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नामवर सिंह : अवसरवादी राजनीति के प्रतीक

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नामवर सिंह : अवसरवादी राजनीति के प्रतीक
नामवर सिंह : अवसरवादी राजनीति के प्रतीक
जगदीश्वर चतुर्वेदी

नामवर सिंह का आना-जाना कोई सीधा-सरल मामला नहीं है. वह कोई विचारधाराहीन काम नहीं है. वे असाधारण लेखक हैं. वे कहीं जब बुलाए जाते हैं तो इसलिए नहीं बुलाए जाते कि बहुत सरल सीधे, विचारधाराहीन इंसान हैं ! भक्तों का तर्क है वे सबके हैं और सब उनके हैं ! यदि मामला इतना सा ही होता तो नामवरजी को न तो कोई बुलाता और न कोई उनका 90वां जन्मदिन ही मनाता. वे बड़े कद के लेखक-शिक्षक-बुद्धिजीवी हैं. उनकी समाज में व्यापक भूमिका है. वे साधारण लेखक रहे होते तब भी संभवतः हमें कोई आपत्ति न होती. जाने-अनजाने नामवरजी के बारे में जितने तर्क उनकी हिमायत में दिए जा रहे हैं वे अंततःनामवरजी को विचारधाराहीन, दृष्टिहीन मनुष्य के रूप में पेश कर रहे हैं.

लेकिन नामवरजी विचारधाराहीन मनुष्य नहीं हैं. वे बेहतरीन इंसान हैं. मैं निजी तौर पर उनका प्रशंसक-आलोचक हूं. उनके गलती करने पर हर समय टोका है, लेकिन संवाद नहीं छोड़ा. बहिष्कार नहीं किया.
नामवरजी का मोदी प्रेम हाल की घटना नहीं है, यह मोदीजी के लोकसभा चुनाव के समय ही सामने आ गया था. उस समय भी हमने फेसबुक पर उनके टीवी पर दिए गए बयान की आलोचना की थी. सवाल यह है क्या मौजूदा मोदीशासन सामान्य रूटिन लोकतांत्रिक सरकार का शासन है ? क्या मोदी निजी तौर पर सामान्य बुर्जुआ नेता हैं ? क्या अटल-आडवाणी की तरह के संघी नेता हैं ? यदि हमारे मित्र ऐसा सोच रहे हैं तो बहुत बड़ी गलतफहमी में हैं.

देश में पहलीबार ऐसा हुआ है कि एक ऐसा व्यक्ति शासन पर आ बैठा है जिसने अपने राजनीतिक कर्म से लोकतंत्र को बहुत गहरे जाकर क्षत-विक्षत किया है. गुजरात के दंगे साधारण घटना नहीं है. संविधान पर नियमित सोची समझी साजिश के तहत पहले उन्होंने गुजरात में निरंतर हमले किए, यहां तक कि न्यायपालिका को पंगु बना दिया. यही वजह थी कि सुप्रीमकोर्ट को उन दंगों के मुकदमों की सुनवाई की व्यवस्था गुजरात के बाहर करनी पड़ी. यह भारत के इतिहास की असाधारण घटना है. 125 से ज्यादा लोग दंगों के लिए सजा पा चुके हैं. यहां तक कि मोदीमंत्रीमंडल की एक सदस्या भी सजा भोग रही है. यह सब देखने जानने के बावजूद यदि नामवरजी जैसा सुलझा हुआ व्यक्ति मोदी की गोदी में जा रहा है तो सवाल तो खड़े होंगे !

कुछ लोग कह रहे हैं इंदिरा गांधी कला संग्रहालय राष्ट्रीय संस्थान है, वह संघ का नहीं है, अतः वहां जाने में कोई हर्ज नहीं. इस तरह के तर्क नामवरजी जैसे व्यक्ति को टुईंया लेखक बना देते हैं, उनके जाने-आने को अर्थहीन सामान्य घटनामात्र बना देते हैं. हम जानते हैं नामवरजी बहुत उदार हैं, भले हैं, जो बुलाता है उसके यहां चले जाते हैं. लेकिन क्या मोदी सरकार आने के बाद बुद्धिजीवियों के लिए स्थितियां सामान्य रह गयी हैं ?

आज बुद्धिजीवियों के बीच में अघोषित मोदी आतंक फैला हुआ है. केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में स्थिति सबसे बदतर है. स्वयं जेएनयू में भी हालात असामान्य हैं. जेएनयू के आरएसएस से जुड़े शिक्षकों ने जांच रिपोर्ट के नाम पर छात्रसंघ के ऊपर सीधे हमला बोला है. अनेक छात्रनेताओं के खिलाफ कार्रवाई हुई है. नामवरजी चुप रहे. पहलीबार ऐसा हुआ है कि आरएसएस के शिक्षकों ने जेएनयू की छात्राओं को कलंकित, अपमानित करने वाली रिपोर्ट जारी करके सभी छात्राओं के चरित्र पर सवाल खड़े किए हैं, उनको अपमानित किया है. जेएनयू में संघी वीसी ने सभी फैसलेकुन कमेटियों को पंगु कर दिया है. इस तरह की घटनाएं तो आपातकाल में भी नहीं हुई थीं.

