रविश कुमार
हम बात नौकरी की भी करेंगे और नेता जी की भी करेंगे. थोड़ी नेताजी की थोड़ी नौकरी की. जब भी चुनाव आता है, और स्वास्थ्य से लेकर रोज़गार पर बात करने का अवसर मिलता है, नेता और मीडिया बहस की दिशा को इतिहास और धर्म की तरफ मोड़ देते हैं. किसी महापुरुष को याद करने के नाम पर खुद को महापुरुष साबित करने की होड़ शुरू हो जाती है. मूर्ति, स्मारक, पार्क इत्यादि के नाम रखने के बहाने याद किया जाने लगता है. ट्वीटर पर मीम और टीवी चैनलों पर डिबेट के ज़रिए इतिहास की पढ़ाई होने लगती है. जहां पढ़ाई होनी चाहिए वहां न तो शिक्षक हैं और न ही लाइब्रेरी में किताबें. वोट के लिए इतिहास चालू टॉपिक हो गया है. नेता पार्ट टाइम से अब फुल टाइम इतिहासकार हो गए हैं और इतिहास से एमए रिज़र्व बैंक के गर्वनर बन रहे हैं. ग़लत इतिहास को सही करने के नाम पर अपने मन के हिसाब से ग़लत किए जा रहे हैं. इतिहास को सही करने के नाम पर आपके साथ जो ग़लत हो रहा है उसे समझना आपके बस की बात नहीं है और समझाना हमारे बस की बात नहीं.
क्योंकि इतिहास में किसी की भूमिका को समझने के लिए कम से कम एक दो किताबें तो पढ़ेंगे ही. जैस नेताजी सुभाष चंद्र बोस को समझने के लिए 327 पन्नों की इस किताब को पढ़ना अनिवार्य है जिसे हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर सुगाता रॉय ने लिखी है. सुगाता राय नेताजी के भाई के वंशज हैं. इस परिवार की तीसरी पीढ़ी के हैं. इस किताब को लिखने के लिए उन्होंने 800 से अधिक किताबों, रिपोर्ट, पत्र संग्रहों वगैरह का अध्ययन किया है तब जाकर सुभाष चंद्र बोस को समझने लायक एक किताब तैयार हुई है. उसी तरह रुद्रांग्शु मुखर्जी ने जब नेहरू और बोस के समानांतर जीवन पर यह किताब लिखी तो उसके लिए सुगाता बोस की किताब सहित करीब 50 और किताबों और अप्रकाशित रिपोर्ट का अध्ययन किया है. हमने केवल दो किताबों का ज़िक्र किया जिसे लिखने के लिए कई सौ किताबों और रिपोर्ट का अध्ययन किया गया है. क्या आपको लगता है कि किसी न्यूज़ ऐंकर के पास इतना टाइम है कि वह नेताजी पर दो दिन में पढ़ ले और आप दर्शकों के सामने नेता जी को सही संदर्भ में पेश कर दे. कब तक आपको टीवी और नेता मिलकर बेवकूफ बनाते रहेंगे और कब तक आप इतिहास जानने के नाम पर टीवी पर होने वाले फटीचर किस्म के डिबेट को इतिहास की पढ़ाई समझते रहेंगे.
मूर्ति और स्मारक से बस इतना पता चलता है कि सरकार ने किसी खास दिन पर किसी को याद किया लेकिन क्या याद करने का यही एकमात्र तरीका बच गया है? कि सबसे पहले घोषित करो कि फलाने को भुला दिया गया है. फिर उन्हें याद करने लिए कहीं मूर्ति लगा दो या हॉल बना दो. इस होड़ में तमाम सरकारें जनता का सैकड़ों करोड़ रुपया फूंके जा रही हैं जिसका संबंध नायक को याद करने से ज्यादा खुद को बचाने से हो गया है. इस तरीके की खोज पहले राजनीतिक दल ने की और अब आम जनता भी अपने आप करने लगी है.
