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नेहरु के बनाये कश्मीर को भाजपा ने आग के हवाले कर दिया

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नेहरु के बनाये कश्मीर को भाजपा ने आग के हवाले कर दिया

पं. किशन गोलछा जैन, ज्योतिष, वास्तु और तंत्र-मंत्र-यन्त्र विशेषज्ञ

कश्मीर समस्या का ठीकरा नेहरू पर फोड़ने वाले मुर्ख भाजपाई जान ले कि अगर नेहरू नहीं होते तो आज कश्मीर भारत का होता ही नहीं. हरिसिंह राजा का झुकाव तो पाकिस्तान की तरफ था लेकिन शेख अब्दुल्ला का नेहरू के प्रति झुकाव ही कश्मीर को भारत में जोड़ पाया. नेहरू नहीं होते तो आज कश्मीर पाकिस्तान में होता और यह बात मैं नहीं बल्कि सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री कमल जी मोरारका कह रहे हैं. इस बाबत उनका एक कॉलम भी छपा हुआ है, जिसके कुछ अंश यहांं बता रहा हूंं, यथा-

कश्मीर का इतिहास और कश्मीरी मुद्दे का सच
कश्मीर का प्राचीन इतिहास राज तरंगिणी नाम की पुस्तक में लिखा है, जिससे साफ पता चलता है कि कश्मीर का प्राचीन नाम काश्यपमेरु था, जो बाद में कश्मीर हुआ और इस काश्यपमेरु पर जैन राजाओं का ही राज था. बाद में जैन राजाओं के वंश में सम्राट अशोक ने बौद्ध दर्शन को अंगीकार किया, तब भी कश्मीर सम्राट अशोक के राज्याधीन ही था. बाद में सम्राट अशोक के प्रपौत्र महाराज सम्प्रति ने पुनः जैन दर्शन स्वीकार कर लिया, जो मगध साम्राज्य तक चलता रहा.

बाद में मुहम्मद के समय, मुहम्मद द्वारा वहांं पर इस्लाम की स्थापना के बाद जब इन कथित वैदिकों को (जो उस समय बदो समुदाय कहलाता था और हिंदुकुश की पहाड़ियों के आसपास फैला था, बाद यही बदो समुदाय कश्मीरी पंडित कहलाने लगे) मारा जाने लगा तो ये कश्मीर में आकर बसे. यह समय लगभग 6ठीं सदी का अंत था और उस समय से लेकर कोट रानी तक जैनों और वैदिकों में लड़ाई होती रही, जिस कारण कभी जैन तो कभी वैदिक राजाओं का राज चलता रहा (इसी दरम्यान जैनों के चक्रेश्वरी देवी अधिष्ठित तीर्थ आदिनाथ पर कब्ज़ा कर उसे वैष्णोदेवी बना दिया गया). कोट रानी अपने पति की मृत्यु के बाद रानी बनी थी,ऐ जिसे सेनापति ने राजनितिक समीकरणों से तालमेल बिठाकर विवाह कर लिया और राजगद्दी पर काबिज़ हो गया. यह समय 13वीं सदी और 14वीं सदी के मध्य का था. बाद में वहां सूफी राज स्थापित हुआ, जो 16वीं सदी तक चला (आज भी सूफी राज के गवाह सोने और चांदी के सिक्के लोगों के पास सुरक्षित है).

बाद में अकबर के समय वहां पर मुग़ल शाशन स्थापित हुआ. मुग़ल साम्राज्य के विखंडन के बाद पठानों ने कश्मीर पर कब्ज़ा किया, जिसे कश्मीर का काला काल कहा जाता है. बाद में 18वीं सदी के शुरू में महाराजा रणजीत सिंह ने पठानों को युद्ध कर हराया और कश्मीर में सिख साम्राज्य की स्थापना की, जो अंग्रेजों से पराजय तक चलता रहा. 1846 की लाहोर संधि इसका सबूत है (हालांंकि तब भी गिलगित क्षेत्र कश्मीर के अधीन नहीं था). अंग्रेजों के अधीन महाराजा कश्मीर पर राज करते रहे. इसी कड़ी में महाराज हरिसिंह को 1925 में गद्दी पर बिठाया गया, जो अंग्रेजों की नुमाइंदगी के तौर पर राजा बने, जो कश्मीर के भारतीय गणराज्य में शामिल होने तक गद्दी पर आसीन रहे.

भारत के गणराज्य बनने पर भी कश्मीर रियासत को पटेल ने भारत में नहीं मिलाया क्योंकि कश्मीर की भारत और पाकिस्तान दोनों बने देशों के साथ संधि थी (पहले पाकिस्तान से संधि हुई, बाद में भारत से), जिसमें दोनों ने कश्मीर रियासत को तटस्थ रियासत माना था. लेकिन बाद में पाकिस्तान ने कश्मीर के पाकिस्तान में विलय के लिये दबाव बनाने खातिर कश्मीर से आवश्यक आपूर्तियों को काट दिया तथा पठानों को शह देकर उत्पात करवाना चालू किया. ये देश के गणराज्य बनने के लगभग तीन महीने बाद की बात है. ये स्थिति न भारत को मंजूर थी और न ही कश्मीर को. उस समय ‘नेशनल कांफ्रेंस’, जो कश्मीर का सबसे बड़ा लोकप्रिय संगठन था और उसके अध्यक्ष शेख अब्दुल्ला थे, अतः शेख अब्दुल्ला ने भारत से रक्षा की अपील की.