जेएनयू की एकेडमिक कौंसिल का एजेण्डा वीसी नहीं मानव संसाधन मंत्री तय कर रहा है. यही हाल दिल्ली विश्वविद्यालय और अन्य केन्द्रीय विश्वविद्यालयों का है, वहां पर मानव संसाधन मंत्री से स्वीकृति लिए बिना एकेडमिक कौंसिल का एजेण्डा वीसी तय नहीं कर सकता. कम से कम आपातकाल में भी यह स्थिति नहीं थी कि एकेडमिक कौंसिल का एजेंडा मंत्री तय करे ! नामवरजी भोले नहीं हैं और अज्ञानी नहीं हैं जो यह न जानते हों ! विगत सभी सरकारों के साथ मोदी सरकार के अंतर को सिर्फ इसी एकमात्र उदाहरण से समझा जा सकता है.

नामवर सिंह से मिलने का सुख

नामवरजी आज भी सभी शिक्षकों में अव्वल क्यों हैं ? इस सवाल का जवाब उनके व्यवहार से मिलता है. मैंने उनको अपनी किताब जब दी तो बेहद खुश हुए. किताब को सिर से लगाकर प्रणाम किया और तुरंत कहा मेरे पास आकर बैठो. और जब मैं पास जाकर बैठा तो अद्भुत खुशी से खिल उठे. मैं जब उनसे मिलने गया तो मैंने चरण स्पर्श करके प्रणाम किया, देखते ही गजब की मुस्कान बिखेरकर उन्होंने स्वागत किया, बोले बैठो मैं पहले तुमको पानी पिलाता हूं और कुछ खिलाता हूं. मैंने बार बार मना किया लेकिन नहीं माने.

मैं जब पढता था तो मुझे याद है जब भी मिलता, मिलते ही हालचाल पूछते और हाथ मिलाते थे, उनका हाथ मिलाना मेरे लिए कितना मददगार था यह मैं ही जानता हूं. कल मैंने जब उनसे बातें शुरू कीं तो बोले अभी तुम्हारा ही लिखा पढ रहा था, आनंद आ रहा था. यह सुनकर मन को बहुत ही अच्छा लगा.

नामवरजी ने पूछा इन दिनों क्या लिख रहे हो, मैंने कहा अब आलोचना पर काम कर रहा हूं. पहली किश्त में तीन किताबें आ रही हैं. आप पर पहली किताब है, दूसरी रामविलास शर्मा पर है और तीसरी मार्क्सवादी आलोचना पर है. बाकी दोनों किताबें बाद में इस महीने के अंत तक आ जाएंगी. तुरंत हंसकर बोले रामविलास शर्मा वाली किताब मेरी किताब से मोटी होगी ! मैंने कहा नहीं वह आपकी किताब से छोटी है. बोले ऐसा क्यों ? मैंने कहा रामविलासजी ने बहुत बड़ा हिस्सा अप्रासंगिक लिखा है. नामवरजी ने तुरंत मेरी बात का समर्थन किया बोले सही कह रहे हो.

मैंने कहा निराला की साहित्य साधना उनकी आलोचना की आखिरी किताब है. काफी बाद में आई दूसरी महत्वपूर्ण किताब है ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण.’ बोले एकदम सही कह रहे हो. मैंने एक नया तथ्य उनके सामने रखा जो आप सबके लिए भी जानना जरूरी है.

मैंने नामवरजी को बताया कि मैं महिषादल जाकर सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के जन्मस्थान को देखकर आया हूं, वहां कुछ तथ्य सामने आए जो निराला साहित्य में गायब हैं और रामविलास शर्मा और दूसरे आलोचकों के निराला के मूल्यांकन से भी गायब हैं. मसलन, निराला ने जिस जूही की कली को देखकर महान कविता इसी नाम से लिखी थी, उसी जूही की कली के पेड़ से कुछ सौ कदम की दूरी पर महिषादल के राजा का कत्लघर भी था लेकिन निराला ने कभी उसका जिक्र नहीं किया.

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि महिषादल और उसके आसपास के जिले तकरीबन तीन साल तक किसानों के कब्जे में थे. वहां एक तरह का लिबरेटेड जोन था, जिसे अंग्रेजों ने हिंसक संघर्ष के जरिए मुक्त कराया था. उस समय तकरीबन 80 औरतों के साथ अंग्रेज सिपाहियों ने सामूहिक बलात्कार किया और बाद में उनकी हत्या कर दी. निराला के जन्मस्थान से मात्र एक किलोमीटर दूर उन महिलाओं की याद में शहीद वेदी है, जहां उनके नाम लिखे हैं लेकिन निराला ने कभी इस घटना का जिक्र नहीं किया. इन तथ्यों का निराला के आलोचकों ने भी कहीं पर जिक्र नहीं किया.

दिलचस्प बात यह है कि महिषादल और उसके आसपास के इलाके के किसान आंदोलन का भी जिक्र नहीं मिलता. बैसवाडे के किसानों का जिक्र जरूर मिलता है. नामवरजी को ये सब नई जानकारियां देने के बाद मैंने सवाल किया क्या यह रोमैंटिक कवि बायरन की तरह का रौमैटिक नजरिया है ? नामवरजी बोले सही कह रहे हो. इसी प्रसंग में मैंने कहा निराला का किसान संदर्भ यदि बनेगा तो पहले बंगाल के किसान आंदोलन का होगा, न कि बैसवाडे का.