किसी की जयंती आती है सैकड़ों मीम बन जाते हैं. मीम इसलिए बनाए जाते हैं ताकि आप किसी को भी कुछ सेकेंड से ज्यादा याद न करें. मीम का मनोविज्ञान इस पर आधारित होता है कि मीम देखते ही महानायक को याद न करें बल्कि अगले को फारवर्ड करना है उसे ज़रूर याद करें. पूरी जयंती इसी में निकल जाती है. मीम को फारवर्ड करने में. रचनात्मक होने के नाम पर किसी को याद करने की रचनात्मकता ख़त्म की जा रही है. याद करना मतलब अपनी मेमरी को खाली कर दूसरे की मेमरी पर मीम का बोझ डाल देना. मीम ने उस अपराध बोध से मुक्ति दिला दी है कि अंबेडकर या भगत सिंह जैसे नायक को जानने के लिए हज़ार पन्ने की किताब नहीं पढ़ें. सोशल मीडिया, मीडिया, राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता सब मिलकर एक भूला हुआ समाज गढ़ रहे हैं जिसका एक नाम ज़ॉम्बी भी है. जयंती आते ही हर पक्ष की तरफ से मीम आने लगता है. सब उस मीम में अपने अपने नेताजी गढ़ने लगते हैं. कोई कार्टून बनाने लगता है कोई लतीफा बनाने लगता है. एक नायक से दूसरे नायक को छोटा किया जाने लगता है. इस पूरी प्रक्रिया में आप किसी नायक को याद करने के लिए नफरत करने लगते हैं. उनकी क्या सहमतियां थीं, क्या असहमतियां थीं, इस पर कोई गौर नहीं करता है, बल्कि छोटा बड़ा करने के नाम पर मीम का मैच शुरू हो जाता है. इस तरह से भूल जाया जाता है कि जयंती किस लिए मना रहे हैं. आप गौर करेंगे कि किसी की जयंती के वक्त मीम की बाढ़ आ जाती है. अगले दिन उस बाढ़ की जगह किसी और की जयंती पर मीम की बाढ़ आ जाती है. इस तरह से याद करने के नाम पर हम एक मिटाते हैं फिर दूसरे को मिटाते हैं. जयंती पर मीम भेजना और गुडमार्निंग मैसेज भेजना दोनों में कोई फर्क नहीं है. मीम ने इतना ज़रूर सुनिश्चित किया है कि मीम और मेमरी पर अध्ययन होना चाहिए कि इसने कैसे याद करने की परंपरा की बुनियाद को कमज़ोर किया है. स्मारकों और मूर्तियों के ज़रिए नायकों को याद करने की यह परंपरा राजनीतिक चाल में बदल गई है. जिसका मक़सद किसी को याद करना कम, उसके बहाने किसी की याद को धुंधला करना ज़्यादा हो गया है. राजनीति ने धर्म के अलावा इतिहास में अपना ठिकाना ढूंढ लिया है ताकि हंगामा मचता रहे. पिछले एक हफ्ते से आपको याद दिलाया गया कि नेताजी सुभाष चंद्र को भुला दिया गया है. जबकि आप जानते है कि स्कूलों में जब भी कोई कार्यक्रम होता है कोई न कोई बच्चा सुभाष चंद्र बोस की पोशाक पहन कर जाता है. नेताजी बन कर जाता है. फिर कौन भूल गया है नेता जी को. इसी दिल्ली में नेता जी के नाम पर कितना कुछ है.
– दिल्ली में ही नेताजी सुभाष यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्नॉलजी है
– दिल्ली में नेताजी के नाम पर नेताजी नगर है
– नेताजी सुभाष स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स है
– नेताजी सुभाष चंद्र बोस पार्क है
– पीतमपुरा के पास नेताजी के नाम पर मेट्रो स्टेशन है
– टीकरी गांव के पास आज़ाद हिन्द ग्राम मेट्रो स्टेशन है
– टीकरी गांव में आज़ाद हिन्द ग्राम बनाया गया है
नेताजी के नाम पर अपनी नौकरी बचा रहे नेताओं से कहिए कि वे नौकरी पर बात करें. स्कूल के दिनों में जब मास्टर जी क्लास से बाहर झांक रहे छात्र को पकड़ लेते थे तब वह हड़बड़ा कर बोलने लग जाता था कि फार्मूला सोच रहे थे, बाहर नहीं देख रहे थे. वही हाल इन नेताओं का हो गया है. नौकरी की बात आते ही हड़बड़ा कर इतिहास बड़बड़ाने लगते हैं कि हम तो इतिहासपुरुष को इतिहास में जगह दिलाने में बिजी हैं, नौकरी के बारे में आप रवीश कुमार से पूछ लीजिए. मूर्ति और स्मारक के ज़रिए याद करने की राजनीति आज की नहीं है लेकिन क्या यह कुछ ज़्यादा नहीं हो रहा है? कितने लोग मेडिकल और इंजीनियरिंग की जगह इतिहास चुनते हैं? इसलिए कि इतिहास से नौकरी नहीं मिलती है लेकिन नेता इतिहास क्यों चुन रहे हैं क्योंकि इसके नाम पर फालतू डिबेट से उनकी नौकरी बच रही है. कमाल है न. जो इतिहास नौकरी नहीं दे सकता है वही इतिहास नेताजी की नौकरी बचा रहा है. Do you get my point.
