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नेशनल कीचड़ ब्रांड कमल

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नेशनल कीचड़ ब्रांड कमल

विष्णु नागर

आपको क्या मुझे भी भ्रम था कि इस देश में केवल एक नरेन्द्र मोदी हैं. वन एंड ओनली नरेन्द्र मोदी, पर ऐसा है नहीं. पूर्व से पश्चिम तक, उत्तर से दक्षिण तक मोदी ही मोदी हैं. राजनीति से कारपोरेट तक, गांव से शहर तक, सरपंच से मुख्यमंत्री तक, परिवार से दफ्तर तक. क्लब से सड़क तक मोदी ही मोदी, कमल ही कमल हैं. यूं समझो, कमलों की बाढ़ आई हुई है.

पानी में तो खिलते ही थे पहले भी कमल. कीचड़ मेंं भी खिलते थे कभी-कभी. अब कीचड़ में ही जल्दी और बढ़िया कमल खिलते हैं. ऐसा एक कमल सात साल पहले अखिल भारतीय स्तर पर क्या खिला कि कीचड़ ब्रांड का ही बोलबाला हो गया. इसे कीचड़ वैरायटी उर्फ ब्रांड कहना चूंकि सभ्य समाज के नियमों के विपरीत है, इसलिए अब इसे नेशनल ब्रांड कहा जाता है. अधिक उत्साहीलाल इसे इंटरनेशनल ब्रांड कहते हैं. इसकी सबसे बड़ी खासियत यह बताई जाती है कि इसमें से नाली से बनी गैस की ‘मस्त खुशबू’ आती है. आती होगी. अपनी नाक पिछले सात साल से खराब है. ससुरी ठीक ही नहीं होती. लगता है हनुमान मंदिर जाना पड़ेगा.

हां तो कीचड़ ब्रांड की लोकप्रियता इतनी बढ़ी कि लोग यही वैरायटी उगाने लगे, खरीदने-बेचने लगे. इससे पानी वैरायटी को ईर्ष्या हुई, उसने खिलना छोड़ दिया. कई लोगों ने इसके बाद भी पानी वैरायटी को खिलाने की कोशिश की मगर व्यर्थ. हार कर उन्हें भी कीचड़ ब्रांड में नाली की गैस की ‘मस्त खुशबू’ आने लगी. वे भी इसे नेशनल ब्रांड मानने लगे.

ऐसी स्थिति है आजकल. मांग इसकी इतनी अधिक है कि लोग कमल कहीं भी खिला लेते हैं, कीचड़ ब्रांड के नाम से बेच देते हैं. लोग घर की छत पर, गमले में, सोफे या डाइनिंग टेबल पर भी उगा कर नेशनल ब्रांड के नाम से बेच देते हैं. जो कीचड़ में गहरे धँस कर इसे उगाते हैं, वे इसे ‘सुपर नेशनल ब्रांड’ कहते हैं.

उनका दावा है कि यही असली ब्रांड है. इसमें वह खुशबू है कि अहा ! मेरे जैसे बेवकूफों पर जिस दिन अमीरी चढ़ी होती है, वे यही उठा लाते हैं. खासकर जब कोई खास मेहमान आनेवाला होता है. उसे चार बार बताते हैं कि हमारी पसंद तो यही ब्रांड है. पत्नी इसमें जोड़ती है, हां हमारे बच्चे तक उस घटिया नेशनल ब्रांड को दूसरे के यहां देख कर पिनपिना जाते हैं. संस्कारी हैं न !

सिर पर खिलते कमल पिछले सात सालों में सबने देखे हैं. उनकी चर्चा करके क्यों समय खराब करना ! अब तो नाक, कान, मुंह, पेट में भी कुछ लोग कमल खिलाने लगे हैं. मैंने इधर पत्थर की बैंच पर भी कमल खिलते देखे हैं. चार लोग मिलते हैं, एक बेंच पर सटकर बैठते हैं. बातों के कमल खिलाते जाते हैं, खिलाते जाते हैं. वे स्वार्थी नहीं, परमार्थी होते हैं. इन्हें घर नहीं ले जाते, यहीं छोड़ जाते हैं. चर्चा सिर्फ़ वैक्सीन और गेहूं फ्री देने की होती है. धन्यवाद मोदी जी उसके लिए होता है. मुफ्त कमल उपलब्ध हैं, इसकी चर्चा गोदी चैनल तक नहीं करते. धन्यवाद मोदी करना तो बहुत दूर की बात है.

