सुब्रतो चटर्जी
भारत ने कभी युद्ध नहीं देखा. पाकिस्तान, चीन के साथ हुए युद्धों का कोई ख़ास असर भारतीय जनजीवन पर नहीं पड़ा. आर्थिक और राजनीतिक असर की बात अलग है. चीन से हार की पीड़ा को पाकिस्तान पर दो जीतों की ख़ुशी में भूला दिया गया, इसलिए मनोविज्ञान रूप से भी इन सीमित युद्धों का असर जनमानस पर एक तरह से सकारात्मक ही रहा. आप सोचेंगे इस कोरोना काल में मैं युद्ध की बात क्यों ले बैठा. दरअसल, कोरोना काल में हमारे सरकार की संवेदनहीनता, मूर्खता, भ्रष्टाचार और क्रिमिनल चरित्र जितना खुल कर सामने आया है, उतना शायद पहले कभी नहीं आया.
पिछले साल जब कोरोना की पहली लहर आई तो दुनिया का कोई भी देश इसके लिए तैयार नहीं था. एक साल के समय में अधिकांश देशों ने अपनी स्वास्थ्य व्यवस्था और बाज़ार व्यवस्था को इस आपदा से जूझने के लिए तैयार कर लिया. चीन ने तो पूरी तरह से बीमारी पर रोक ही लगा ली.
आप जानना चाहेंगे कि इससे युद्ध का क्या संबंध है ? दो विश्व युद्धों के दौरान यूरोप के हरेक घर में एक मौत हुई थी. विभिन्न देशों की जनता का बड़े पैमाने पर विस्थापन हुआ था. गांव के गांव, शहर के शहर तबाह हो गए. आयुध फ़ैक्टरियों के सिवा बाक़ी सारे औद्योगिक उत्पादन की इकाइयां सुस्त पड़ी रही. युद्ध में शामिल सभी देशों की सरकारों की पहली प्राथमिकता अपने देशवासियों की जान-माल, स्वास्थ्य और शिक्षा की हिफ़ाज़त करनी थी, चाहे वह साम्राज्यवादी इंग्लैंड हो या सोवियत रूस या नाज़ी जर्मनी. संकट की स्थिति में ऐसी सोच और पहल ने हज़ारों आपदा से निपटने के उपाय बनते बिगड़ते रहे. इन प्रयोगों के बीच से जहां एक तरफ़ सुदृढ़ आर्थिक राजनीतिक संरचनाएं बनीं तो दूसरी तरफ़ हरेक जान की क़ीमत भी समझ आ गई.
युद्ध की विभीषिका से निकल कर दुनिया बेहतर बनी. जिन देशों में सत्ता दलालों के बीच हस्तांतरण के माध्यम से नहीं बल्कि क्रांति के माध्यम से जनवादी शासकों के हाथों आई, उन देशों में भी यही स्थिति रही. चीन, वियतनाम, क्यूबा आदि इसके उदाहरण हैं. आज इन्हीं देशों का आपदा प्रबंधन सबसे बेहतर है.
ठीक इसके उलट भारत और भारतीय उपमहाद्वीप के देशों की हालत देखिए. कहीं पर सेना की कठपुतली प्रधानमंत्री है तो कहीं पर सेना खुद ही सरकार है. दोनों जनता के प्रति ज़िम्मेदार नहीं है. भारत में एक चुनी हुई सरकार है. प्रचंड मूर्खों द्वारा प्रचंड मूर्खों और इतिहास के सबसे घृणित क्रिमिनल लोगों की सरकार. तिस पर तुक्का ये है कि भारत को युद्ध का अनुभव नहीं है.
आपदा प्रबंधन बल (Disaster Management Force) अमरीका की नक़ल पर बनाया जा सकता है, लेकिन इसकी भूमिका सिर्फ़ आगज़नी, भूकंप और बाढ़ग्रस्त इलाक़ों में राहत पहुंचाने तक ही सीमित रहती है, अगर सरकार और लोगों की मानसिक तैयारी कोरोना जैसी आपदा को चुनौती देने लायक नहीं हो तो. यह तैयारी ट्रेनिंग से नहीं आती. युद्ध हमें बंकर बनाना सीखाता है, न कि मिलिटरी कॉलेज जहां हर कोई नहीं जाता. इसी तरह सामाजिक दायित्व का निर्वाह और सरकार को चौबीस घंटे उत्तरदायी और प्रयत्नशील रहने के लिए दवाब बनाने की राजनीतिक ज़िम्मेदारी का बोध भी युद्ध ही हमें देता है.