नामवरजी से बातचीत में मैंने सवाल किया कि आप नास्तिक कैसे बने ? बोले राहुल सांकृत्यायन ने मुझे नास्तिक बनाया. इस क्रम में उन्होंने वह सामाजिक प्रक्रिया भी बतायी, जिसके क्रम में वे किस तरह संघ्यावंदन करने वाले तरूण थे. कहा मैं 1958 के आसपास नास्तिक बना और तब से आज तक नास्तिक हूं. धर्म का सम्मान करता हूं और उसे संस्कृति के अंग के रूप में देखता हूं.

ज्ञानप्रेम के दीवाने नामवर

नामवर सिंह के व्यक्तित्व के कई कोण हैं, उनमें से एक है उनका ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ का कोण. हिन्दी के लेखकों में प्रेमचंद के बाद वे अकेले ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की पहचान वाले लेखक हैं. हिन्दी के लेखकों की नज़र उनके हिन्दी पहलू से हटती नहीं है. खासकर शिक्षकों-लेखकों का एक बड़ा हिस्सा उन्हें प्रोफेसर के रूप में ही देखता है.

नामवर सिंह सिर्फ एक हिन्दी प्रोफेसर समीक्षक और विद्वान नहीं हैं. प्रोफेसर, आलोचक, पुरस्कारदाता, नौकरीदाता, गुरू आदि से परे जाकर उनके व्यक्तित्व ने ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की स्वीकृति पायी है. इस क्रम में वे हिन्दी अस्मिता का अतिक्रमण कर चुके हैं. यह कब और कैसे हुआ यह कहना मुश्किल है. लेकिन उन्होंने सचेत रूप से लेखकीय-शिक्षक व्यक्तित्व को ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ में रूपान्तरित किया है. उनकी प्रसिद्धि के ग्राफ को ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ ने नई बुलंदियों पर पहुंचाया है.

नामवर सिंह कम लिखते हैं. घर में कम रहते हैं. अधिकांश समय देशाटन करते हैं. व्याख्यान देते हैं. अनेक बार कुछ नहीं बोलते लेकिन सैंकड़ों किलोमीटर चलकर जाते हैं. पांच-सात मिनट मुश्किल से बोलते हैं. अनेक बार बहुत अच्छा भी नहीं बोलते लेकिन अधिकांश समय उन्हें लोग अपने यहां बुलाना पसंद करते हैं. बुलाने वालों में विभिन्न रंगत के लोग हैं. वे किसी एक रंगत के लोगों के कार्यक्रमों में नहीं जाते. वे अधिकतर समय विचारधारा की सीमा से परे जाकर बोलते हैं. उनके बोलने और कार्यक्रमों में बुलावे के पीछे प्रधान कारण है उनका ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व.’

‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ के कारण उन्हें सार्वजनिक बौद्धिक जीवन में ऐसी भूमिका निभानी पड़ रही है जिससे चाहकर भी वे अपना पिण्ड नहीं छुड़ा सकते. उनके ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ को लेकर अनेक बार उनसे शिकायतें भी की गयी हैं. अकेले में वे अपनी कमजोरियों को मान भी लेते हैं लेकिन बाद में उनका व्यक्तित्व फिर पुराने मार्ग पर चल पड़ता है.

वे अपने भाषणों में अनेक विषयों पर बोलते हैं और सुंदर बोलते हैं। लेकिन विगत कई दशकों से उनके भाषणों के केन्द्र में एक ही विषय है, जो बार-बार आया है. जिसके बारे में उन्होंने बार-बार रेखांकित किया है वह है ‘आलोचनात्मक मनुष्य.’ इस मनुष्य के लिए ही उन्होंने अपनी सारी यात्राएं समर्पित कर दी हैं. इसके लिए वे अपनी विद्वता, विविध भाषाओं के साहित्यज्ञान और विभिन्न विचारधाराओं का इस्तेमाल करते रहे हैं.

वे जहां जाते हैं मानवीय अज्ञान से टकराते हैं. वे जानते हैं कि जिस गोष्ठी में जा रहे हैं, वहां उस विषय के कम जानकार आ रहे हैं, श्रोताओं में भी सक्षम लोग कम हैं, इसके बावजूद वे जाते हैं और गंभीर, नए, चालू, उत्सवधर्मी विषयों पर अज्ञान से मुठभेड़ करते हैं.

उन्हें अपनी विद्वता का एकदम दंभ नहीं है. गोष्ठियों में वे उस समय ज्यादा सुंदर लगते हैं, जब वे इरेशनल के खिलाफ बोल रहे होते हैं. इरेशनल को वे कभी माफ नहीं कर पाते, सहन नहीं कर पाते. वे कमजोर तर्क से सहमत हो जाते हैं, सामंजस्य बिठा लेते हैं लेकिन इरेशनल से सामंजस्य नहीं बिठा पाते. उनके व्याख्यानों या टिप्पणियों की दूसरी बडी खूबी है उनका भारतीय और हिन्दी तर्कसिद्धांत. इसमें वे पक्के भौतिकवादी के रूप में मंच पर पेश आते हैं. अनेक बार उनके विचारों में पुनरावृत्ति दिखाई देती है लेकिन इसका भी कारण है जिसकी खोज की जानी चाहिए.

