अंग्रेजों के औपनिवेशिक काल के कानूनों की जगह लेने वाले तीन नए कानून एक जुलाई से लागू हो गया. पुराने और नये दोनों कानून में एक बुनियादी अंतर यह है कि अंग्रेजों के पुराने कानून पढ़े-लिखे अंग्रेजों ने बनाया था, तो यह नये कानून अनपढ़ अपराधियों के द्वारा तैयार किया गया है. यह अनपढ़ अपराधी उन तमाम लोगों को खत्म करने पर आमदा है, जो देश में किसी भी प्रकार के न्यायोचित आवाज को बुलंद करने की हिमाकत करते हैं. यानी, जो अपराधी नहीं होंगे वे मारे जायेंगे. यहां नये तीन कानूनों पर समीक्षा हम प्रकाशित कर रहे हैं, जिसे प्रसिद्ध समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री अर्जुन प्रसाद सिंह ने तैयार किया है – सम्पादक
पिछले 10 सालों के शासन के दौरान नरेन्द्र मोदी की सरकार देश के प्रगतिशील, जनवादी एवं क्रान्तिकारी ताकतों पर यूएपीए, राजद्रोह एवं देशद्रोह के मुकदमें लगाकर तरह-तरह के अत्याचार करती रही है. वह ‘अरबन नक्सल’ का आरोप लगाकर दर्जनों शहरी बुद्धिजीवियों को जेल भेज चुकी है. इन्हीं दमनकारी कदमों को आगे बढ़ाते हुए इस सरकार ने अपने तीसरे कार्यकाल में 1 जुलाई, 2024 (सत्तासीन होने के मात्र एक माह के अन्दर) को तीन नये दमनकारी कानूनों को लागू कर दिया. इन तीनों कानूनों के नाम इस प्रकार है –
- भारतीय न्याय संहिता, 2023,
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 और
- भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2024
केन्द्र सरकार ने दावा किया है कि इन तीनों अपराधिक कानूनों को, बहुत पुराने औपनिवेशिक कानूनों- क्रमशः भारतीय दंड संहिता 1860, अपराध प्रक्रिया संहिता 1973 एवं भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872, को बदल कर बनाये गये हैं, जो देश के आम नागरिकों को बेहतर एवं त्वरित न्याय उपलब्ध करायेंगे. लेकिन अगर हम इन तीन कानूनों की धाराओं पर गौर करें तो साफ पता चलेगा कि ये कितने असंवैधानिक एवं दमनकारी हैं.
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 187(3) में पुलिस हिरासत की अवधि को बढ़ाया गया है. पुराने अपराध प्रक्रिया संहिता में पुलिस हिरासत की अवधि 15 दिन की थी, जिसे नये कानून में बढ़ाकर 60 से 90 दिनों की कर गई है. इस प्रावधान से पुलिस हिरासत के प्रताड़ना के मामले बढ़ेंगे और गिरफ्तार व्यक्ति के स्वतंत्रता के अधिकारों पर सीधा हमला होगा.
- इसी सुरक्षा संहिता की धारा 37 के तहत गिरफ्तार किये गये व्यक्तियों के विवरणों को प्रमुखता के साथ प्रदर्शित करने का प्रावधान किया गया है, जो संविधान में प्रदत निजता के अधिकार का खुला उल्लंघन करता है. पुराने अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा- 311ए के तहत कोई मजिस्ट्रेट किसी को जांच के लिए बुला सकता था, लेकिन नई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 349 के तहत कोई मजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति का फिंगर प्रिंट एवं आवाज के नमूनों को लेने का आदेश दे सकता है. ऐसा करना किसी व्यक्ति के निजता एवं स्वायत्तता के अधिकार पर एक कुठाराघात होता.
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 262 ‘जब तक दोषी करार न दिया जाये तब तक ननिर्दोष’ के मौलिक आपराधिक सिद्धांत की अवहेलना करता है. इन संहिता की धारा-107 किसी मजिस्ट्रेट को यह अधिकार प्रदान करता है कि जांच के दौरान पुलिस के आग्रह पर अपराध की सम्पत्ति को बांटने का आदेश दे.
