Home गेस्ट ब्लॉग मेरी कश्मीर यात्रा

मेरी कश्मीर यात्रा

43 second read
0
0
283
मेरी कश्मीर यात्रा
मेरी कश्मीर यात्रा
अशफ़ाक़ अहमद

कश्मीर से सम्बंधित आलेखों पर एक बात यह भी समझ में आई कि जिन्होंने वह सब परेशानियां नहीं झेलीं, उन्हें लगता है कि यह सब दूसरी दुनिया की बातें हैं क्योंकि उनके अनुभव उन तमाम बातों से मेल नहीं खाते, और वे उन सब बातों को खारिज करने लग जाते हैं. बहरहाल, अगर एक बात कही जा रही है और नब्बे प्रतिशत लोग उस बात के समर्थन में खड़े हैं, जिनके अपने अनुभव सेम रहे हों और केवल दस प्रतिशत लोग खिलाफ़ में अपना मत दें तो सच वही है जो ज्यादातर लोग मान रहे हैं, क्योंकि यह धारणा पर आधारित विचार नहीं बल्कि ख़ुद जिये तजुर्बे हैं.

अब ऐसा कैसे होता है कि लोगों के तजुर्बे अलग-अलग हो जाते हैं— एक बताता है कि हमारा अनुभव तो बड़ा अच्छा रहा, दूसरा बताता है कि मेरा अनुभव एकदम वर्स्ट (खराब) रहा. तो इसके पीछे मुख्यतः घूमने जाने वालों की चार अलग-अलग कैटेगरी, और तीन तरह की कंडीशंस जिम्मेदार हो सकती हैं.

कश्मीर चार तरह के लोग मुख्य रूप से घूमने जाते हैं. पहला, जिसके पास बेशुमार पैसा भरा है, फ्लाईट से या अपनी गाड़ी से आया गया, फाईव स्टार होटल में ठहरा, दस की जगह सौ खर्च करने में जिसे परेशानी नहीं. इस तरह के टूरिस्टों का अनुभव निश्चित ही बढ़िया रहेगा और उसे परेशानी वाली बातें दूसरी दुनिया की लगेंगी.

दूसरा टूरिस्ट वह है, जिसका कोई पहचान वाला कश्मीरी है, जो उसकी विजिट को अपने सर ले लेता है और ख़ुद साथ रहते उसे घुमाता फिराता है. यह टूरिस्ट अपनी ख़ुद की गाड़ी से गया कोई सक्षम इंसान भी हो सकता है और बिना गाड़ी वाला या कम समर्थ भी— इस टूरिस्ट का अनुभव भी कमोबेश अच्छा रहेगा. थोड़ी बहुत शिकायत हो सकती है लेकिन ओवरऑल संतुष्ट रहेगा.

तीसरा टूरिस्ट फक्कड़ टाईप है, अकेला या ग्रुप के साथ सीमित पैसों में कश्मीर घूमने पहुंचा है. जगह-जगह ई-रिक्शा, ऑटो, शेयर्ड टवेरा, बस आदि के धक्के खाता फिर रहा है. इस टूरिस्ट को वहां टूरिज्म इंडस्ट्री से जुड़े लोग उसकी आर्थिक हैसियत के हिसाब से पहचान लेते हैं और उसी हिसाब से डील करते हैं. अब इसे लगता है कि कहां परेशानी थी, सबकुछ तो ठीक-ठाक था, सवारी भी हर जगह मिल गई और न शिकारे वाले ने ज्यादा पैसे मांगे, न कहीं घोड़े वाले ने. मामूली शिकायतों के साथ इसका अनुभव भी संतोषजनक हो सकता है.

चौथी श्रेणी का टूरिस्ट मिडिल क्लास का वह कपल या परिवार (जिसकी सिक्योरिटी और कम्फर्ट को देखते सामने वाले को समझौता करना मुश्किल हो) होता है, जिसे घूमना तो है लेकिन वह न फक्कड़ जितने लेवल पर जा सकता है और न एलीट्स के जैसे पैसे खर्च कर सकता है. असल में सारी समस्या इसी टूरिस्ट वर्ग को झेलनी पड़ती है और इसी वर्ग का साइज़ सबसे बड़ा है. इसे टूरिज्म इंडस्ट्री से जुड़े लोग दोहन के लायक शिकार के रूप में अच्छी तरह पहचान लेते हैं और उसी हिसाब से ट्रीट करते हैं. तो जो झेलते हैं वे इसी वर्ग के होते हैं.

अब बात कंडीशंस की. इनकी वजह से भी लोगों के तजुर्बे अलग-अलग हो जाते हैं. जो लोग ऑफ सीज़न में जाते हैं, वे एक तरह से घरेलू जिम्मेदारियों से काफ़ी हद तक फ्री होते हैं और समर्थ होते हैं. उस टाईम भीड़-भाड़ भी कम होती है और टूरिस्ट के अभाव में वहां के लोगों का मिज़ाज भी बदल जाता है तो उस दौरान लोगों के तजुर्बे अच्छे रह सकते हैं.

मेन सीज़न गर्मियों का होता है, जब घरेलू जिम्मेदारियों से बंधे लोग भी थोड़ा घूमना-फिरना चाहते हैं. स्कूल में बच्चों की छुट्टियों के चलते इनके लिये यही सूटेबल समय होता है. यह सभी श्रेणी के हो सकते हैं… यहीं पे लोगों के तजुर्बे मिले-जुले होते हैं.

दूसरा सीज़न सर्दियों का होता है जब हर तरफ़ बर्फ़ होती है, लेकिन इस दौरान सभी लोग घाटी में घूमने नहीं आ सकते, कुछ जिम्मेदारियों के चलते, कुछ स्वास्थ्य कारणों से तो कुछ इस दौरान होने वाले अतिरिक्त ख़र्च से. गर्मियों के मुकाबले थोड़ा ज्यादा ही ख़र्च होता है तब.. तो इस दौरान ज्यादातर समर्थ लोग पहाड़ों का दौरा करते हैं. अब यह चूंकि समर्थ हैं तो ख़र्च से इन्हें न्यूनतम परेशानी होती है इसलिये इनका अनुभव भी ठीक-ठाक रहा हो सकता है.

तो इस तरह एक ही जगह पर जा कर लोगों के अनुभव अलग-अलग हो जाते हैं. किसी का भी अनुभव एब्सोल्यूट या अल्टीमेट नहीं होता. मैं मेन सीज़न में एक मिडिल क्लास टूरिस्ट के तौर पर गया, तो जो मेरा अनुभव रहा, वह लिख दिया— अगर कभी एलीट क्लास टूरिस्ट के तौर पर जाऊंगा, चाहे कोई भी सीज़न हो, तब उस वक्त मेरा अनुभव निश्चित ही इससे अलग रहेगा.

