गुरूचरण सिंह
पता नहीं आपमें से कितनों को सदन में प्रधानमंत्री मोदी जी की पहली डिबेट याद है. मैं तो जब भी परेशान हो जाता हूं मौजूदा हालात से, सरकार की असंवेदनशीलता से तो मुझे मोदी के चेहरे पर खेलती हुई कुटिल मुस्कान अक्सर याद आ जाती है. ‘भले ही संसद में वे नए हैं’, कह कर वह एक कुशल वक्ता की तरह थोड़ा रुके, विपक्ष की ओर देखा. पूरे सदन में सन्नाटा पसरा हुआ उनकी अगली बात सुनने के लिए जिसे कहने से पहले एक कुटिल मुस्कान-सी खेल गई उनके चेहरे पर, और आंखों में तेजाबी व्यंग्य की छटा. मुट्ठी भर विपक्ष की ओर देखते हुए राज की बात बताने वाले अंदाज़ में कहा, ‘लेकिन यह मत कहिए कि हमें राजनीति नहीं आती !’
इसके साथ ही लोकसभा तालियों की गड़गड़ाहट, मैचों के थपथपाने और अट्टाहासों के शोर से गूंज उठी थी. तब समझ नहीं आया था उनकी इस बात का मर्म जिसे उनकी बेहतरीन भाषण कला का नमूना मान कर बस आनंद ही लिया था.उस कथन का निहितार्थ तो अब समझ आने लगा है ! दरअसल वही तो था मोदी ब्रांड राजनीति और उनकी कार्य शैली का खुला ऐलान. वक्त की जरूरत के मुताबिक अपनी बेहतरीन अदाकारी और राजनीति की व्यूह रचना से विपक्ष को बार-बार पटखनी दे कर उन्होंने हर बार यह साबित किया है कि राजनीति तो असल में उन्हें ही आती है. ‘केम छौ बापू ! राजनीति तो बस तमै जाणें छौ !’ स्पष्टीकरण कुछ भी दिया जाए, सच तो यही है कि संख्याबल से झूठ और सिर्फ झूठ पर आधारित जिस राजनीति की बुनियाद उन्होंने रखी है, उसके चक्रव्यूह में फंस चुकी जनता तो इसी को सच मानती हैं.
अब देखिए न पुलवामा का वह दुखद आतंकी हादसा, जिस हादसे के लिए उनकी सरकार की जवाबदेही तय होनी चाहिए थी उसी हादसे का इस्तेमाल उन्होंने आगामी चुनाव में दिख रही निश्चित हार पर अपनी संभावित जीत की इबारत लिखने के लिए कर लिया है. किसी ने नहीं पूछा अगर इंटेलिजेंस जानकारी थी तो क्यों नहीं समय रहते उसका इस्तेमाल किया गया ? हमले के तुरंत बाद ही आत्मघाती हमलावर का वीडियो संदेश कैसे सभी खबरी चैनलों पर प्रसारित होने लग गया ? जब सरकार को सूचना मिल चुकी थी कि हमला हो सकता है तो आपने सिपाहियों को हवाई जहाज़ से क्यों नहीं भेजा गया ? वैसे भी राज्यपाल के मुताबिक इतनी बड़ी संख्या में सैनिकों का काफिला भेजा ही नहीं जाना चाहिए था. जिस सड़क पर हर पचास मीटर की दूरी पर हथियारबंद सिपाही तैनात हो वहां पर 60 किलो विस्फोटक लदी गाड़ी आई कैसे ? चलिए इसे भी अगर भूल जाएं तो उसी बस से वह कैसे टकराई जो बुलेटप्रूफ नहीं थी ? कोई न कोई ‘ध्रुव सक्सेना’ तो है ही जिसने यह जानकारी आतंकवादियों तक पहुंचाई होगी !! क्यों नहीं उस पर कोई चर्चा होती ? क्यों नहीं मोदी जी से सवाल पूछा जाता क्योंकि राष्ट्रपति शासन होने के नाते जम्मू कश्मीर में तो मोदी सरकार ही राजकाज चला रही है !! बिना किसी जांच आपको कैसे पता चला कि इसमें तो पाकिस्तान का ही हाथ है ?
पूरे का पूरा विपक्ष ही सकते में आ गया था, जिस तरह से इस हादसे/षड़यंत्र/आतंकी हमले को पेश किया गया और एक तरह का युद्धोनुमाद पैदा करने कै लिए इस्तेमाल किया गया ! सांप के मुंह में छछूंदर आ गई, खाए तो मुश्किल और न खाए तो भी मुश्किल. सरकार के साथ खड़े दिखना ही विपक्ष की मजबूरी बन गया और न दिखे तो गद्दार कहलाने का जोखिम उठाए ! हमलावर बन कर वह कोई भी सियासी मुहिम चला ही नहीं सकता था और सत्तारूढ़ दल इसी की आड़ में जम कर चुनावी रैलियां कर रहा था, अर्धसैनिकों की मृत्यु पर भड़के हुए लोगों की भावनाओं को खुलेआम भुना रहा था और विपक्ष बस एक मूक दर्शक बन कर रह गया था !
