1977 के बाद हेरल्ड ग्रुप बुरी तरह खस्ताहाल हो गया. जनता पार्टी की सरकार बाहर से चोट कर रही थी और जनसंघ समर्थक अंदर से. इन्हीं तत्वों ने हड़ताल करवा दी. इससे नेहरू के संस्था की कमर टूट गई. 1980 में इन्दिरा गांधी की ऐतिहासिक वापसी के बाद भी भारत के विचार की ज्वाला अतीत की तरह प्रज्जवलित न हो सकी. नेहरू और उनकी संस्था को नष्ट करने का यह पहला स्वर्णिम अवसर था.
कृष्ण कुमार मिश्र नवजीवन के संपादक बनकर आए. कभी ‘नवजीवन’ का हाल यह था कि गांधी जी की शहादत के बाद छपे संपादकीय का शीर्षक था- ‘गांधी वध.’ तत्कालीन संपादक को निकाल दिया गया था. मिश्र जी के आने के समय कार्यवाहक संपादक, सहायक संपादक ज्ञानचंद जैन थे. औसत हिंदी पत्रकारों से काफी ज्यादा पढ़े-लिखे और समझदार कांग्रेसी थे. कांग्रेसी विचारधारा के समाचार संपादक, सूर्य कुमार वेदालंकार की राजनीतिक दृष्टि बहुत साफ थी. दो मुख्य उपसंपादकों में पहलवान जी राजनीतिक प्रतिबद्धता वाले कांग्रेसी थे और सुरेश मिश्र बहुपठित वामपंथी. वह संपादक के छोटे भाई थे, मगर बहुत पहले से काम कर रहे थे.
संपादक को रमेश पहलवान (रमेश चंद्र श्रीवास्तव) और चीफ रिपोर्टर जेबीएस चौहान समकालीन होने के कारण पंडित जी कहते थे, बाकी लोग कृष्ण कुमार जी. तब तक पत्रकारिता में ‘सर’ कहने का चलन नहीं था. मैं भी पंडित जी कहने लगा. उन्होंने पहली बार हंसकर कहा _ ‘ कैसे कम्युनिस्ट हो, जातिवाद फैला रहे हो.’ मैंने सम्मानपूर्वक उत्तर दिया, – ‘आप में पांडित्य है, इसलिए पंडित जी कहता हूं.’ पंडित जी ने आते ही दिल्ली में ब्यूरो चीफ के पद पर गिरीश माथुर की नियुक्ति की थी.
माथुर जी की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी से अच्छी मुलाक़ात थी, उनके ताकतवर सचिव आर. के. धवन से सीधे बात करते थे और कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ अच्छे मित्र और काकानगर में उनके पड़ोसी मधु लिमये, सुरेंद्र मोहन, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी और नानाजी देशमुख जैसे वरिष्ठ नेताओं व पीएन हकसर से भी गहन परिचय था. उनके संपर्कों का हाल यह कि बेरूबाड़ी पर इन्दिरा गांधी और शेख मुजीबुर्रहमन में हुई सहमति की खबर सबसे पहले ‘नवजीवन’ में छ्पी थी. उनकी साप्ताहिक ‘दिल्ली डायरी’ की पाठक प्रतीक्षा करते थे. उनकी निजी लाइब्रेरी देखकर मैं झटका खा गया था. उनके आवास का सबसे बड़ा कमरा अंग्रेजी, हिंदी और उर्दू की किताबों से फर्श से लेकर छत तक पटा पड़ा था.
उत्तर प्रदेश और केंद्र में कांग्रेस की सरकारें होने के कारण शासन-प्रशासन की एक्सक्लूसिव खबरें ‘नवजीवन’ में सर्वाधिक छपती थी. पंडित जी मुंबई, कोलकाता और चेन्नई में भी संवाददाता रखना चाहते थे. घाटे में चलने वाले ‘नवजीवन’ के लिए यह योजना खर्चीली पाई गई थी. इससे भी बड़ा कारण यह था कि इन स्थानों पर ‘नेशनल हेरल्ड’ के भी संवाददाता नहीं थे. पंडित जी स्थानीय स्तर पर अच्छी प्रतिभाएं लाना चाहते थे, इसमें यूनियन ने अड़ंगा लगा दिया. बीच-बीच में उन्होंने कुछ भर्तियां की पर अखबार में कायाकल्प के लिए मौजूदा स्टाफ पर ही निर्भर रहना पड़ा. अधेड़ स्टाफ के सीखने की सीमाएं थीं.