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा-172 पुलिस को नागरिकों की स्वतन्त्रता को कुचलने का पूरा अधिकार देता है. इस धारा के तहत पुलिस अधिकारी किसी भी निर्देश का पालन करने से इनकार करने, विरोध करने, अनदेखा करने या उपेक्षा करने वाले किसी भी व्यक्ति को हिरासत ले सकता है या किसी स्थान से हटा सकता है. इसी संहिता की धारा 149 (1) के तहत जिला मजिस्ट्रेट या उनके द्वारा अधिकृत कोई कार्यकारी मजिस्ट्रेट भीड़ को शांत करने के लिए सशस्त्र बलों के इस्तेमाल की अनुमति दे सकता है, जबकि पहले की अपराध प्रक्रिया संहिता के तहत इस प्रकार के आदेश देने के लिए सर्वोच्च स्तर के कार्यकारी मजिस्ट्रेट की जरूरत होती थी. इस धारा के प्रयोग से विवेकाधीन शक्तियों का अनियंत्रित दुरूपयोग होगा और संविधान प्रदत अधिकारों पर हमला बढ़ेगा.
- भारतीय नागरिक सुरक्षा कि संहिता की धारा 484(2) के तहत जमानत के अधिकार पर हमला किया गया है. इस धारा के प्रावधान के अनुसार अगर किसी व्यक्ति के खिलाफ एक से अधिक मामलों में जांच या मुकदमा लंबित है तो उसे जमानत पर रिहा नहीं किया जायेगा, चाहे वो सम्बन्धित अपराध के लिए निर्धारित अधिकतम कैद का आधा या एक तिहाई हिस्सा काट चुका हो. ऐसा प्रावधान निर्दोष होने की धारणा और जमातत के अधिकार समेत अन्य कानूनी सिद्धान्तों का उल्लंघन करता है.
- इसी संहिता की धारा 482 को अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 438 के तहत अग्रिम जमानत के प्रावधान की जगह पर लाया गया है. इस धारा के तहत जो दिशानिर्देश दिए गए हैं वो मनमाने हैं. इसके अलावा इसके तहत जजों को व्यापक विवेकाधिकार की छूट भी दी गई है.
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 356 जजों को आरोपी की अनुपस्थिति में भी कार्यवाही को आगे बढाने का विशेषाधिकार देता है. इस धारा के प्रावधान के अनुसार अगर जज संतुष्ट है तो न्याय के हित में कार्यवाही को आगे बढ़ाने के लिए आरोपी को उपस्थिति की जरूरत नहीं है. यह धारा आरोपी के निष्पक्ष और पारदर्शी न्याय के अधिकार का उल्लंघन करती है.
- भारतीय न्याय संहिता की धारा 150 के तहत ‘राजद्रोह’ शब्द का तो इस्तेमाल नहीं किया गया है, लेकिन यह धारा इतनी अस्पष्ट है कि स्वतन्त्रता एवं अभिव्यक्ति के अधिकार पर हमला करती है. इस तरह यह धारा सटीक एवं अस्पष्ट शर्तों के अभाव के चलते काफी क्रूर एवं दमनकारी है.
- नये अपराधिक कानून कई मामलों में स्थापित मिसालों की अवहेलना करते है और देशवासियों के लिए एवं वास्तविक न्याय प्रणाली को बनाने के प्रयास को कई साल पीछे धकेल देते हैं. उदाहरण के लिए भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 173(3) के तहत एफ आई आर दर्ज करने का प्रावधान है जो अपराध प्रक्रिया संहिता की धारा 154 के तहत ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 2014 में सुप्रीम कोर्ट के फैसले की उपेक्षा करती है, जिसमें एसएचओ द्वारा एफ आई आर दर्ज करना अनिवार्य किया गया था.
- नये कानूनों, जैसे भारतीय न्याच संहिता में 20 नये अपराध जोडे गए हैं. आईपीसी में मौजूद 19 प्रावधानों को हटा दिया गया है. 33 अपराधों में कारावास की सजा बढ़ा दी गई है और 83 अपराधों में जुर्माने की सजा बढाई गई है तथा 6 अपराधों में सामूहिक सेवा की सजा का प्रावधान किया गया है.
- आईपीसी में पहले 511 धारायें शामिल थीं, अब 356 बची हैं और 475 धारायें बदली गई हैं. इसी तरह सीआरपीसी में 533 धारायें बची हैं, 160 धारायें बदली गई हैं, 9 धारायें नई जुडी हैं और 9 धाराओं को खत्म कर दिया गया है.
- नये कानून में पूछताछ से ट्रायल तक सुनवाई वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिये करने का प्रावधान किया गया है.
- साथ ही, इसमें ट्राइल कोर्ट को हर फैसला अधिकतम 3 साल में देने को अनिवार्य बनाया गया है, जबकि देश में करीब 5 करोड़ मामले वर्षों से लम्बित हैं. विभिन्न अदालतों में जजों की भी कमी है. ऐसी स्थिति में लोगों को अदालतों में तारीख पर तारीख मिलती रहेंगी और उनकी परेशानियां बढ़ती रहेंगी.
- इसके आलावा नये कानूनों में कई तकनीकी एवं भाषाई खामियां हैं, जिन्हें दुरूस्त करना जरूरी है.