आज हालात क्या है ? शांति की रट लगाते हुए स्वार्थी, नीच, अनपढ़, कुपढ़, सांप्रदायिक, धर्मांध एक विशाल लुंपेन जनता ने ठीक अपने जैसा ही एक सरकार को चुनी है. जापान में जब सुनामी आया तो हर आदमी एक दूसरे की सहायता के लिए आगे आया. व्यापारी से लेकर सरकार तक एक पैर पर खड़े हो कर देश को संभालने का काम किया. हमारे यहां क्या हो रहा है ?
- सरकार आपदा को अवसर में बदल कर देश के संघीय चरित्र की हत्या कर चुकी है.
- सरकार ने अपनी जनविरोधी नीतियों के विरोध करने वालों को जेल में डाल दिया.
- सरकार की प्राथमिकता शाहीनबाग आंदोलन और अब किसान आंदोलन को समाप्त करना है.
- सरकार की प्राथमिकता चुनाव जीत कर राज्य सभा में बहुमत पा कर भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना है.
- सरकार की प्राथमिकता कुछ धन्ना सेठों के हाथों देश की सारी संपत्ति को हस्तांतरित करना है.
- सरकार की प्राथमिकता क़रीब एक अरब आबादी को दाने-दाने के लिए मोहताज करना है.
- सरकार की प्राथमिकता दलाली खाकर दवाइयों से लेकर ऑक्सीजन तक का आयात-निर्यात करना है.
- सरकार की प्राथमिकता अपने फ़ासिस्ट एजेंडा को पूरी बेशर्मी से लागू करना है.
दूसरी तरफ़ जनता का, विशेष कर व्यापारियों का हाल देखिए. आदर पूनावाला सरकार से अनुदान लेकर वैक्सीन बनाएगा और उसे 400 और 650 रुपये में बेचेगा. मतलब, जनता के टैक्स के पैसों से कारोबार करेगा और जनता को दुगुने दाम पर बेच कर असीमित मुनाफ़ा कमायेगा. ज़ाहिर है विश्व के सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री को उन का हिस्सा मिल जाएगा.
अस्पतालों की चांदी है. रेमेडिसवर लिख कर ही करोड़ों की कमाई है, कोरोना वार्ड की कमाई तो अलग है. बिचौलियों और दलालों की भी चांदी है. ऑक्सीजन सिलिंडर का जुगाड़ हो या अस्पताल में बेड की, हर जगह मुनाफ़ा ही मुनाफ़ा है. दवा विक्रेता पचास गुणा क़ीमत में ग़ैर ज़रूरी दवाओं को बेच कर खुश हैं.
प्रधानमंत्री चोरी फंड का एक पैसा भी स्वास्थ्य सेवा को सुधारने के लिए इस्तेमाल नहीं हुआ. पैसा अपने चहेते चोर गुजराती कंपनियों को फ़र्ज़ी वेंटिलेटर बनाने के लिए मिला. भाजपा को राउंड ट्रिप होकर वही पैसा बंगाल चुनाव के लिए मिला. बिहार, उत्तर प्रदेश के पांच लाख भूखे-लफ़ंगों की फ़ौज बंगाल चुनाव में उतार दिया गया.
भारत के सर्वकालीन सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री की नज़र जहां तक जाती है, सिर्फ़ भीड़ ही भीड़ है. इतनी बड़ी नरमुण्डों की माला देख कर नरपिशाच की ख़ुशी का आरपार नहीं है. इन सबके बीच आदमी असहाय हो कर मरने के लिए अभिशप्त है. श्मशान भी मृत्यु के बोझ तले दुहरा हुआ जाता है. दुनिया में तृतीय विश्व युद्ध शायद कभी नहीं हो लेकिन आज भारत एक युद्ध से ही गुजर रहा है. हम बेशक जीतेंगे लेकिन सवाल वही रह जाएगा, हम इस युद्ध से क्या सीखेंगे ?
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