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मेरे पिताजी का चश्मा…

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मेरे पिताजी का चश्मा...
मेरे पिताजी का चश्मा…

बिस्तर
कपड़े
जूते चप्पल
छाता लाठी
सबकुछ
दान में जाने के बाद
बारी आई चश्मे की

पिताजी का चश्मा
जो उनकी मोतियाबिंद
भरी आंखों को
6/6 की दृष्टि देने की
कोशिश में
घिसटते हुए
घिस गई थी
और कचकड़े के फ़्रेम से
इस क़दर चिपकी थी
जैसे ढोर के बदन से लीच

किसे देता
किसे ज़रूरत थी
मेरे आस पास
कोई उतना बूढ़ा नहीं था
और मुझे तब उनकी
ज़रूरत नहीं थी

सोचा
तोड़कर फेंक दूं
डस्टबीन में
जब हाथ में लिया
याद आया
पिताजी पढते थे
चार पांच अख़बार
और हज़ारों किताबें
इस चश्मे से

कई बार
एक ही किताब को
कई बार पढ़ते थे
एक ही ख़बर को
अलग अलग अख़बारों में पढ़ते थे
मुझे लगता था
क्यों, ऐसा क्यों ?

कालांतर में समझा
मिलान करते थे वे
मन ही मन
एक ही रेल दुर्घटना में
किस पत्रकार को
ईश्वर की लीला दिखी
और किसे रतजगा कर रहे
पैट्समैन की उनींदी आंखें
या किसी आततायी का षड्यन्त्र

वे मिलान करते थे
मनरेगा मज़दूरों की
भूख से मौत और
बंगाल के दुर्भिक्ष में
कौन सा मानव निर्मित नहीं है

चीनी युद्ध के समय
मुझे याद है
रेल से सफ़र करते हुए
डिब्बों के बल्ब पर पुती कालिख़ देखकर
पिताजी ने कहा था
कि द्वितीय विश्वयुद्ध के समय
जब जापानी बम बरसा रहे थे
कलकत्ता पर
इस तरह ब्लैक आउट हुआ था
शहर में

इसी तरह
एक ही किताब को
बार बार पढ़ते हुए
वे देखते थे कि
पच्चीस बरस की आयु में
जैसा लगा था
क्या वैसा ही लगता है
उन किताबों को
पचहत्तर साल की आयु में पढ़ना
क्या किताबें
फूलों की तरह सूखते नहीं
सोचता था मैं

मुझे मालूम था कि
इस घिसे हुए चश्मे से
वे देखते थे मुझे
और फिर मेरे बच्चों को
हम सब उनके लिए
एक अलग ग्रह के प्राणी
बनते जा रहे थे
धीरे धीरे

अब उनकी साईकिल
जंग लगी कबाड़ बन गई थी
लेकिन वे बेचने के ख़िलाफ़ थे
आदमी की कोशिश और तकनीक
के संपूर्ण हस्ताक्षर को
वे मिटा ही नहीं पाए कभी
मेरी गाड़ी में बैठकर
असहज हो जाना
उनकी आंखों का
देखता था मैं
उनके चश्मे के पार

इसी चश्मे से
पिताजी देख लेते थे
फल सब्ज़ी बाज़ार की भीड़ में
सबसे ग़रीब विक्रेता को
और सारा सामान उनके पास ही लेते
जिनके पास सबसे कम होता
कई बार
बासी सब्ज़ियां भी ले लेते उनसे
मां की फटकार पर चुप रह जाते

डूब जाते
दिन के पांचवें अख़बार में
बाद में धीरे से समझाते मुझे
काश तुमने देखा होता
उस ग़रीब सब्ज़ी वाले का
सूखा हुआ चेहरा
सूखी सब्ज़ियों सी
मरती हुई उम्मीदें उनकी

मैं समझ जाता
कभी न रोने वाले
पिताजी की आंखों में
कहीं ज़्यादा पानी था
सींचने के लिए

अंततः
मैंने संभाल कर रख दिया
उनके चश्मे को
लॉकर में
अब मेरे बच्चे तय करेंगे
क्या करना है इसका
मेरे जाने के बाद

वैसे
मैं अपने विल में लिख जाऊंगा
जैसी मर्ज़ी आपस में बांट लो मेरे बच्चों
जो कुछ भी छोड़ गया हूं मैं
बस अक्षुण्ण रहने देना
मेरे लॉकर में पड़ा
कचकड़े के फ़्रेम में बंधा हुआ
मेरे पिताजी का चश्मा…

  • सुब्रतो चटर्जी

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