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नागरिकता कानून और धार्मिक उत्पीड़न

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नागरिकता कानून और धार्मिक उत्पीड़न

गुरूचरण सिंह

नए मिजाज़ के गृहमंत्री अमित शाह ने धार्मिक उत्पीड़न के नाम पर ही इस कानून को उचित ठहराया है. मैं नहीं जानता कि उन्हें दुनियां के इतिहास की जानकारी है भी या नहीं. यदि है और फिर भी उसने अगर ऐसी कमजोर बुनियाद पर इस एकतरफा कानून की इमारत को खड़ा कर दिया है तो इसे सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिक तनाव पैदा करने की कोशिश के रूप में ही देखा जा सकता है.

चलिए इसी पर चर्चा करते हैं आज. हालांकि चर्चा के नाम पर सरकारी पक्ष अपनी ही ढफली बजाता रहता है, दूसरों की बात तो सुनता ही नहीं है. खैर, इतिहास में कई तरह के लबादे ओढ़ कर सामने आया है उत्पीड़न – कभी धर्म का, कभी रंगभेद का (गोरा, काला और गेहुंआ), कभी वर्ण भेद और उस पर आधारित जात-पात का, कभी विजेता और पराजित दास बन कर, कभी मंडी बिकते दास-दासियों और सेक्स दासियों के रूप में उत्पीड़न का लेकिन असल में तो था यह बुनियादी तौर पर आर्थिक उत्पीड़न ही, बाकी सब तो उसके मुखौटे थे !

यहूदी अपनी कुछ जातिगत विशेषताओं के चलते दुनिया भर में हेय दृष्टि से देखे जाते रहे हैं हालांकि आज दुनियां को हम जिस रूप में देख रहे हैं उसमें बहुत बड़ा योगदान इन्हीं यहूदी वैज्ञानिकों के अविष्कारों का है. पांव रखने भर के लिए भी अपनी कोई जमीन नहीं थी इन दरबदर लोगों के पास, लेकिन पैसा कमाने का हुनर कमाल का था, ठीक अपने यहां के वैश्य समाज की भांति. इसलिए इसाइयों की नफरत का शिकार होते रहे.

शेक्सपियर का मशहूर नाटक The Merchant of Venice में वेनिस की एक अदालत में शाइलॉक का बयान उनके इन हालात की बेहतरीन नुमाइंदगी करता है :

‘£3000 की वापसी तो मेरे लिए एक मछली का चारा है, जिसे मैं नहीं निगलने वाला. मुझे तो बस मेरा प्रतिशोध ही चाहिए, एंतोनियो के शरीर का एक पाउंड मांस का टुकड़ा ही चाहिए ! उसने हमेशा से मेरा अपमान किया…,मेरे नुकसान पर हंसा, मुनाफे का मज़ाक उड़ाया, मेरे देश के नाम पर थूका, मेरे सौदे होने से रोके… यह सब किसलिए किया ? इसलिए ना कि मैं एक यहूदी हूं ? क्या यहूदी की आंखें नहीं होती ? क्या यहूदी के हाथ-पांव या दूसरे अंग नहीं होते; अहसास, प्यार, आवेग नहीं होते ? क्या वह भी वही भोजन नहीं करता, जो आप करते हो ? आपकी तरह समान हथियार से क्या वह घायल नहीं होता, एक-सी बीमारी नहीं होती, एक जैसी दवाई से वह ठीक नहीं होता ? क्या एक ईसाई की तरह उसे सर्दी में सर्दी और गर्मी में गर्मी नहीं लगती ? क्या आपके कुछ चुभोने पर हमारा खून नहीं निकलता, गुदगदाने पर क्या हमें हंसी नहीं आती ? आपके जहर देने से हम मरते नहीं हैं क्या ? तो फिर आप अगर अपमान करेंगे तो हम बदला क्यों नहीं लेंगे ? अगर कोई यहूदी किसी ईसाई के साथ कुछ गलत करता है, तो क्या वह उसे माफ करता है ? बदला नहीं लेता ? तो फिर एक यहूदी ऐसे ईसाई से बदला क्यों न ले ? जो शैतानी सबक आपने हमें सिखाया है, उसी पर तो मैं अमल कर रहा हूं और मैं तो उसे आप लोगों से बेहतर करके दिखा दूंगा.’

शेक्सपियर तो खुद ही धार्मिक उत्पीड़न का शिकार हुआ है ओलिवर क्रौमवेल के समय, जब इंग्लैंड के प्रोटेस्टेंट लोगों ने पोप की धर्म सत्ता को मानने से इंकार कर दिया था. रोम की धर्मसत्ता के खिलाफ इंग्लैंड में रोमनधर्म (कैथोलिक) विरोधी सत्ता कायम हुई थी ओलिवर क्रामवेल के समय में. कुछ लोगों का तो, इन पंक्तियों के लेखक सहित, यह भी मानना है कि इसी धार्मिक उत्पीड़न की कोख से शेक्सपियर की त्रासदियों का खून से लथपथ शिशु पैदा हुआ था. कहने को आप कह सकते हैं कि अच्छा ही हुआ जो इस (उत्पीड़न) के चलते एक अनुपम, अमूल्य साहित्यिक धरोहर हमें मिली, लेकिन कितना कुछ झेलना पड़ा होगा शेक्सपियर जैसे कितने ही संवेदनशील लोगों को, इसका अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल है !