बाद में हरि सिंह ने भी गवर्नर जनरल लार्ड माउंटबेटन को कश्मीर में संकट के बारे में लिखा. जब लार्ड ने नेहरू जी से बात की, तो नेहरू ने पटेल की इच्छा के विरुद्ध कश्मीर के भारत विलय की शर्त पर कश्मीर में सेना भेजना स्वीकार किया, जिसे अनिच्छा से हरिसिंह ने स्वीकार किया. तब लार्ड माउंटबेटन द्वारा भी इसे 27 अक्टूबर, 1947 को स्वीकार कर लिया गया क्योंकि भारत सरकार (अंग्रेज) अधिनियम 1935 और भारत स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के तहत यदि एक रियासत भारतीय राज्य बनकर भारत का प्रभुत्व स्वींकारने के लिये तैयार है एवं यदि भारत का गर्वनर जनरल इसके शासक द्वारा विलयन के कार्य के निष्पादन की सार्थकता को स्वीकार करता है तो उसका भारतीय संघ में अधिमिलन संभव था.

पाकिस्तान द्वारा हरि सिंह के विलय समझौते में प्रवेश की अधिकारिता पर कोई प्रश्न नहीं किया गया. अतः कश्मीर का भारत में विलय विधिसम्मत माना गया और इसके बाद पठान हमलावरों को खदेड़ने के लिये 27 अक्टूबर, 1947 को भारत ने सेना भेजी तथा कश्मीर को भारत में अधिमिलन कर लिया गया (पटेल तब भी कश्मीर विलय के पक्ष में नहीं थे, मगर जब नेहरू ने पटेल के साथ वार्ता की तो पटेल मान गये और उसके बाद 370 के प्रारूप को भी पटेल ने ही कश्मीर के लिये तैयार किया था).

पाकिस्तान द्वारा होते लगातार उपद्रवों के कारण कश्मीर मुद्दे को 1 जनवरी, 1948 को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में ले गया. परिषद ने भारत और पाकिस्तान को बुलाया एवं स्थिति में सुधार के लिये उपाय खॊजने की सलाह दी. तब तक किसी भी वस्तु परिवर्तन के बारे में सूचित करने को कहा (यह 17 जनवरी 1948 की बात है).

भारत और पाकिस्तान के लिये एक तीन सदस्ययी संयुक्त राष्ट्र आयोग (यूएनसीआईपी) 20 जनवरी, 1948 को गठित किया गया. तब तक कश्मीर में आपातकालीन प्रशासन बैठाया गया था, जिसमें 5 मार्च, 1948 को शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में अंतरिम सरकार द्वारा स्थान लिया गया. 13 अगस्त, 1948 को यूएनसीआईपी ने संकल्प पारित किया, जिसमें युद्ध विराम घोषित हुआ और पाकिस्तानी सेना के साथ-साथ सभी बाहरी लोगों की वापसी के अनुसरण में भारतीय बलों की कमी करने को कहा गया. इसके बाद जम्मू और कश्मीर की भावी स्थिति का फैसला ‘लोगों की इच्छा’ के अनुसार करना तय हुआ तथा संपूर्ण कश्मीर से पाकिस्तानी सेना की वापसी एवं जनमत की शर्त के प्रस्ताव को माना गया, जो आज तक नहीं हुआ !

संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान के अंतर्गत युद्ध-विराम की घोषणा की गई. फिर 13 अगस्त, 1948 को संकल्प की पुनरावृति की गई. महासचिव द्वारा जनमत प्रशासक की नियुक्ति की जानी तय हुई.

