गिरीश मालवीय
म्यांमार की मिलिट्री ने पिछले रविवार देर रात 2 बजे तख्तापलट कर दिया और यहांं की लोकतांत्रिक ढंग से चुनी सरकार को अपदस्थ कर दिया. लेकिन म्यामांर में यह सत्ता परिवर्तन एकाएक नहीं हुआ. दरअसल मिलेट्री वहांं शुरू से सत्ता के केंद्र में बनी रहती है और उसके लिए वह वही टूल इस्तेमाल करती है जो आजकल दुनिया की अधिकतर राजनीतिक पार्टियां इस्तेमाल कर रही है – वह है सोशल मीडिया.
पूरी दुनिया मे आजकल प्रोपगैंडा और गलत सूचनाओं को फैलाने में सोशल मीडिया का धड़ल्ले से इस्तेमाल किया जा रहा है. पिछले 9 सालों में म्यामांर जो एक बौद्घ धर्मावलम्बियों का देश है, वहांं बेहद ज्यादा हिंसक गतिविधियां रिकॉर्ड की गई है और कारण है फ़ेसबुक.
पांच करोड़ की आबादी वाले इस देश में फेसबुक का प्रभाव बहुत अधिक है क्योंकि देश में लगभग 1.8 करोड़ लोगों के इस सोशल मीडिया वेबसाइट पर अकाउंट है.
म्यांमार बौद्ध बहुल आबादी वाला देश है. यहां कभी दस लाख से ज्यादा रोहिंग्या मुसलमान भी रहते थे. म्यांमार के रखाइन राज्य में 2012 से बौद्धों और रोहिंग्या विद्रोहियों के बीच सांप्रदायिक हिंसा की शुरुआत हुई. इसके बाद से म्यांमार से अब तक करीब छह लाख 90 हजार रोहिंग्या मुसलमान गांव छोड़कर बांग्लादेश चले गए.
2018 में संयुक्त राष्ट्र के जांचकर्ताओं ने कहा कि देश में फेसबुक एक दानव के रूप में परिवर्तित हो चुका है और इस वेबसाइट पर हर तरह की घृणा फैलाई जा रही है. दरअसल 2017 की म्यांमार में मुस्लिम विरोधी हिंसा में फेसबुक ने सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिससे सैकड़ों हजारों रोहिंग्या अपने घरों को छोड़ने पर मजबूर हुए.
2018 में यूएन इन्डिपेंडेंट इंटरनेशनल फैक्ट फाइन्डिंग मिशन के चेयरमैन मरजूकी दारुस्मन ने मीडिया से कहा था कि म्यांमार में सोशल मीडिया ने इस नरसंहार में अहम भूमिका निभाई. उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया ने कट्टपंथ, असंतोष और संघर्ष का स्तर बढ़ाने में काफी बड़ी भूमिका निभाई. नफरत भरी बातें भी इसका हिस्सा है. इसका सीधा संबंध म्यांमार की स्थिति से है.
यूएन में म्यांमार इन्वेस्टिगेटर यांघी ली ने कहा कि फेसबुुक लोगों का मैसेज एक-दूसरे तक पहुंचाने के लिए बना है, लेकिन हमें पता है कि अति राष्ट्रवादी बौद्ध लोगों ने असल में रोहिंग्या और बाकी माइनॉरिटीज के खिलाफ इसके जरिए बहुत हिंसा और नफरत फैलाई. उन्होंने कहा कि मैं डरी हुई हूं कि फेसबुक अब एक क्रूर जानवर का रूप लेता जा रहा है और ये वो नहीं रह गया, जिस काम के लिए इसे असल में तैयार किया गया था.
आप देखेंगे कि पूरे विश्व मे जिन भी देशों में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बना है, वहांं वहांं अल्पसंख्यकों पर अत्याचार बढ़े हैं और इन घटनाओं के प्रसार में सोशल मीडिया खासतौर पर फ़ेसबुक की भूमिका स्पष्ट तौर पर दिख रहीं हैं.
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