तो कहने का आशय यह है कि मैं आपके अनुभव को गलत नहीं ठहरा रहा, लेकिन मेरा अनुभव भी सौ टका प्योर है, उस पर भी उंगली मत उठाइये.

कश्मीर मैं तीस साल पहले रह चुका हूं, जब यहां हालात इतने बुरे थे कि कोई सरकार ही नहीं थी और सबकुछ फौज के कंट्रोल में था, या फौजी थे या मिलिटेंट और इनके बीच में पिसते आम कश्मीरी, जिन्हें लेकर मेरी धारणा बनी थी कि शायद देश में सबसे अच्छे लोग इसी खित्ते में हैं— लेकिन अब तीस साल बाद कश्मीर आने पर मैं उस धारणा को बुरी तरह ध्वस्त होते देख रहा हूं.

एक और भी अंतर है— उस कश्मीर की राॅ ब्यूटी इस इंसानी जंगल बनते कश्मीर से अलग थी. तीस साल पहले कश्मीर वह था, जो मुझे अपनी स्कूल की किताबों में दिखा था, अब जो है वह एकदम अलग है— लेकिन अलग होने का अर्थ यह कतई नहीं है कि यह दिल्ली मुंबई जैसे टियर वन सिटी जैसा या लखनऊ जैसे टियर टू सिटी जैसा है, बल्कि जैसी कचरा सुविधाएं यहां हैं— वे इसे टियर फाईव सिटी के लायक बनाती हैं.

ख़ैर अपनी छः दिन की यात्रा को अगर मैं सिलसिलेवार कलमबद्ध करूं तो वह शुरू होती है मेरे जम्मू पहुंचने से. अगर आप बाकी भारत के शहरों की यात्रा करते हैं तो जम्मू पहुंचते ही आपको फौरन अहसास हो जाता है कि आप एक मुश्किल जगह पहुंच गये हैं. आपके सिम जम्मू पहुंचने से पहले ही इस तरह बंद हो जाते हैं जैसे किसी दूसरे देश पहुंच गये हों. मुझे यह पता था तो मैंने ऑनलाइन ही ‘माई जियो’ से सिम पोस्टपेड पर स्विच कर लिया था, लेकिन वह भी न चला. अब इसके पीछे लाॅजिक देखिये कि आपको उनके स्टोर पर जा कर पोस्पेड कराना था, ताकि केवाईसी हो सके— मतलब बायोमैट्रिक वेरिफिकेशन के बाद सिम देते हैं, लेकिन उसे केवाईसी नहीं मानते.

अच्छा केवाईसी इतनी ज़रूरी है तो उसी टाईम नया प्रीपेड सिम उसी प्रक्रिया से कैसे मिल जाता है ? कौन सा सुरक्षा मानक वहां लागू हो जाता है. यानि सबसे पहली दिक्कत तो फोन चालू करने की होती है, जिसके बग़ैर आपके हाथ-पैर कट जाते हैं. दूसरी दिक्कत आयेगी जम्मू से घाटी पहुंचने की. पहले यहां से कुछ पकड़ कर वहां पहुंचिये, फिर वहां से वहां की सवारी पकड़िये— मतलब थोड़ा परेशान हो लीजिये, इससे पहले कि आपको आपके हिसाब से श्रीनगर या कहीं और की सवारी मिल सके.

वैसे कश्मीर पहुंचने का एक रास्ता फ्लाईट से श्रीनगर एयरपोर्ट पहुंचने का भी है, लेकिन वहां भी पीक टाईम पर एक तो जल्दी टिकट नहीं मिलता, दूसरे रेट दुगने तिगुने किये रहते हैं. फिर एयरपोर्ट से बाहर आते ही आपको अपने डेस्टिनेशन तक पहुंचने का संघर्ष करना है. क्या— यह इस आलेख में आगे सामने आयेगा. जितना यह वीडियो बनाने वाले यूट्यूबर दिखाते रहते हैं, उतना आसान यहां कुछ नहीं होता.

एक ऑप्शन अपनी गाड़ी से ही पहुंचने का भी है, लेकिन उसमें भी कई जगह जबरन की चेकिंग और वसूली की संभावना बनी रहती है, फिर कई जगहों पर उसे आगे बढ़ने नहीं दिया जायेगा. मतलब उन जगहों पर वहीं की टैक्सी चलती हैं, जो यूनियन में रजिस्टर्ड होती हैं. तो अपनी गाड़ी होने के बावजूद आपको सोनमर्ग, पहलगाम, गुलमर्ग, चश्मे साही आदि के लिये लोकल ट्रांसपोर्ट पकड़ना पड़ेगा— जो आपको काफ़ी खराब अनुभव भी दे सकता है.

वैसे सबसे बढ़िया ऑप्शन रहता है किसी टूर ऑपरेटर से पैकेज ले लेना. उनका अपना अरेंजमेंट रहता है, जिससे आपको कम से कम परेशानी का सामना करना पड़ता है. हो सकता है कि आपको उनका चार्ज ज्यादा लगे— लेकिन यह भी हो सकता है कि अपने आप से टूर करने के बाद आप अपना सर पीटें कि इससे तो अच्छा था कि कोई टूर ऑपरेटर पकड़ लेते.

ख़ैर, अपन आते हैं अब उस विकल्प पर— जो मैंने अपनाया और उसमें क्या-क्या अच्छा या बुरा रहा. लखनऊ से जम्मू तवी एक्सप्रेस से चल कर हम दो जन सुबह जम्मू पहुंचे तो पहलगाम जाने का (क्योंकि हमारी बुकिंग पहलगाम में थी) एक ऑप्शन बस अड्डे जा कर बस पकड़ने (पहलगाम जाने में चार वाहन बदलने पड़ते), दूसरा अपनी बुक्ड टैक्सी के सहारे या शेयरिंग टैक्सी पकड़ के जाने का था और इसमें भी झंझट थी.

बुक्ड टैक्सी से करीब आठ हज़ार बताये, जो हमें ज्यादा लगे. मतलब लखनऊ से पहलगाम बाई रोड पहुंचने का ख़र्च ही ग्यारह हज़ार हो जाता— जो अटपट लगा. शेयरिंग टैक्सी श्रीनगर के लिये तो अवलेबल थी पर पहलगाम की नहीं. यहां भी दो ऑप्शन थे कि छोटी गाड़ी (फोर सीटर) पकड़ो तो 1500 पर पर्सन, और बड़ी (सेवेन सीटर) पकड़ो तो 1300 देने हैं. हमने सीडान पकड़ी, क्योंकि भीड़ में यात्रा नहीं करनी थी. बाकी आगे इसमें भी कम परेशानी नहीं थी.

