जगदीश्वर चतुर्वेदी
नामवर सिंह के व्यक्तित्व के कई कोण हैं. उनमें से एक है उनका ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ का को. हिन्दी के लेखकों में प्रेमचंद के बाद वे अकेले ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की पहचान वाले लेखक हैं. हिन्दी के लेखकों की नज़र उनके हिन्दी पहलू से हटती नहीं है. खासकर शिक्षकों-लेखकों का एक बड़ा हिस्सा उन्हें प्रोफेसर के रूप में ही देखता है.
नामवर सिंह सिर्फ एक हिन्दी प्रोफेसर समीक्षक और विद्वान नहीं हैं. प्रोफेसर, आलोचक, पुरस्कारदाता, नौकरीदाता, गुरू आदि से परे जाकर उनके व्यक्तित्व ने ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की स्वीकृति पायी है. इस क्रम में वे हिन्दी अस्मिता का अतिक्रमण कर चुके हैं. यह कब और कैसे हुआ यह कहना मुश्किल है लेकिन उन्होंने सचेत रूप से लेखकीय-शिक्षक व्यक्तित्व को ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ में रूपान्तरित किया है. उनकी प्रसिद्धि के ग्राफ को ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ ने नई बुलंदियों पर पहुंचाया है.
नामवर सिंह कम लिखते हैं. घर में कम रहते हैं. अधिकांश समय देशाटन करते हैं, व्याख्यान देते हैं. अनेक बार कुछ नहीं बोलते लेकिन सैंकड़ों किलोमीटर चलकर जाते हैं. पांच-सात मिनट मुश्किल से बोलते हैं. अनेक बार बहुत अच्छा भी नहीं बोलते लेकिन अधिकांश समय उन्हें लोग अपने यहां बुलाना पसंद करते हैं. बुलाने वालों में विभिन्न रंगत के लोग हैं. वे किसी एक रंगत के लोगों के कार्यक्रमों में नहीं जाते. वे अधिकतर समय विचारधारा की सीमा से परे जाकर बोलते हैं. उनके बोलने और कार्यक्रमों में बुलावे के पीछे प्रधान कारण है उनका ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व.’
‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ के कारण उन्हें सार्वजनिक बौद्धिक जीवन में ऐसी भूमिका निभानी पड़ रही है, जिससे चाहकर भी वे अपना पिण्ड नहीं छुड़ा सकते. उनके ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ को लेकर अनेक बार उनसे शिकायतें भी की गयी हैं. अकेले में वे अपनी कमजोरियों को मान भी लेते हैं लेकिन बाद में उनका व्यक्तित्व फिर पुराने मार्ग पर चल पड़ता है.
वे अपने भाषणों में अनेक विषयों पर बोलते हैं और सुंदर बोलते हैं लेकिन विगत कई दशकों से उनके भाषणों के केन्द्र में एक ही विषय है जो बार-बार आया है, जिसके बारे में उन्होंने बार-बार रेखांकित किया है वह है ‘आलोचनात्मक मनुष्य.’ इस मनुष्य के लिए ही उन्होंने अपनी सारी यात्राएं समर्पित कर दी हैं. इसके लिए वे अपनी विद्वता, विविधभाषाओं के साहित्यज्ञान और विभिन्न विचारधाराओं का इस्तेमाल करते रहे हैं.
वे जहां जाते हैं मानवीय अज्ञान से टकराते हैं. वे जानते हैं कि जिस गोष्ठी में जा रहे हैं वहां उस विषय के कम जानकार आ रहे हैं, श्रोताओं में भी सक्षम लोग कम हैं, इसके बावजूद वे जाते हैं और गंभीर, नए, चालू, उत्सवधर्मी विषयों पर अज्ञान से मुठभेड़ करते हैं.
उन्हें अपनी विद्वता का एकदम दंभ नहीं है. गोष्ठियों में वे उस समय ज्यादा सुंदर लगते हैं जब वे इरेशनल के खिलाफ बोल रहे होते हैं. इरेशनल को वे कभी माफ नहीं कर पाते, सहन नहीं कर पाते. वे कमजोर तर्क से सहमत हो जाते हैं, सामंजस्य बिठा लेते हैं लेकिन इरेशनल से सामंजस्य नहीं बिठा पाते. उनके व्याख्यानों या टिप्पणियों की दूसरी बडी खूबी है उनका भारतीय और हिन्दी तर्कसिद्धांत.
इसमें वे पक्के भौतिकवादी के रूप में मंच पर पेश आते हैं. अनेक बार उनके विचारों में पुनरावृत्ति दिखाई देती है. लेकिन इसका भी कारण है जिसकी खोज की जानी चाहिए.
नामवर सिंह जब भी बोलते हैं तो अंतर्विरोधों में बोलते हैं. अंतर्विरोध के बिना नहीं बोलते. अंतर्विरोधों के आधार से खड़े होकर बोलने के कारण उनका व्यक्तित्व बेहद आकर्षक और आक्रामक नजर आता है और वे इस सारी प्रक्रिया को ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की छाप के साथ करते हैं.
नामवर सिंह ने अपने भाषणों में राष्ट्रवाद, हिन्दीवाद, कट्टरता, फंडामेंटलिज्म, अतिवादी वामपंथ, साम्प्रदायिकता, आधुनिकतावाद, नव्य उदारतावाद, पृथकतावाद आदि का कभी समर्थन नहीं किया. वे इन विषयों पर बोलते हुए बार-बार सभ्यता के बड़े सवालों की ओर चले जाते हैं.
किसी के भी मन में यह सवाल उठ सकता है कि नामवर सिंह देशाटन क्यों करते हैं ? वे इतने बूढ़े हो गए हैं आराम क्यों नहीं करते ? उनके पास पैसे की क्या कमी है जो इस तरह भटकते रहते हैं ? वे चुपचाप बैठकर लिखते क्यों नहीं ? आदि सवालों और इनसे जुड़ी बातों को हम सब आए दिन सुनते रहते हैं.
नामवर सिंह जानते हैं भाषणों से संसार बदलने वाला नहीं है. मैं जहां तक समझता हूं भाषणों से उन्हें कोई खास मानसिक शांति भी नहीं मिलती. कोई खास पैसे भी नहीं मिलते, इसके बावजूद वे भाषण देने जाते हैं, जो भी बुलाता है उसके कार्यक्रम में चले जाते हैं. मेरी समझ से इसका प्रधान कारण समाजीकरण. नामवरसिंह भाषण नहीं देते समाजीकरण करते हैं. समाजीकरण की प्रक्रिया के बहाने ही उन्होंने लोगों का मन जीता है, बेशुमार प्यार और सम्मान अर्जित किया है.
