मनीष आजाद
सोशल मीडिया / इंटरनेट और तेज़ी से बदलते दौर में लघु-पत्रिकाओं के सामने एक बड़ा संकट यह खड़ा हो गया है कि वे पाठकों के हाथ में पहुंचने से पहले ही बासी हो जा रही हैं. ऐसे चुनौतीपूर्ण दौर में वही पत्रिकाएं अपनी प्रासंगिकता बनाये रख सकती हैं, जो न्यूज़ (news) से ज्यादा व्यूज़ (views) पर जोर दे. और वह व्यूज़ / विश्लेषण आपको इंगेज भी करे, जमीनी संघर्ष में उतरने को प्रेरित भी करे. ऐसी ही एक शानदार पत्रिका है- ‘Nazariya’
‘नज़रिया’ अपने संपादकीय में लिखता भी है- ‘प्यारे पाठक, हम यह उम्मीद करते हैं कि आप भी इस भावना को आत्मसात करेंगे व जन संघर्षों में हिस्सेदारी करते हुए शहर और गांव के बीच की खाई को पाटने में मदद करेंगे.’
इस पत्रिका को बहुत ही कम संसाधनों में कुछ जुनूनी छात्र/नौजवान निकाल रहे है. इस पत्रिका के महत्वपूर्ण दूसरे अंक ‘Land struggles in India’ को जब ‘Jindal Global Law School’ में वहां के छात्रों ने डिस्प्ले के लिए लगाया तो जिंदल प्नशासन द्वारा न सिर्फ इसकी प्रतियां ज़ब्त कर ली बल्कि सम्बंधित छात्र को भी निलंबित कर दिया. आखिर यह कानून की कौन सी शिक्षा छात्रों को देते होंगे जहां एक पत्रिका निकलना भी गुनाह हो ? आइये, सरसरी निगाह डालते है कि इस पत्रिका में आखिर है क्या ?
पहला लेख ‘BRAHMANISM’s CHAINS ON THE LAND STRUGGLE’ है. इसमें खैरलांजी, करमचेडू, हाथरस, किल्वेंनमानी, लक्ष्मणपुर बाथे, सलवा-जुडूम जैसे जनसंहारों के विश्लेषण के बहाने यह स्थापित किया गया है कि भारत में अर्ध-सामंती अर्थव्यवस्था किस तरह दलितों को ब्राह्मणवादी जाति-व्यवस्था के चंगुल में अभी तक बनाये हुए है, और दलितों में जमीन का बटवारा करके ही इस चंगुल को तोड़ा जा सकता है और समाज के जनवादीकरण की ओर बढ़ा जा सकता है.
इस लेख में तथाकथित धर्मगुरुओं और मंदिरों के कितनी जमीन है, इसका आंकड़ा दिया हुआ है. यह आंकड़ा आश्चर्यचकित करने वाला है- पुरी के जगन्नाथ मंदिर के पास सिर्फ सात राज्यों में ही कुल 60 हजार एकड़ जमीन है. तिरुपति बालाजी ट्रस्ट के पास 8800 एकड़ जमीन है. इसके अलावा एक मजेदार तथ्य यह भी है कि भगवान बालाजी के पास DEMAT एकाउंट भी है, जिसमे वे भक्तों से स्टॉक्स और बांड्स भी स्वीकार करते हैं.
दूसरा महत्वपूर्ण लेख ‘WOMEN IN LAND STRUGGLE: HOLDING UP HALF SKY’ है. इसमें कृषि कार्यों में और जल-जंगल-जमीन के लिए चल रहे संघर्षों में महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डाला गया है. ओक्सफेम के एक आंकडे के माध्यम से बताया गया है कि कृषि-कार्यों का करीब 80 प्रतिशत हिस्सा महिलायें निपटाती हैं, लेकिन जमीन पर उनका मालिकाना महज 13 प्रतिशत है. इस 13 प्रतिशत में भी बड़ा हिस्सा ‘बेनामी’ ही होगा.