अब यहां दिक्कत नंबर दो समझिये. गवर्नमेंट की तरफ़ से श्रीनगर पहुंचने का कोई ठीक-ठाक और सुविधाजनक इंतज़ाम नहीं है, जो है भी उसमें आपको थोड़ा झेलना पड़ेगा. ट्रेन का ट्रैक बना तो रहे हैं लेकिन उसपे भी फिलहाल वंदेभारत जैसी फैंसी और महंगी ट्रेन ही दौड़ाने का प्लान है. बाकी ट्रेन दो अलग-अलग सेक्शन में चलेंगी जैसे अभी चल रही हैं— यानि जम्मू से ऊधमपुर और आगे बनिहाल या संगलदान से श्रीनगर होते बारामूला तक.

जम्मू से घाटी पहुंचने में पटनीटाप (जगह नहीं पहाड़ी शृंखला) और पीरपंजाल के रूप में एक बड़ी माउंटेन रेंज पार करनी पड़ती है और यही इस रूट का सबसे ज्यादा अखरने वाला हिस्सा है. सड़क कई जगह खराब है, बारिश के दिनों में और खतरनाक हो जाती है. काजीगुंड पहुंचने तक वाईफ की तबियत ख़राब हो गई थी और रास्ते में उसे कई बार उल्टी करनी पड़ी थी. यह ऐसा रास्ता है (पूरी पहाड़ी श्रुंखला), कि जहां आप लगभग बेबस हो जाते हो. फंसा सा अनुभव करते हो. दिमाग़ में चलता रहता है कि यहां कुछ हो जाये तो आगे हाल क्या बनेगा.

ख़ैर-ख़ैर करके यह पहाड़ी शृंखला पार हुई तो हम काजीगुंड पहुंचे, जहां से रास्ता सीधा, सपाट और कायदे का है… जो बिना परेशानी के पार हो गया, लेकिन अब आगे राह फिर मुश्किल थी. टैक्सी में तीन लोग पहलगाम जाने वाले थे, लेकिन उसे फिर भी श्रीनगर ही जाना था. उसने हमें यह कह कर अनंतनाग के एक तिराहे पर छोड़ दिया कि यहां से आपको पहलगाम के लिये टैक्सी मिल जायेगी लेकिन हम काफी देर वहां खड़े रहे और फिर भी पहलगाम जाने का कोई साधन न मिला.

अब यहां दिक्कत नंबर तीन समझिये. कश्मीर में ट्रांसपोर्टेशन हद दर्जे का घटिया है और इस पर गवर्नमेंट का भी कोई कंट्रोल नहीं है. ज्यादातर यूनियनों के हवाले है और उनका रवैया लोकल्स के लिये कुछ और बाहरियों के लिये कुछ रहता है. लखनऊ की बात करूं तो घर से क़दम निकालते ही मैन पुलर रिक्शा, ई-रिक्शा, ऑटो, टेम्पो, सिटी बस या ओला-ऊबर जैसे संसाधन मिल जाते हैं और आपको पहले से पता रहता है कि अपने सफ़र के एवज में क्या पे करना है. कुछ अपवादों को छोड़ कर बाकी सभी रेट फिक्स रहते हैं, थोड़े बहुत इधर-उधर ही होंगे— लेकिन यहां बस के नाम पर गिनती की मिनी बसें चलती हैं जिनके भरोसे आप न अपनी यात्रा प्लान कर सकते हैं और न ही इमर्जेंसी में उनसे कोई उम्मीद कर सकते हैं.

मुख्यतः टवेरा के रूप में टैक्सी ही चलती है जो आपको बाहरी जान के दस गुने दाम बता सकती है (खुद के लिये हायर करने पर) या शेयर्ड होती है तो वे बाहरी देख के जल्दी बिठाते ही नहीं. केवल श्रीनगर में इनके सिवा टिकटिक (ई-रिक्शा) या ऑटो मिलेंगे लेकिन बाहरी और टूरिस्ट देख कर वे भी सीधे चौगुने-पांच गुने दाम बताते हैं.

तो जब हम परेशान हो गये तो एक ऑटो वाले से पूछा— उसने बताया कि पहलगाम की टैक्सी यहां से नहीं मिलती, पहलगाम वाले टैक्सी स्टैंड पर जाना पड़ेगा. थोड़ी ही दूरी पर था, लेकिन चूंकि सामान के साथ चल नहीं सकते थे तो उसी से कहा कि छोड़ दे. उसने सौ रुपये ले कर चार क़दम पर छोड़ दिया. वहां पता चला कि पहलगाम में जाम लगा है, कोई नहीं जायेगा. आप अपनी टैक्सी बुक कीजिये तो चलेंगे. मैंने उसका चार्ज पूछा तो उसने झट से तीन हज़ार बताया. अनंतनाग से पहलगाम की दूरी चालीस किलोमीटर है.

मैं शायद परेशानी देखते दे भी देता, लेकिन तभी एक शेयर्ड टैक्सी वाला तैयार हो गया तो उसी से चल दिये. पहलगाम में एंट्री से पहले ही जाम दिखा तो उसने पहाड़ी रास्ते पर चढ़ा दी, जिधर लोग खच्चरों से चलते हैं— लेकिन जाम की वजह से लोग उधर भी चढ़ आये थे तो वहां भी जाम हो गया था. किसी तरह पहलगाम मार्केट पहुंचे— बीवी की हालत काफी खराब हो गई थी और उसे देखते मारे टेंशन के मेरी भी तबियत बिगड़ने लगी थी. वैसे टैक्सी को आगे वाले पहलगाम तक जाना था लेकिन तब वह झगड़ने लगा, मगर आगे जाने को तैयार न हुआ और वहीं से वापस होने लगा. नतीजे में हमें वहीं उतरना पड़ा.

श्रीनगर में एक समीर भाई हैं, वह मेरे एक खास मित्र के मिलने वाले रहे हैं, जिनसे जब कहा गया था कि छोटा भाई टहलने आ रहा है, तो उन्होंने सारी जिम्मेदारी अपने सर ले ली कि होटल, गाड़ी सब हम कर देंगे. अब पहलगाम पहुंच कर यह पता नहीं कि कौन से होटल जाना है और दूसरे फोन भी बंद. न अपन किसी को फोन कर सकते न कोई हमें. मार्केट में खड़े हैरान-परेशान. फिर मजबूरी में उसी वक़्त एक सिम ले के चालू कराया और तब बात की.