नामवर सिंह जब भी बोलते हैं तो अंतर्विरोधों में बोलते हैं. अंतर्विरोध के बिना नहीं बोलते. अंतर्विरोधों के आधार से खड़े होकर बोलने के कारण उनका व्यक्तित्व बेहद आकर्षक और आक्रामक नजर आता है और वे इस सारी प्रक्रिया को ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ की छाप के साथ करते हैं.

नामवर सिंह ने अपने भाषणों में राष्ट्रवाद, हिन्दीवाद, कट्टरता, फंडामेंटलिज्म, अतिवादी वामपंथ, साम्प्रदायिकता, आधुनिकतावाद, नव्य उदारतावाद, पृथकतावाद आदि का कभी समर्थन नहीं किया. वे इन विषयों पर बोलते हुए बार-बार सभ्यता के बड़े सवालों की ओर चले जाते हैं.

किसी के भी मन में यह सवाल उठ सकता है कि नामवर सिंह देशाटन क्यों करते हैं ? वे इतने बूढ़े हो गए हैं, आराम क्यों नहीं करते ? उनके पास पैसे की क्या कमी है जो इस तरह भटकते रहते हैं ? वे चुपचाप बैठकर लिखते क्यों नहीं ? आदि सवालों और इनसे जुड़ी बातों को हम सब आए दिन सुनते रहते हैं.

नामवर सिंह जानते हैं भाषणों से संसार बदलने वाला नहीं है. मैं जहां तक समझता हूं भाषणों से उन्हें कोई खास मानसिक शांति भी नहीं मिलती. कोई खास पैसे भी नहीं मिलते. इसके बावजूद वे भाषण देने जाते हैं, जो भी बुलाता है उसके कार्यक्रम में चले जाते हैं. मेरी समझ से इसका प्रधान कारण है समाजीकरण. नामवरसिंह भाषण नहीं देते समाजीकरण करते हैं. समाजीकरण की प्रक्रिया के बहाने ही उन्होंने लोगों का मन जीता है, बेशुमार प्यार और सम्मान अर्जित किया है.

नामवर सिंह के जीवन में अनेक कष्टप्रद क्षण आए हैं और उसे उन्होंने झेला है. निजी तौर पर गहरी पीड़ा का भी अनुभव किया है. इसके बावजूद इसे उन्होंने कभी सार्वजनिक नहीं होने दिया. कष्टों को झेलने के कारण एक खास किस्म की कुण्ठा और ग्लानि भी पैदा होती है, उसे भी अपने लेखन और व्यक्तित्व में आने नहीं दिया.

मैंने उन्हें कभी ग्लानि या कुण्ठा में नहीं देखा, इसके कारण वे स्वतंत्र ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ का निर्माण करने में सफल रहे हैं. कुण्ठा और ग्लानि मनुष्य को परनिर्भरता और भय की ओर ले जाती है और परनिर्भरता और भय से नामवर सिंह को सख्त नफरत है.

वे कभी निष्क्रिय नहीं रहते. अहर्निश सक्रियता के बीच में ही यात्राएं करते हैं. अकादमिक जिम्मेदारियों का पालन करते हैं. सामाजिकता निबाहते हैं. उन्हें वे लोग पसंद हैं जो रिवेल हैं या बागी हैं. परिवर्तनकामी हैं. रूढियों से लड़ते हैं. वे घर पर आते हैं विश्राम के लिए, और कुछ दिन रहने के बाद फिर से चल पड़ते हैं. घर उनका परंपरागत अर्थ में घर नहीं है. वह उनके विश्राम का डेरा है. वहां वे नए सिरे से ऊर्जा संचय करते हैं और निकल पड़ते हैं.

उनके व्यक्तित्व में नया और पुराना दोनों एक ही साथ मिलेगा। वे भाषण पुराने पर देते हैं, पैदा नया करते हैं. उनके पुराने विषयों पर दिए गए भाषणों में पुरानापन नहीं है. उन्हें पुराने की आदत है, नए से प्रेम है. पुराने की आदत, परंपरा से जुड़े रहने के कारण है, और नए से प्रेम वर्तमान और भविष्य की चिन्ताओं के कारण है. यही वजह है कि उनके व्यक्तित्व और व्याख्यान में नया और पुराना एक ही साथ नजर आता है. इसके आधार पर ही वे सभ्यता निर्माण के मिशन को अपने तरीके से पूरा कर रहे हैं.

नामवर सिंह ने जीवन से ज्यादा साहित्य, संस्कृति, विचारशास्त्र आदि के क्षेत्र में जोखिम उठाया है. जितने जोखिम उन्होंने विचारों के क्षेत्र में उठाए हैं, उतने ही वे जीवन में उठा पाते तो और भी ज्यादा सुखी होते. उनका पुराने से जुड़ा होना जीवन में जोखिम उठाने से रोकता रहा है और वे उसे सहते रहे हैं.