ऑल जम्मू और कश्मीर नेशनल कान्फ्रेंस ने अक्टूबर 1950 को एक संकल्प किया था कि एक संविधान सभा बुलाकर वयस्क मताधिकार लागू किया जाये. तथा अपने भावी आकार और संबद्धता, जिसमें इसका भारत से अधिमिलन सम्मिलित है, का निर्णय लिया जाये. तथा साथ ही एक संविधान भी तैयार किया जाये, जिससे चुनावों के बाद संविधान सभा का गठन सितम्बर, 1951 को किया गया था). बाद में कश्मीरी नेताओं और भारत सरकार द्वारा जम्मू और कश्मीर राज्य तथा भारतीय संघ के बीच सक्रिय प्रकृति का एक संवैधानिक समझौता भी किया गया था, जिसमें भारत में कश्मीर विलय की पुन: पुष्टि की गई (उस समझौते को ऐतिहासिक ‘दिल्ली समझौता” के रूप में उल्लेखित किया जाता है. संविधान सभा द्वारा नवम्बर, 1956 को जम्मू और कश्मीर का संविधान अंगीकृत किया गया, जो 26 जनवरी, 1957 से प्रभाव में आया. राज्य में पहले आम चुनाव अयोजित हुए जिनके बाद मार्च, 1957 को शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कांफ्रेंस द्वारा चुनी हुई सरकार बनाई गई. राज्य विधान सभा में 1959 में सर्व-सम्मति से निर्णय लिया गया, जिसमें राज्य में भारतीय चुनाव आयोग और भारत के उच्चतम न्यायालय के क्षेत्राधिकार के विस्तार के लिये राज्य संविधान का संशोधन पारित हुआ. राज्य में दूसरे आम चुनाव 1962 में हुए, जिनमें शेख अब्दुल्ला की सत्ता में पुन: वापसी हुई.

दिसम्बर 1963 में एक दुर्भाग्यशाली घटना में हजरत बल मस्जिद से पवित्र अवशेष की चोरी हो गये और मौलवी फारूक के नेतृत्व के अधीन एक कार्य समिति द्वारा भारी आन्दोलन की शुरूआत हुई. जिसके बाद पवित्र अवशेष की बरामदगी हुई और पुनःस्थापना की गई (ये घटना बदो समुदाय (कश्मीरी पंडितों) द्वारा अंजाम दी गयी थी) अगस्त, 1965 में जम्मू और कश्मीर राज्य में घुसपैठियों की घुसपैठ के साथ पाकिस्तानी सशस्त्र बलों द्वारा आक्रमण किया गया, जिसका भारतीय सशस्त्र बलों द्वारा मुंहतोड़ जवाब दिया गया (इस युद्ध का अंत 10 जनवरी, 1966 को भारत और पाकिस्तान के बीच ताशकंद समझौते के बाद हुआ). उसके बाद विधान सभा के लिये मार्च, 1967 में तीसरे आम चुनाव हुए, जिसमें कांग्रेस की सरकार बनी. फरवरी, 1972 में चौथे आम चुनाव हुए, जिनमें पहली बार जमात-ए-इस्लामी ने भाग लिया व 5 सीटें जीती, मगर इन चुनावों में भी कांग्रेस की ही सरकार बनी. भारत और पाकिस्तान के बीच 3 जुलाई, 1972 को ऐतिहासिक ‘शिमला समझौता हुआ, जिसमें कश्मीर पर सभी पिछली उद्धोषणाएंं समाप्त की गईं तथा जम्मू और कश्मीर राज्य से संबंधित सारे मुद्दे द्विपक्षीय रूप से निपटाये गये एवं युद्ध विराम रेखा को नियंत्रण रेखा में बदला गया.

फरवरी, 1975 को कश्मीर समझौता समाप्त माना गया तथा भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांंधी के अनुसार ‘समय पीछे नहीं जा सकता’ तथा कश्मीरी नेतृत्व के अनुसार ‘जम्मू और कश्मीर राज्य का भारत में अधिमिलन कोई मामला नहीं कहा गयाअर्थात पाकिस्तान द्वारा ये स्वीकार कर लिया गया कि जम्मू और कश्मीर राज्य अब भारत का अंग है और उससे पाकिस्तान को कोई ऐतराज नहीं है. जुलाई, 1975 में शेख अब्दुल्ला मुख्य मंत्री बने. जनमत फ्रंट स्थापित हुआ और नेशनल कांफ्रेंस के साथ विलय किया गया. जुलाई, 1977 को पांंचवें आम चुनाव हुए, जिनमें नेशनल कांफ्रेंस पुन: सत्ता में लौटी (68% मतदाता ने मतदान किया था). 8 सितम्बर, 1982 को शेख अब्दुल्ला का निधन होने पर उनके पुत्र डॉ. फारूख अब्दुल्ला ने अंतरिम मुख्यमंत्री पद की शपथ ली एवं छठे आम चुनावों में जून, 1983 में भी नेशनल कांफ्रेंस को विजय मिली.

उसके बाद बीजेपी द्वारा जो सांप्रदायिक माहौल तैयार किया जाने लगा जो पुरे 90 के दशक तक चलता रहा. परिणामस्वरुप कश्मीर में जो अस्थिरता बनी, वो आज तक जारी है. उसी अस्थिरता और सांप्रदायिकता के परिणामस्वरुप कश्मीर में बदो समुदाय (कश्मीरी पंडितों) को पलायन के रूप में भी भोगना पड़ा, जिसकी टीस उन्हें आज तक महसूस होती है. अब फिर धारा 370 में मूर्खतापूर्ण संशोधन कर कश्मीर में ऐसे हालात पैदा करने का बीज रख दिया गया है, जिससे आगामी समय में भारत को बहुत ही भयंकर परिणाम भुगतने पड़ेंगे !

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