पहलगाम भी एक ही मुख्य सड़क के आसपास दो हिस्सों में बसा है. बीच में एक-डेढ़ किलोमीटर का गैप है. पता चला कि हमारा होटल आगे वाले हिस्से में है. अब वहां तक जाने के लिये कोई साधन न मिले. वाईफ की तबियत न ख़राब हुई होती तो पैदल निकल जाते. एक-डेढ़ किलोमीटर की दूरी इतनी भी नहीं होती कि पैदल न चला जा सके. बड़ी मुश्किल से आगे जाने वाला एक टवेरा वाला तैयार हुआ, लेकिन इतनी सी दूरी के उसने तीन सौ लिये— हालांकि वह उधर ही जा रहा था, ऐसा नहीं था कि हमारे लिये ही उधर गया हो.

जैसे-तैसे हम होटल तक पहुंचे तो रूम की हालत देख कर मूड खराब हो गया. पहलगाम में ज्यादातर तो लोगों ने अपने घरों को होटल की शक्ल दे रखी है और उसका विज्ञापन ऐसा करते हैं कि जैसे कोई बहुत स्तरीय होटल हो. यहां गाड़ी और होटल का प्रबंध कराने के लिये दलालों का एक बड़ा नेटवर्क मौजूद है और सब आपस में कनेक्टेड रहते हैं. तो उन्हीं के ज़रिये से इन्हें ग्राहक मिलते रहते हैं. हालांकि चार्ज कम नहीं होता इनका भी— 2000+ ही होता है. कोई स्टाफ नहीं, कमरे में होटल जैसी कोई सुविधा नहीं. जिन समीर भाई ने दिलाया था, अब उन पर बिगड़ा तो उन्होंने होटल वाले को टाईट किया. तब उसने शरम खा कर अगले दिन हमें थोड़े ढंग के रूम में शिफ्ट किया, जो बाकी घर से अलग था.

अब बात पहलगाम की… यह लिद्दर नदी के किनारे से गुज़री सड़क के दोनों किनारों पर बसा है. मेन पहलगाम मार्केट एरिये वाला है, जो थोड़ा स्टैंडर्ड लगता है. चारों तरफ़ ऊंचे पहाड़ों के दर्शन होते हैं. श्रीनगर के मुकाबले काफ़ी ठंड रहती है तो अपने कश्मीर टूर में वार्मर और जैकेट की ज़रूरत मुझे यहीं पड़ी. यहां से चार जगहों पर आप जा सकते हैं जिनमें से दो एक रूट पर हैं— बेताब वैली और चंदन वाड़ी, एक आरू वैली दूसरे रूट पर है. एक जगह बायसरन वैली वहीं पीछे पहाड़ी पर है— जिसके लिये खच्चर लेना पड़ता है.

खच्चर वाले भी पूरी कोशिश करते हैं जेब पर डाका डालने की, अब आप पर है कि उन्हें कितना नीचे ला पाते हैं. मिनिमम चार सौ पर पर्सन तक भी लाया जा सकता है, अगर आपमें काबिलियत है तो… यहां फिक्स रेट जैसा बस दिखावे के लिये होता है. आरू वैली, बेताब वेली, चंदन वाड़ी के लिये आपको टैक्सी स्टैंड जाना पड़ेगा, जो पहलगाम की दोनों आबादियों के बीच में पड़ता है. यहां सभी गाड़ियों के लिये और अलग-अलग रूट्स के लिये अलग-अलग रेट रहता है— जैसे आप एक डेस्टिनेशन भी चूज कर सकते हैं, दो भी और तीनों भी.

यहां आप अगर अकेले या दुकेले हैं तो ज्यादा ख़र्चना पड़ेगा, वहीं अगर चार-छः हैं तब वही चार्ज सस्ता पड़ता है. तीनों जगहों के लिये मिनिमम ढाई हज़ार तक तो लगने ही हैं. यात्रा के चक्कर में चंदन वाड़ी बंद कर दिया गया था तो मैंने आरू और बेताब का रूट सलेक्ट किया, दो हजार में. हम आरू वैली गये जिसके लिये बस इतना ही कह सकते हैं कि जगह अच्छी है, लेकिन पिकनिक के लिहाज से— मुश्किल यह है कि टैक्सी वाला बस एक घंटा ही देगा, उसके ऊपर अलग से पैसा वसूलेगा. हालांकि वह जगह बस बारह किलोमीटर ही दूर है. वहां से हमें वापस आ कर बेताब वैली जाना था, लेकिन उधर जाम लगा था और यह सुन के बंदे ने मुझे बताया कि आप जाने का फैसला करोगे तो उस रास्ते पर बढ़ते ही आपको पूरा चार्ज देना पड़ेगा और जायेंगे तो वहां पहुंच ही नहीं पायेंगे.

ज़ाहिर है कि ऐसी हालत में जाने का फैसला कौन लेगा, फिर मैंने भी मना कर दिया और उस एक आरू वैली के पंद्रह सौ उसने ले लिये. जहां हम टिके थे, वहां मेडिकल इमर्जेंसी के लिये कोई फैसिलिटी नहीं, वह मेन पहलगाम में है और मुश्किल यह है कि ज्यादातर टाईम तो उस अकेली रोड पर जाम रहता है, कोई ठिकाना नहीं कि कितना टाईम लग जाये और दूसरे आपको जाने के लिये वहां से कोई साधन भी नहीं मिलेगा. वहां बस टवेरा ही चलती है जो टूरिस्ट जल्दी उठाते नहीं— प्राइवेट टैक्सी बुलायेंगे या उस टवेरा को ही रिजर्व में ले जायेंगे तो उतनी दूरी के ही दो-तीन सौ ले लेगा.

खाना कम से कम पहलगाम में तो थर्ड क्लास मिलता है, स्ट्रीट फूड में नानवेज आइटम खा सकते हैं. कश्मीर में आपको ज्यादातर जगहों पर रोटी का ऑप्शन नहीं मिलेगा, और चावल भी यह मोटे वाले खाते हैं— जो हमारे हलक से न उतरे. हम दो दिन पहलगाम में रुके लेकिन खाने के नाम पर बस चिकन टिक्का ही कुछ संतुष्टि दे सका— वर्ना हिंदू हो मुस्लिम, वेज या नानवेज, सब एकदम बकवास ही खाने को मिला.

