वो दौर भी हम से पूछेगा
वो सदा भी हमसे पूछेगी
जब उजड़ रहा था
चमन उन सबका,
ख़ामोश तुम्हारे लब क्यों थे ?
क्यों बंधी रही
बाहें तुम्हारी ?
कदम चुपचाप थमे-थमे से
क्यों चलते थे ?
आहों सिसकियों के पांवों तले
जमीर की तुम्हारी
जमीं खिसकी क्यों ?
बेवतन होती औलादें
बेघर होती बेवाऐं
बच्चों बूढों की लाशों पर
अमेरिकी (इजराइली) गिद्द मंडराते
उस मंज़र देख
आंखें सुर्ख क्यों न थी ?
मेहनतकश मजदूर-किसान की
धरती पर बारूदों की
बारिश थी
बम थे
धमाके थे
धमकी थी
दहशत के बीच
लडते बोल के तराने क्यों न थे ?
लड न सको
बोल न सको
गा न सको
लिख न सको
देख न सको
तो तारीख़ को जबाज
दोगे क्या ?
- डॉ. नवीन
(भारत के संवेदनशील कवि, लेखक, विद्वान, संवेदनशील जनता की प्रतिनिधि छोटी सी टूटे फ़ूटे लफ्ज़ की एक कविता द्वारा फीलिस्तीनी जनता के दुख दर्द को बांटने के लिए लिखी कविता जो जिस भी माध्यम से हो उन तक पहुंचे, कि हम फीलिस्तीनी मेहनतकश जनता के साथ हैं…)
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