नामवर सिंह के जीवन में अनेक कष्टप्रद क्षण आए हैं और उसे उन्होंने झेला है. निजी तौर पर गहरी पीड़ा का भी अनुभव किया है. इसके बावजूद इसे उन्होंने कभी सार्वजनिक नहीं होने दिया. कष्टों को झेलने के कारण एक खास किस्म की कुण्ठा और ग्लानि भी पैदा होती है, उसे भी अपने लेखन और व्यक्तित्व में आने नहीं दिया.
मैंने उन्हें कभी ग्लानि या कुण्ठा में नहीं देखा. इसके कारण वे स्वतंत्र ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ का निर्माण करने में सफल रहे हैं. कुण्ठा और ग्लानि मनुष्य को परनिर्भरता और भय की ओर ले जाती है और परनिर्भरता और भय से नामवर सिंह को सख्त नफरत है.
वे कभी निष्क्रिय नहीं रहते. अहर्निश सक्रियता के बीच में ही यात्राएं करते हैं. अकादमिक जिम्मेदारियों का पालन करते हैं. सामाजिकता निबाहते है. उन्हें वे लोग पसंद हैं जो रिवेल हैं या बागी हैं. परिवर्तनकामी है. रूढियों से लड़ते हैं. वे घर पर आते हैं विश्राम के लिए और कुछ दिन रहने के बाद फिर से चल पड़ते हैं. घर उनका परंपरागत अर्थ में घर नहीं है. वह उनके विश्राम का डेरा है, वहां वे नए सिरे से ऊर्जा संचय करते हैं और निकल पड़ते हैं.
उनके व्यक्तित्व में नया और पुराना दोनों एक ही साथ मिलेगा. वे भाषण पुराने पर देते हैं पैदा नया करते हैं. उनके पुराने विषयों पर दिए गए भाषणों में पुरानापन नहीं है. उन्हें पुराने की आदत है, नए से प्रेम है. पुराने की आदत, परंपरा से जुड़े रहने के कारण है, और नए से प्रेम वर्तमान और भविष्य की चिन्ताओं के कारण है. यही वजह है कि उनके व्यक्तित्व और व्याख्यान में नया और पुराना एक ही साथ नजर आता है. इसके आधार पर ही वे सभ्यता निर्माण के मिशन को अपने तरीके से पूरा कर रहे हैं.
नामवर सिंह ने जीवन से ज्यादा साहित्य, संस्कृति, विचारशास्त्र आदि के क्षेत्र में जोखिम उठाया है. जितने जोखिम उन्होंने विचारों के क्षेत्र में उठाए हैं, उतने ही वे जीवन में उठा पाते तो और भी ज्यादा सुखी होते. उनका पुराने से जुड़ा होना जीवन में जोखिम उठाने से रोकता रहा है और वे उसे सहते रहे हैं.
उन्होंने विचारों की दुनिया में अपने को पूरी तरह खो दिया है लेकिन निजी जीवन में वे अपने को खो नहीं पाए हैं और अनेक मसलों पर किनाराकशी करके दर्शक बनकर देखते रहे हैं. कुछ लोग इसे पलायन भी कह सकते हैं लेकिन यह पलायन नहीं है सामाजिक जोखिम नहीं उठाने की शक्ति का अभाव है.
नामवर सिंह आधुनिक ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ के मार्ग पर चलते रहे हैं और उनके आलोचक पीछे -पीछे उनकी असंगतियों का शोर मचाते रहे हैं. साहित्य के दायित्व को उन्होंने राष्ट्रीय दायित्व के रूप में ग्रहण किया है और अन्य दायित्वों को इसके मातहत बना दिया है. यही उनकी महान विभूति का प्रधान कारण है.
नामवर सिंह विचारों के समुद्र हैं. वे साहित्य, समीक्षा, राजनीति, तकनीक, मीडिया आदि किसी भी क्षेत्र में अतुलनीय क्षमता रखते हैं. वे इनमें से किसी भी क्षेत्र पर मौलिक ढ़ंग से प्रकाश डालने में सक्षम हैं. किसी भी गंभीर बात को अति संक्षेप में कहने में सक्षम हैं. वे प्रभावित करते हैं. माहौल बनाते हैं. अपनी उपस्थिति से आलोकित करते हैं लेकिन किसी का व्यक्तित्व बनाने, तराशने वाले कारीगर का कौशल उनके पास नहीं है.
वे समुद्र हैं, महान व्यक्तित्व हैं, कारीगर नहीं. यही वजह है कि उनके आसपास रहने वाले अधिकांश शिष्य उनके गुणों, क्षमता और विद्वता आदि में कहीं से भी नामवर सिंह का उत्पाद नहीं लगते. शिष्य सोचते हैं गुरूदेव की कृपा से वे भी महान हो जाएंगे, गुरूदेव जैसे हो जाएंगे, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता. शिष्य भूल जाते हैं कि वे समुद्र किनारे बने हुए रेती के मकान हैं जिन्हें जब भी समुद्री लहरें आती है बहा ले जाती हैं.
नामवर सिंह ने अपना व्यक्तित्व अपने परिश्रम, मेधा और संघर्षों के आधार पर बनाया है. उन्हें स्वयं के अलावा किसी ने मदद नहीं की. वे इसी अर्थ में आत्मनिर्भर हैं. वे अपनी सारी शक्ति एक चीज के लिए लगाते रहे हैं वह है ज्ञानप्रेम. ज्ञानप्रेम ने उन्हें महान बनाया है. यह प्रेम उनके किसी शिष्य में नहीं है. दीवानगी की हद तक वे आज भी इसके दीवाने हैं और इसी ने उनके ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ का निर्माण किया है.
नामवर सिंह के हिन्दी में दीवानों की कमी नहीं है. दीवाने तो दीवाने होते हैं. वे असल में नामवर सिंह के फेनक्लब के सदस्य हैं. इन प्रशंसकों की प्रशंसा की बौछार देखकर मुझे प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक वाल्टर बेंजामिन की एक टिप्पणी याद आ रही है. बेंजामिन ने लिखा है- ‘प्रशंसा की बौछार सबसे अधिक रचनाकार को ही संदिग्ध बना देती है.’
चार साल पहले राजकमल प्रकाशन के द्वारा नामवर सिंह के विचारों, आलोचना निबंधों, व्याख्यानों और साक्षात्कारों पर केन्द्रित 4 किताबें आयी थी. चार इस साल आई हैं. इस साल आई किताबें अभी तक पढ़ी और देखी नहीं हैं. पिछली खेप की किताबों का ‘कुशल’ संपादन आशीष त्रिपाठी ने किया है.
ये किताबें आधुनिक युग में विचारों की भिड़ंत के सैलीबरेटी रूप का आदर्श नमूना है. सैलीबरेटी आलोचना चमकती है और प्रभावहीन होती है. ये किताबें ऐसे समय में आई हैं जब विचारों से हिन्दी की आलोचना भाग रही है. नामवर सिंह ने आलोचना लिखना बंद कर दिया हैं. उन्हें कम लिखने का आदर्श बना दिया गया है.
