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फासिज्म का नया मुहावरा

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जगदीश्वर चतुर्वेदी

भारत का फासिज्म इटली और जर्मनी के फासिज्म से भिन्न है. भारत के फासिज्म की धुरी है धार्मिकता, मुस्कान और गरीबी. मोदीजी ने फासिज्म का आवरण बदल दिया है. यह सीधे अमेरिकी लिबरल फासिज्म की जीरोक्स कॉपी है. फासिज्म का अर्थ है जब राज्य प्रशासन को कारपोरेट घराने अपने हाथ में ले लें.

मोदी ने फासिज्म को नया रुप दिया है. उसने हिंदुत्व को सर्वोपरि स्थान दिया है. देश -विदेश सब जगह हिंदुत्व के फ्रेमवर्क में चीजों को पेश किया है. हिंदू मिथकों और मिथकीय पात्रों को सामान्य अभिव्यक्ति का औज़ार बनाया है. हिंदू नैतिकता को महान नैतिकता बनाया है और उसके कारण देश में हिंदुत्व का माहौल सघन हुआ है.

दूसरा बड़ा परिवर्तन यह कि किया है उसने ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ या ‘युद्ध’ इन दो पदबंधों को हिंदुत्व की नैतिकता बना दिया है. अब हर चीज के खिलाफ मोदीजी ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कर रहे हैं या ‘युद्ध’ कर रहे हैं. मसलन, कालेधन के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक, गंदगी के खिलाफ युद्ध, गरीबी के खिलाफ युद्ध, कोरोना के खिलाफ युद्ध आदि पदबंध आए दिन सत्तातंत्र के प्रचार के रुप में कारपोरेट मीडिया हमारे ज़ेहन में उतार रहा है.

वे सर्जीकल स्ट्राइक’ या युद्ध के नाम पर सभी किस्म के वैचारिक मतभेदों को अस्वीकार कर रहे हैं. वे मांग कर रहे हैं कि वैचारिक मतभेद बीच में न लाएं. वे यह भी कह रहे हैं कि यह बहस का समय नहीं है, काम करने का समय है. बहस मत करो, सवाल मत करो, सिर्फ सत्ता का अनुकरण करो.

एक जमाना था आम आदमी साम्प्रदायिक विचारों से नफरत करता था, अपने को उनसे दूर रखता था लेकिन आज स्थिति गुणात्मक तौर पर बदल गयी है. आज साम्प्रदायिक विचारों से आम आदमी नफरत नहीं करता बल्कि उससे जुड़ना अपना सौभाग्य समझता है. कल तक धार्मिक पहचान मुख्य नहीं थी लेकिन आज दैनन्दिन जीवन में वह प्रमुख हो उठी है, पहले जाति पूछने में संकोच करते थे आज खुलकर जाति पूछते हैं.

आज आप पुरानी फासिज्म की अवधारणाओं के आधार पर उसे समझा नहीं सकते. मसलन, मोदीभक्तों और मोदी सरकार को जो पसंद नहीं है उसे वे मानने को तैयार नहीं हैं. वे सिर्फ इच्छित बात ही सुनना चाहते हैं. अनिच्छित को इन लोगों ने फासिज्म बना दिया है. यह ओरवेलियन परिभाषा है कि जो बताती है जो अनिच्छित है, वह फासिज्म है.

फासिज्म के मायने क्या हैं, इस पर भारत में बहुत बहस है और इस बहस में बड़े बड़े दिग्गज उलझे हुए हैं, लेकिन आज तक उसकी कोई सर्वमान्य परिभाषा तय नहीं कर पाए हैं. फासिज्म वह भी है जो हिटलर और मुसोलिनी ने किया, फासिज्म वह भी है जो आपातकाल में श्रीमती इंदिरा गांधी ने किया, फासिज्म का एक रुप वह भी है जो पीएम नरेन्द्र मोदी कर रहे हैं.

मोदी के फासिज्म की लाक्षणिक विशेषताएं भिन्न हैं. मोदीजी का फासिज्म विकास और गरीब के कंधों पर सवार है लेकिन इसके प्रशासन के संचालक कारपोरेट घराने हैं. इसकी धुरी है मीडिया प्रबंधन और राज्य के संसाधनों की खुली लूट. यह अपने विरोधी को राष्ट्रद्रोही, राष्ट्र विरोधी कह कहकर कलंकित करता है. इसके पास मीडिया और साइबर मीडिया की बेशुमार ताकत है. यह ऐसी सत्ता है जो किसी की आवाज नहीं सुनती बल्कि सच यह है यदि जीना चाहते हैं तो सिर्फ उसकी आवाज़ें सुनो.