तीसरे दिन सुबह ही हम श्रीनगर के लिये रवाना हो गये. पहलगाम से श्रीनगर के लिये भी दो ऑप्शन हैं— या तो शेयर्ड टैक्सी पकड़ के अनंतनाग में धक्के खाते जाइये या अपनी टैक्सी बुक कर के जाइये. इसमें तीन से साढ़े तीन हज़ार लग सकते हैं. हमें अनंतनाग वाला रूट नहीं पकड़ना था तो हमने अपनी टैक्सी ली और श्रीनगर पहुंच गये. हालांकि इसमें आधा दिन तो निकल ही गया था, तो सोचा कि बचे हुए दिन में डल लेक देख ली जाये.

यह काफी लंबे-चौड़े इलाके में फैली है, लेकिन मुंबई के मरीन ड्राइव के स्टाईल में इसका एक किनारा सड़क से लगा है, जिस पर हर थोड़ी दूरी पर एक गेट बना है जहां शिकारे वाले जमा होते हैं. आपके पहुंचते ही वे आपको घेर लेंगे, आपके गले में लटक जायेंगे— उनसे पीछा छुड़ाना मुश्किल हो जाता है. यहां एक बात और समझिये कि हर जगह आपको बताया जायेगा कि हम इतने प्वाइंट दिखायेंगे, उतने प्वाइंट दिखायेंगे… और इनके प्वाइंट्स का मतलब क्या होता है— यहां फलां शूटिंग हुई थी, वहां फला शूटिंग हुई थी, यहां फलाने आते थे, ढिमाके ने ऐसा किया, यह फ्लोटिंग मार्केट है, यह मीना बाजार है. असल में अगर आपके अंदर बचकानापन नहीं हैं तो इन प्वाइंट्स का कोई मतलब नहीं.

सीधे समझिये और कहिये कि लेक देखनी है. बीच-बीच में टापू से बने हैं, गांव बसे हैं, फ्लोटिंग मार्केट है, स्थिर मीना मार्केट है और हर चार कदम पर कोई सेल्मैन अपनी बोट लिये आपके पास आ जायेगा— कोई फोटो खींच के देगा, कोई चाय, काफी पिलायेगा, कोई शाॅल कपड़े बेचेगा. शिकारे वाले तीन से चार हज़ार बतायेंगे— लेकिन दो हज़ार तक भी आ जाते हैं. बाकी हमसे तो रो गा कर ढाई हज़ार ले लिये. यहां शिकारे वाले हों या घोड़े वाले हों— आपको उन्हें तय की गई रकम भी देनी है और अलग से बख्शीश भी देनी है. लेक में एक पिद्दी सा टापू है जिसे चिनार के पेड़ों के नाम पर चार चिनार के रूप में जाना जाता है, वहां तक मोटरबोट से ले जाते हैं और उसके भी चार हज़ार तक ले लेते हैं— हालांकि बताते तो और ज्यादा हैं, लेकिन मुझे उसमें कोई खास आकर्षण नज़र नहीं आता. झील घूम लेना ही काफ़ी है.

छः दिन का टूर था, तीन दिन बीत गये— बचे तीन दिनों के लिये पर डे तीन हज़ार पर समीर भाई ने एक गाड़ी दिला दी. हालांकि पर डे नाम ही है, हमारे लिये एक दिन में एक डेस्टिनेशन ही काफ़ी है. प्लान यह था कि एक दिन सोनमर्ग, एक दिन गुलमर्ग और एक दिन लोकल टहल लेंगे. पता चला कि सोनमर्ग में यात्रा के चलते इतनी बंदिशें लगाई जा चुकी हैं कि अब उधर जाने का कोई मतलब ही नहीं बचा. नतीजे में हमने सोनमर्ग की जगह दूथ पथरी देख लेना ही ठीक समझा— जो बडगाम जिले में पड़ता है और श्रीनगर से लगभग पैंतालीस किलोमीटर दूर है.

यहां भी सार्वजनिक वाहन मतलब तीन चार जगह बस टैक्सी पकड़ के लटकते और परेशान होते फिरिये या अपनी गाड़ी हायर कीजिये. उसमें भी आपको एक चीज़ अखरेगी कि गाड़ी इन जगहों के मेन प्वाइंट तक जा सकती है लेकिन यहां हर जगह एक डेढ़-दो किलोमीटर पहले मेन गेट बना रखे हैं, ताकि आप या तो पैदल चलें इतना लंबा, या फिर उतर कर किसी घोड़े या एटीवी (एक तरह की बाईक समझ लीजिये) का चारा बनें, और वह भी एक आदमी के लिये होती है, जिसके घोड़े वाला कितने बता दे, कोई गारंटी नहीं— एटीवी वाला उससे दोगुने बतायेगा. यानि एक घोड़े से अगर आप मिनिमम पांच सौ भी तय कर पाते हैं तो चार लोगों के परिवार को दूध पथरी के गेट से नदी तक पहुंचने में दो हज़ार खर्चने पड़ते हैं… सिर्फ़ डेढ़-दो किलोमीटर के लिये.

कश्मीर को आप ऐसे समझिये कि एक नांव की शक्ल में पहाड़ों से घिरी घाटी है, जिसके लगभग बीच में श्रीनगर बसा है. आप किसी भी दिशा में मुंह उठा कर चल दें, हर तरफ़ चालीस से साठ किलोमीटर की दूरी पर वही पहाड़ मिल जायेंगे, जहां या तो कोई छोटी-मोटी आबादी बसी है या फिर कोई टूरिस्ट स्पाॅट जैसी जगह ड्वेलप कर ली गई है. डेस्टिनेशंस के नाम पर आपको बार-बार दिशा बदल कर इन्हीं बिंदुओं पर जाना है. तो अपने आप में भले ऐसी जगह सिंगल प्वाइंट के रूप में आकर्षक लगें लेकिन जब आप सब देख चुकेंगे तो आपके लिये अलग-अलग अंतर करना मुश्किल पड़ेगा. सभी कमोबेश एक जैसी ही हैं.

यहां एक बात यह भी याद रखिये कि आपका गाड़ी वाला आपको मीठा बन के दिखायेगा, आपका हमदर्द बन के दिखायेगा लेकिन यह होते सब एक थैली के चट्टे-बट्टे हैं— और हर हाल में सब एक दूसरे को सपोर्ट करते हैं. आपको गाड़ी वाला पहले से बतायेगा कुछ नहीं और सीधे जा कर एक ऐसी भीड़ के हवाले कर देगा जो आपकी जेब काटने को तैयार बैठी है. सब जगह लोगों ने यूनियन बना रखी है, जिससे कोई इधर-उधर न हो. तो हमारे साथ भी यही हुआ— पहले बता देता तो हम उतर कर पैदल आगे बढ़ जाते और अपने हिसाब से तय करते कि क्या करना है, कैसे करना है लेकिन ड्राईवर ने सीधे आसामी के रूप में घोड़े वालों के बीच परोस दिया, जो हमारे सर हो गये कि अब उनसे छुटकारा पाना असंभव हो गया. ध्यान रहे कि यहां आप झगड़ा किसी से नहीं कर सकते.