रविवारीय परिशिष्ट में बड़ा परिवर्तन करने में वह अवश्य सफल हुए. रिपोर्टिंग के साथ सौ रुपये महीना भत्ते पर मुझे रविवारीय का भी काम दे दिया. नए काम में आत्मविश्वास की कमी को उन्होंने यह कहकर दूर किया कि मैं रोज़ गाइड करता रहूंगा, लेकिन सिर्फ दो महीने. मेरे बनाए ब्लूप्रिंट को उन्होंने आधा काट दिया था. काटने का कारण भी बताया था, यह नसीहत भी दी थी. पानी में कूद पड़ो, तैरना आ जाएगा.
उस समय वित्त विभाग में कार्यरत श्रीलाल शुक्ल से उन्होंने फोन पर बात कर आगे का काम मुझ पर छोड़ दिया था. औपचारिक व्यवस्था बनाने के लिए मैं कार्यालय में उनसे मिला था. इस तरह शुक्ल जी साप्ताहिक कालम लिखने लगे थे. राजनीति और प्रशासन में एक-एक को जानने वाले पंडित जी के पुराने मित्र, नवभारत टाइम्स के स्थायी संवाददाता, मस्तमौला कवि और व्यंग्यकार सुरेंद्र चतुर्वेदी से कालम मैंने ही तय कर लिया था. कभी-कभार मुनीष सक्सेना भी लिखने लगे थे.
लखनऊ विवि में प्राचीन इतिहास विभाग में विद्वान रीडर डॉ. के. सी. श्रीवास्तव उर्फ भैया जी इस शर्त पर ‘इतिहास के झरोखे से’ स्तंभ लिखने को राजी हुए कि केवल मैं उनसे डिक्टेशन लूंगा. वह कहीं-कहीं हिंदी में बाकी अंग्रेजी में बोलते थे. मैं मानक हिंदी में उसे तैयार करता था. दो या तीन बार सुनने के बाद वह मुझ पर भरोसा करने लगे थे.
आकाशवाणी में काम कर रहे रमई काका की अवधी कविता के अलग पाठक थे. मेरे मित्र नदीम हसनैन अपनी सुविधानुसार किसी रोचक विषय पर लिखते थे. रघुराज दीक्षित अवधी गीत लिखते थे. राकेश का धारावाहिक उपन्यास छपा था. अमीनाबाद स्थित चायघर कंचना के अड्डेबाज़ विजेंद्र कुमार का जासूसी उपन्यास ‘यूरेनियम की चोरी’ इन्हीं दिनों छ्पा था. पंडित जी मेरे ऊपर इतना भरोसा करते थे कि मुझे पूर्व अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं रहती थी.
1977 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद मोरार जी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी थी. पंडित जी ‘नवजीवन’ में आक्रामक मुद्रा अपनाने लगे. गिरीश माथुर के डिस्पैचों में केंद्र सरकार की धज्जियां उड़ाई जाती थी. इसी क्रम में आकाशवाणी की नियमित समीक्षा छापने का निश्चय हुआ. लेखक तय करने का जिम्मा मुझ पर छोड़ दिया गया. मैंने लखनऊ में सबसे पुराने मित्र वीरेंद्र यादव का नाम सुझाया. यह भी बता दिया कि बहुत पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं और सीपीआई के सदस्य भी. इस तरह वीरेंद्र का कालम तय हो गया. वह शिद्दत से चोट करते थे. वीरेंद्र के साथ ही कई लेखकों के कालम आर्थिक कारणों से बंद करने पड़े थे; हेरल्ड पर चोट करने का कोई मौका सरकार ज़ाया नहीं करती थी. नेहरू और उनकी संस्था को नष्ट करने का यह पहला स्वर्णिम अवसर था.