मोदी के शासन में आने के बाद से अहर्निश मोदी की सुनो, मोदी के भक्तों की सुनो. दिलचस्प पहलू यह है कि इस समय मोदी और भक्तों के अलावा कोई नहीं बोल रहा. सब लोग इनकी ही सुन रहे हैं. जनता बोल नहीं रही वो सिर्फ सुन रही है और आज्ञा पालन कर रही है. हमारे जैसे लोग जो कुछ कह रहे हैं उसे न तो जनता सुन रही है और न सत्ता सुन रही है, सिर्फ हम ही अपनी आवाज सुन रहे हैं.

हम तो सहमत को सुना रहे हैं. अपने ही हाथ से अपनी पीठ ठोक रहे हैं. जब जनता न सुने, सरकार न सुने, संवादहीनता हो तो समझो फासिज्म के माहौल में जी रहे हैं. इस माहौल को पैदा करने के लिए प्रत्यक्षत: हक छीनने या संविधान को स्थगित करने या बर्बर हमले करने की जरूरत नहीं है.

भारतीय टीवी चैनलों का यह रोज़नामचा बन गया है कि हर रोज़ आरएसएस के थिंक टैंक संगठनों में काम करने वाले हिन्दुत्ववादी चिंतकों को बुलाकर समसामयिक विषयों पर उनकी राय सुनायी जा रही है. हमारी सिर्फ एक आपत्ति है कि आरएसएस अपने को सामाजिक संगठन होने का दावा करता है, फिर उसके विचारक समसामयिक राजनीतिक विषयों पर क्यों बोलते हैं ? यदि वे बोलना चाहते हैं तो संघ अपने को राजनीतिक संगठन घोषित करे. यह पाखंड बंद होना चाहिए.

दूसरी बात यह कि टीवी चैनलों को यह बताना चाहिए वे किस आधार पर संघ के प्रवक्ताओं को हर रोज़ बुलाते हैं ? क्या देश में वही एकमात्र संगठन है जिसके लोग बुलाए जाएं ? क्या देश में समाजविज्ञान, विज्ञान आदि के बुद्धिजीवियों का अभाव है ? संघ के प्रतिनिधियों को तरजीह देकर टीवी चैनल सुनियोजित ढंग से देश की जनता में घटिया विचारों का प्रचार -प्रसार करके हिन्दू साम्प्रदायिकता के प्रसार में सीधे भूमिका निभा रहे हैं.

दंगाईयों ने जिस तरह भारत की जनता पर विभिन्न बहानों के जरिए नियोजित हमले किए हैं, उसे देखते हुए भारत के लोगों को हर इलाके में शांतिसमूह बनाने चाहिए और ये ऐसे समूह हों जो शांति कायम करने के लिए हर इलाके में स्वतःस्फूर्त ढ़ंग से सक्रिय हों, हर इलाके में झगड़े की सूचना देने वाले नेटवर्क का निर्माण भी करना चाहिए.

आज के युग में राजनीतिक एक्शन, दंगे, धार्मिक कर्मकांड, मंदिर-मसजिद-गुरुद्वारे में पूजा अर्चना आदि कोई भी स्वतःस्फूर्त नहीं होते, इन सबके बीच एक नियोजन काम करता है. साम्प्रदायिक दंगे या समुदायों के झगड़े भी नियोजित हिंसकों के एक्शन का परिणाम है. मनुष्य स्वतःस्फूर्त हिंसक नहीं है बल्कि उलटे वह तो शांतिप्रिय है.

सत्तातंत्र में जितना सर्वसत्तावादी परिवर्तन या रुझान आएगा दंगे या हिंसाचार बढ़ेगा. यह हिंसाचार सत्ता का हो सकता है या हिंसक गिरोहों के द्वारा नियोजित भी हो सकता है. असल में हमने अभी तक हिंसकों को पहचानना और उनके खिलाफ एकजुट होना नहीं सीखा है. हम डरते हैं, बोलते नहीं हैं. पतंग उडाने पर दंगा, लाउडस्पीकर पर दंगा, मंदिर-मसजिद आने-जाने पर दंगा, चाय पीते हुए दंगा, रेस्टोरैंट का बिल जमा करने पर दंगा, इश्क करने पर दंगा, भजन करने पर दंगा, फेसबुक कमेंटस पर दंगा.