उन्होंने विचारों की दुनिया में अपने को पूरी तरह खो दिया है लेकिन निजी जीवन में वे अपने को खो नहीं पाए हैं और अनेक मसलों पर किनाराकशी करके दर्शक बनकर देखते रहे हैं. कुछ लोग इसे पलायन भी कह सकते हैं लेकिन यह पलायन नहीं है. सामाजिक जोखिम नहीं उठाने की शक्ति का अभाव है.

नामवर सिंह आधुनिक ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ के मार्ग पर चलते रहे हैं और उनके आलोचक पीछे -पीछे उनकी असंगतियों का शोर मचाते रहे हैं. साहित्य के दायित्व को उन्होंने राष्ट्रीय दायित्व के रूप में ग्रहण किया है और अन्य दायित्वों को इसके मातहत बना दिया है. यही उनकी महान विभूति का प्रधान कारण है.

नामवर सिंह विचारों के समुद्र हैं. वे साहित्य, समीक्षा, राजनीति,, तकनीक, मीडिया आदि किसी भी क्षेत्र में अतुलनीय क्षमता रखते हैं. वे इनमें से किसी भी क्षेत्र पर मौलिक ढ़ंग से प्रकाश डालने में सक्षम हैं. किसी भी गंभीर बात को अति संक्षेप में कहने में सक्षम हैं. वे प्रभावित करते हैं. माहौल बनाते हैं. अपनी उपस्थिति से आलोकित करते हैं लेकिन किसी का व्यक्तित्व बनाने, तराशने वाले कारीगर का कौशल उनके पास नहीं है।

वे समुद्र हैं, महान व्यक्तित्व हैं, कारीगर नहीं. यही वजह है कि उनके आसपास रहने वाले अधिकांश शिष्य उनके गुणों, क्षमता और विद्वता आदि में कहीं से भी नामवर सिंह का उत्पाद नहीं लगते. शिष्य सोचते हैं गुरूदेव की कृपा से वे भी महान हो जाएंगे, गुरूदेव जैसे हो जाएंगे, लेकिन ऐसा हो नहीं सकता. शिष्य भूल जाते हैं कि वे समुद्र किनारे बने हुए रेती के मकान हैं, जिन्हें जब भी समुद्री लहरें आतीं है बहा ले जाती हैं.

नामवर सिंह ने अपना व्यक्तित्व अपने परिश्रम, मेधा और संघर्षों के आधार पर बनाया है. उन्हें स्वयं के अलावा किसी ने मदद नहीं की. वे इसी अर्थ में आत्मनिर्भर हैं. वे अपनी सारी शक्ति एक चीज के लिए लगाते रहे हैं वह है ज्ञानप्रेम. ज्ञानप्रेम ने उन्हें महान बनाया है. यह प्रेम उनके किसी शिष्य में नहीं है. दीवानगी की हद तक वे आज भी इसके दीवाने हैं और इसी ने उनके ‘राष्ट्रीय व्यक्तित्व’ का निर्माण किया है.

पब्लिक इंटिलेक्चुअल नहीं हैं नामवर सिंह

मैं गरम लिखता हूं, नरम भी लिखता हूं, मार्क्सवादी भी लिखता हूं, बुर्जुआ दृष्टिकोण से भी लिखता हूं, मुझे अनेक बातें बुर्जुआजी की पसंद हैं, अनेक बातें क्रांतिकारियों की पसंद हैं, मुझे नास्तिक प्यारे हैं लेकिन मैं आस्तिकों का भी सम्मान करता हूं. पेेशे से शिक्षक हूं. आमतौर पर मुझे मार्क्सवाद पसंद है, लेकिन मैं क्रांतिकारी नहीं हूं, मैं उस समय भी क्रांतिकारी नहीं था जब जेएनयूएसयू का अध्यक्ष बना था. उन दिनों भी क्रांतिकारी नहीं था जब मैं माकपा का सक्रिय सदस्य था. मेरे अधिकतर दोस्त कम्युनिस्ट हैं, इसके बावजूद मैं क्रांतिकारी नहीं हूं.

मैं सही अर्थ में मार्क्सवादी भी नहीं हूं. हां सच बोलना, सच देखना, सच के साथ खड़े होना मैंने कम्युनिस्टों से ही सीखा है. इसके बावजूद मैं क्रांतिकारी नहीं हूं, मैं पेशेवर शिक्षक हूं, बुद्धिजीवी हूं, फर्श पर बैठकर मैंने संस्कृत पाठशाला में पढ़ाई की है, जाहिर है यह सुख नामवरजी को भी नसीब नहीं हुआ. वे फर्श पर बैठकर कभी नहीं पढ़े.

मैंने साम्यवाद की शिक्षा कैरियर के लिए नहीं ली. साम्यवादी विचार बड़े ही स्वाभाविक ढ़ंग से मथुरा में यमुना की तरंगों की तरह मेरे जीवन में शामिल हुए हैं. निम्न-मध्यवर्गीय परिवार में जन्म हुआ, ऐसे परिवार में पढ़कर मथुरा के परिवेश में यथार्थ को देखने, राजनीति करने की शिक्षा मुझे उन तमाम मित्रों से मिली जो मध्यवर्ग से आते थे. जेएनयू जाकर मुझे कुछ पक्के समर्पित क्रांतिकारियों से मिलने का मौका मिला.