गिनाने को हर जगह वे प्वाइंट बता कर मार्केटिंग करते हैं कि हम आपको छः प्वाइंट दिखायेंगे, बारह प्वाइंट दिखायेंगे— लेकिन इस सबका मतलब किसी अति फिल्म प्रेमी के लिये तो भले हो, हम जैसों के लिये कुछ नहीं. हमें क्या करना जान कर कि कहां किस फिल्म की शूटिंग हुई थी, कौन कहां आया बैठा था. जैसे सोनमर्ग में थाजिवास या प्वाइंट जीरो ही मुख्य हो सकते हैं, वैसे दूध पथरी मतलब शालिगंगा नदी, जो पहाड़ों से उतर कर पत्थरों से टकराती बहती है— बस वहीं तक जाना होता है जो शायद डेढ़ किलोमीटर के आसपास होगी और इसके वे 2500 पर पर्सन मांगते हैं.

वे प्वाइंट्स के नाम पर मार्केटिंग करेंगे, हो सके तो उन्हें इग्नोर कीजिये और गेट से पहले ही गाड़ी से उतर कर पैदल आगे बढ़ जाइये, कोई सर चढ़े तो कह दीजिये कि हम पहले सब देख चुके— अभी बस इधर बैठने, पिकनिक मनाने आये. बाद में अंदर यूनियन के दायरे से बाहर का कोई घोड़े वाला मिले तो पांच सौ तक खर्च करके घोड़ा ले सकते हैं. इससे कम से मुश्किल है. हमें तो ड्राईवर ने यूनियन वालों के हवाले कर दिया था तो दो हजार ख़र्च हुए उतनी दूरी या समझिये दो घंटे की सवारी के.

बाकी दूध पथरी का रास्ता बहुत वाहियात है, गांवों के बीच से पतली सी टूटी फूटी सड़क से इसे पार करना पड़ता है और श्रीनगर से दूध पथरी तक पहुंचने में पांच जगह चुंगी देनी पड़ती है. यह देख के भी आपको गुस्सा आता है कि हर चार किलोमीटर पर यह पैसा वसूलने बैठे हैं लेकिन सुविधाएं नाम की नहीं. पूरे कश्मीर में ही यह अखरेगा आपको कि जितनी ज्यादा यह वसूली करते हैं (जिसका ज्यादातर हिस्सा सरकार के हाथ ही जाता है), उसे देखते सुविधा ठीक से पच्चीस प्रतिशत भी नहीं देते.

तो घोड़ों के सहारे हम प्वाइंट्स के नाम पर वही बकवास देखते नदी तक पहुंचे— दूध पथरी के नाम पर नदी का बस वही छोटा सा हिस्सा है, जिसकी बैकग्राउंड थोड़ी अच्छी है तो आप फोटो खींच कर वसूली की तसल्ली कर सकते हैं. घोड़े वाला इस बीच आपके सर पर घड़ी बन के मुसल्लत रह सकता है. हमने भी आधा-पौना घंटा एंजाय किया और फिर वापस लौट लिये. वापसी में जाम भी मिला, लेकिन तीन बजे तक वापस होटल पहुंच ही गये. बाकी ख़र्च छोड़ दें तो वहां तक आने-जाने का ख़र्च पांच हज़ार बैठा.

श्रीनगर में तीसरे दिन गुलमर्ग का दौरा था— जिन्हें न पता हो तो उन्हें बता दूं कि गुलमर्ग में पहले कभी जो राॅ ब्यूटी दिखती थी (फिल्म बाॅबी का गुलमर्ग टूर याद कीजिये), वह अब कहीं नहीं है. मेन जगह को गोल्फ कोर्स के नाम पर घेर दिया गया है और घूमने लायक जगहें पीछे हैं, जहां आप पैदल तो जा नहीं सकते. यहां मुख्य आकर्षण की जगह गंडोला है, जिसके स्टेशन से एक-डेढ़ किलोमीटर पहले ही गेट बना दिया गया है दूध पथरी स्टाईल में कि गाड़ी अंदर नहीं जा सकती, और आप पैदल जाइये या एटीवी के सहारे— जो तीन से पांच हज़ार तो लेंगे प्वाइंट्स बता कर, घाटी घुमाने के या पांच सौ से हज़ार दीजिये गंडोला स्टेशन तक पहुंचने के. ताक़त हो चलने की तो पैदल भी जा सकते हैं.

बाकी वहां एंट्री प्वाइंट पर ही एटीवी और घोड़े वालों का मेला लगा होगा जो आपके पहुंचते ही घेर लेंगे. यह स्थानीय गुज्जर होते हैं जिन्हें आप जंगली ही समझिये. यह आपके गले भी पड़ सकते हैं और गाड़ी में बैठ कर कांच खुला रखे हैं तो आपकी चेन, पर्स भी झपट सकते हैं. यहां भी आप इनसे झगड़ा किसी भी स्थिति में अफोर्ड नहीं कर सकते. गाड़ी बहाने से (मसलन गंडोला का टिकट है, लेकिन पैर में दिक्कत है तो चल नहीं सकते) गंडोला स्टेशन तक जा सकती है— लेकिन ड्राईवर ने बता दिया कि यह सुरक्षित नहीं है, अगर आप मुझे चार सौ एक्सट्रा पे करो तो मैं आपको गेट तक छोड़ कर गेट से ले सकता हूं.

सोचिये कि यह वह ड्राईवर कह रहा है जो तीन हज़ार पर डे में बुक है और जिसे हम आधे दिन में एक प्वाइंट के बाद ही फ्री कर देते हैं— अब अकेले होते तो एक-डेढ़ किलोमीटर क्या, चार-पांच किलोमीटर भी चल लेते, लेकिन वाईफ की वजह से चार सौ एक्सट्रा दिये गेट तक पहुंचाने और गेट से लेने के. आगे गंडोला के लिये एक बड़ी लंबी लाईन लगी थी, जिसे पार करने में ही घंटा भर बीत गया. गंडोला दो फेज में है— अर्थात पहले वह आपको सामने के ऊंचे पहाड़ पर ले जायेगा, फिर उसके आगे की टाॅप चोटी पर, क्योंकि जून में बर्फ़ वहीं दिखती है. पहले फेज के लिये शायद आठ सौ तो दूसरे के लिये इससे ज्यादा पैसे ख़र्च करने पड़ते हैं, लेकिन टिकट महीना भर पहले लेनी होती है. यहां आपको पहले फेज की टिकट तो मिल भी जाती है, लेकिन दूसरे की जल्दी नहीं मिलती क्योंकि उधर की यात्री ढोने की क्षमता कम है. फिर पहले फेज का सफ़र पूरा करते ही आपको दूसरे फेज के लिये फिर एक लंबी लाईन लगानी पड़ती है.