अपरिवर्तनीय आदतों और स्वभाव की जड़ता से पंडित जी को शुरू से ही कड़ा मुकाबला करना पड़ा. वह फ्रैंक मोरेस के इंडियन एक्सप्रेस से आए थे और लखनऊ में हेरल्ड में पुराने दिनों से ही कापी लेखन पर फोकस किया था. दिल्ली में कई काबिलों के बीच काम करने का फल यह मिला कि उनकी कापी में बहुत बारीक नक्काशी होती थी. नज़दीकों के बीच वह अकसर कहते थे, ‘पहले पन्ने पर संपादक की छाप होनी चाहिए.’
अंदरखाने इसका विरोध होने लगा. अधिकतर सहयोगी सीखने की ग्रंथि से वंचित थे. अखबार उनके लिए बस नौकरी का एक जरिया था, ऊपर से यूनियन का संरक्षण. कुछ महीने बाद ही लोग खुलकर कहने लगे थे – ‘इतने दिन से नौकरी कर रहे हैं, अब कापी लेखन सिखाया जा रहा है.’ कुछ वरिष्ठ सहयोगियों में पंडित जी के साथ कोई नहीं था. जड़ता के मारे लोग भावभंगिमाओं से विरोध करने लगे थे. मैटर क्लोज़ करने की डेडलाइन के बहाने संपादक को कापी दिखाने से बचा जाने लगा.
मैं रिपोर्टर था और चौहान साहब के साथ अच्छे से अच्छा काम करने का मौका मुझे मिलने लगा. चौहान साहब ने एक बार मेरी परीक्षा ली. भारतीय जनसंघ के महत्वपूर्ण नेता नाना जी देशमुख की प्रेस कांफेरेंस थी, उन्हें कवर करना था. वह मुझे भी साथ लेते गए. मैं नोट बनाता रहा. आफिस पहुंचने पर कहा – कापी लिख डालो. मैंने कांग्रेस की नीति के दायरे में करीब आठ सौ शब्दों की कापी लिख डाली. पंडित जी ने देखते ही कहा – ‘खबर का बालकांड बना दिया. इतना लंबा पढ़ने का टाइम किसके पास है ?’ इंट्रो का पुनर्लेखन कराया और खबर दो हिस्सों में यह कहकर ब्रेक कर दी कि पाठक पर शेष पढ़ने का लोड नहीं डालना चाहिए, एक लाइन का संकेतक काफी है. संभवतः किसी हिंदी अखबार में यह पहला प्रयोग था.
हिंदी पत्रकारिता का एक और बड़ा प्रयोग भी पंडित जी ने किया. संपादक ने तय किया, अंधविश्वास पैदा करने और अकर्मण्य बनाने वाली कोई सामग्री नहीं छपेगी. भूत- प्रेत- चुड़ैलों की कहानियों, पुनर्जन्म के किस्से, भविष्यफल और पंचांग को उन्होंने इसी श्रेणी में रखा था. प्रतिद्वंदी अखबार बढ़-चढ़ कर ये सब पाठकों को परोस रहा था. प्रचारित किया जाने लगा कि ‘तुगलकी फरमान’ से प्रसार घट रहा है. दिल्ली तक शिकायत पहुंचाई गई. अभियान का असर यह हुआ कि पंचांग तो जाने लगा, लेकिन अंधविश्वास पर फैसला नहीं बदला.
एक बार मीटिंग में कुछ सहयोगियों ने यह मुद्दा उठाया तो संपादक ने यह कर खामोश कर दिया था, कोकशास्त्र छापने लगें तो सर्कुलेशन और भी बढ़ जाएगा. अपराध समाचार लिखने का भी उनका नज़रिया भिन्न था. आमतौर से बड़ी घटनाओं को कवर करने के लिए भी पुलिस ब्रीफिंग पर निर्भर रहने की बजाय वह घटनास्थल तक जाने पर ज़ोर देते थे.