उसके पहले मैं निजी तौर पर दो पेशेवर क्रांतिकारियों से परिचय प्राप्त कर चुका था, वे हैं का. सुनीत चोपड़ा और का. प्रकाश कारात. इन दोनों से मेरा परिचय मथुरा में ही आपातकाल में हुआ था. मैं ये बातें इसलिए लिख रहा हूं कि मेरे बारे में भ्रम है कि मैं मार्क्सवादी हूं. मैं कतई मार्क्सवादी नहीं हूं. मुझे वैष्णव सम्प्रदाय पसंद है, शाक्त सम्प्रदाय में मेरी दीक्षा हुई और अंत में ईश्वरमु्क्त हो गया, लेकिन बीच-बीच में मुझे भगवान की याद वैसे ही सताती है, जिस तरह मनुष्य को अतीत याद आता है.

मैं मजदूरों-किसानों की पक्ष में खड़ा होना सामाजिक जिम्मेदारी मानता हूं. मुझे अन्याय नापसंद है. उसी तरह जालिमाना हरकतें नापसंद हैं. मैं पेशे से क्रांतिकारी नहीं, शिक्षक हूं. चमचागिरी से मुझे सख्त नफरत है. मैं कोई भी बात इसलिए नहीं मान लूंगा कि वह बात किसी मार्क्सवादी ने कही है. मैंने मार्क्सवाद को यथार्थ की कसौटी पर कसने की कला मार्क्स से सीखी है. नामवर सिंह ने यदि कुछ सही लिखा है तो मैंने माना है, लेकिन गलत लिखा है या गलत बोला है तो उसकी तत्काल आलोचना की है.

मैं जानता हूं हिन्दी में बहुत बड़ा वर्ग है प्रोफेसरों का, जो नामवरजी का ऋणी है. उनके नाम पर अहर्निश झूठी प्रशंसा करता है. इस तरह के प्रोफेसरों ने नामवर सिंह का नुकसान किया है, साथ ही हिन्दी के बौद्धिक परिवेश को क्षतिग्रस्त किया है. हिन्दी विभागों में अनपढों या कुपढों की नियुक्तियां करके नामवरजी ने हिन्दी जगत की जितनी क्षति की है, उसके लिए उनको कभी हिन्दी जगत माफ नहीं कर सकता.

इतनी व्यापक क्षति होने के बावजूद यदि दिल्ली विश्वविद्यालय का एक प्रोफेसर बेहूदे किस्म के कमेंटस हम लोगों पर लिखने की कोशिश कर रहा है तो हम उससे यही कहना चाहेंगे कि नामवर सिंह के नोटस या किसी किताब या किसी निबंध पर पहले खुलकर आलोचना लिखकर दिखाओ, पहले वह आलोचकीय विवेक पैदा करो जो नामवरजी से पढ़कर हमने हासिल किया है. हमने नामवरजी का श्रेष्ठग्रहण किया है, घटिया ग्रहण नहीं किया है. नामवरजी की हमने प्रशंसा भी लिखी तो उनके सामाजिक-साहित्यिक लेखन की आलोचना भी लिखी.

हम विनम्रतापूर्वक कहना चाहते हैं, नामवरजी विद्वान हैं, बुद्धिजीवी हैं, बेहतरीन शिक्षक हैं, लेकिन पब्लिक इंटेलेक्चुअल नहीं हैं. वे मंच पर बैठे बुद्धिजीवियों में शोभा देते हैं लेकिन वे पब्लिक इंटिलेक्चुअल नहीं हैं. वे आम जनता के हितों, नीतियों और कार्यक्रमों से जुड़े सवालों पर निरंतर न तो बोलते रहे हैं और न लिखते रहे हैं. पब्लिक इंटिलेक्चुअल हमेशा जनता में सच के साथ खड़ा रहता है, वह नफा नुकसान देखकर राय व्यक्त नहीं करता. नामवरजी तो इस मामले में पक्के बनिया हैं, वे नफा-नुकसान देखकर राय देते हैं. पब्लिक इंटिलेक्चुअल सत्य का हिमायती होता है. नामवरजी तो अवसरवादी राजनाति के पक्ष में खड़े रहे हैं.

“नामवरजी मार्क्सवादी थे”- राजनाथ सिंह

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र के द्वारा ‘नामवर सिंह की दूसरी परम्परा’ के नाम से आयोजित कार्यक्रम में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने संस्कृति को सीधे धर्म से जोड़ा. सवाल यह है क्या नामवरजी भी यही मानते हैं ? नामवरजी ने धर्म को संस्कृति से जोड़ने वाले संघी नजरिए का प्रतिपाद न करके, मौन रहकर, उसे सम्मति प्रदान करके हजारी प्रसाद द्विवेदीजी की संस्कृति संबंधी दृष्टि पर अपनी आंखों के सामने राजनाथ सिंह के हमले को नतमस्तक होकर स्वीकार किया. यह है नामवरजी का कायान्तरण !