लेकिन पुलवामा में हुई सुरक्षा की चूक से उठे सवाल तो आज भी इंतजार में है, कब मिलेगा जवाब ? संघ की कार्यशैली से परिचित लोग जानते हैं कि वे तो सवाल करना ही जानते हैं, किसी भी सवाल का जवाब देना उन्हें कभी सिखाया ही नहीं गया, ठीक अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र की तरह जिसे वापिस बुलाना उसे आता ही नहीं था ! बस यहीं एक पेंच भी है. इसी कारण उसे मवाद बहते शरीर के साथ सदियों तक जीवित रहने का श्राप भी मिला था. सत्ता मद में चूर भाजपा को भी ऐसा ही कुछ भुगतना होगा. अपना मतलब हल करने के लिए पुलिस और अर्धसैनिक बलों को और अधिकार, अत्यधिक कड़े कानून जिनका उपयोग अक्सर आम आदमी के खिलाफ या उनके लिए आवाज उठाने वाले आदमी के खिलाफ ही होता है, बताते हैं कि देश बहुसंख्यक अधिनायकवाद की ओर ही बढ़ रहा है. डीएसपी देवेंद्र सिंह की पुलवामा मामले में संलिप्तता, गिरफ्तारी, जांच एजेंसियों द्वारा पूछताछ और इसके बावजूद मीडिया की साजिशी चुप्पी बहुत कुछ कह जाती है. कहीं पुलिस सुपारी किलर के रूप में काम करती है, कहीं हीरोइन जैसे मादक पदार्थों का व्यापार करती है और कहीं प्रशासन के इशारे पर निरीह छात्र-छात्राओं पर कहर बरसाती है !
लेकिन इन सब से हैरानी उन लोगों को अवश्य हो सकती है जो संघ की कार्यशैली से परिचित नहीं हैं. लगभग हर बड़ी घटना/दुर्घटना में संघ/हिंदू महासभा का प्रत्यक्ष हाथ रहा है. यहां तक कि देश के विभाजन में भी. इसके बावजूद वह इल्ज़ाम तो हमेशा दूसरों के सर पर ही मढ़ता है. ‘वैसे तो हमीं ने सब बरबाद किया है, इल्ज़ाम किसी और के सर जाए तो अच्छा’, साहिर का (थोड़ा बदला) यह गीत सही नुमांइदगी करता है संघ की कार्यशैली की. अपनी नाकामयाबी का ठीकरा किसी दूसरे के सिर पर फोड़ देना, बिना कुछ किए ही किसी और को गुनाहगार ठहरा देना संघ की पुरानी आदत है और उसी संघ के प्रचारक हैं अपने मोदी जी. वह भी अपनी सारी नाकामियों के लिए पकिस्तान को कसूरवार बना कर खुद को हर तरह की जवाबदेही से ऊपर रखने का पुराना खेल ही तो खेल रहे हैं !
इधर यह हादसा हुआ. 40 बेकसूर जवानों की मौत सुरक्षा चूक के चलते हुई. इधर बैकफुट पर आ चुकी भाजपा एकदम जोश में भर गई और पूरी तरह चुनावी मोड में आ गई, कैसे ? सारे भाजपाई कार्यकर्ता अचानक सड़कों पर निकल कैसे आए ? और जोर-शोर से खुद को ‘सच्चा देशभक्त’ और दूसरी पार्टियों को गद्दार कैसे बताने बताने लग गए ? ऐसा लग रहा है जैसे भाजपा की तो लाटरी लग गई हो ? तत्काल प्रतिक्रिया को देख कर लगता है उसे जैसे ऐसा ही कुछ हो जाने की उम्मीद थी.
सरकार की संवेदनशून्यता का अंदाजा आप इसी एक बात से लगा सकते हैं कि हमारे गृह मंत्री अमित शाह ने नागरिकता कानून पर बातचीत के लिए हर समय दरवाजा खुला रखने की बात की थी. जम्मू कश्मीर पर एकतरफा कार्रवाई से नाराज हो कर सेवा से त्यागपत्र देने वाले IAS अधिकारी कन्नन गोपीनाथन ने 14 तारीख़ को मिलने और बात करने का अनुरोध किया था. पांच दिन हो गए हैं और गोपीनाथन आज भी इंतजार कर रहे हैं बुलावे का.
पहले भी कई बार कह चुका हूं आज फिर पूरी मजबूती से दोहरा रहा हूं. देश कोई जमीन का टुकड़ा नहीं होता और न ही नक्शे पर खिंची कुछ आड़ी तिरछी लकीरें ही. देशभक्ति तो दरअसल देश के लोगों से प्यार का दूसरा नाम है, उनकी बेहतरी के लिए काम करना है, उनके ‘रोजी,रोटी और मकान’ की फिक्र करना है. इसके ठीक उलट देश के लोगों के बीच नफरत फैलाना ही गद्दारी है. वक्त आ गया है कि हम अपने शब्दकोश के ज्ञान को नए सिरे से देखें, समझें !
बम घरों पर गिरे के सरहद पर, रूहे-तामीर जख्म खाती है,
खेत अपने जलें के औरों के, जीस्त फाकों से तिलमिलाती है ! – साहिर लुधियानवी
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