आसमान में लगभग सिर पर था, पर घने जंगल के पेड़ों के बीच उसकी चमक ज़मीन तक कम ही पहुंंच पा रही थी. अभी पेशाब करना शुरू ही किया था कि ऊंंचे-लम्बे दरख़्तों के बीच कुछ अजीब सी हरकत महसूस हुई.

अचानक से लगा मानो पेड़ हिलडुल रहे हैं, आगे-पीछे हो रहे हैं. नीम-ग़ुनुदगी और नीम-तारीकी ने मिलकर नीम-बेहोशी की कैफ़ियत बना दी थी. तभी दरख़्तों की हलचल कुछ ज़्यादा दिखने लगी. समझ आया कि दरख़्त नहीं, वह हाथियों का कोई झुण्ड है जो इस तरह गांंव में आ गया है. पेशाब हो ही रही थी पर सामने हाथियों का झुण्ड खड़ा है. पेशाब करना दुश्वार, रोकना उससे भी ज़्यादा दुश्वार. किसी तरह क़ाबू किया और कमरे में वापिस लौट गए. बाक़ी साथी मज़े में सोए हुए थे. साहिर की फ़िक्र और इर्द गिर्द हाथियों के झुण्ड के होने का अहसास, नींद कहांं से आती ?

मेरे साथ एक बड़ी ख़राब बीमारी है, घबराहट होती है तो पेट में मरोड़ होनी शुरू हो जाती है और फ़ौरन से पेश्तर पाख़ाना जाना ज़रूरी होता है वर्ना इज़्ज़त बचाना मुश्किल हो जाता है. तो पेट में बल पड़ने शुरू हो गए, अजीब-सी कशमकश में मुब्तिला हो गए. जिस्म में सिहरन महसूस हुई और ठंडे पसीनों की बूंंदें रेंगने लगीं. अब क्या करें ?

तभी फिर से फ़ोन की घंटी बजी, स्वाति का ही था. अब मेरे पास बाहर निकलने के अलावा कोई दूसरा उपाय न था. बाहर निकले, बाल्टी से एक बोतल में पानी भरा. फ़ोन रिसीव किया. स्वाति ने बताया कि ‘हॉस्पिटल पहुंंच गई है. डॉक्टरों ने देखा है, laurengitis का अटैक है. नेबुलाइज़र लगाया है, अब तबियत बेहतर है.’

मन ज़रा शांत हुआ, पेट दर्द भी ज़रा कम हुआ पर नींद अब भी नहीं आई. घंटे भर बाद स्वाति का फिर से फ़ोन आया कि ‘अजय और जया और विजय सभी आ गए हैं, साहिर को अजय के घर ले कर जा रहे हैं.’ फ़ोन की आवाज़ सुनकर अमूल्या भाई भी जग गए थे.

भोर का झुटपुटा हो चला था. अमूल्या भाई को साहिर और हाथी के झुण्ड के बारे में बताया. वे बताने लगे कि किस तरह लगातार कारख़ानों में कच्चा माल पहुंचाने के लिए जंगलों के अंदर नई रेल लाइनें बनती चली जा रही हैं. फैक्टरियों में पानी पहुंंचाने के लिए चौड़ी-चौड़ी नहरें बनाई जा रही हैं जिनकी वजह से हाथियों के परंपरागत रास्ते बाधित हो रहे हैं और नए रास्तों की तलाश में वे गांंवों में घुस रहे हैं. पहले किसानों के खेत फिर अनाज के भंडारण पर हाथियों के हमले बढ़ते जा रहे हैं.

किसान ज़्यादातर समय तो ढोल नगाड़ों, झांझ-मंजीरों की आवाज़ या कभी कभी पटाखेबाज़ी कर के हाथियों को हांंकने की कोशिश करते हैं पर कभी कभी जंगल में कोई अकेला इंसान हाथियों के झुंड से घिर जाता है तो हाथी उसे मसल देते हैं. कभी लोग ज़्यादा ग़ुस्सा हो जाते हैं तो घेरकर हाथी की जान ले लेते हैं.

दो दिन बाद हम आदिम अदिवासी मुक्ति मंच के कार्यकर्ताओं के पास थे. संगठन के एक युवा साथी सलखू मुर्मू हमें लेकर अपने गांंव के उन सभी घरों तक गया जहांं पिछले कुछ दिनों में हाथियों के झुण्ड ने हमले किए थे. गांंव का शायद ही कोई ऐसा घर होगा या कोई ऐसा परिवार होगा जिसे हाथियों ने कोई नुक़सान नहीं पहुंंचाया था.

आदिवासी पूरी ईमानदारी से बताते कि वे हज़ारों बरसों से इन्हीं जंगलों में हाथियों के साथ जीते आए हैं. न तो कभी हाथियों ने उन पर हमले किए और न आदिवासियों ने हाथियों पर. पर पिछले दो-तीन दशकों से हाथी बेहद आक्रामक ढंग से बर्ताव करने लगे हैं, ख़ासकर जब वे साल के एक ख़ास समय में दक्षिण की दिशा में आगे बढ़ते हैं और नहरों या रेल लाइन की वजह से उनका रास्ता रुक जाता है तो वे बेहद नाराज़ हो जाते हैं और लोगों पर हमले शुरू कर देते हैं.

मेरे लिए यह नई जानकारी थी, बेचने लायक़ मसाला था पर वहांं रह रहे आदिवासियों और हाथियों के लिए बहुत बड़ी त्रासदी थी..जीवन-मरण का प्रश्न था. वे किसी और के ग़लत फ़ैसले की वजह से, किसी और के निजी मुनाफ़े के लिए एक-दूसरे के दुश्मन बन गए थे. यह जंग अब भी बरक़रार है. हमारे लिए तो आदिवासी पहले ही जंगली हैं, वहशी हैं, उन्हें दरिंदा साबित कर देना बेहद आसान है क्योंकि अपना पक्ष रखने में न तो वे सक्षम हैं और न ही हाथी. और हमने तो पहले ही जंगली का मतलब बर्बर और वहशी मान लिया है.

  • इश्तेयाक अहमद

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