उपर्युक्त विवरण से अच्छी तरह जाहिर होता है कि मोदी सरकार ने इन नये आपराधिक कानूनों के जरिये औपनिवेशक कानूनों से मुक्ति दिलाने की बात की है, लेकिन वास्तव में ये कानून औपनिवेशिक काल से भी ज्यादा क्रूर हैं. इन कठोर कानूनों में आतंकवाद सम्बंधी कानूनों को सामान्य बनाया गया है. पुलिस को मनमाना अधिकार दिया गया है; स्थापित कानूनी मिसालों को खारिज किया गया है और मौजूदा संस्थागत अक्षमताओं की अनदेखी कर लक्ष्य निर्धारित किये गये हैं.
महाराष्ट्र स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी बिल, 2024
महाराष्ट्र सरकार ने विधानसभा के मानसून सत्र में 11 जुलाई, 2024 को ‘अरबन नक्सलियों’, से निबटने के नाम पर इस दमनकारी एवं गैर संवैधानिक बिल को पेश किया है. इस बिल को एकनाथ शिंदे की सरकार ने छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा अधिनियम (2005) एवं आंध्र प्रदेश विशेष जन सुरक्षा कानून (1992) की तर्ज पर हाल ही में अपने कैबिनेट से पारित करवाया था. इसी तरह का एक दमनकारी कठोर कानून जम्मू एवं कश्मीर में ‘जम्मू एवं कश्मीर जन सुरक्षा कानून’ 1978 से लागू है. छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा कानून को संवैधानिक रूप से सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है, जहां यह मामला लम्बित है.
जहां तक महाराष्ट्र स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी बिल 2024 का सवाल है, इस पर न तो आमलोगों और न ही कानूनी विशेषज्ञों की राय मांगी गई. इस बिल को काफी जल्दबाजी में मानसून सत्र के अंतिम कुछ दिनों में और विधान सभा चुनावों के केवल दो माह पहले पेश किया गया. इस विशेष सुरक्षा बिल पर उपमुख्यमंत्री देवेन्द्र फडनवीस ने हस्ताक्षर किये. यह हड़बड़ी बिल तैयार करने की पूरी प्रक्रिया की कमजोरी के साथ-साथ चुनाव की ‘जनवादी लड़ाई’ के महत्वपूर्ण समय में सरकार के संदिग्ध इरादे को प्रतिबिम्बित करता है.
हमारे देश में पहले से ही यूएपीए (1967) जैसे कठोर कानून लागू है, जिसे 2019 में संशोधित कर और दमनकारी बनाया गया है. महाराष्ट्र में भी ‘महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ आरगेनाइज्ड क्राइम एक्ट, 1999 लागू है. फिर भी, महाराष्ट्र सरकार ने आतंकवाद एवं हिंसक गतिविधियों को रोकने के नाम पर आनन-फानन में एक और बिल पेश किया है. सही मायने में इस बिल का उद्देश्य राजनैतिक विरोधियों, जनता के विरोधों एवं आन्दोलनों, नागरिक समाज एवं मानवाधिकार कार्यकर्ताओं एवं जनपक्षीय वकीलों एवं पत्रकारों की आवाज को कुचलना है.
हालांकि, सरकार ने दावा किया है कि इसका लक्ष्य शहरी इलाकों में नक्सलवाद एवं उनके फ्रंटल संगठनों के विस्तार एवं खतरों को
रोकना है. विडाम्बना है की एक ओर सरकार दावा करती है कि नक्सलवाद का फैलाव काफी कम हो गया है और दूसरी ओर उसके विस्तार को रोकने के लिए नये कानून बनाने की कोशिश कर रही है. वास्तव में, महाराष्ट्र सरकार इस बिल को पारित करवाकर दक्षिणपंथी बहुमत के विचारों एवं नीतियों के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाले नागरिकों राजनीतिक विरोधियों एवं मानवाधिका ररक्षकों की गतिविधियों के अपराधीकरण की प्रक्रिया की कानून सम्म्मत बनाना चाहती है.
अगर हम महाराष्ट्र स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी बिल 2024 के प्रावधानों पर गौर करें तो इसका असली दमनकारी स्वरूप उजागर हो जायेगा –
- इस बिल में गैर कानूनी गतिविधि की काफी व्यापक एवं अस्पष्ट परिभाषा दी गई है, जो पूरी तरह अस्वीकार्य है.