नामवरजी के सामने राजनाथ सिंह ने कहा धर्म वैज्ञानिक होने का प्रयास नहीं कर रहा, बल्कि धर्म तो वैज्ञानिक है ही. यानी इस तरह उन्होंने गिरीश्वर मिश्र की धारणा का विरोध किया. मजेदार बात यह थी दोनों मंत्री महेश शर्मा-राजनाथ सिंह ने अलिखित भाषण दिया, लेकिन नामवरजी ने लिखित भाषण पढ़ा. राजनाथ सिंह ने सीधे कहा ‘नामवरजी जब मार्क्सवादी थे.’ सवाल यह है क्या नामवरजी अब मार्क्सवादी नहीं रहे ? क्या मोदी सरकार के वरिष्ठ मंत्री की इस शानदार घोषणा के लिए इस कार्यक्रम को रखा गया था ?

संस्कृति मंत्री महेश शर्मा का बयान बहुत ही अर्थपूर्ण है. वे बार बार कर्तव्य निर्बाह की ओर ध्यान दिलाते रहे. बड़ी निर्लज्जता के साथ उन्होंने कहा – लोकतंत्र और आजादी के दो पाटों का अतिक्रमण नहीं होना चाहिए. यह सीधे नामवरजी और संगोष्ठी में बोलने वालों के लिए हिदायत थी.

कमाल उस समय हो गया, जब राजनाथ सिंह ने कलियुग के बहाने प्रतीकात्मक ढ़ंग से हिदायती स्वर में कहा कि नामवरजी ‘मर्यादा का कभी अतिक्रमण नहीं कर सकते.’ लेकिन इस समारोह का आदर्श लक्ष्य क्या है ? महेश शर्मा ने बताया- ‘बूढ़े बैलों के संरक्षण की जिम्मेदारी हमारी है.’ अब मोदी की गोदी में बैठने का वैचारिक प्रतिफलन इससे बेहतर नहीं हो सकता था नामवरजी !!

चेग्वेरा क्यों नहीं बने नामवर सिंह !

सवाल टेढ़ा है लेकिन जरूरी है कि चेग्वेरा क्यों नहीं बन पाए नामवर सिंह ? उन्होंने क्रांतिकारी की बजाय बुर्जुआ मार्ग क्यों अपनाया ? क्रांति का मार्ग दूसरी परंपरा का मार्ग है. जीवन की प्रथम परंपरा बुर्जुआजी की है. नामवरजी को पहली परंपरा की बजाय दूसरी परंपरा पसंद है. सवाल यह है कि दूसरी परंपरा क्या है ? दूसरी परंपरा है क्रांति की और क्रांतिकारी विचारों के निर्माण की.

दूसरी परंपरा वह नहीं है जो हजारीप्रसाद द्विवेदी ने खोजी है. वह तो साहित्य की बुर्जुआ परंपरा है. यह परंपरा तो उसी बुर्जुआ साहित्य परंपरा का एक रूप है जिसे रामचन्द्र शुक्ल ने खोजा था. रामविलास शर्मा शुक्लजी की परंपरा में अटककर रह गए और बाद में और भी पीछे चल गए. नामवर सिंह ने दूसरी परंपरा की खोज की और जो बातें कहीं उनमें वे बुनियादी तौर पर बुर्जुआ चिंतन के ढ़ांचे का अतिक्रमण नहीं कर पाते.

चे की पुण्यतिथि के मौके पर नामवर सिंह से हम यह सवाल करना चाहते हैं कि उन्होंने चे की परंपरा में जाने की बजाय बुर्जुआ परंपरा में रहना क्यों पसंद किया ? हम जानते हैं कि नामवरजी और उनके भक्तों के पास इस सवाल का जबाव नहीं है. लेकिन चे और नामवरजी में एक समानता है. चे जिस तरह सारी दुनिया में क्रांतिकारियों के प्यारे थे और हैं, नामवरजी भी प्रगतिशील, क्रांतिकारी लेखकों, युवाओं में आइकॉन की तरह हैं. हिन्दी के छात्रों में आज भी आइकॉन हैं. प्यारे हैं.

सवाल उठता है उनके व्यक्तित्व में ऐसा कौन सा जादू है जो लोगों पर असर डालता है और उन्हें महान बनाता है ? उनसे मिलकर यही लगेगा कि किसी महान व्यक्ति से मिले. बुर्जुआ महानायकों जैसी उदारता उनके व्यक्तित्व में रच बस गयी है. मैं नहीं जानता कि उनके अंदर क्रांतिकारी विचारों का कौन सा महान पाठ छिपा है, लेकिन एक बात उनकी चे से जरूर मिलती है. वे चे की तरह असहमत होना जानते हैं और अपनी असहमति को वे बताना, समझाना और व्यवहार में उतारना भी जानते हैं.

नामवरजी का यह असहमति वाला गुण क्रांतिकारी विरासत से मिलता-जुलता है. चे से उनके व्यक्तित्व की एक और बात मिलती है कि वे प्रेम के पुजारी हैं. चे की तरह उन्होंने भी प्रेम को अपने संस्कार का हिस्सा बनाया है. इसके बावजूद वे चे क्यों बन पाए, यही मेरी मूल चिन्ता है.