जाड़े की रात में चौहान साहब एक दरोगा के साथ अमीनाबाद के एक चायघर में मदिरा पान कर रहे थे. मैं चाय पी रहा था. रात के दस बजे अचानक भागो-भागो का शोर मचा. चौहान साहब ने मुझसे कहा – ‘जाकर देखो क्या मामला है ?’ सर्कस का शेर पिंजरे से निकलकर भागा था. आगे-आगे शेर और पीछे-पीछे सर्कस का स्टाफ और थ्री नाट थ्री राइफल से लैस पुलिसकर्मी. चीफ रिपोर्टर ने आदेश दिया – ‘तुम दौड़कर आफिस पहुंचो, खबर लिखना शुरू करो, मैं अपडेट करता रहूंगा.’ आधा घंटे बाद उन्होंने पुष्टि की थी, नाका चौराहे के पास शेर काबू कर लिया गया. यह खबर सिर्फ ‘नवजीवन’ में थी, वह भी लीड.
कुछ ही दिन बाद गला देने वाली शीत लहर में मैं लालबाग के एक रेस्तरां में बिरियानी खा रहा था, अचानक तीन गोलियां चलने की आवाज आई. मेरी गहन ट्रेनिंग ने तुरंत अलर्ट किया, यह कट्टे या रिवाल्वर से चली गोली की आवाज नहीं है, हो न हो थ्री नाट थ्री से फायर हुए हैं. मैं सड़क पर आकर खड़ा हो गया. पुलिस की कई जीपें तेजी से जा रही थीं. सबसे पीछे की जीप में कैसरबाग कोतवाली के इंचार्ज ‘बम दरोगा’ थे, मुझे देख गाड़ी कुछ सेकेंड के लिए रुकी और मैं उसमें कूदकर बैठ गया.
उन्होंने कहा – ‘दुबक कर बैठो,’ पुलिस नूर आलम और उसके साथियों का पीछा कर रही है. नूर आलम मशहूर डाकू और तस्कर था. भारत-नेपाल सीमा पर सक्रिय नूर आलम गिरोह का अड्डा अमीनाबाद का एक होटल था, वहीं से पुलिस को सुराग मिला था. मैंने ‘बम दरोगा’ को कहते सुना था. कानपुर रोड पर नूर आलम और उसके साथियों का मौत इंतज़ार कर रही है.
आलमबाग क्रास करते ही बदमाशों की गाड़ी सिंगल लेन रोड पर ट्रैफिक में फंस गई. नूर आलम और उसके तीन साथी फायर करते हुए गाड़ी से उतरकर भागे. मिनटों में पुलिस ने चारों को ढ़ेरकर दिया था. चौहान साहब आफिस से पांच मिनट की दूरी पर रहते थे. उनकी सहायता और मार्गदर्शन बगैर मैं श्रेष्ठ कापी न बना पाता. यह खबर भी नवजीवन की एक्सक्लूसिव थी.
रिपोर्टर-विशेष संवाददाता से संपादक बने पंडित जी के साहसपूर्ण व्यक्तित्व को दो घटनाएं रेखांकित करती हैं. सरसंघ चालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर के लखनऊ प्रवास का कार्यक्रम था. मैंने विशेष साक्षात्कार का निश्चय किया. ‘पांचजन्य’ के संपादक भानु प्रताप शुक्ल मुझ पर स्नेह रखते थे. कई दिन के अनुरोध के बाद पसीजते हुए भानु जी ने पूछा था – गारंटी है कि ईमानदारी से छपेगा ?
मैं चीफ रिपोर्टर और संपादक के प्रोफेशनल स्तर को बखूबी समझने लगा था, तुरंत वादा कर दिया. दस मिनट का समय मिला था. मैंने बातचीत को समाज और राष्ट्र निर्माण की संघ की परियोजना पर केंद्रित रखा था. एक प्रश्न मुसलमानों से संघ की अपेक्षा पर था. उनका उत्तर मुझे आज भी याद है : ‘पंडित नेहरू ने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में जो अपेक्षा व्यक्त की थी, संघ राष्ट्रीय स्तर पर वही चाहता है.’ (गोलवलकर ने नेहरू के भाषण का गलत सहारा लिया था. नेहरू एतिहासिक संदर्भ में मुसलमानों से रू-ब-रू हुए थे; उनकी निष्ठा पर सवाल नहीं उठाया था.).