एक ने अभी यह खुशखबरी बांटी है कि प्रभु की कुछ ऐसी कृपा हुई है कि हमारे शहर में तो अब डामर की सड़क के ऐन बीचोंबीच कीचड़ ब्रांड खिलने लगा है. एक ने कहा जी, हमारे घर में तो जगह है नहीं मगर कीचड़ ब्रांड पर घनघोर श्रद्धा है तो घर के सामने कूड़ाघर में इसे उगा लेते हैं. हमने वहां लिखवा दिया है- मदनलाल जी, एमेले साहब के सौजन्य से. यह जानकार एमेले साहब भी प्रसन्न हैं.

उनके डर से कोई इन्हें छूता तक नहीं, सब आराम से बिक जाते हैं. कोरोना में इसका बड़ा सहारा रहा. कुछ भी कहो, मोदी में है कुछ जादू. कमल खिला कर ऊपरी आमदनी करवा दी, इसीलिए जो बिडेन ने कहा कि भाई आ जा. नया हूं, कुछ ज्ञान दे जा वरना साहब कौन किसकी खातिरदारी करता है आजकल. वैसे ही कोरोना चल रिया है.

हां बताना भूल गया. कमल की दो वैरायटियां और सामने आई हैं – एक काली है, बिल्कुल काली टोपी जैसी. दूसरी केसरिया है – केसरिया झंडे के माफिक. हेडगेवार वैरायटी और दस नंबरी वैरायटी भी बाजार में आनेवाली हैं. इस सबके बावजूद लोग कहते हैं कि जो बात कीचड़ वैरायटी उर्फ ब्रांड में है, वह किसी में नहीं.

उसी प्रकार जैसे कुछ विद्वान गैस वैरायटी पर चूल्हा वैरायटी से बने भोजन को प्रिफरेंस देते हैं. उनका मत है कि जो आनंद मां की छाती में धंसते धुएं और आंखों तथा नाक से बहते पानी को देखने में आता था, वह बीवी के बनाए खाने में आ कैसे सकता है ! उसके फेफड़ों में धुंआ ही नहीं जाता, खाना क्या खाक बनेगा ? आनंद आएगा कहां से ?

यह तो हुई मुख्य रूप से कमलों की बात. कमलेतर वैरायटीज भी आजकल बहुत हैं. उनकी चर्चा करके मैं सबसे चर्चित, सबसे पापुलर नेशनल उर्फ कीचड़ वैरायटी उर्फ ब्रांड के कमलों की उपेक्षा का दोषी बनना नहीं चाहता. इतिहास मुझे नेशनल ब्रांड के कमलों की घोर उपेक्षा का दोषी पाए और अदालत मरणोपरांत मुझे मौत की सजा सुनाए, यह मैं दिल से कभी माफ नहीं कर पाऊँगा

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कोई ये बताए कि अमृत महोत्सव देश को 1947 में मिली आजादी का शुरू हुआ है या प्रधानमंत्री मोदी का ? लगता तो ये है कि देश की आजादी ने 75 वें वर्ष में प्रवेश नहीं किया है, मोदी जी ने जीवन के 75 वें वर्ष में प्रवेश किया है. सुप्रीम कोर्ट में भी मोदी जी इमेज सहित पहुंच गए. यह तो इस समय सुप्रीम कोर्ट भी कुछ सुप्रीम कोर्ट सी है तो वहां से मोदी जी की छवि को विदा किया गया वरना मोदी जी सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री के ईमेल में प्रवेश कर चुके थे.

अनाज के दाता ये, वैक्सीन के दाता ये, आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मनाने वाले ये, चौकीदार ये, फकीर ये, गरीब मां के बेटे ये, चायवाले ये, बाकी तो कोई कुछ नहीं. पब्लिसिटी स्टंट की भी एक हद होती है मोदी जी. अब तो मां के गर्भ में पल रहा बच्चा भी जानता है कि आप भारत के प्रधानमंत्री हो, बादशाह हो, चक्रवर्ती सम्राट हो. ईश्वर हो. क्रिकेट का मैदान हो.

उसे ये भी पता है कि आप अमेरिका में हो. वह तो वापसी पर आपका स्वागत करने हवाई अड्डे पर भी पहुंचना चाहता है और क्या चाहिए आपको ? हां, चांद और सूरज भी आपको जानते हैं. मैंने पूछा था उनसे. उन्होंने कहा कि उन्हें जाने बिना तो हम भी भारत में प्रवेश नहीं पा सकते. न जाने़ तो पता नहीं किस दिन हमें भारत निकाला दे. भारत से ही नहीं, बांग्लादेश, नेपाल और पाकिस्तान से भी.