- इस बिल के तहत कोई व्यक्ति या संगठन द्वारा की गई किसी भी कारवाई, चाहे वह बोलकर, लिखकर या अन्य
किसी दृश्यमान प्रतिनिधित्व या कोई अन्य तरीके से की गई हो, को ‘गैरकानूनी गतिविधि मानी जायेगी.’ - इस बिल के तहत ‘संगठन’ की परिभाषा को भी काफी व्यापक एवं अस्पष्ट कर दी गई है. इसके तहत किसी भी गुटबंदी, निकाय या लोगों के समूह, चाहे उसका कोई नाम हो या न हो, चाहे किसी कानून के तहत पंजीकृत हो या न हो, चाहे उसका संचालन किसी लिखित संविधान द्वारा या अलिखित तरीके से किया जाये, उसे आरोपित किया जा सकता है. इस प्रकार इस बिल द्वारा सरकार को किसी भी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को ‘अरबन नक्सल’ घोषित कर प्रताड़ित करने का अधिकार मिल जायेगा.
- इस बिल में यह प्रावधान किया गया है कि सलाहकार बोर्ड के समक्ष अधिसूचना पेश करने के पहले ही किसी संगठन को ‘गैरकानूनी होने’ की अधिसूचना जारी की जा सकती है.
- इस बिल में गैरकानूनी संगठन’ की जो परिभाषा दी गई है वह इस प्रकार है: ‘कोई संगठन, जो प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से किसी माध्यम या उपकरणों या अन्य किसी प्रकार से किसी गैरकानूनी गतिविधि को उसकाता है, मदद करता है, सहारा देता है या प्रोत्साहित करता है, उसे गैरकानूनी माना जायेगा.
- इस बिल के तहत किसी ग्रुप या व्यक्ति को और उनकी गतिविधियों को गैर कानूनी घोषित करने के लिए सरकार को प्रमाण देने की कोई जरूरत नहीं है.
- इस बिल में ऐसा प्रावधान किया गया है कि किसी व्यक्ति को, जो हाईकोर्ट के जज होने के लायक है, सलाहकार बोर्ड का सदस्य बनाया जा सकता है. इस तरह सरकार को किसी सरकार पक्षीय वकील या जिला जज को सलाहकार बोर्ड का सदस्य नियुक्त करने की छूट दे दी गई है. किसी संगठन को एक बार में एक साल के लिए गैर कानूनी घोषित किया जा सकता है और बिना कोई आधार बताये इसे एक साल या अनन्त काल के लिए बढ़ाया जा सकता है.
- इस बिल में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या पुलिस कमीश्नर या उनके द्वारा प्राधिकृत किसी पदाधिकारी को कठोर अधिकार दिये गए हैं, जो किसी खास एरिया या खास बिल्डिंग, जिसका उनके अनुसार गैर कानूनी गतिविधियों के लिए प्रयोग किया जाता था, को खाली करने और फिर उसे कब्जे में लेने की अधिसूचना जारी कर सकता है. इसके लिए किसी प्रकार की नोटिस भेजने या सुनवाई का मौका देने का प्रावधान नहीं किया गया है.
- इस बिल में किसी खास ‘गैरकानूनी गतिविधि’ के लिए मनमाने ढंग से सजा देने का प्रावधान किये गए हैं. किसी गैरकानूनी संगठन के सदस्य के लिए 3 साल की सजा और जो किसी गैरकानूनी संगठन का सदस्य नहीं है, लेकिन उसे मदद करता है, चंदा देता है, ऐसे किसी संगठन के सदस्य को आश्रय देता है, उसे 2 साल की सजा देने का प्रावधान किया गया है.
- इस बिल में नियमावली बनाने का विचार किया गया है, जिसे अभी तक बनाया नहीं गया है, जो इस प्रस्तावित कानून के लागू होने पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है.
इस प्रकार के कठोर कानूनों का प्रगतिशील नागरिकों, दिल्ली के वकीलों एवं जनपक्षीय संगठनों द्वारा देश के विभिन्न जगहों पर विरोध किया जा रहा है. हालांकि, ‘महाराष्ट्र स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी बिल’ को विधानसभा के मानसून सत्र में पारित नहीं कराया जा सका है, लेकिन महाराष्ट्र सरकार ने अभी तक कोई अधिकारिक बयान नहीं दिया है कि अगले सत्र में इस प्रकार के बिल को पेश नहीं किया जायेगा.
देश की प्रगतिशील एवं न्यायपसंद जनता एवं संगठनों को इस प्रकार के कठोर दमनकारी कानूनों एवं बिलों का जोरदार एवं मोर्चाबंद विरोध करना जारी रखना चाहिए ताकि केन्द्र एवं राज्य सरकारें उन्हें लागू नहीं कर सके और पारित नहीं करा पायें.
- पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज एवं ऑल इंडिया लायर्स यूनियन (दिल्ली) द्वारा जारी विज्ञप्ति के आधार पर लिखित.
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