राजपरिवार की एक नई नवेली बहू रात दिन कृष्ण भक्ति में लीन रहते देख परिवार को यह नागवार गुजरा, मीरा के देवर विक्रमादित्य ने मीरा को मारने के लिए जहर प्याला तक पिलाया गया. मीराबाई कम उम्र में ही विधवा हो गई थी. मीरा को पति की चिता पर सती होने के लिए बाध्य किया गया लेकिन मीरा ने सती होने से मना कर दिया.
पति का अंतिम संस्कार भी मीरा की गैरमौजूदगी में किया गया. मीरा ने अपना विधवा जीवन कृष्ण भक्ति धारा की रचनाओं में बिताया. हालांकि मीराबाई बहुत पढ़ी-लिखी नहीं थी, बाद में गुरु रैदास ने मीरा की काव्यगत रचनाओं के प्रति उत्कंठा को देख अपने आश्रम में ही उन्हें प्रशिक्षित किया.
भारतीय इतिहासकारों से लेकर साहित्यिकारों तक ने मीरा का जीवन चित्रण हमेशा ही ‘मीरा को भक्ति के पागलपन तक’ जैसा चित्रित करने की कोशिश की. वास्तविकता ये थी कि भारतीय अध्यात्म की कमान हमेशा ही ब्राह्मणवादी व्यवस्था के चाकरों के मातहत रही है. वह मीरा को उत्पीड़ित किए गए पहलुओं को षड्यंत्रपूर्ण तरीके से छिपा देता है.
मीरा को परिजनों द्वारा प्रताड़ित करने का आलम ये था कि मीरा हफ्तों तक आत्मरक्षा के लिए जंगलों में छिपी रहती थी. गांववासियों द्वारा ससुराल में सूचना न देने की दया-दृष्टि पर मीरा भेष बदलकर ग्रामीणों के बीच रहती थी. मीराबाई एक विवेकशील महिला थी. वह साधारण जीवन और राजतंत्र के ध्वजवाहकों के लिए पूर्ण अध्यात्मिक दर्शन का पालन करने की हिमायती थी. लेकिन भारतीय संस्कृति में ‘आध्यात्मिकता का शासकीय गठजोड़’ कभी भी इसके लिए तैयार नहीं था.
यहां के शासकवर्ग को आध्यात्म की जरूरत अपने कुकर्मों को ढकने के लिए रहती थी और राजा और उसके हुक्मरान लालची किस्म के अध्यात्म गुरुओं को हमेशा अपने दरबार में रखने के शौकीन थे, जिसका परिणाम ये होता था कि समाज अलौकिक दुनिया के प्रवचनों के जरिए राजाओं की अय्याशी और क्रूरतम शोषण के तरीकों को समझने से महरूम रहें. भक्ति की ‘सतरंगी कल्पित दुनिया’ ने मीरा को दिमागी तौर पर अस्थिर कर दिया और अध्यात्म व शासकीय गठजोड़ से चोटिल महज 48 साल की उम्र में मीरा की मौत हो गई.
बहुत से जानकारों का मानना है कि मीरा को छल से मरवा दिया गया क्योंकि मीरा की भक्ति मार्ग का उस समय बहुत स्त्रियां अनुकरण करने लगी थी. मीरा की मृत्यु के बारे में ये भी कहा जाता है कि उसका मृत शरीर किसी को नहीं मिला. कुल मिलाकर मीरा की स्वाभाविक मृत्यु होने पर उस समय के कुलीन आध्यात्मविदों व राजपरिवार पर संदेह की सुइयां बरकरार बनी हुई हैं.
साहिर लुधियानवी का लिखा निर्गुण भक्ति धारा का गीत ‘लागा चुनरी में दाग’, मीराबाई की रचनाओं का ही प्रतिबिम्ब है. राग सिंधु भैरवी में मन्नाडे ने इसे अपनी आवाज देकर शास्त्रीय संगीत की बुलंद जगह पर स्थापित किया. हिंदी सिनेमा जगत में ऐसे बहुत गीत हैं जो मीराबाई के चरम भक्ति से प्रेरित रहे हैं. नैनों में बदरा छाए, बोले रे पपिहरा जैसे प्रसिद्ध शास्त्रीय गीत मीराबाई भक्ति रचनाओं से प्रभावित रहे हैं.
हालांकि मीराबाई की अपनी कई रचनाओं में से एक ‘ऐ री मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दर्द न जाने कोय’ राग भीमपलासी का एक बहुत ही बुलंद प्रयोग रहा है. कृष्णमार्गीय निर्गुण भक्ति धारा को मीराबाई ने अपने गुरु संत रैदास के सानिध्य में बहुत ही शानदार तरीके से स्थापित किया है.
- ए. के. ब्राईट
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