तो जब आप इस गंडोला राईड को करते हैं तो आपके मन में एक ख़्याल आता है कि हर रोज़ इससे गवर्नमेंट को कई लाख की इनकम होती है, लेकिन इसके बदले इस एक राईड के सिवा वे सुविधा क्या देते हैं— कुछ नहीं. वहां बैठने तक की कोई जगह नहीं, सुरक्षा के लिहाज से कोई पुलिस, मिलिट्री नहीं, तीनों स्टेशन पर कुल मिला कर गिनती के कर्मचारी… कोई लाईन तोड़े, बदतमीज़ी करे, कोई झगड़ा हो जाये, कोई दुर्घटना हो जाये— हर स्थिति में आपको ख़ुद ही मैनेज करना है. वहां इधर-उधर फिरते हर दो मिनट में आपके पास कोई न कोई कुछ न कुछ बेचने आता रहेगा— इन पर कोई अंकुश नहीं है.

रही बात गंडोला राईड की, तो कुछ लोगों को यह ‘ऑसम’ लग सकता है लेकिन मुझे बस एक कांच की लिफ्ट से किसी बिल्डिंग में ऊपर जाने जैसा लगा. बीच में कोई खाई टाईप होती, जहां डर लगता तो कुछ रोमांच भी लगता, यह तो सीधे ढलान पर सुविधाजनक रूप से चढ़ने जैसा था, जिसमें जोखिम जैसा कुछ लगा ही नहीं. ठीक है, दूसरों के तजुर्बे अलग हो सकते हैं लेकिन मुझे कोई खास अच्छा न लगा. कम से कम ख़र्च को देखते हुए. बाकी जगह तो अच्छी है ही, जून में हरियाली और विंटर सीजन में बर्फ़ एक अलग तरह का रोमांच पैदा करती है. मुझे लगता है कि विंटर सीजन में गंडोला राईड या गुलमर्ग का मजा ज्यादा है, लेकिन तब फेज टू में गंडोला राईड का कोई मतलब नहीं बचता— बर्फ़ तो आपको नीचे टंगमर्ग तक मिल जायेगी.

हालांकि विंटर सीज़न में आते तो हमारी टैक्सी नीचे टंगमर्ग में ही रोक दी जाती, फिर ऊपर लोकल टैक्सी से जाना पड़ता और गेट से गंडोला स्टेशन के गेट तक घोड़े या एटीवी से… यानि तब हम वहां तक पहुंचने में तीन जगह पैसा ख़र्च करते. ड्राईवर को दिये सुविधा शुल्क के चलते, दो जगह तो हमने भी ख़र्च किये. नीचे टंगमर्ग में भी एक प्वाइंट है, जहां गाड़ी वाला आपको सीधे ले जा कर घोड़े और एटीवी वाले के हवाले कर देगा. आपको अलग से वैसा कुछ, (जैसा ऊपर भी देखने को मिलेगा) देखना है तो पांच सौ, हज़ार पर पर्सन अलग से ख़र्च कर लीजिये. मेरा मन नहीं था तो मैंने बकरा बनने से मना कर दिया था.

सुबह साढ़े आठ बजे निकल कर ढाई बजे तक वापस होटल पहुंच गये और इस बीच केवल गंडोला राईड को देखते खर्च हुआ पांच हज़ार… आप टंगमर्ग वाले प्वाइंट को इनक्लूड करें, और ऊपर घाटी को एक्सप्लोर करना हो तो पर पर्सन पैंतीस सौ से छः हजार और जोड़ लीजिये. इस तरह श्रीनगर में तीसरा दिन पूरा हुआ. बाकी बचे दिन हम होटल में ही रहे, केवल खाने पीने निकले.

यहां खाने-पीने और चलने फिरने से सम्बंधित दो बातें फिर से समझ लीजिये— खाना ज्यादातर जगहों पर बेस्वाद मिलेगा, रोटी यह प्रफर नहीं करते तो ज्यादातर जगहों पर चावल ही मिलेंगे. खय्याम चौक या लाल चौक में कुछ अच्छे वेज-नानवेज होटल हैं, जहां आप रोटी समेत बढ़िया खाना पा सकते हैं. ट्रांसपोर्टेशन के लिये यहां (श्रीनगर में) टैक्सी (बेसिकली टवेरा टाईप कोई गाड़ी) के सिवा छोटी-छोटी बसें, ऑटो और ईरिक्शा मिल जायेंगे लेकिन बसों को छोड़ दें (जिनकी तादाद भी नाम की है और लिमिटेड रास्तों पर ही चलती हैं), तो बाकियों का व्यवहार लोकल्स के लिये अलग और बाहरियों के लिये अलग रहता है. यह चार कदम पर छोड़ने के भी आपसे पचास सौ मांगते हैं, शेयर्ड में बिठायेंगे तो भी— लोकल्स के लिये दस-बीस रुपये सवारी ही रहता है. आप बतौर टूरिस्ट पहचाने जाने से बच गये और दस-बीस रुपये में कहीं चले भी गये तो वापसी में तौबा बुल जायेगी. फिर उनकी मनमानी ही चलेगी— आपकी नहीं.

श्रीनगर से एक बात और याद आई… जब तीस साल पहले मैं यहां था तो हिंदू कहीं दिखता ही नहीं था और अब भी लोगों में धारणा है कि घाटी में बस मुस्लिम ही हैं लेकिन ऐसा नहीं है. पहलगाम से श्रीनगर तक मैं ढेरों हिंदुओं को देख रहा हूं— उनकी दुकानें भी हैं, होटल भी और वे दूसरों की दुकानों, होटलों और दूसरे कामों में बतौर वर्कर भी शामिल हैं. खय्याम चौक में ही कुछ होटल हैं, जहां मैं रुका हूं और मैं दोनों जगह का खाना खा रहा हूं. पहलगाम में दोनों का खाना बकवास था, पर श्रीनगर में ठीक है. रोटी मिल जाती है और खाने में स्वाद भी है.

