अपनी आत्मकथा में नेहरु ने लिखा था ‘भगतसिंह अपने आंतकवादी कार्य के लिए लोकप्रिय नहीं हुआ बल्कि इसलिए हुआ कि वह उस वक्त, लाला लाजपतराय के सम्मान और उनके माध्यम से राष्ट्र के सम्मान का रक्षक प्रतीत हुआ. वह एक प्रतीक बन गया, आतंकवादी कर्म भुला दिया गया परन्तु उसका प्रतीकात्मक महत्व शेष रह गया, और कुछ ही महीनों के अंदर, पंजाब का हर क़स्बा और गांव और कुछ हद तक उत्तरी भारत के शेष हिस्से में उसका नाम गूंज उठा. उस पर अनगिनत गाने गाये गए और जो लोकप्रियता उसने पाई, वह चकित करने वाली थी.’
नेहरु ने क्रांतिकारियों की गांधी द्वारा की गई भर्त्सना को ठीक नहीं माना और कहा कि इन लोगों या उनके कामों की भर्त्सना करना न्यायोचित नहीं है, बिना उन कारणों को जाने जो इसके पीछे हैं. लाहौर में दिसम्बर, 1928 में सांडर्स की हत्या के तुरन्त बाद नेहरु ने नौजवान भारत सभा को आश्वासन दिया ‘भारत में अनेक लोग आपके लिए हमदर्दी रखते हैं और हर सम्भव सहायता देने के लिए तैयार हैं. मुझे उम्मीद है कि सभा संगठन के रूप में और मजबूत होगी और भारत के एक राष्ट्र के रूप में निर्माण में अग्रणी भूमिका निभाएगी.’ (‘सर्चलाइट’ 11 जनवरी, 1929).
नेहरु और सुभाष बोस के अलावा कई और प्रमुख कांग्रेसी थे जो क्रांतिकारियों के साथ हमदर्दी रखते हुए उन्हें आर्थिक सहायता भी दिया करते थे. भगतसिंह और साथियों की गिरफ़्तारी के बाद नेहरु भूख हड़ताल पर बैठे क़ैदियों से मिलने गये और जेल में उनकी तकलीफ़ों को देखा. वे व्यक्तिगत तौर पर सभी से मिले और उनके बुरे हालात पर बहुत संजीदा होकर बोले ‘मुझे इनसे पता चला है कि वे अपने इरादे पर क़ायम रहेंगे, चाहे उन पर कुछ भी गुज़र जाए. यह सच है कि उन्हें अपनी कोई परवाह नहीं थी.’ नेहरु ने पदलोलुप कांग्रेसियों को नहीं बख़्शा जो क्रान्तिकारियों की आलोचना उनके बलिदान की भावना को समझे बिना करने लगते थे.
ट्रिब्यून की 11 अगस्त, 1929 की एक रिपोर्ट के अनुसार नेहरु ने कहा था ‘हमें इस संघर्ष के महान महत्व को समझना चाहिये जो ये बहादुर नौजवान जेल के अन्दर चला रहे हैं. वे इसलिए संघर्ष में नहीं हैं कि उन्हें अपने बलिदान के बदले लोगों से कोई पुरस्कार लेना है या भीड़ से वाहवाही लूटनी है. इसके विपरीत आप संगठन में और स्वागत-समिति में पद के लिए कांग्रेस में दुर्भाग्यपूर्ण खींचातानी को देखें. मुझे कांग्रेसियों के बीच आंतरिक मतभेदों के बारे में सुनकर शर्म आती है। परन्तु मेरा दिल उतना ही खुश भी होता है जब मैं इन नौजवानों के बलिदानों को देखता हूं, जो देश की ख़ातिर मर-मिटने के लिए दृढ़ संकल्प हैं.’
असेम्बली बम कांड में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के बयान को नेहरु ने कांग्रेस बुलेटिन में प्रकाशित कर दिया. महात्मा गांधी ने उन्हें फटकार लगायी. नेहरु ने संकोच के साथ गांधी को लिखा ‘मुझे ख़ेद है कि आपको मेरा भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के बयान को कांग्रेस बुलेटिन में देना सही नहीं लगा. यह बयान इसलिए छापना पड़ा क्योंकि कांग्रेसी हलक़ों में प्रायः इस कार्यवाही की सराहना हुई.’
कांग्रेस के अध्यक्ष चुने जाने पर नेहरु की सदारत में 26 जनवरी, 1930 को स्वतंत्रता दिवस बड़ी धूमधाम से मनाया गया. प्रदर्शनकारियों ने तिरंगे के साथ-साथ लाल झंडे को फहराने का प्रयास किया. कई कांग्रेसियों के विरोध के बावज़ूद नेहरू ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा ‘हमारे राष्ट्रीय तिरंगे झंडे और मज़दूरों के लाल झंडे के बीच न कोई दुश्मनी है और न होनी चाहिए. मैं लाल झंडे का सम्मान करता हूं और उसे इज्ज़त बख़्शता हूं क्योंकि यह मज़दूरों के ख़ून और दुःखों का प्रतीक है.’
भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु की फांंसी के बाद नेहरु ने कहा, ‘मैं ख़ामोश रहा हालांकि मैं फटने की कगार पर था, और अब, सब-कुछ ख़त्म हो गया.’ (‘द बाॅम्बे क्रानिकल’, 25 मार्च, 1931)
एक अन्य संदर्भ में उन्होंंने माना ‘मुझे हालात के मद्देनज़र ऐसे काम करने पड़े जिनके साथ मैं सहमत नहीं था.’