2015-16 का साल था. गोदी मीडिया के स्क्रीन पर इस तरह के टॉपिक वाले डिबेट रहस्य और रोमांच पैदा करने लगे थे. सदी का सबसे बड़ा राज़! Why was the truth buried? नेताजी की जासूसी कर रही थी कांग्रेस? क्या 1968 तक जीवित थे सुभाष चंद्र बोस? नेता जी की सौ सीक्रेट फ़ाइल दुनिया के सामने! बांग्ला किताब, रुद्राक्ष और सिगार का रहस्य, गुमनामी बाबा के बक्से का गुमनामी कनेक्शन, क्या इंदिरा गांधी ने नष्ट करवाईं फ़ाइलें? सीक्रेट फाइन नंबर एक में क्या था? चैनलों के स्क्रीन पर इस तरह की हेडलाइन लगाकर आपके भीतर जिज्ञासा पैदा की गई और भरमाया गया. 2016 में जब नेताजी की फाइल सार्वजनिक हुई तब यह बहस गायब हो गई. इस पूरी बहस से कांग्रेस और नेहरू को नेताजी का दुश्मन बताया गया जबकि INA का मुकदमा लड़ने के लिए नेहरू ने 25 साल बाद वकील का चोला पहना था. ये जानकारी भी हमें सुगाता बोस की किताब से मिली है. नेहरू और नेताजी के संबंधों में आदर को माइनस कर केवल असहमतियों को हवा दी गई ताकि नेहरू से नफरत करने वाली जनता को और खुराक दी जा सके.
जैसे ही किसी की जयंती आती है, अजीब किस्म की होड़ मच जाती है. सबसे पहले जिनकी जयंती आती है उन्हें भुला दिया गया घोषित किया जाता है. इस खेल का यह सबसे अहम पार्ट है. जब तक यह सिद्ध नहीं होगा कि उन्हें भुला दिया गया है तब तक उनके याद करने में महानता नज़र नहीं आती है. ऐसी होड़ मच जाती है कि विरोधी भी मूर्ति बनाने में लग जाते हैं.
दिसंबर 2019 में कोलकाता में निकाय चुनाव होने वाले थे, मूर्तियों और स्मारकों की होड़ में तृणमूल कांग्रेस भी उतर गई. उसके पार्षदों ने जहां देखी जगह वहां किसी न किसी की मूर्ति बना दी. पूर्वी कोलकाता के फूलबागान इलाके में महात्मा गांधी और नेताजी की 35 फुट ऊंची मूर्ति बना दी गई. उस दौरान कोलकाता भर में बंगाल के इतिहास से जुड़े तमाम नायकों की मूर्तियां लगाने की खबरें आई थीं और लगाई भी गईं थीं. रबिंद्र नाथ टगौर, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, चैतन्य प्रभु, ईश्वरचंद विद्यासागर, सिस्टर निवेदिता की मूर्तियां लगाई गईं. कोलकाता में नेताजी के नाम पर मेट्रो स्टेशन है, सड़क है, एयरपोर्ट है. सुभाष चंद्र बोस इंडोर स्टेडियम है. इसी तरह देश भर में कहीं स्टेडियम है कहीं मेडिकल कालेज है, तो कहीं सड़क का नाम रखा गया है. आपको यह भी देखना है कि किसे याद किया जा रहा है. आज़ादी के आंदोलन के समय की कांग्रेस असहमतियों का जमावड़ा थी. गांधी भी जिस कांग्रेस के सदस्य थे उस कांग्रेस से अहसमति रखते थे. असमहति रखना राष्ट्रीय राजनीति का अहम हिस्सा था लेकिन आज उसके आधार पर हर नेता को कुछ खास नेताओं के खिलाफ खड़ा जा रहा है जबकि वे सब एक ही सपने के सहयात्री थे. नेताजी ने 1940 के अपने एक लेख में हिन्दू महासभा और मुस्लिम लीग को सांप्रदायिक संगठन कहा था. क्या कोई है जो नेताजी की मूर्ति के नीचे हिन्दू महासभा और सांप्रदायिकता पर उनके विचार को लिख दे और प्रधानमंत्री मोदी उसका लोकार्पण कर दें? बिना विचारों के नेताजी या अपने विचारों के नेताजी सबको अच्छे लग रहे हैं.