शाम को लाल चौक घूमने निकल गये— यह मेन जगह है तो सवारी मिल जाती है, हालांकि दो-ढाई किलोमीटर के लिये भी सौ-डेढ़ सौ लेते हैं. इसके मुकाबले लखनऊ में देखें तो ओला-ऊबर से ऑटो बुक कर के पांच-सात किलोमीटर तक भी सौ रुपये में काम चल जाता है, लेकिन ख़ैर, यह इतना नहीं खलता. लाल चौक अच्छी जगह है, देख कर लखनऊ के हज़रत गंज की याद आई, पर मुझे हज़रत गंज की तुलना में बेहतर लगा, क्योंकि यहां घूमने आये लोगों के लिये खड़े होने, टहलने, बैठने का प्रापर इंतज़ाम मौजूद है, जो हज़रत गंज में नहीं.

अगले दिन के लिये तय था कि मुगल गार्डंस देखेंगे, और लास्ट में हज़रत बल होते वापसी कर लेंगे. यहां एक गार्डन चश्मे साही में भी वही परंपरा है कि डेढ़-दो किलोमीटर पहले गाड़ी रुकवा लेंगे और आगे फिर इतने से सफ़र के लिये उनकी ट्रेवलर पकड़िये और उससे चश्मा साही जाइये, उधर से ही आगे परी महल जा सकते हैं. जहां गाड़ी स्टैंड है, वहीं सामने बाॅटेनिकल गार्डन है— चाहें तो वह भी या वह ही देख सकते हैं. वर्ना इन चारों जगहों में अकेला निशात बाग़ ही ऐसा है जो ढंग का है, बड़ा है. परी महल या चश्मा साही छोटी जगहें हैं और शालीमार अपनी बर्बादी पर रो रहा है.

बचपन में किताब में देखी शालीमार की कुछ इमेजेस दिमाग़ में फीड थीं, मैं उसे वैसा ही फव्वारों और आसपास खड़े चिनार के पेड़ों वाले बाग़ के रूप में देखना चाहता था— लेकिन जैसा यह तीस साल पहले मुझे चरम बर्बादी के दौर में दिखा था, वैसा ही इस बार दिखा. बस मालियों को लगा कर थोड़ी ग्रीनरी मैनेज कर दी गई है लेकिन है यह अपनी छाया मात्र ही. श्रीनगर आये हैं तो एक बार देखना तो बनता है लेकिन देख कर खुशी तो नहीं ही होगी.

हज़रत बल में अगर प्रोफेट के बाल के दर्शन की उम्मीद में पहुंचे हैं तो आपको बता दूं कि वह रेगुलर नहीं होता, बल्कि किसी-किसी खास मौके पर दर्शन के लिये खोला जाता है. बाकी आप वहां घूम-फिर सकते हैं, औरतों को मस्जिद में नमाज़ पढ़ते देखना चाहते हैं या खुद नमाज़ पढ़ना चाहते हैं तो कर सकते हैं. बाहर सड़क पर ढेरों दुकानें, होटल वगैरह भी मौजूद हैं तो खा पी भी सकते हैं और शाॅपिंग भी कर सकते हैं. बाकी अलग जायका लेने के लिहाज से कश्मीरी खाना (स्पेशली वाज़वान आइटम्स) चख सकते हैं लेकिन यूपी-पंजाब वालों को शायद ही वह पसंद आये. मुझे तो सज़ा जैसा लगा.

तो कुल मिला कर यूं छः दिन का कश्मीर टूर ख़त्म हुआ और हम अगली सुबह वापसी के लिये निकल लिये, जो अमरनाथ यात्रा शुरू हो जाने के चलते थोड़ा मुश्किल रहा. बहरहाल, अगर आप घूमना-फिरना चाहते हैं तो कुछ बातें ध्यान में रखें— हो सके तो किसी टूर ऑपरेटर को पकड़ें, उनका अपना सारा इंतज़ाम रहता है तो परेशानी कम से कम होती है. यहां के किसी ट्रेवल एजेंट के झंझट में न पड़ें, जो लोग घूम फिर चुके हैं, उनसे नंबर कलेक्ट कर लें, आपका खर्च चालीस प्रतिशत तक कम हो जायेगा. अपने कश्मीरी गाड़ी ड्राईवर को दोस्त या हमदर्द न समझें (कुछ अपवादस्वरूप अच्छे हो सकते हैं), वे सभी एक नेटवर्क का हिस्सा हैं. जहां ले जा रहे हैं, वहां के लिये उससे पहले से समझ लें और हो सके तो डेस्टिनेशन से ऐन पहले उससे अलग हो के खुद अपने पैरों से वहां पहुंचिये और तब घोड़े वाले, एटीवी वाले या गाइड, जिससे भी बात करनी हो कीजिये.

दो-तीन किलोमीटर पैदल चल सकते हैं, ट्रैकिंग कर सकते हैं तो पैरों पर भरोसा कीजिये, हर जगह घोड़े-गाड़ी की मोहताजी करेंगे तो अच्छा-खासा पैसा गंवा बैठेंगे, बाकी उनकी कमाई के उद्देश्य से ही आपकी गाड़ी मेन डेस्टिनेशन तक पहुंचने नहीं दी जाती. यहां हर जगह मार्केटिंग के लिये प्वाइंट्स चलते हैं, जिनका असल में कोई खास मतलब नहीं होता. आप मुख्य प्वाइंट की बात कीजिये, उसके लिये पैसे तय कीजिये— उतना बहुत है. अगर उत्तर के मैदानी इलाके के और रोटी खाने वाले हैं तो ज्यादातर जगहों पर आपको खाना बेस्वाद मिलेगा— कुछ ही जगहों पर जीभ को संतुष्टि मिलेगी. बाकी अलग जायके का चस्का हो तो बात अलग है.

नोट: इस बात को स्ट्रिक्टली कह रहा हूं कि यह मेरा अपना तजुर्बा है जो मैंने जिया है, आपका इससे अलग हो सकता है. कृपया मुझे यह हर्गिज़ न बतायें कि ऐसा नहीं है या नहीं होता. अगर आप टूर पैकेज पर गये हैं, आपके पास बेतहाशा पैसा है खर्चने के लिये या आप फक्कड़ों की तरह टहलने गये हैं तो बेशक आपके तजुर्बे मुझसे अलग हो सकते हैं.

Read Also –

वोटों की खातिर कब तक कश्मीरियों से खेलते रहोगे साहेब ?
जम्मू-कश्मीर में कुशासन चरम पर आम जनता बेहाल, इवेंट में मस्त मोदी 

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
G-Pay
G-Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

भागी हुई लड़कियां : एक पुरुष फैंटेसी और लघुपरक कविता

आलोक धन्वा की कविता ‘भागी हुई लड़कियां’ (1988) को पढ़ते हुए दो महत्वपूर्ण तथ्य…