ब्राह्मणवादी संस्कृति कैसे आदिवासियों के अंदर भी घर कर गयी है, इसका एक उदाहरण यह है कि कुछ आदिवासी समूहों में औरतों के ‘अनाज घर’ में जाने की मनाही है. माहवारी के समय भी बहुत से अपमानजनक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है. लेकिन नक्सलवाड़ी/माओवादी आंदोलनों में इन्हीं महिलाओं की शानदार भूमिका है और जहां इस आन्दोलन की जड़ें गहरी हैं, वहां, महिलाओं को बराबर बराबर जमीन बांटी गयी है और उन्हें उसका पट्टा भी दिया गया है.
कृषि में पूंजीवाद मानने वाली सीपीआई/सीपीएम से जुड़े बुद्धिजीवियों के लिए यह तथ्य पचाना मुश्किल होता है कि कृषि संबंधों में बंधुआ मजदूरी कितनी व्यापक है. तीसरा लेख ‘MAALIKANA HAQ: BONDAGE IN AGRARIAN RELATIONS कृषि में पूंजीवाद के मिथक को ध्वस्त करता है.
NSO के एक आंकड़े के अनुसार 2016 से 2021 के बीच कृषि ऋण 58 प्रतिशत बढ़ा है. प्रति ‘हॉउसहोल्ड’ इस वक़्त 74121 रूपये का ऋण है. आगे इसका विश्लेषण करते हुए बताया गया है कि कैसे ऋण का यह बोझ कृषि-उत्पादकता को बाधित किये हुए है और अर्ध-सामंती जकड़न को मजबूत बनाये हुए है.
एक अन्य आंकड़े के हवाले से कहा गया है कि भारत में दलितों का 71 प्रतिशत हिस्सा भूमिहीन है. लेकिन ये दलित किसी पूंजीवादी-प्रक्रिया में भूमिहीन नहीं हुए है, बल्कि ब्राह्मणवादी-सामंतवाद ने इन्हें कभी भी जमीन नहीं दी और इसे मनुस्मृति में संहिताबद्ध करके उन्हें लम्बे समय तक भूमिहीन बनाये रखा और उनसे क्रूर तरीके से बेगार कराते रहे.
एक अन्य लेख में इससे सम्बंधित चौकाने वाला आंकड़ा दिया है कि हरियाणा जैसे समृद्ध राज्य में (कृषि में पूंजीवाद मानने वाले हरियाणा-पंजाब का ही उदाहरण देते हैं) 3 लाख से ज्यादा ‘नौकर’ (naukars) हैं, जो किसी भी पैमाने पर बंधुआ मजदूर ही हैं.
अगला महत्वपूर्ण लेख ‘GREEN REVOLUTION: IMPERIALISM’s NEW LEASE OF LIFE’ है. यह लेख इस लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण है कि ‘उत्सा पटनायक’ जैसे कृषि में पूंजीवाद मानने वाले बुद्धिजीवी ‘ग्रीन रेवोलुशन’ को ही वह निर्णायक कारक मानते हैं, जिसके कारण कृषि में पूंजीवाद आ गया. यहां लेखक ‘ग्रीन रेवोलुशन’ के पीछे के राजनीतिक-अर्थशास्त्र को उद्घाटित करते हुए बताता है कि कैसे यह ‘रेड रेवोलुशन’ के खतरे का मुकाबला करने के लिए साम्राज्यवादियों द्वारा शुरू किया गया था.
इस लेख की दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि इस ‘हरित क्रांति’ ने पर्यावरण और जीवन को जो भारी नुकसान पहुंचाया है, उसको बखूबी दर्ज करती है. इसी क्रम में पंजाब से राजस्थान को जाने वाली उस ‘कैंसर ट्रेन’ का भी जिक्र है, जिसमें करीब 60 प्रतिशत लोग या तो कैंसर के मरीज होते हैं या उन मरीजों के सम्बन्धी.