आज़ादी की लड़ाई का इतिहास असहमतियों का भी इतिहास है. हर दो नेता एक दूसरे से अलग सोच रहा था. आपने कब सुना है कि प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह सार्वजनिक रूप से अपनी सहमतियां दर्ज कर रहे हों या उसे लेकर एक दूसरे को पत्र लिख रहे हों. नेहरू और पटेल की असहमतियां लिखित रूप में दर्ज हैं, क्या ये उस दौर की खूबसूरती नहीं थी. 8 अगस्त 1942 को जब भारत छोड़ो आंदोलन का प्रस्ताव पास हुआ था तब गांधी ने उन 13 लोगों का स्वागत दोस्त कहते हुए किया था जिन्होंने प्रस्ताव के खिलाफ वोट किया था. कहा था कि उन्हें शर्मिंदा होने की ज़रूरत नहीं है. आज ज़रा सी बात विरोध में कर दें तो UAPA लग जाता है और राजद्रोह का मुकदमा दायर हो जाता है. नेताजी को नेहरू और गांधी के विरोध में खड़ा कर उनकी असहमतियों को सीमित किया जा रहा है. उनका विरोध सांप्रदायिकता से भी था.
क्या प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री योगी अपने किसी भाषण में इसे पढ़ सकते हैं जो नेता जी ने 12 मई 1940 को बंगाल के झाड़ ग्राम में दिया था. जिसके बारे में बताया जाता है कि 14 मई के आनंद बाज़ार पत्रिका में छपा था. जिसका जिक्र ममता बनर्जी ने पिछले साल 23 जनवरी को किया था. यह हिस्सा हिन्दुस्तान टाइम्स में छपा है. ममता ने जो कोट किया है उसका हिन्दी अनुवाद इस तरह है. उन्होंने कहा- ‘हिंदू महासभा ने त्रिशूलधारी संन्यासी और संन्यासिनों को वोट मांगने के लिए जुटा दिया है. त्रिशूल और भगवा लबादा देखते ही हिंदू सम्मान में सिर झुका देते हैं. धर्म का फ़ायदा उठाकर इसे अपवित्र करते हुए हिंदू महासभा ने राजनीति में प्रवेश किया है. सभी हिंदुओं का कर्तव्य है कि इसकी निंदा करें. ऐसे गद्दारों को राष्ट्रीय जीवन से निकाल फेंकें. उनकी बातों पर कान न दें.’ क्या यह बात धर्म का इस्तमाल कर रही आज की राजनीति के लिए सही नहीं है?
आज वही हो रहा है धर्म का नाम लेकर राजनीति में असली मुद्दों से बचा जा रहा है. चुनाव में धर्म का नाम लेने वालों को नेताजी का यह विचार बताया जाना चाहिए.
अब आपको एक बेवसाइट पर ले जाता हूं. National Institute of Educational Planning and Administration भारत सरकार की इस वेबसाइट पर योजना आयोग के इतिहास से संबंधित एक डाक्यूमेंट मिला.