यह मिथ है, वे कम लिखते हैं और कम लिखने वाला महान होता है, विद्वान होता है. यह मिथ इन किताबों के आने से टूटा है. यह भी पता चलता है कि कई साल पहले आलोचना की विदाई हो चुकी है. नामवर सिंह के हाथों आलोचना का अंत अनिवार्य परिघटना है. मौटे तौर पर 1984-85 के बाद से आलोचना का नामवर सिंह के लेखन में समापन हो चुका ह. यही वह दौर है जब कम्प्यूटर क्रांति का जन्म होता है और नामवर सिंह साहित्य से गैर-साहित्यिक विषयों की ओर प्रस्थान करते हैं. इसके पहले वे गैर-साहित्यिक विषयों पर कम लिखते थे.
देश में जब सत्ता का फासिज्म आपात्काल में जनता पर हमले कर रहा था नामवर सिंह कुछ नहीं बोले, लेकिन रामजन्मभूमि आंदोलन के बाद संघ परिवार के फासीवाद पर ‘आलोचना’ पत्रिका का पूरा विशेषांक ही निकाल दिया. नामवर सिंह में चेतना के स्तर पर आए ये परिवर्तन संचार क्रांति और ‘पावरगेम’ की देन हैं.
संचार क्रांति के बाद उन्होंने राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर खूब लिखा और बोला है. इस बदलाव को नामवर सिंह या उनके भक्तों को विश्लेषित करना चाहिए और बताना चाहिए कि नामवर सिंह जैसा महापंड़ित साहित्य से भागकर राजनीति में क्यों चला आया ? मार्क्सवाद से उत्तर आधुनिकता की गोद में कैसे चला आया ? पहले वे उत्तर आधुनिकता को लेकर जो सोचते थे, वही समझ उन्होंने बड़ी चालाकी से क्यों छोड़ दी ? नामवर सिंह के उत्तर आधुनिक परिवर्तनों और ‘पावरगेम’ की वैचारिक कलाबाजियां इन किताबों के निबंधों में आसानी से देख सकते हैं.
सवाल उठता है साहित्य की दुनिया से निकलकर फासीवाद, भूमंडलीकरण, साम्प्रदायिकता, बहुलतावाद, भारतीयता, अस्मिता, बीसवीं सदी का मूल्यांकन, दुनिया की बहुध्रुवीयता, उत्तर आधुनिकता और मार्क्सवाद आदि विषयों पर वे उत्तर आधुनिकता के आने के बाद ही मुठभेड़ क्यों करते हैं ? इन विषयों पर पहले क्यों नहीं लिखा ? कम्प्यूटर क्रांति के बाद ही उनकी नजर इन विषयों की ओर क्यों गयी ? इस क्रम में नामवर सिंह के विचारों में सबसे ज्यादा चंचलता, विचारहीनता और चलताऊढ़ंग नजर आता है. उनके विचारो में सबसे ज्यादा लोच इसी दौर में उभरकर आती है. यह सब नामवर सिंह के आलोचक की विदाई का पुख्ता सबूत है. नामवर सिंह से पहले रामविलास शर्मा साहित्य और मार्क्सवाद का मैदान छोड़ चुके थे.
नामवर सिंह के व्यक्तित्व और कृतित्व में सबसे ज्यादा बदलाव 1980-81 के बाद ही आता है. उनके कृतित्व में उत्तर आधुनिक शब्दावली नहीं मिलेगी लेकिन उत्तर आधुनिक वैचारिक रपटन मिलेगी, जिस पर वे बार-बार फिसलते हैं. वे व्यक्तिगत और सार्वजनिक तौर पर उत्तर आधुनिक शब्दावली का उपहास उड़ाते हैं लेकिन लेखन में सारे उत्तर आधुनिक पैंतरों और रणनीतियों का इस्तेमाल करते हैं. यह तो वैसे ही हुआ कि गुड़ खाएं गुलगुलों से बैर.
नामवर सिंह की आलोचना शैली का सबसे खतरनाक पहलू वह है जिसे वे व्यक्तिगत बातचीत में इस्तेमाल करते हैं. किसी भी लेखक या व्यक्ति का भविष्य खराब करने में उनकी यह निजी बातचीत बर्बादी करती रही है. इस कला के आधार पर वे अनेक प्रतिभाओं को गुमनामी की गुफाओं में ले जा चुके हैं.
नामवर सिंह की विश्वदृष्टि सभी किस्म की रूढ़िबद्धताओं और विचारधारा से भी मुक्त है, यह विश्वदृष्टि विश्वसनीय, गतिशील और अनिश्चित है. वे बार-बार भारतीय ज्ञानमीमांसा के क्षेत्र में विश्वदृष्टि के नए रूपों की तलाश में लौटते हैं. उनकी विश्वदृष्टि का आधार है भारतीय सत्ता के हित. वे इस चक्कर में वर्गीय, जातीय, जातिवादी और धार्मिक दायरे के परे जाकर देखते हैं. वे न तो मार्क्सवाद को विश्वदृष्टि का आधार बनाते हैं और ना ही किसी अन्य मार्क्सवाद विरोधी दृष्टिकोण को बल्कि अमेरिकी उपयोगितावाद उनकी विश्वदृष्टि की धुरी है. हिन्दी में एक कहावत है जिसमें उनके उपयोगितावाद को बांध सकते हैं, गंगा गए गंगादास जमुना गए जमुनादास.
वे दुनिया के साहित्य, दर्शन और समीक्षा को पढ़ते हैं, अपने को अपडेट रखते हैं, लेकिन उसमें बहते नहीं हैं. उपयोगितावादी कुशल तैराक की तरह उसमें तैरते रहते हैं लेकिन उनके विचारों को विश्राम हिन्दी साहित्य में मिलता है. इस अर्थ में वे ग्लोबल-लोकल एक साथ हैं.
नामवर सिंह ने अपनी उपयोगितावादी विश्वदृष्टि को सचेत रूप से विकसित किया हैं, सचेत रूप से ‘पावरगेम’ का उपकरण बनाया है, फलतः उनके पीछे सत्ताधारी वर्गों की समूची शक्ति काम करती रही है. इसके कारण वे कम्पलीट भारतीय बुद्धिजीवी नजर आते हैं. हिन्दी साहित्य में उनकी रमी हुई प्रतिभा के सब कायल हैं.