यह लेख पढ़ते हुए मुझे भी एक सम्बंधित तथ्य याद आ गया. द्वितीय विश्व युद्ध में जो कम्पनियां युद्ध के लिए जहरीली गैस का उत्पादन करती थी, विश्व युद्ध खत्म होने के बाद उनके स्टाक में बहुत सी जहरीली गैसे बची हुई थी, जिन्हें उन्होंने ‘शान्ति काल’ में पेस्टिसाइड व सम्बंधित अन्य चीजे बनाने में खर्च की. इस लेख को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि दरअसल यह भी एक तरह का युद्ध ही है, जहां जनता धीमे-धीमे कष्ट के साथ मरती है.
हाल में आई चर्चित किताब ‘India Is Broken’ में लेखक अशोक मोदी कहते हैं कि भारत में भूमि सुधार में जो ‘लूप-होल्स’ थे वे इतने बड़े थे कि उसमें से एक ट्रैक्टर भी गुजर सकता था. इस पत्रिका का अगला लेख इसी विषय पर है- ‘BOGUS LAND REFORM AND FEUDALISM’s OFFENCIVE’
इसमें सर्वोदयी आन्दोलन ‘भूदान-ग्रामदान’ की असफलता का भी विश्लेषण किया गया है. भारतीय समाज में जमीन अभी भी कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, यह इसी से पता चल जाता है कि सुप्रीम कोर्ट में 25 प्रतिशत और भारत में सभी सिविल केसों का 66 प्रतिशत जमीन से जुड़े मुद्दे हैं.
यहां भी मंदिरों के कब्ज़े में जमीन का आंकड़ा चौकाता है. सिर्फ तमिलनाडु में 36,000 मंदिरों के पास कुल 4,78,272 एकड़ जमीन है. ‘जमीन जोतने वाले को’ का नारा अभी प्रासंगिक है और समाज के जनवादीकरण की प्रक्रिया का केंद्र क्रन्तिकारी भूमि-सुधार ही है.
अगला महत्वपूर्ण लेख ‘DEVELOPMENT OF PRODUCTIVE FORCES IN INDIA’ है. इसमें लेखक ने मार्क्सवादी स्थापनाओं के आधार पर इस बात की पड़ताल की है कि भारत में उत्पादक शक्तियों के विकास में कौन-कौन सी बाधाएं हैं. इसमें ब्राह्मणवाद की विचारधारा की क्या भूमिका है और इस बंधन को कैसे ध्वस्त किया जा सकता है.
अगला लेख ‘UNCHANGING CHANGE: LOANS AND CREDIT IN AGRICULTURE’ भी काफी महत्वपूर्ण और सूचनात्मक है. लेख यह बताता है कि खेती से पैदा होने वाले अतिरिक्त का महज 10 प्रतिशत ही वापस निवेश होता है, फसल दर फसल साल दर साल इसका 90 प्रतिशत हिस्सा सूद-ब्याज, मुनाफे के रूप में खेती से बाहर निकल जाता है. और खेती अर्ध-सामंती चंगुल से बाहर नहीं निकल पाती.
इसके अलावा ‘उत्सा पटनायक’ और ‘सामीर आमीन’ की राजनीति का मूल्यांकन करता दो शानदार लेख है जो इस पत्रिका को एक नया आयाम दे देते हैं. पत्रिका अर्थपूर्ण चित्रों से सजी हुई है. शायद यह सभी चित्र बंगाल के मशहूर कलाकार ‘चित्त प्रसाद’ के हैं. चित्रकार का नाम देने से अच्छा रहता.
पत्रिका का यह अंक उन सभी के लिए एक जरूरी और संग्रहणीय अंक है, जो बेहतर भविष्य की उम्मीद लिए वर्तमान से टकराना चाहते हैं और उसे बदलना चाहते हैं. इस अंक का मूल्य महज 40 रूपये है. इसे आप इन नंबरों (8800424105, 9999945765) पर संपर्क करके प्राप्त कर सकते हैं.
पत्रिका की टीम को बहुत बहुत बधाई……!
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