इसका शीर्षक है- सुभाष बोस- पायनियर ऑफ इंडिया प्लानिंग. इसकी भूमिका में मधु दंडवते ने लिखा है कि फरवरी 1938 में हरिपुरा के कांग्रेस अधिवेशन में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा था कि आज़ाद भारत की सरकार का पहला काम होगा राष्ट्रीय योजना आयोग बनाना. नेताजी ने 1938 में योजना आयोग को लेकर एक कमेटी भी बना दी और नेहरू को उसका पहला चेयरमैन बना दिया. वही संस्था आगे चल कर आज़ाद भारत में योजना आयोग का रूप लेती है जिसे मोदी सरकार ने भंग कर दिया. तब योजना आयोग को नेहरू से जोड़ कर बताया गया जबकि यह कल्पना सुभाष चंद्र बोस की थी. विरासत भी नेताजी की थी. हाल ही में प्रधानमंत्री ने एक ट्वीट में हरिपुरा को याद किया था और लिखा था कि हरिपुरा अपने आप में इतिहास समेटे हुए है. उसी हरिपुरा में योजना आयोग का इतिहास है. जाइये और पढ़िए.
कितने लोगों को नेहरू के खिलाफ खड़ा करेंगे? आप बोस बनाम गांधी भी नहीं कर सकते हैं. बोस ने यू हीं गांधी को राष्ट्रपिता नहीं कहा था. 23 जनवरी का दिन बड़ा है इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन आप 23 जनवरी के नाम पर 30 जनवरी से नहीं बच सकते हैं. दरअसल हत्या का आरोप इतना बड़ा है और ऐसे व्यक्ति की हत्या का है कि पहली जनवरी से ही 30 जनवरी आने लगती है. गांधी की हत्या एक व्यक्ति ने नहीं की थी, उस हत्या के लिए उस व्यक्ति को एक विचारधारा ने तैयार किया था. आप उसके बारे में जानते हैं. 30 जनवरी से भागने के लिए पूरी धरती को झूठ और मूर्तियों से भर देंगे तब भी 30 जनवरी का सच सामने आ जाएगा और पूछेगा कि गांधी को किसने मारा था, कौन लोग गांधी को मारने वालों के साथ खड़े रहते हैं. उनका इतिहास क्या है?
यूपी सरकार के दो पोस्टर हैं. एक में सरकार ने पांच साल के दौरान दो करोड़ रोज़गार देने का वादा किया है. एक दूसरे विज्ञापन में साढ़े चार लाख सरकारी नौकरियां देने का दावा किया गया है. सवाल उठ रहे हैं कि साढ़े चार लाख भर्तियों का विज्ञापन कहां निकला, किस विभाग में भर्ती हुई, इसका जवाब नहीं आ रहा है. दो करोड़ रोज़गार किसे मिला है इसका भी जवाब नहीं मिला है. 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 70 लाख रोज़गार देने का वादा किया था. इस वादे में साफ नहीं किया कि कितनी सरकारी नौकरियां होंगी, कितनी प्राइवेट. लेकिन संख्या 70 लाख बताई थी. 23 जुलाई 2018 को योगी आदित्यनाथ ने ट्वीट किया था कि अगले तीन साल में दो करोड़ नौकरियां दी जाएंगी.
अब यूपी सरकार के उद्योग मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह कह रहे हैं कि यूपी सरकार ने दो करोड़ लोगों को रोज़गार दिया है. लघु एवं मझोले उद्योग के मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने अपने ट्विट में लिखा है कि योगी सरकार में बिजली भी है और नौकरी भी. इसके लिए इन्वेस्टमेंट जरूरी होता है. केवल नोएडा में ही 17927 हजार करोड़ का निवेश हुआ. अकेले उद्योग से ही 2 करोड़ से ज़्यादा नौकरियां दिलायी हैं और बबुआ तुम शेखचिल्ली की तरह युवाओं को 22 लाख दिलाने का झांसा दे रहे हो.
सिद्धार्थ नाथ सिंह ने कह रहे हैं कि पांच साल में दो करोड़ रोज़गार दिए गए हैं. उन्हीं की पार्टी के सांसद वरुण गांधी ने हिन्दी अंग्रेज़ी के अखबारों में लेख लिखा कि यूपी और देश भर में बेरोज़गारी विस्फोटक हो चुकी है. पांच दिन पहले छपे वरुण गांधी के लेख का पहला पैराग्राफ इस तरह से शुरू होता है, “देश में दिसंबर में बेरोजगारी दर चार महीने के उच्च स्तर 7.9 फीसदी पर पहुंच गई, जिसमें शहरी बेरोजगारी बढ़कर 9.3 फीसदी हो गई है. यह दिखाता है कि कैसे निराशाजनक अर्थव्यवस्था और महामारी ने भारतीयों को बुरी तरह प्रभावित किया है. चुनावी राज्य उत्तर प्रदेश में बीते पांच वर्षों में स्थिति सबसे बदतर हुई है. वहां दिसंबर 2016 से दिसंबर 2021 के बीच कार्यरत लोगों की संख्या 38.5 फीसदी से घटकर 32.8 फीसदी रह गई. जाहिर है, बेरोजगारी दर पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बढ़ी है. लगता है कि हम अपने देश की जनसांख्यिकीय क्षमता को बर्बाद कर रहे हैं.”