एक जमाने में वे जनता के प्रगतिशील हितों से बंधे थे. साहित्यालोचना को उन्होंने प्रगतिशील शक्तियों के पक्ष में सृजनात्मक तौर पर विकसित किया था. उनके आपातकाल पूर्व के लेखन में यह नजरिया व्यक्त हुआ है. आपातकाल के पहले नामवर सिंह साहित्य के आलोचक थे. आपातकाल के बाद वे सत्ता के समर्थक और ‘पावरगेम’ का हिस्सा बन गए. इससे साहित्य, समीक्षा और प्रगतिशील शक्तियों की व्यापक क्षति हुई है. आपातकाल के समय से नामवर सिंह ने लेखन में उन्हीं विषयों को उठाया है, जो सत्ताविमर्श का हिस्सा हैं.
नामवर सिंह के व्यक्तित्व के अनेक पहलू हैं जिनमें उनकी अस्मिता की दरारें साफ देखी जा सकती हैं. मसलन् उनके शिक्षक व्यक्तित्व, शिक्षा प्रशासक, पति, पिता, दोस्त,कॉमरेड, समीक्षक आदि रूपों पर आलोचनात्मक ढ़ंग से विचार किया जाना चाहिए और देखना चाहिए कि एक व्यक्ति के नाते नामवर सिंह किस तरह की सामाजिक भूमिका और व्यवहार का निर्वाह करते रहे हैं. इन सभी रूपों में नामवर सिंह एक जैसे नजर नहीं आते.
नामवर सिंह के साहित्यिक जीवन की समीक्षा के साथ साथ सामाजिक-अकादमिक जीवन की भी समीक्षा की जानी चाहिए. हिन्दी में नामवर सिंह ने अभी तक अपनी अंशतः सामाजिक समीक्षा की है. जबकि मुक्तिबोध और रामविलास शर्मा यह काम कर चुके हैं. उनकी विभिन्न किस्म की इमेजों में गहरी दरारें हैं, जहां पर उनके व्यक्तित्व के विघटन को साफतौर पर देखा जा सकता हैं. वे हमेशा ‘पावर’ और ‘साहित्य’ के बीच घूमते रहे हैं. उन्होंने अपने को ‘सत्ता के खेल’ और ‘पितृसत्ता’ का हिस्सा बनाया है.
‘पावरगेम’ के पैराडाइम में आलोचना और आलोचक का सामाजिक प्रभाव खत्म हो जाता है. यही वजह है कि नामवर सिंह हैं लेकिन सामाजिक प्रभाव के बिना. उनकी किताबें हैं लेकिन आलोचना पर कोई प्रभाव नहीं है. नामवर सिंह के पास सत्ता के खेल के सभी झुनझने हैं, लेकिन आलोचना नहीं हैं. सत्ता के खेल का अंग बनकर नामवर सिंह ने सब कुछ पाया लेकिन आलोचना उनके पास से चली गयी है.
अब यह नामवर सिंह और उनकी भक्तमंडली तय करे कि सत्ता के खेल ने नामवर सिंह की आलोचना को महान बनाया या नपुंसक बनाया ? सत्ता के खेल ने उनके आलोचक पद का अवमूल्यन किया है उन्हें आलोचक की बजाय सैलीबरेटी बनाया है. मीडिया प्रतीक बनाया है. आज नामवर सिंह जितने प्रभावहीन हैं उतने पहले कभी नहीं थे.
ये चारों किताबें नामवर सिंह के मार्क्सवादी मिथों को तोड़ती हैं. मिथ बनाना और तोड़ना यह उनकी सामान्य प्रकृति है. अपने कहे को सार्वजनिक तौर पर बदलना अथवा अस्वीकार करना, विचारों की रुढ़िबद्धता को तोड़ने का उनका उपयोगितावादी अस्त्र हैं. नामवर सिंह की इन किताबों की आलोचनादृष्टि की धुरी है तात्कालिक दबाब, पितृसत्तात्मक नजरिया और सत्ता की जरूरतें.
भूमिका में आशीष त्रिपाठी ने नामवर सिंह को उद्धृत करते हुए लिखा है, ‘एक बार मेरे पूछने पर उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि ‘चाहे निबन्ध हो या पुस्तक, मुझे उसका प्रकाशन तब ही जरूरी लगता रहा है, जबकि वह मौजूदा परिदृश्य में हस्तक्षेप करे. उसके ठहराव को तोड़े और वाद-विवाद-संवाद की प्रक्रिया को आगे बढ़ाए. मेरी ज्यादातर पुस्तकें अपने समय की बहसों में भागीदार होकर लिखी गयी हैं इसीलिए संग्रह के लिए संग्रह निकालना मेरी प्राथमिकता नहीं रहा है.’
सवाल उठता है फिर ये किताबें क्यों लायी गयी हैं ? क्या ये किताबें संग्रह के लिए संग्रह नहीं हैं ? नामवर सिंह जिसे ‘हस्तक्षेप’ कहते हैं वह शीतयुद्धीय राजनीति का महामंत्र है. मौजूदा दौर ‘हस्तक्षेप’ का नहीं ‘लेखन’ का है और उसी का परिणाम हैं ये चार किताबें. ‘हस्तक्षेप’ से ‘लेखन’ के पैराडाइम में आना नामवर सिंह का कायाकल्प है. यह एक मार्क्सवादी का ‘कछुआ धर्म’ में रूपान्तरण है. यह मार्क्स के पंथ से देरिदा के पंथ में दाखिल होना है. नामवर सिंह के इन निबंधों के प्रकाशित होने से उनका पैराडाइम शिफ्ट हुआ है. वे अचानक ‘आलोचना’ से ‘विमर्श’ में चले आए हैं.
नामवर सिंह की इन किताबों में मूलतः दो मॉडल हैं – पहला साहित्यिक मॉडल कृति-व्यक्ति केन्द्रित है, दूसरा, अस्मिता मॉडल है, इसमें अस्मिता के उप-पाठ भी शामिल हैं. ये दोनों ही मॉडल उनकी इन चार किताबों में हैं. ये दोनों सत्ता विमर्श के साहित्यिक मॉडल हैं.
ये किताबें नामवर सिंह की पहले आयी किताबों जैसे – ‘छायावाद’, ‘इतिहास और आलोचना’,‘कविता के नए प्रतिमान’, ‘दूसरी परंपरा की खोज’, ‘वाद-विवाद-संवाद’ से बुनियादी तौर पर अलग हैं. ये चारों किताबें नामवर सिंह के विचारों के वैविध्य को सामने लाती हैं. इन किताबों में नामवर सिंह की शीतयुद्धीय धारणाओं का विध्वंस भी देखा जा सकता है.
सवाल उठता है क्या नामवर सिंह के ये चार संकलन किसी नई बहस को जन्म देते हैं ? क्या इनके माध्यम से आलोचना में कोई नयी जान फूंकी जा सकती है ? क्या इन निबंधों से आलोचना का कोई नया वातावरण बनेगा ? जी नहीं. इन किताबों से नामवर सिंह के विचारों के बारे में और भी भ्रम पैदा होंगे, आलोचकों और लेखकों में सत्ता की शरण में जाने की मुहिम तेज होगी. आलोचना और भी नपुंसक बनेगी. अराजनीतिक बनेगी.
