कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
हालिया रिटायर्ड सुप्रीम कोर्ट जज अब्दुल नज़ीर को आंध्रप्रदेश का गवर्नर केन्द्र सरकार ने नियुक्त किया है. राजनीतिक और कानूनी इलाकों में हलचल और आलोचना का बाज़ार गर्म है. जस्टिस नज़ीर राम मंदिर वाले फैसले की बेंच तथा नोटबंदी पर सुनने वाली बेंच में रहे हैं. चखचख बाजार से हटकर सवाल संविधान के प्रावधानों, नैतिक प्रतिमानों और स्थिर हो चुकी न्यायिक परंपराओं के गर्भगृह में उत्तर है.
सुप्रीम कोर्ट जज और राज्यपाल पदों के संवैधानिक रिश्ते पर संविधान सभा में ही उच्चस्तरीय वादविवाद हुआ. बहस की शुरुआत 24 मई 1949 को जागरूक समाजवादी सदस्य प्रो. के. टी. शाह ने की. उन्होंने नया अनुच्छेद 102 (क) बतौर संशोधन पेश किया कि ‘इस संविधान के अधीन भारत की न्यायपालिका तो कार्यपालिका तथा विधानमंडल से पूरी तौर पर अलग और स्वायत्त होगी.‘
शाह ने कहा देश में लोकप्रिय आंदोलन शुरू से ही मांग करता रहा कि न्यायपालिका को सरकार से पूरी तौर पर अलग तथा स्वतंत्र रहना चाहिए. सवाल दो संवैधानिक संस्थाओं के अलगाव भर का नहीं बल्कि न्यायपालिका की मुकम्मिल स्वायत्तता का है. जोर देकर कहा कि ‘जजों को किसी भी तरह के कार्यपालिका समर्थित पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए. ऐसी सम्भावना लगने तक पर जज नई पदनियुक्ति से किसी न किसी तरह प्रभावित होकर पक्षपाती हो ही सकता है.’
कन्हैयालाल माणिक लाल मुंशी अधिकतर सरकारी प्रस्तावों के समर्थन में पांडित्यपूर्ण तर्क करते थे. इतिहास गवाह है आज आज़ादी के अमृत काल में ऐसी कई परंपराएं अधमरी और संभावनाएं मर चुकी हैं, जिन्हें लेकर भविष्यवाणी की शक्ल में बड़बोलापन आलिम फाजिल मुंशी ने किया था. मुंशी ने शाह की मुखालफत करते कहा था कि संविधान के भाग 4 में मंजूर किया गया है कि कार्यपालिका और न्यायपालिका को अलग किया जाएगा. तब सुप्रीम कोर्ट की स्वायत्तता या कार्यपालिका से प्रभावित होने का कोई खतरा बचा ही कहां है ? वैसे भी सुप्रीम कोर्ट जजों को बिना महाभियोग की प्रक्रिया के नहीं हटाया जा सकता.
अचरज है कि मुंशी ने पूरे मामले को काल्पनिक आधारों पर न केवल खारिज किया, बल्कि शाह के दमदार तर्कों को ही पटरी से उतार दिया.
डा. पी. के. सेन ने शाह के प्रस्ताव का समर्थन करते दो टूक कहा कि राजा राममोहन राय के वक्त से न्यायपालिका को पूरी तौर पर कार्यपालिका से अलग रखने की मांग होती रही है. तेज तर्रार हरि विष्णु कामथ ने शाह के प्रस्ताव का अपने सुझाव मिलाकर समर्थन किया. कामथ ने जजों की नियुक्ति का सवाल उठाते कहा कि उनकी नियुक्ति में राष्ट्रपति के कंधे का इस्तेमाल कर निशाना तो प्रधानमंत्री ही साध सकते हैं.
नजीरुद्दीन अहमद ने शाह के समर्थन में कहा न्यायपालिका की आज़ादी स्वतंत्रता संग्राम आंदोलन में बड़ी मांग रही है क्योंकि अंगरेज हाकिमों के साथ जजों ने भी भारतीयों को बहुत तकलीफें दी हैं. उन्होंने कटाक्ष किया कि जो लोग सत्ता में आ गए हैं, वे ही आज़ादी के आंदोलन के सिद्धांतों को खोखला करना चाहते हैं. कार्यपालिका और न्यायपालिका का साथ हो जाना तो शैतानियत का लक्षण होगा. न्यायपालिका को कार्यपालिका की सनक और तुनक के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता.