चौहान साहब ने पंडित जी से बातकर इंटरव्यू को पहले पेज पर टाप डीसी लगवाया था. दो दिन बाद इसी विषय पर धज्जीउड़ाऊ लेख प्रकाशित हुआ. यह वह दौर था, जब अधिकतर अखबार सिंडीकेट सर्विस और फीचर एजेंसियों पर निर्भर रहते थे. पंडित जी ने भरोसेमंद सहयोगियों को इतनी आज़ादी दे रखी थी कि इन्हीं सरसंघ चालक के निधन का समाचार पेज एक पर डबल कालम ब्लैक बाक्स बना था. इन्दिरा गांधी के खिलाफ विपक्ष के बयान अंदर छपते थे. 2022 जैसी आत्मस्वीकृत सेंसरशिप प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी के जलवे के दिनों में भी नवजीवन में नहीं थी. यह संपादक की विचारशीलता और बहुआयामी समझ का परिणाम था.
पिछले अखबार की तुलना में नवजीवन के संपादक से मुझे सीखने के अभूतपूर्व अवसरों के साथ ही व्यक्तिगत तौर पर भी मिला समर्थन और हौसलाअफजाई मेरी जिंदगी भर की थाती बन गई. मैं अम्मा और छोटी बहन मधु को गांव से ला चुका था. नवजीवन में बढ़ी हुई तनख्वाह भी कम पड़ने लगी थी. मैंने पंडित जी के सामने अपनी समस्या रखी, उनके सहयोग से कुछ और मौके मिले.
पंडित जी ने राजभवन कालोनी के अपने बड़े फ्लैट में विदाई पार्टी दी थी. आठ समान विचारधर्मी आमंत्रित थे. भैया जी भी थे. पंडित जी और भैया जी ने आदेश के स्वर में कहा था – प्रदीप फेयरवेल स्पीच भी दो. एक वाक्य मुझे अब भी याद है – रोमेल को कमांड करने के लिए क्रैक डिवीज़न नहीं मिली.’ लोग आहत न हों, इसलिए मैं इसे झटके से अंग्रेजी में बोल गया था. भैया जी ने ताली बजाकर सराहना की थी और पंडित जी से बाद में झिड़की. दिल्ली आने के बाद मैंने उन्हें लिखे पत्र में यह मत दोहराया था.
एक प्रयोगधर्मी, काबिल और रचनात्मकता की दृष्टि से महत्वाकांक्षी संपादक का कार्यकाल त्रासद रहा. 1977 के बाद हेरल्ड ग्रुप बुरी तरह खस्ताहाल हो गया. जनता पार्टी की सरकार बाहर से चोट कर रही थी और जनसंघ समर्थक अंदर से. इन्हीं तत्वों ने हड़ताल करवा दी. इससे नेहरू के संस्था की कमर टूट गई. 1980 में इन्दिरा गांधी की ऐतिहासिक वापसी के बाद भी भारत के विचार की ज्वाला अतीत की तरह प्रज्जवलित न हो सकी.
एम. चलपति राव और चितरंजन जैसे संपादक हेरल्ड में फिर कभी नहीं आए. उमाशंकर दीक्षित और मोहम्मद यूनुस जैसे लोग मैनेजमेंट में नहीं आए. पंडित जी का उत्साह क्षीण हो चुका था. वह कुछ वर्ष और संपादक रहे, लेकिन अनमने से. एक बार मैं उनके घर पर मिला था. उन्होंने कहा था – मैं अपने को पत्रकारिता का रोमेल तो नहीं मानता, मगर तुम्हारे कथन का भाव सही था.
- प्रदीप कुमार
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