नामवर सिंह की जो चार किताबें आई हैं वे हैं ‘कविता की जमीन और जमीन की कविता’, ‘प्रेमचन्द और भारतीय समाज’, ‘हिन्दी का गद्यपर्व’ और ‘जमाने से दो-दो हाथ.’ ये चारों किताबें मूलतः आलोचना को पुनःप्रतिष्ठित करने का असफल प्रयास है. इनमें ‘प्रेमचंद और भारतीय समाज’ कथा समीक्षा की महत्वपूर्ण किताब है जबकि ‘जमाने से दो-दो हाथ’ उत्तर आधुनिक विषयों पर नामवर सिंह की अधूरी किताब है. इसमें नामवर सिंह वैचारिक रूप से चंचल नजर आते हैं. यही स्थिति ‘हिन्दी का गद्यपर्व’ नामक किताब की भी है, इसमें नामवर सिंह के शीतयुद्धीय साहित्यिक नजरिए को देखा जा सकता है. हिन्दी साहित्येतिहास को लेकर नामवरसिंह की विवादास्पद और कमजोर धारणाएं इसमें व्यक्त हुई हैं.
‘हिन्दी का गद्य पर्व’ में चार मार्क्सवादियों – जार्ज लूकाच, लुसिएं गोल्डमान, रेमण्ड विलियम्स और लेनिन – पर नामवर सिंह के लेख सबसे कमजोर लेख हैं. चीजों को सरल बनाकर पेश करने के चक्कर में मार्क्सवादियों के विचारों की अपूर्ण इमेज प्रस्तुत की गई है. ‘लेनिन और हम’ निबंध में लेनिन को एक बार याद करने के बाद नामवर सिंह ने लेनिन को कभी दोबारा याद नहीं किया. हिन्दी के मार्क्सवादियों में रामविलास शर्मा, राहुल सांकृत्यायन और शिवदान सिंह चौहान के उठाए कुछ ही मुद्दों पर उन्होंने लिखा है, बाकी मार्क्सवादियों को इस लायक भी नहीं समझा,
कहने का आशय यह कि हिन्दी के मार्क्सवादियों और मार्क्सवाद पर उन्होंने न्यूनतम लिखा है. विदेशी मार्क्सवादियों पर भी न्यूनतम लिखा है. भारत के बाकी मार्क्सवादियों पर कुछ भी नहीं लिखा है. मार्क्सवादी साहित्यालोचना संबंधी धारणाओं पर कुछ भी नहीं लिखा है. सवाल किया जाना चाहिए कि नामवर सिंह ने मार्क्सवादी सिद्धान्तों और भारत के मार्क्सवादियों पर क्यों नहीं लिखा ? जबकि रामविलास शर्मा ने अपने तरीके से यह काम किया है.
मार्क्सवादी सिद्धांत चर्चा से विश्व का कोई भी मार्क्सवादी नहीं भागा सिर्फ नामवर सिंह को छोड़कर. उल्लेखनीय है भारत में मार्क्सवादी सिद्धान्त चर्चा समाजविज्ञान, दर्शन और विज्ञान के भारतीय मार्क्सवादियों में खूब हुई है लेकिन नामवर सिंह इससे भागते रहे हैं.
नामवर सिंह का मार्क्सवाद की मूल सिद्धान्त चर्चा से पलायन और उनका सारी जिंदगी मार्क्सवाद की बुनियादी बातों पर न बोलना और न लिखना किस बात का संकेत है ? सच्चाई यह है नामवर सिंह ने मार्क्सवाद पर सबसे ज्यादा पढ़ा है. सबसे बड़ा मार्क्सवादी किताबों का जखीरा उनके पास है लेकिन मार्क्सवाद पर उन्होंने न्यूनतम भी नहीं लिखा है.
नामवर सिंह का मार्क्सवादी सिद्धांत चर्चा से पलायन का प्रधान कारण है उनकी सामंती मनोवृत्तियां और सत्ताभक्ति. नामवर सिंह तमाम अच्छाईयों और महानता के बावजूद अपने दिमाग की सामंती और सत्तापंथी संरचनाओं को तोड़ने में असमर्थ रहे हैं. सत्ता और सामंत उनके मार्क्सवाद पर भारी पड़े हैं.
मार्क्सवाद की सिद्धांत चर्चा किसी भी बुद्धिजीवी को इरेशनल वैचारिक संरचनाओं से लड़ने, पोजीशन लेने के लिए मजबूर करती है. नामवर सिंह के साथ यह प्रक्रिया जीवन और साहित्य में कभी घटित ही नहीं हुई.
नामवर सिंह मार्क्सवाद की जटिल सिद्धान्त चर्चा में हस्तक्षेप करने के लिए कभी अपने को जाग्रत नहीं कर पाए ? नामवर सिंह के लिए मार्क्सवाद सुविधा की चीज है. मार्क्सवाद की बुनियादी सिद्धांत चर्चा में लिखित और वाचिक दोनों ही रूप में उनकी अनुपस्थिति हिन्दी में सत्ता, मार्क्सवाद और सामंतवाद के निकृष्टतम गठजोड़ की चरम अभिव्यक्ति है. उल्लेखनीय है मार्क्सवाद की सिद्धांत चर्चा पर रामविलास शर्मा, अमृतराय, शिवकुमार मिश्र, मैनेजर पांडेय आदि ने लिखा है लेकिन नामवर सिंह ने कुछ भी नहीं लिखा है.
इन चार किताबों में वाचिक और लिखित दो तरह के नामवर सिंह हैं. लिखित नामवर सिंह में हिन्दी समीक्षा के गद्य सौंदर्य के दर्शन होते हैं जबकि वाचिक नामवर सिंह में जगह-जगह वैचारिक विचलन नजर आता है. कायदे से वाचिक और लिखित दोनों किस्म के नामवर सिंह में भेद करके पढ़ा जाना चाहिए. यह भेद व्यक्ति का ही नहीं मीडियम का भी है. नामवर सिंह आलोचक कम और साहित्य के प्रौपेगैण्डिस्ट या प्रचारक ज्यादा नजर आते हैं.
हिन्दी साहित्य को जनप्रिय बनाने में उनके व्याख्यानों का बड़ा योगदान है, उन्होंने अपने व्याख्यानों से हिन्दी साहित्य के प्रति वैसे ही आकर्षण पैदा किया है जिस तरह 19वीं सदी में दयानंद सरस्वती के भाषणों ने हिन्दी भाषा के प्रति आकर्षण पैदा किया था.
नामवर सिंह अपने व्याख्यानों में प्रौपेगैण्डा की तकनीक का बारीकी से इस्तेमाल करते हैं. इसमें सेंसरशिप भी शामिल है, जिसके तहत वे कुछ सूचनाएं छिपाते तो कुछ सूचनाएं बताते हैं. इस पद्धति के आधार पर ही वे साहित्य में लेखकों को उठाने-गिराने का काम करते रहे हैं.