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मोदी-बाइडेन मुलाकात की ‘द टेलीग्राफ’, कोलकाता ने बढ़िया रिपोर्टिग की है. इससे पता चलता है कि लोग गलत नहीं मानते कि मोदी जी भी ‘महान’ हैं. अगले हफ्ते गांधी जयंती है तो दोनों तरफ से गांधी-गांधी खूब हुआ. ये तो होना ही था. वह तो अच्छा हुआ कि यह भेंट 14 नवंबर से पहले नहीं हुई वरना बाइडेन नेहरू-नेहरू करते तो ये सरदार पटेल-सरदार पटेल सुनते.

हां तो गांधी-गांधी में बाइडेन के गांधी कुछ और थे, मोदी के कुछ और. प्रभु मूरत देखी, जिन जैसी था. बाइडेन और कमला हैरिस के गांधी सहनशीलता वाले थे. मोदी जी के गांधी ट्रस्टीशिप वाले. बाइडेन इशारे में कह रहे थे, मोदी ये सब क्या करवा रहे हो अपने देश में. मोदी जी को यह सुनना ही नहीं था मगर गांधी-गांधी करना तो उनका राष्ट्रीय कर्तव्य था.

वैसे मोदी जी को ट्रस्टीशिप से भी क्या लेना देना ? उन्होंने प्रधानमंत्री केयर्स फंड बनाया तो है, जिसमें करोड़ों रुपयों का क्या हो रहा है, ये बताने को तैयार नहीं. सुप्रीम कोर्ट में भी नहीं. इसी तरह मोदी जी ने गांधी जी के नाम पर पर्यावरण-पर्यावरण भी किया. करना ही था. हाट टापिक है आजकल. उन्हें पर्यावरण से भी क्या लेना देना ? पर्यावरण मंत्रालय का काम है, विकास के नाम पर दनादन परियोजनाओं पर दस्तखत करते जाओ.

हां मोदी जी ने कारोबार बढ़ाने की बात भी की. अमेरिका ने इसे सुनने से इनकार सा किया. तू बहरा तो हम भी बहरे. हिसाब बराबर. जय हिन्द, जय अमेरिका. भेंट सफल रही. मोदी जी हर हालत में बम-बम ही करेंगे. धर्म है उनका, जरूरत है उनकी. बाइडेन के लिए ऐसी मुलाकातें रूटीन है. वह बम-बम के फेर में नहीं पड़ते. हम प्राचीन जगद्गुरु हैं, वे अर्वाचीन जगद्गुरु. प्राचीन बम-बम ही करता रहता है. अर्वाचीन बिजनेस लाइक रहता है.

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कबूतरों की दुनिया में भी अकेलापन होता है शायद. हमारे एक बाथरूम की खिड़की में एक अकेला कबूतर कोई महीने भर से बैठा दिखता है. वह शरीर से असमर्थ नहीं लगता. बीच-बीच में दाना-पानी का इंतजाम करने के लिए वह उड़ कर कहीं जाता भी है मगर जहाज के पंछी की तरह फिर उसी खिड़की में जल्दी ही लौट आता है. उसकी रात भी यहीं बीतती है, दिन का आधिकांश हिस्सा भी.

किसी और कबूतर को उसके पास आते नहीं देखा. यहीं यह गूं-गूं कुछ करता रहता है, जैसे किसी को पास बुलाना चाहता हो या जैसा मुझे समझ में आ रहा है. अभी देखा तो उसी शाफ्ट की दूसरी खिड़की में एक और कबूतर भी अभी अकेला है मगर वह चुप और शांत है. उसे इस गूं-गूं से कोई लेना-देना नहीं. शायद दूसरा कबूतर इसे पुकारना चाह रहा हो.

कुछ देर पहले वह अपनी जगह गोल-गोल घूम रहा था. इसे संभवतः उसकी खुशी का इजहार समझा जा सकता है. क्या वह दूसरे कबूतर को साथ के लिए बुला रहा है ? वही जाने क्योंकि अभी भी वह गूं-गूं कर रहा है और दूसरा कबूतर उसी शाफ्ट की दूसरी खिड़की में अविचलित है.

कबूतर को जोड़ों में देखने की अभ्यस्त इन आंखों को किसी कबूतर का ऐसा अकेला पड़ जाना विचित्र लगता है, मगर इस तरह मैं उसे कहां समझ रहा हूं ? मैं तो अपनी समझ, अपनी भावनाएं उस पर थोप रहा हूं. मनुष्यों को समझना ही कहां इतना आसान है ? एक ही मनुष्य को समझने में जिन्दगी बीत जाती है. फिर भी उसने आपको और आपने उसे समझकर भी कितना समझा है, यह कहना मुश्किल है. कबूतर अभी तक गूं-गूं कर रहा था. अब शायद थक गया है और चुप है. संभवतः इसकी व्यर्थता समझ गया है.

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