धाकड़ सदस्य जसपत राय कपूर ने अलबत्ता कहा कि रिटायर होने के बाद जजों को काम क्यों नहीं दिया जा सकता ? सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज अवैतनिक रूप से जनसेवा के पद क्यों नहीं ले सकते ? कुछ बेहद पारदर्शी और ईमानदार जजों की राष्ट्रपति रिटायरमेंट की उम्र भी बढ़ा सकते हैं. संविधान में ऑडिटर जनरल को रिटायरमेंट के बाद कोई भी सरकारी पद दिए जाने की सीधी मुमानियत है. यही प्रतिबंध सुप्रीम कोर्ट जजों पर क्यों नहीं लगाया जाना चाहिए.
अलबत्ता ठाकुर दास भार्गव ने सहूलियत का सुझाव देते कह दिया कि रिटायर्ड सुप्रीम कोर्ट जज चाहे तो चुनाव लड़ ले, लेकिन उसे देश की किसी अदालत में पैरवी करने का अधिकार नहीं होना चाहिए. जवाहरलाल नेहरू ने बीच बचाव करते कुछ गोलमोल बातें भी की. एक तो यह कि सुप्रीम कोर्ट के जजों का रिटायरमेंट नए लोगों को नौकरी देने के मुद्दे से जोड़ा नहीं जाना चाहिए. जजों को बहुत ऊंचे गुणों से युक्त होना चाहिए और उनकी पारदर्शिता और ईमानदारी पर किसी को शक नहीं होना चाहिए. सरकार या कोई अन्य, अनीति या अन्याय करने पर जजों को साहस के साथ फैसला करना चाहिए. उन्हें हर तरह की राजनीति से बचाए जाने की जरूरत है, तभी उनके कामों का सही मूल्यांकन हो सकेगा.
डा. अंबेडकर ने अजीब बात कह दी कि ऊंची अदालतों के जज अमूमन ऐसे मामलों का फैसला करते हैं, जिनमें सरकार की प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती. वे नागरिकों के बीच विवाद का ही ज्यादातर निराकरण करते हैं. यह भी कहा ऐसा देखने में नहीं आता कि कार्यपालिका-न्यायपालिका के फैसलों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभावित करे. इसके बरक्स नजीरुद्दीन अहमद ने दो टूक कहा था कि ‘उनके ध्यान में ऐसे उदाहरण आए हैं जब प्रधानमंत्री ने सीधे जिला मजिस्ट्रेट को फोन कर किसी मामले में उनके सुझाव के अनुसार फैसला करने को कहा था.’
असल में अंगरेजी हुकूमत के वक्त जजों को सरकार के खिलाफ फैसला करने का अवसर नहीं था क्योंकि भारत आजाद नहीं हुआ था, न ही उसने संविधान बनाया था. संविधान सभा में डॉ. पी. के. सेन के संशोधन और सुझाव का समर्थन बी. दास ने किया और कहा यदि वह सुझाव मान लिया गया तो हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जज अपनी असली नागरिक औकात में आ जाएंगे और अपने आपको खासमखास नहीं समझेंगे.
शिब्बनलाल सक्सेना ने प्रावधान का विरोध किया कि प्रधानमंत्री की सिफारिश पर राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट जज की नियुक्ति करें, इससे सुप्रीम कोर्ट की आज़ादी खत्म हो जाएगी. के. टी. शाह ने कटाक्ष किया कि देश के जजों, राजदूतों और राज्यपालों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह पर ही होगी तो प्रधानमंत्री को तानाशाह बनने से कौन रोक सकता है ? इसके उलट विश्वनाथ दास ने कहा कि रिटायर्ड जज को सरकारी पद देने से अनीति या अन्याय होने की संभावना का डर ही दिमाग से निकाल देना चाहिए.
जस्टिस नज़ीर के पहले जस्टिस पी. सदाशिवम और जस्टिस फातिमा बीवी आदि को भी राज्यपाल पदों पर नियुक्त किया गया है. जस्टिस नज़ीर ने तीन तलाक के मामले में अल्पमत का फैसला दिया था अर्थात् जो तीन तलाक को समाप्त करने के पक्ष में नहीं था. कड़वा सच है कि भारत में न्यायपालिका की स्वायत्तता और जजों के नैतिक साहस का दौर लगभग खत्म हो गया है.
इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाया तो चुनौती सुनने वाली पीठ में पांच में से चार जजों ने आपातकाल में नागरिक अधिकार खत्म किए जाने का समर्थन किया. बाद में देश और इतिहास से माफी मांगते रहे. राज्यपाल वैसे भी मंत्रिपरिषद की सलाह से ही काम करता है. यह पद फूलों का गुलदस्ता है जिसमें रंग रूप तो है लेकिन खुशबू सिरे से गायब है इसीलिए लोहिया कहते थे लाट साहबी का यह पद संविधान से ही निकालकर फेंक देना चाहिए. यह एक तरह की अंगरेजी जूठन है. सुप्रीम कोर्ट जज को रिटायरमेन्ट के बाद सरकारी शगल का हिस्सेदार क्यों बनना चाहिए ?
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