बीजेपी के सांसद ही लिख रहे हैं कि यूपी में नौकरियां नहीं हैं. यूपी ही नहीं देश भर के स्तर पर यह बात कह रहे हैं कि बेरोज़गारी भयंकर हो चुकी है. CMIE के आंकड़े बता रहे हैं कि यूपी में काम मांगने वालों और काम करने वालों की संख्या घटी है. यह बीजेपी के सांसद ने अपने लेख में लिखा है. हमने 5 जनवरी के प्राइम टाइम के एपिसोड में यूपी सरकार की एक वेबसाइट के बारे में बताया था. यूपी सरकार ने रोज़गार संगम नाम की एक वेबसाइट बनाई है जहां नौकरियां देने वाली कंपनी और नौकरी मांगने वाले नौजवान एक प्लेटफार्म पर आ सकें. आज यानी 24 जनवरी का डेटा बता रहा है कि 41 लाख लोग नौकरी मांग रहे हैं लेकिन यहां पर जो वैकेंसी है उसकी संख्या मात्र 1256 है. कितनी कम नौकरी है और कितने लोग काम मांग रहे हैं. लेकिन यूपी सरकार ने इस तरह की होर्डिंग लगा दी कि स्थानीय उद्योग एवं कला के प्रोत्साहन से 2 करोड़ से अधिक लोगों को रोज़गार दिया. कोई डिटेल नहीं है कि उद्योग और कला के प्रोत्साहन से 2 करोड़ लोगों को कहां रोज़गार मिला है. किस सेक्टर में कहां मिला है, कैसा काम मिला है, कुछ पता नहीं है.
चुनाव आयोग जब 70-80 करोड़ नागरिकों का मतदान पत्र बना सकता है तो सरकार उन युवाओं का रोज़गार पत्र क्यों नहीं बना सकती जिन्हें रोज़गार मिला है? हम चुनाव आयोग की साइट से पहचान पत्रों की पुष्टि कर सकते हैं तो फिर रोज़गार के आंकड़ों के लिए ऐसी सुविधा क्यों नहीं हो सकती? नेशनल रजिस्टर बनाने के नाम पर 1600 करोड़ फूंक दिए गए गए और आज उसका अता पता नहीं लेकिन बेरोज़गारों का रिजस्टर आज तक नहीं बन पाया. आचार संहिता लागू होने से पहले प्रधानमंत्री ने यूपी में कई सरकारी कार्यक्रम किए. इन कार्यक्रमों में लोगों को बुलाने के लिए सरकारी बसों का इस्तमाल किया गया.
आम जनता के रूट से बसों को उठा कर उस रूट पर लगाया गया जहां प्रधानमंत्री की सभा होने वाली थी. इन बसों में उन लोगों को बिठा कर लाया गया जिन्हें किसी न किसी सरकारी योजना का लाभ मिला है. इनका एक नया नाम दिया गया लाभार्थी. कहीं सुनने को भी नहीं मिला कि लाभार्थी में वे भी हैं जिन्हें दो करोड़ रोज़गार मिला है या 4.5 लाख सरकारी नौकरी मिली है. जिस किसी को एक किलो नून एक किलो तेल और एक किलो दाल फ्री का मिला है उसे लाभार्थी बनाकर प्रधानमंत्री की सभा में खाली कुर्सियों को भरा जा सकता था तो फिर दो करोड़ रोज़गार पाने वालों को भी बुलाया जा सकता था. अगर दो करोड़ लोगों को रोज़गार मिला है तब भी यूपी सरकार अपने विज्ञापन में 15 करोड़ ग़रीब क्यों बताती है? 24 करोड़ की आबादी में 15 करोड़ गरीब हैं जिन्हें महीने में दो बार फ्री का राशन दिया जा रहा है. क्या दो करोड़ रोज़गार पाने वाले इस 15 करोड़ में ही हैं या वे 15 करोड़ से बाहर आ चुके हैं?