नामवर सिंह की व्याख्यान कला के चार तत्व हैं मोहित करना, छिपाना, सरल बनाना और फुसलाना. इन तत्वों के आधार पर नामवर सिंह ऑडिएंस और लेखकों की समझ को बदलने और नियंत्रित करने का काम करते हैं. इस पद्धति का इस्तेमाल करते हुए वे लेखक, विचार और संस्थान विशेष की छद्म इमेज भी बनाते हैं.
उनके लेखन में हिन्दी के समस्त दोषों का ठीकरा अन्य के सिर फोड़ा गया है. दोष के लिए अन्य दोषी और स्वयं दोषमुक्त. अभिव्यक्ति की यह पद्धति आलोचना की नहीं प्रौपेगैण्डा की पद्धति है. प्रौपेगैण्डा पद्धति में झूठ बोलना कला है और कम से कम सूचना देना भी कला है.
नामवर सिंह कम से कम सूचनाएं देकर अभीप्सित प्रचार प्राप्त करते रहे हैं. उनके अधिकांश व्याख्यान प्रगतिशीलों और जनवादियों के बीच ही हुए हैं अतः उनकी राय को नियंत्रित करने में नामवर सिंह की बडी भूमिका रही है. उल्लेखनीय है प्रौपेगैण्डा राय को नियंत्रित करता है. हिन्दी साहित्य में नामवर सिंह राय बनाने और नियंत्रित करने का काम करते रहे हैं. इस अर्थ में वे कम्प्लीट प्रचारक हैं. राय बनाना, राय नियंत्रित करना, सहमति तैयार करना यही उनका मूल लक्ष्य रहा है. यही काम बुद्धिजीवी से सत्ता कराना चाहती है. इसी को कहते हैं सत्ता का खेल.
ये सारे काम आलोचना के कम प्रौपेगैण्डा के ज्यादा हैं. आलोचना का काम सहमति तैयार करना नहीं है, बल्कि असहमतियों का उदघाटन करना है. आलोचनात्मक वातावरण बनाना है. नामवर सिंह असहमति और आलोचनात्मक वातावरण तैयार करने का नहीं सहमति के निर्माण का काम करते रहे हैं. यह प्रौपेगैण्डा की पद्धति है, आलोचना की नहीं.
नामवर सिंह को हिन्दी में आलोचक कम और ‘साहित्य के अधिकारी विद्वान’ के रूप में ज्यादा जनप्रियता हासिल है. यह ‘अधिकारी विद्वान’ का पद प्रचारक का पद है आलोचक का नहीं.
वे जब बोलते हैं तो ऑडिएंस का ख्याल रखते हैं और उन्हीं बातों, विचारों आदि का प्रचार करते हैं जिसको ऑडिएंस की स्वीकृति मिले. उनके भाषणों में हिन्दी प्रेम, भारत प्रेम, भारतीय परिवार प्रेम, गांव, ग्राम्य दुर्दशा, स्वाधीनता का समर्थन और दर्शक की इच्छाओं का महिमामंडन खूब हुआ है.
नामवर सिंह के अनेक व्याख्यान लेखकों के मनोबल को बढ़ाने के लिहाज से दिए गए हैं. हिन्दी में जिसे अपना मनोबल टूटता-सा लगता है, दौड़कर नामवर सिंह के पास जाता है और अनुरोध करता है चलो भाषण दो. यह काम मूलतः प्रौपेगैंडिस्ट का है. वह नैतिक मनोबल बढ़ाने का काम करता है. इस काम में नामवर सिंह अपनी साख और आदर्शों का जमकर इस्तेमाल करते रहे हैं.
नामवर सिंह की साख सबसे ज्यादा है, जिसका वे व्यक्तियों, लेखकों और साहित्य पाठकों के नैतिक मनोबल बढ़ाने के लिए इस्तेमाल करते हैं. इस प्रक्रिया में साहित्य की ग्रहण क्षमता बढ़ाने पर उनका खास ध्यान रहा है.
नामवर सिंह अपने भाषणों से हस्तक्षेप करते हैं, ऑडिएंस को एकजुट करते हैं फिर सुनने वालों में एकमत राय कायम करते हैं. वे अपने व्याख्यानों के जरिए संबंधित विषय पर मतभेदों को कम करते हैं. मतभेदों के दायरे को कम करने के चक्कर में सरलीकरण और विभ्रम भी पैदा करते हैं, लेकिन उनका मूल लक्ष्य विभ्रम पैदा करना नहीं है, वे मतभेद और गुटबाजियां कम करने के लिए व्याख्यान का इस्तेमाल करते हैं. व्याख्यान के अंत में उनकी भविष्य पर नजर होती है और आशा का संदेश देते हैं. भविष्य के प्रति ऑडिएंस में जो अज्ञान है उस पर से पर्दा हटाते हैं. यह काम बेहद सतर्क ढ़ंग से करते हैं.
नामवर सिंह अपने विचारों में जिस क्षेत्र या विषय पर बातें करते हैं उस पर समाधान भी सुझाते हैं वे महज बातें नहीं करते. ऑडिएंस उनके समाधानों से सामने सहमत होती है. इसके लिए वे अभिभूत करने की कला का जमकर इस्तेमाल करते हैं. इसी अर्थ में वे साहित्य के महान् प्रचारक हैं.
नामवर सिंह के व्याख्यान ऑडिएंस को फुसलाते ज्यादा हैं ज्ञान कम देते हैं. वे साहित्य के प्रति आस्था पैदा करते हैं साहित्य का ज्ञान कम देते हैं. यही वजह है नामवर सिंह के व्याख्यान पढ़ते हुए साहित्य के प्रति आस्था बनती है, ज्ञान कम मिलता है.
नामवर सिंह की व्याख्यान शैली आक्रामक होती है और इसके जरिए वे किसी न किसी व्यक्ति के विचारों पर हमला करने के बहाने ऑडिएंस के विचारों पर उच्च नैतिक धरातल से हमला बोलते हैं और फिर उसे अपनी राय मानने के लिए फुसलाते हैं.
हिन्दी में आलोचना को प्रतिष्ठित करनें में नामवर सिंह की अग्रणी भूमिका रही है और उनके अथक वाचिक प्रयासों ने आलोचना को जनप्रियता दिलायी है. इसके बावजूद इन चार किताबों में नई बातें कम हैं पुरानी बातें ज्यादा हैं. इन किताबों का महत्व इस लिहाज से ज्यादा है कि इनके जरिए हिन्दी आलोचना के बारे में नामवर सिंह के विचारों को पहलीबार पेश किया गया है. ये किताबें आलोचना के स्टीरियोटाईप का खंडन-मंड़न हैं.
