सभी कालखण्डों को रौंदता
बनाता, बिगाड़ता, फिर बनाता
इतिहास को, सभ्यता को
दृश्यमान अखिल जगत को
दौड़ता जाता महाकाल रथ
पीढ़ियां उठती हैं
थामती है इसके घोड़ों की लगाम
हाथों में महाविप्लवों, महाक्रांतियों की चाबुक से
हांकती, दौड़ती जाती इसे !
पीढ़ियां स्थान बदलती हैं,
पुरानी जाती है, नये आते हैं
न महाकाल-रथ विराम लेता है
और न चुकते हैं सारथी !
आज फिर महाकाल का रथ सामने है
अभी निकल पड़ो मेरे नौनिहालों !
हमारी पीढ़ी की यात्रा भले झुटपुटे में समाप्त हो
पर महाकाल के इस वेगवान रथ की
लगाम थामी,
चाबुक की फटकार से इसके घोड़ों को हांकती
नई पीढ़ी के इंतजार में
बड़ी बेकरारी से खड़ें हैं
आतुर हृदय लाखों-लाख सूर्य
नई सभ्यता का नया उजाला
लाने को उद्यत !
- बी. पी. सिंह
जुलाई, 2020 (शहीद खुदीराम बोस केन्द्रीय कारा, मुजफ्फरपुर)
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