वक़्त बदला तो इन्हीं यहूदियों को हिटलर ने बदले संदर्भ में अपने आपको श्रेष्ठ मानने वाली ‘आर्य प्रजाति’ की नफरत का शिकार बना दिया, जिसने यहूदी नस्ल को ही तबाह करने का फैसला कर लिया. भारत में भी बहुत पहले ऐसा धार्मिक उत्पीड़न देखने में आया था पहले शैव शाक्तों बीच और फिर इन दोनों और वैष्णवों के बीच. फिर मानवता को शर्मसार करने वाला उत्पीड़न तब हुआ जब बौद्धधर्म के मानने वालों का कत्लेआम हुआ था और उन्हें अपने देश से ही दरबदर कर दिया गया था. अजीब बात है कि आज यही कानून उन्हें भी धार्मिक उत्पीड़ित मानता है और नागरिक होने का दावा कबूल करता है ! नफरत के नए शिकार बस मुस्लिम ही इसमें शामिल नहीं हो सकते, क्योंकि बिना वैध दस्तावेज यहां रोज़ी-रोटी कमाने आए लोग तो घुसपैठिए हैं. घुसपैठिए तो इस क़ानून में बताए छ: धर्मो को मानने वाले भी हैं लेकिन उन्हें यह कानून ‘सताए हुए’ मानता है. हाल ही के बरसों में भारत के एक तबके में भी इसी तरह की ही नफरत मुसलमानों के खिलाफ दिखने लगी है ! यह कानून उसी भेदभाव और अलगाव को कुछ और गहराने वाला है !

यह सच है कि शैतान की कोई पहचान नहीं होती, कोई भाषा, कोई खास ज़ुबान नहीं होती, गिरगिट की रंग बदलता रहता वह, हर घर में रहता है और दूसरों को शैतान कहता है. दूसरों का बुरा चाहने वाला हर दिल ही शैतान का आशियाना है, शैतान पैसा है, ताकत है, बदा खूबसूरत मकान है, ऐशो इशरत के सारे सामान हैं. सभी शैतान को गरीयाते है, लेकिन खुद वैसा ही बनने का सपना सजाते हैं. ईश्वर सुने न सुने, लेकिन शैतान खूब सुनता है और इस तरह उसका कुनबा बढ़ता रहता है. इस कानून को आगे बढ़ाने और समर्थन में उतरे लोग इसी कुनबे की रहनुमाई तो कर रहे हैं, जो इंसान और इंसान में फ़र्क करता है !

शाह का कहना है कि अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश मुस्लिम देश हैं. वहां धर्म के नाम पर मुस्लिम लोग उत्पीड़ित नहीं होते, इसलिए उन्हें इस एक्ट में शामिल नहीं किया गया है. इस कानून के विरोधियों का कहना है कि ये धार्मिक भेदभाव वाला कानून है जो संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है. इस कानून से असम के आदिवासी इलाके और मेघालय, मिजोरम या त्रिपुरा के अलावा अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम व नागालैंड को बाहर रखा गया है.

विरोध को देश भर में व्यापक समर्थन भी मिल रहा है. दुनिया भर की 10 हजार हस्तियों ने जामिया छात्रों पर पुलिस की बर्बर कार्यवाही की निंदा की है. विरोध के स्वर देश के दूसरे विश्वविद्यालयों से भी उठ रहे हैं. देश के 600 बुद्विजीवियों ने काले कानून के खिलाफ सरकार को पत्र लिखा है. बिहार का एक जलसा तो महारैली में ही तब्दील हो गया. खेल ग्राउंड भी छोटा पड़ गया उसके लिए.

साम्प्रदायिकता के खिलाफ लड़ने वाले पिंजरे में बन्द बूढ़े योद्धा लालू प्रसाद यादव का ट्वीट दर्शाता है कि हौंसला आज भी बुलंद हैं मैदान में उतरने का –

‘अभी आंखों की शमाएं जल रही हैं, उसूल जिंदा है,
आप लोग मायूस मत होना अभी बीमार ज़िंदा है,
हजारों जख्म खाकर भी मैं दुश्मन के मुक़ाबिल हूं,
खुदा का शुक्र अब तक दिल-ए-खुद्दार जिंदा है.’

विरोध और हिंसा मुस्लिम बहुल इलाकों में दिखाने की मीडिया की तमाम कोशिशों के बावजूद साबित हो गया है कि
विरोध करने वाले अधिकांश लोग हिन्दू है. यही है भारत की सांझी संस्कृति, गंगा जमुनी तहजीब, आपसी प्यार और सौहार्द !

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