हमारे देश में कमाल का ‘दंगाई समूह’ पैदा हुआ है. यह समूह कहीं पर भी किसी मसले पर दंगे पर उतर आता है. हमेशा हर शहर में ‘दंगाई समूह’ चौकन्ने रहते है और खबर मिलते ही तुरंत एक्शन में आ जाते हैं. आप समझ ही नहीं सकते कि दंगाईयों के तेज एक्शन कैसे होते हैं ? आपको सबकुछ स्वतःस्फूर्त लगेगा लेकिन ऐसा नहीं है.

दंगाईयों की हर शहर में सक्रिय यूनिट है और इनको साफ आदेश है जहां पर भी आदेश मिले तुरंत पहुंचो और एक्शन करो. पहचानो दंगाईयों को इनकी जाति, दल, विचारधारा नहीं होती ये सिर्फ दंगाई हैं. वे स्वतःस्फूर्त एक्शन नहीं कर रहे, केन्द्रीय कमान के तहत एक्शन कर रहे हैं. वे तनखईया संगठित अपराधी गिरोह की तरह काम कर रहे हैं.

विभिन्न धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथों में बहुत-सी सुंदर और ज्ञानवर्द्धक बातें लिखी हैं, यहां तक कि हिन्दू धर्म के विभिन्न दार्शनिकों ने भी बहुत सुंदर ज्ञानचर्चा की है और यह ज्ञानचर्चा इंटरनेट पर मुफ्त में उपलब्ध है, इसका संघ के लोग फेसबुक पर प्रचार नहीं करते. वे पूरी शक्ति लगाकर हिन्दूधर्म ग्रंथों में जो कुछ लिखा है उसका विकृतिकरण करते हैं और उसके विपरीत आचरण करते हैं.

संघ परिवार का हिन्दूधर्म के नाम पर घृणा का प्रचार करने वाला फंडा फासिस्ट फंडा है. फेसबुक मित्रों की यह जिम्मेदारी है कि वे भारत की पुरानी और नई ज्ञानसंपदा, साहित्य और कला को संघ परिवार के हमलों से इंटरनेट पर बचाएं.

भारत की अविकसित मानसिकता का संघ परिवार अपने जहरीले और सामाजिक विभाजनकारी प्रचार के लिए इस्तेमाल करता रहा है. नई संचार तकनीक, कम्प्यूटर, इंटरनेट, सोशल साइटस आदि का भी संघ परिवार अपने अवैज्ञानिक, अप्रामाणिक और विषाक्त प्रचार के लिए दुरूपयोग कर रहा है.

फेसबुक पर संघ परिवार ने नियोजित ढ़ंग से विचारधारात्मक जहर फैलाना आरंभ कर दिया है. इस जहर के कुछ रूप हैं. मसलन, आप ज्योंही कोई धर्मनिरपेक्ष, बहुलतावादी, साम्प्रदायिक सदभाव वाला विचार रखेंगे ये लोग आएंगे और समूची शक्ति के साथ इस्लाम विरोध और मुस्लिमविरोधी घृणा का प्रचार करने लगते हैं. तथ्यहीन और भडकाऊ बातें लिखते हैं.

इनलोगों ने तमाम नेताओं के कैरीकेचर और चरित्रहनन वाले फोटो भी पेस्ट किए हैं. साम्यवाद विरोध और धर्मनिरपेक्ष विचारों का विरोध करना इनकी नियमित दिनचर्या है. इस तरह की चीजें भारत के राजनीतिक-सांस्कृतिक वातावरण में जहर घोल रही हैं.

फेसबुक को उदारमंच बनाने के लिए मित्रों को सचेत प्रयास करना होगा. फेसबुक पर उदार विचारों और परिवर्तनकामी विचारों का स्वागत है और जो लोग संकीर्णतावाद, फंडामेंटलिज्म (सभी रंगत का), आतंकवाद और सामाजिक घृणा फैलाने वाले विचारों को लिख रहे हैं, उन्हें ब्लॉक करें. हिन्दी में यह बीमारी नासूर की शक्ल अख्तियार करती जा रही है.

असल में दर्शन के बिना नजरिया नहीं बनता. जिनके पास दर्शन नहीं है या दार्शनिक विकार के शिकार हैं, वे आए दिन अर्थ का अनर्थ करते रहते हैं. ऐसे लोग दृष्टि बन्धन के शिकार हैं. सामाजिक बन्धनों की तरह दृष्टि बन्धन भी बहुत बड़ी समस्या है. समस्या है सामाजिक बन्धन और दृष्टि बन्धन से कैसे मुक्ति मिले. मार्क्सवाद इन दोनों से मुक्ति में मदद करता है, इसलिए बन्धन के पक्षधरों के आए दिन मार्क्सवाद और मार्क्सवादियों पर हमले होते रहते हैं.

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