चे की जिंदगी और विचारों ने करोड़ों युवाओं को सारी दुनिया में क्रांति के लिए जान निछाबर करने की प्रेरणा दी. क्रांतिकारी विचारों और क्रांति से प्यार करना सिखाया. भारत के युवाओं पर भी चे का गहरा असर रहा है. किसी भी क्रांतिकारी की जिंदगी उसके जनता के प्रति समर्पण, कुर्बानी और विचारधारात्मक स्पष्टता के पैमाने पर देखी जानी चाहिए. चे के विचारों और कर्म में गहरी एकता थी. उनमें अन्य के प्रति, उसकी मुक्ति के प्रति गहरी निष्ठा थी. चे यह नहीं मानते थे कि वे जनता के मुक्तिदाता हैं बल्कि उनका मानना था – ‘मैं मुक्तिदाता नहीं हूं. मुक्तिदाता का अस्तित्व नहीं होता. जनता स्वयं को मुक्त करती है.’

हमें देखना चाहिए कि जिस समाज में बुनियादी परिवर्तन चाहते हैं वहां क्रांतिकारी ताकतें, क्रांति के लिए प्रतिबद्ध बुद्धिजीवी आखिर क्या कर रहे हैं ? क्या वे बुर्जुआ वर्ग के एजेण्डे पर काम कर रहे हैं या फिर क्रांतिकारियों के एजेण्डे पर काम कर रहे हैं ? भारत की आयरनी यह है कि यहां के क्रातिकारी बुद्धिजीवी बुर्जुआ एजेण्डे पर फुलटाइम काम करते हैं, क्रांतिकारी एजेण्डे पर पार्टटाइम काम करते हैं. जाहिर है समग्रता में उनके कार्यों से क्रांति का कम बुर्जुआजी का ज्यादा भला होता है.

क्रांतिकारी कार्यकलाप का प्रेम की धारणा के साथ गहरा संबंध है. जो प्रेम नहीं कर सकता वह क्रांति भी नहीं कर सकता. जो प्रेम नहीं कर सकता वह भक्ति भी नहीं कर सकता. ईश्वर उपासना भी नहीं कर सकता. प्रेम हमारे समस्त जीवन की धुरी है. उसका क्रांति के साथ भी अभिन्न संबंध है. क्रांतिकारी भावों-विचारों के प्रति निष्ठा बनाने में प्रेम के प्रति कर्म और व्यवहार में वचनवद्धता जरूरी है. चे का मानना था – ‘यह हास्यास्पद लग सकता है लेकिन मैं कहना चाहता हूं कि सच्चा क्रांतिकारी प्रेम से निर्देशित होता है.’

हम मध्यवर्ग के लोगों की बुनियादी समस्या यह है कि हम जीवन में सब कुछ पाना चाहते हैं. सुखी जीवन चाहते हैं. सारी सुविधाएं चाहते हैं. किसी भी किस्म के सामाजिक परिवर्तन के लिए विचार से लेकर व्यवहार तक हमारे पास समय नहीं है. हम सारी जिंदगी जुगाड़ में लगा देते हैं. जोड़-तोड़, कुर्सी, पद, सम्मान, पैसा, शोहरत आदि हासिल करने में सारी ऊर्जा खर्च कर देते हैं और इस चक्कर में ब्लडप्रेशर से लेकर डायविटीज तक अनगिनत बीमारियों के शिकार हो जाते हैं. खाली समय में अवसाद में भोगते हैं. इससे कुछ बचता है तो निंदा में खर्च करते हैं, इससे समय बचता है तो फिर सो जाते हैं.

हमारे पूरे जीवन के टाइमटेबिल में क्रांति और सामाजिक परिवर्तन के कामों के लिए कोई जगह नहीं होती. यदि हम महान प्रगतिशील आलोचक हुए तो सारी उम्र सेमीनार, चयन समिति, पुरस्कार समिति, अध्यक्षता आदि में आदरणीय नामवर सिंह की तरह खर्च कर देते हैं.

आप कल्पना कीजिए नामवर सिंह जैसे महान पंडित ने क्रांति के बारे में अपने जीवन का आधा समय भी खर्च किया होता तो भारत और हिन्दीभाषी समाज का कितना उपकार हुआ होता. अंत में चे के शब्दों में ‘आप सब कुछ खोकर, कुछ पाते हैं.’ उसके बाद ही क्रांति कर पाते हैं. नामवर सिंह ने अपने जीवन में सब कुछ पाया लेकिन बिना जोखिम उठाए. उनके जीवन की चे के मुताबिक सबसे बड़ी असफलता यही है कि उन्होंने कोई जोखिम नहीं उठाया.

चे के अनुसार जोखिम उठाए बिना सब कुछ पाना जीवन की सबसे बड़ी विपत्ति है, और नामवरजी इसके आदर्श पुरूष हैं. नामवर सिंह ने सब कुछ पाया लेकिन कोई जोखिम नहीं उठाया. व्यक्तिगत जीवन से लेकर सामाजिक-राजनीतिक जीवन तक यदि वे जोखिम उठाते तो वे चे बन सकते थे.

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