एक परिवार में पांच सदस्य माने जाते हैं. अगर यूपी में 2 करोड़ लोगों को रोज़गार मिला है तो इस हिसाब से 10 करोड़ लोग रोज़गार वाले परिवार के दायरे में आ जाते हैं. इसके बाद भी यूपी में 15 करोड़ लोग मुफ्त अनाज, मुफ्त दाल, मुफ्त तेल, मुफ्त नमक पर निर्भर हैं? अगर उद्योग मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह कह रहे हैं कि दो करोड़ रोज़गार दिया तो कुछ तो और हिसाब देना चाहिए. अगर इसका हिसाब नहीं दे सकते हैं तो इसी का दे दें कि पहले के बयान में उन्होंने कहा था कि केवल लघु मध्यम सेक्टर में 2 करोड़ 64 लाख को रोज़गार दिया है. 64 लाख कहां माइनस हो गए?
16 जुलाई 2021 में हिन्दू बिज़नेस लाइन की इस खबर को देखिए. ऐसी ही खबर को 17 जुलाई 2021 को खुद सिद्धार्थ नाथ सिंह ने ट्वीट भी किया है. इसकी हेडलाइन है कि MSME सेक्टर में 2 करोड़ 60 लाख रोज़गार दिया है. मंत्री जी कह रहे हैं कि साढ़े चार साल में 2 करोड़ 60 रोज़गार दिया है. जुलाई 2021 से जनवरी 2022 के ट्विट में 60 लाख से अधिक की संख्या कम हो गई. मंत्री जी एक बार फाइनल बता दें कि अंतिम आंकड़ा क्या है, दो करोड़ का है या 2 करोड़ साठ लाख का है? Do you get my point.
वाई एस आर पार्टी के सांसद बालाशोवरी वल्लभसोनी के सवाल के जवाब में वित्त राज्य मंत्री 20 दिसंबर 2021 को लोकसभा में एक जानकारी देते हैं. इसके अनुसार मुद्रा योजना के तहत छह साल में 32 करोड़ 11 लाख लोन दिए गए हैं. मतलब 32 करोड़ 11 लाख खातों में लोन का पैसा दिया गया. कितना पैसा दिया गया तो इसके जवाब में मंत्री बताते हैं कि 17 लाख करोड़ रुपया दिया गया. 32 करोड़ 11 लाख लोन खातों में 85 फीसदी शिशु लोन वाले खाते थे. जिसके तहत 50,000 रुपये से कम का लोन दिया जाता है. यानी ज्यादा से ज्यादा लोगों ने 50,000 से कम के लोन लिए हैं. आप समझ सकते हैं कि 50,000 रुपया लोन लेने वाला खाएगा क्या, कमाएगा क्या और दूसरों को रोज़गार क्या देगा.
इन डेटा में भी बहुत कुछ साफ नहीं है, जैसे जिनका लोन चल रहा था उन्होंने दोबारा लोन लिया या कितने लोगों ने मुद्रा के तहत पहली बार लोन लिया. इस सवाल को यहां रहने देते हैं. अप्रैल 2015 में यह योजना शुरू हुई थी. मुद्रा योजना के लांच होने के तीसरे साल में ही अमित शाह ने दावा कर दिया कि इसके तहत बंटे लोन से 7 करोड़ 28 लाख स्वरोज़गार मिला है. जब यह आंकड़ा आया था तब काफी हंगामा मचा था कि इतने लोगों को स्व रोज़गार कब और कैसे मिल गया?
क्या वाकई उस वक्त तीन साल में मुद्रा योजना लोन से 7 करोड़ 28 लाख रोज़गार मिला था? उस वक्त सरकार के इस दावे को कई लोगों ने ठोस तर्कों के सहारे चुनौती दी थी. लेकिन पिछले साल PIB ने अपनी रिलीज के ज़रिए साबित कर दिया कि अमित शाह का आंकड़ा गलत था. 7 अप्रैल 2021 को PIB की प्रेस रिलीज आती है. PIB सूचना व प्रसारण मंत्रालय के तहत काम करने वाली एक एजेंसी है. तो इसकी जानकारी आधिकारिक मानी जाती है.