आलोचना के प्रति नामवर सिंह का हमेशा से सर्जनात्मक रवैय्या रहा है. नामवर सिंह ने अपभ्रंश से लेकर जनवादी साहित्य तक जो कुछ भी लिखा है वह आलोचना का हिस्सा है. इस प्रक्रिया में नामवर सिंह का मुख्य जोर वर्तमान को बेहतर बनाने और नवीन दिशा देने पर है.
वर्तमान को बेहतर बनाने के लिए नामवर सिंह अतीत में नहीं जाते बल्कि वर्तमान में रहकर ही बेहतरी के सत्तापंथी यूटोपिया का निर्माण करते हैं. इसके लिए उन तमाम स्रोतों की मदद लेते हैं, जिनसे वर्तमान की सही समझ बने. वर्तमान को बेहतर बनाने के लिए उसकी बेहतर समझ का होना जरूरी है. युगीन अन्तर्विरोधों की सटीक समझ पर ही सही समझ निर्भर करती है. सही समझ के आधार पर ही सही दृष्टिकोण का निर्माण संभव है.
आलोचना का लक्ष्य है सटीक अन्तर्विरोधों को रेखांकित करना. हिन्दी के अधिकांश समीक्षकों की मुश्किल यह है कि वे अपने युग के प्रधान और उप-प्रधान अंतर्विरोधों को नहीं जानते. युगीन अन्तर्विरोधों की भ्रामक समझ आलोचना को नष्ट करती है. कहीं न कहीं अन्तर्विरोधों की भ्रामक समझ का हिन्दी आलोचना के ह्रास में बड़ा योगदान है.
हिन्दी में खूब लिखा जा रहा है किन्तु अन्तर्विरोधों की सही समझ के अभाव, अतिरेक और भ्रष्ट धारणाओं में ज्यादा लिखा जा रहा है. अवधारणाओं का भ्रष्टीकरण जितना हिन्दी में हुआ है वैसा अन्यत्र नजर नहीं आता. यह परवर्ती पूंजीवाद की विशेषता है. अवधारणाओं के भ्रष्टीकरण में हिन्दी की साहित्यिक पत्रिकाओं और उनमें छपने वाले तथाकथित समीक्षकों की सक्रिय भूमिका रही है. नामवर सिंह की ये चारों किताबें साहित्य में अवधारणात्मक भ्रष्टीकरण में ईंधन का काम कर सकती हैं.
इन किताबों में दो बातें गायब हैं. पहली बात जो गायब है वह है नामवर सिंह के द्वारा उपेक्षित विषय और लेखों का संदर्भ. संपादक को कम से उन विषयों पर नामवर सिंह से बात करनी चाहिए थी, जिन पर उन्होंने नहीं लिखा और जो लिखा और बोला है उसके संदर्भ को नामवर सिंह से बातें करके लिखा जाना चाहिए. अथवा आलोचना के उन सवालों पर संपादक को स्वयं लिखना चाहिए जिन पर नामवर सिंह ने नहीं लिखा अथवा ऐसा लिखा है जिस पर संपादक की असहमति है अथवा विवादास्पद लिखा है.
संपादक को महज संवाददाता नहीं होना चाहिए. इससे यह संदेश जाता है कि नामवर सिंह के निबंधों पर लिखने की संपादक की क्षमता नहीं है अथवा नामवर सिंह के साथ समझौते के तहत संकलन तैयार किया गया और हिदायत दी गयी कि नामवर सिंह पर कलम नहीं चलाओगे. इस प्रसंग में संपादक ने यदि नामवर सिंह के द्वारा संपादित संकलनों की भूमिकाओं से ही कुछ सबक हासिल किया होता अथवा मार्क्सवादी आलोचकों के द्वारा तैयार किए गए संकलनों की भूमिका से ही कोई सीख ली होती और ठीक से भूमिका लिखी होती तो निबंधों में व्याप्त विभ्रमों,धारणाओं और विवादों पर संपादक के नजरिए का भी अंदाजा लगता ?
नामवर सिंह के निबंधों का संकलन व्यापक कालखंड़ में फैला है, निबंधों में समय का अंतराल है, इसके कारण निबंधों में असम्बद्धता भी है. इसमें चुप्पी वाले साल और जिन विषयों को नामवर सिंह ने नहीं उठाया है, उनका कारण जानने में मदद नहीं मिलती.
नामवर सिंह मित्र शैली के आलोचक हैं. उनका पंसदीदा मित्र आलोचक-लेखकों के साथ इन निबंधों में संवाद दिखता है. दूसरा महत्वपूर्ण बात यह कि नामवर सिंह व्यक्ति के आलोचक हैं, व्यवस्था के नहीं. जबकि रामविलास शर्मा ने व्यक्ति और व्यवस्था केन्द्रित दोनों ही किस्म की आलोचना लिखी है.
नामवर सिंह अकादमिक स्तर पर जितने गंभीर हैं और जिस ठंड़े मन के साथ समस्त जटिलताओं के साथ सोचते और लिखते हैं, वैसी मनोदशा इन किताबों में एकसिरे से नदारद है. इन किताबों के आधार पर नामवर सिंह के बारे में कोई भी राय नहीं बनायी जा सकती और जो राय बनेगी वह बेहद खराब होगी. ये किताबें उनके द्वारा पहले लिखी किताबों का वस्तुतः निरस्तीकरण है.
नामवर सिंह के लेखन की गंभीरता, स्थिर होकर सोचने और लिखने की विद्वतापूर्ण शैली का उनके वाचिक निबंधों में अभाव दिखाई देता है. वाचिक निबंध तात्कालिकता और पापुलिज्म की सोच से संचालित हैं. इन किताबों से यह भी पता चलता है कि नामवर सिंह जो कुछ भी बोलते रहे हैं, वह सब तैयारी से नहीं बोलते थे. संपादकीय दबाब, तात्कालिकता और मंचीय दबाब इन वाचिक लेखों में साफ नजर आते हैं. नामवर सिंह के निबंधों में तात्कालिकता और उत्सवधर्मिता के दबाबों को भी देखा जा सकता है. ये चीजें नामवर सिंह के धीर-गंभीर अकादमिक व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं हैं.
नामवर सिंह के प्रति अनालोचनात्मकता से लड़ना पहली समस्या है. नामवर सिंह को आलोचना के भगवान का दर्जा देकर हिन्दीभक्तों ने उनका तो नुकसान किया ही, साथ ही हिन्दी आलोचना का भी गंभीर नुकसान किया है. उन्हें ‘कल्ट व्यक्तित्व’ बनाया है.