उन्होंने आगे कहा, ‘हम सब मिलकर भी उसे नहीं बचा सके जो हमें इतना प्यारा था और जिसका ज्वलन्त उत्साह और बलिदान देश के नौजवानों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत थे. आज भारत अपने प्यारे सपूतों को फांसी से नहीं बचा सका.’ (‘द बांबे क्राॅनिकल’, 25 मार्च, 1931)
भगतसिंह ने अपने एक महत्वपूर्ण लेख में जुलाई, 1928 के ‘किरती’ में नेहरु को लेकर अपने तार्किक विचार रखे हैं. उन्हें नेहरु का यह तर्क बेहद पसन्द आया जिसमें उन्होंने कहा था, ‘प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए. राजनैतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी. मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं जो आकर कहे कि फलां बात कुरान में लिखी हुई है. कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो, उसे चाहे वेद और कुरान में कितना ही अच्छा क्यों न कहा गया हो, नहीं माननी चाहिए.’
भगतसिंह के अनुसार यह एक युगान्तरकारी विचार है. धार्मिकता के लबादे में लिपटे हुए विचारों की सान पर चलकर क्रांति नहीं हो सकती – ऐसा नेहरू का तर्क रहा है. इसलिए भगतसिंह ने नेहरु के इस कथन का दुबारा उद्धरण दिया. ‘वे कहते हैं कि जो अब भी क़ुरान के ज़माने के, अर्थात् 1300 बरस पीछे के अरब की स्थितियांं पैदा करना चाहते हैं या जो पीछे वेदों के ज़माने की ओर देख रहे हैं, उनसे मेरा यही कहना है कि यह तो सोचा भी नहीं जा सकता कि वह युग वापस लौट आयेगा. वास्तविक दुनिया पीछे नहीं लौट सकती, काल्पनिक दुनिया को चाहे कुछ दिन यहीं स्थिर रखो और इसीलिए वे विद्रोह की आवश्यकता महसूस करते हैं.’
नेहरु आदर्श समाजवादी सिद्धांतों के अनुसार ही पूर्ण स्वराज्य पाने की परिकल्पना करते थे. उनके लिए केवल सुधार और तत्कालीन सरकारी मशीनरी की ढीली-ढाली मरम्मत के ज़रिए वास्तविक स्वराज्य को पाना संभव नहीं था.
भगतसिंह ने कहा था कि ‘नेहरु अकेले नेता हैं जो राष्ट्रीयता के संकीर्ण दायरों से निकलकर खुले मैदान में आ गए हैं.’ पंजाब के नौजवानों का आह्वान करते हुए भगतसिंह ने लिखा था, ‘इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख़्त ज़रूरत है और यह पण्डित जवाहरलाल नेहरु से ही मिल सकता है. इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अन्धे पैरोकार बन जाना चाहिए. लेकिन जहांं तक विचारों का सम्बन्ध है, वहांं तक इस समय पंजाबी नौजवानों को उनके साथ लगना चाहिए, ताकि वे इन्क़लाब के वास्तविक अर्थ, हिन्दुस्तान में इन्क़लाब की आवश्यकता, दुनिया में इन्क़लाब का स्थान क्या है, आदि के बारे में जान सकें.’
अपने महत्वपूर्ण दस्तावेज ‘क्रान्तिकारी कार्यक्रम का मसौदा’ (जो उनकी मृत्यु के बाद ही प्रकाश में आया) में भगतसिंह ने यह एक तरह का प्रमाणपत्र दिया था, ‘हमारे नेता किसानों के आगे झुकने की जगह अंगरेज़ों के आगे घुटने टेकना पसन्द करते हैं. पंडित जवाहरलाल को छोड़ दें तो क्या आप किसी भी नेता का नाम ले सकते हैं, जिसने मज़दूरों या किसानों को संगठित करने की कोशिश की हो. नहीं, वे ख़तरा मोल नहीं लेंगे. यही तो उनमें कमी हैै. इसीलिए मैं कहता हूंं वे सम्पूर्ण आज़ादी नहीं चाहते.’
‘किरती’ में ही अगस्त, 1928 में प्रकाशित ‘लाला लाजपतराय और नौजवान’ शीर्षक के अपने लेख में भगतसिंह ने लाजपतराय की कड़ी आलोचना की जो उग्र विचारोंवाले नौजवानों के भाषणों से जनता को बचाने की पैरवी कर रहे थे. लाजपतराय ने अपवाद के स्वरूप यही कहा था कि यदि जवाहरलाल नेहरु ऐसा कह रहे हैं, तो उसमें नेकनीयती और समझ-बूझ होगी. झल्लाकर भगतसिंह ने लिखा, ‘बहुत ख़ूब ! असल बात यह है कि जवाहरलाल नेहरु की हैसियत बहुत बड़ी हो गयी है. उनका नाम कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए पेश हो रहा है, तो उम्मीद भी है कि वे जल्द ही अध्यक्ष बन भी जायेंगे. उनके विरुद्ध लिखने पर ईंट का जवाब पत्थर से मिलने का भय होता है, लेकिन ग़ुमनाम नौजवानों के लिए जो मन में आये, कौन पूछता है.’
– कनक तिवारी
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