PIB की रिलीज में बताया जाता है कि 2015 से मार्च 2021 तक 28.68 करोड़ लोन खातों को लोन की मंज़ूरी दी गई. मतलब इतने लोगों को लोन दिए गए. इन लोगों को कुल कितने पैसे लोन दिए गए तो सरकार ने बताया कि करीब 15 लाख करोड़ रुपये लोन दिए गए. इसकी वजह से 2015-2018 के बीच 1 करोड़ 12 लाख अतिरिक्त रोज़गार पैदा हुआ. जबकि 2017 में अमित शाह ने कहा था कि 7 करोड़ 28 लाख रोज़गार पैदा हुआ था. PIB ने अपनी रिलीज में लिखा है कि मुद्रा योजना के तहत सबको औसतन 52,000 रुपए लोन दिए गए. 88 प्रतिशत से अधिक लोन शिशु कैटगरी का है यानी 50000 से कम का. यही बात सरकार के दावे पर सवाल उठाने वाले कई साल से कह रहे हैं कि औसतन 50,000 के लोन से खास रोज़गार पैदा नहीं हो सकता. वित्त मंत्रालय ही बता रहा है कि तीन साल में सवा करोड़ से कम रोज़गार पैदा हुआ है.
PIB की इस रिलीज में बताया गया है कि जिन लोगों ने लोन लिए हैं उनमें से 24 प्रतिशत नए उद्यमी हैं. मतलब ज्यादातर उन लोगों ने लोन लिया जो पहले से कुछ कर रहे थे और 50000 से कम का लोन लिया. कब और कहां से कौन सी खबर चल कर आती है जब आप यह पता करेंगे तो पता चलेगा कि आप पता ही करते रह गए और पता ही नहीं चला. अमित शाह को बताना चाहिए कि उनके दावों का क्या हुआ कि मुद्रा लोन से 7 करोड़ से अधिक का रोज़गार मिला?
2015-18 के बीच मुद्रा योजना से मात्र 1 करोड़ 12 लाख रोज़गार पैदा होते हैं और यूपी के मंत्री जी कहते हैं कि उनके राज्य में दो करोड़ से अधिक लोगों को रोज़गार दिया गया है. आपने गौर किया होगा कि इतनी सी जानकारी के लिए कितनी छानबीन करनी पड़ी. जबकि बहुत बुनियादी पड़ताल की है हमने. ऐसी जानकारी को रखते समय आपको इस शो से वीडियो वायरल कराने का हिस्सा नहीं मिलेगा. सबको वायरल वीडियो चाहिए. बोलने वाला चमक कर कुछ ऐसा अनाप शनाप बोल दे जिससे ट्विटर से लेकर टीवी तक में बहस छिड़ जाए. यह एक ऐसा रोग है जिसने सभी पक्षों के लोगों को अपनी चपेट में ले लिया है.
फ्लैशबेक में इन हेडलाइन को देखिए. मुद्रा योजना से कितनी नौकरियां मिली हैं इसे लेकर समय समय पर अलग अलग हेडलाइन में अलग अलग नंबर है. कहीं 7.28 करोड़ है, कहीं 5.5 करोड़ है, कहीं 6.8 करोड़ है तो कहीं 13 करोड़ रोज़गार देने का दावा किया गया है. अलग अलग समय में आपको हसीं सपने दिखाने वाली ये हेडलाइन बेवफा निकल चुकी हैं. असली आंकड़ा 1 करोड़ 12 लाख का ही है.
क्या उसी तरह से दावा किया गया है कि दो करोड़ लोगों को रोज़गार दिया गया है? नौकरी पर नेताजी कब बात करेंगे या नेताजी नौकरी पर भी इतिहास की तरह बात करेंगे. एक को नियुक्ति पत्र देकर कहेंगे सबको नौकरी दे दी जैसे एक मूर्ति लगाकर बताते हैं कि इतिहास के नायक को इतिहास में जगह दिला दी? इतिहास के नाम पर वर्तमान को इतिहास के गर्त में धकेला जा रहा है.
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