इन चार किताबों से यह पता नहीं चलता कि नामवर सिंह असल में क्या करते रहे हैं और इस तरह का लेखन और वाचन क्यों करते रहे हैं ? नामवर सिंह का कहना है कि मैं लेखन के लिए लेखन में विश्वास नहीं करता. यदि यह सच है तो सवाल किया जाना चाहिए कि वे बोलने के लिए बोलने पर क्यों विश्वास करते हैं ? बोलने के लिए बोलना ज्यादा खतरनाक है. नामवर सिंह का अधिकांश संकट यहीं पर है.
उनके विचारों में गंभीर विचलन वाचिक निबंधों में सामने आया है. लिखित निबंधों में विचलन कम है. अतः उनके लिखे और बोले को एक ही ढ़ंग और परिप्रेक्ष्य में नहीं पढ़ा जा सकता. विचारधारा और परिप्रेक्ष्य का संकट उनके वाचिक निबंधों में ज्यादा और लिखित निबंधों में कम है. लिखित निबंधों में नामवर सिंह ज्यादा सुसंगत, बौद्धिक और व्यवस्थित नजर आते हैं. वाचिक निबंधों मैं भटके हुए नजर आते हैं. सवाल यह है कि वे बोलने के लिए बोलने की कला का इस्तेमाल क्यों करते रहे हैं ?
बोलने के लिए बोलने की कला के कारण वे सामाजिक ज्यादती के भी शिकार हुए हैं या उन्हें शिकार बनाया गया है ? वे प्रतिदिन बोलते हैं, प्रतिदिन भाषण देना जोखिम का काम है. नामवर सिंह नए-नए विषयों पर बोलते हैं और कम के कम अथवा कभी कभी वगैर जाने भी बोलते हैं. वे बौद्धिक रिस्क लेते हैं.
उनके विचारों की फिसलन का स्रोत है बोलने के लिए बोलना. बोलते समय नामवर सिंह ‘केजुअल आलोचक’ के रूप में सामने आते हैं. पेशेवर आलोचक का रूप लिखित निबंधों में दिखाई देता है. ‘केजुअल आलोचक’ के रूप में नामवर सिंह ने विषय विशेष पर बोलते हुए संदर्भ, अवधारणा, ऐतिहासिकता आदि चीजों को लेकर घल्लूघारा किया है. यह प्रवृत्ति उनके निबंधों में व्यापक रूप में फैली हुई है.
इस समस्या का दूसरा पहलू ऑडिएंस से जुड़ा है. नामवर सिंह की वाह-वाह करने वाली ऑडिएंस है. यह क्रिटिकल ऑडिएंस नहीं है. अन-क्रिटिकल ऑडिएंस में अहर्निश भाषण देने के कारण उन्हें यह एहसास नहीं हुआ कि वे क्या सही और क्या गलत बोल रहे हैं. सचेत समीक्षकों की आलोचना पर नामवर सिंह के आलोचक मन ने कभी ध्यान नहीं दिया, सचेत ऑडिएंस उन्हें मिली नहीं. इसका प्रभाव इन किताबों में दिखता है. इन किताबों में अनेक भूलें सहज ही देखी जा सकती हैं.
भक्त ऑडिएंस में बोलने के कारण नामवर सिंह को कभी अपनी कमजोरियों का एहसास तक नहीं हुआ और वे इस मुगालते में रहे हैं कि वे जो कुछ भी बोल रहे हैं सही बोल रहे हैं. उनके भाषणों जो चीजें नष्ट हुई हैं, वह हैं विषय की शोधपरक गंभीरता, ऐतिहासिकता, जटिलता एवं संश्लिष्टता. इसके कारण अनेक स्थानों पर वे सरलीकरण और कॉमनसेंस के तर्कों का इस्तेमाल करते हैं. यहां हम सिर्फ दो प्रसंगों का जिक्र करना चाहेंगे, ये हैं आपात्काल और स्त्री-पुरूष संबध.
आपात्काल और स्त्री-पुरूष संबध
आपात्काल – व्यक्ति-कृति केन्द्रित लेखन अंततःअधिनायकवादी राजनीति की ओर ले जाता है. स्त्री के प्रति पितृसत्तात्मक रवैय्या इसकी स्वाभाविक परिणति है. नामवर सिंह की व्याख्यान कला के सभी कायल हैं लेकिन उनके लेखन में निहित अधिनायकवादी रणनीतियों की ओर कभी ध्यान नहीं दिया गया. अधिनायकवादी रणनीति में संदर्भ, तथ्य और सत्य को सबसे पहले विकृत किया जाता है. उदाहरण के लिए यहां सिर्फ उनके लेख ‘साम्प्रदायिकता, राष्ट्रवाद और धर्मनिरपेक्षता’ लेख को ही लें. यह समूचा लेख ऐतिहासिक भूलो, सरलीकरण और अनैतिहासिकता से भरा हुआ है.
नामवर सिंह ने लिखा है ‘सन् 1975 में जब आपात्काल की घोषणा हुई थी, तब 44वें संशोधन के द्वारा हमारे संविधान में ‘स्टेट’ को एक ‘सेकुलर स्टेट’ घोषित किया गया.’ यह बात बुनियादी दौर पर गलत है. भारत के संविधान के निर्माण की सारी बहसों में धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा केन्द्र में थी, संविधान का अन्तर्ग्रथित हिस्सा है धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा. ‘सेकुलर‘ पदबंध को आपात्काल में ‘प्रियंबल’ में जरूर शामिल किया गया था, यह कांग्रेस पार्टीं के तानाशाही राजनीतिक चरित्र से ध्यान हटाने की बृहद योजना का हिस्सा था.
यहां पर आपात्काल को अधिनायकवादी राजनीति की अभिव्यक्ति देखने की बजाय नामवर सिंह को सत्ता का साम्प्रदायिक चेहरा नजर आया. वे आपात्काल को अधिनायकवादी राजनीति के रूप में देखते ही नहीं हैं. वे आपात्काल में तुर्कमानगेट के सफाई अभियान को सत्ता के साम्प्रदायिक अभियान के रूप में देखते हैं जबकि यह अभियान संजय गांधी के पांच सूत्री कार्यक्रम के सौंदर्यीकरण अभियान का हिस्सा था. आपात्काल मूलतः लोकतंत्र पर हमला था, यह साम्प्रदायिक कार्रवाई नहीं है फासीवाद है. आपात्काल का राष्ट्रवाद से कोई लेना देना नहीं है.
आपात्काल में सभी किस्म के लोकतांत्रिक अधिकार छीन लिए गए थे. आपात्काल में नामवर सिंह चुप क्यों थे और आपातकाल का उन्होंने समर्थन क्यों किया, इसका जबाब उन्हें कम से कम जरूर देना चाहिए. इस दौर के प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन और जेएनयू की कारगुजारियां अभी भी पुराने छात्र भूले नहीं हैं. नामवर सिंह के अजनतांत्रिक भाव को इन संग्रहों से समझने में असुविधा होगी.
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