कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
मेरा यह लेख पूरी तौर पर संविधान के एक दूसरे से जुड़ते और आपस में संगति करते प्रावधानों के आधार पर भारत के सामने घाव की तरह पक रही मणिपुर की ताजा राजनीतिक हालत को लेकर है. मैं किसी राजनीतिक दल का सदस्य नहीं हूं लेकिन संविधान को लेकर मेरी राजनीतिक राय ज़रूर है.
मेरे लिए देश का संविधान किसी भी लेखक की किताब या धर्म-पुस्तकों से भी बढ़कर है. संविधान के अलावा किसी पोथी को देश के कामकाज का संचालन करने और मुसीबतों से उसकी हिफाजत करने की जिम्मेदारी के साथ भूमिका अदा करना नहीं है. संविधान की कई हिदायतें हमारे पुरखों ने सूत्र रूप में लिखी हैं.
उन्होंने सोचा नहीं होगा कि उनकी सत्ताधारी औलादें डींगें तो मारेंगी कि हम संविधान और सदन की हीरक जयंती मनाते उसे ‘अमृतकाल’ कहेंगे. हम बलिदानियों और शहीदों के चेहरे बदनाम राजनीतिक नेताओं के चेहरों पर मास्क की तरह लटकाकर उन्हें वोट बैंक की तिजोरी में बंद करेंगे.
जो देश को आजाद करने में मर खप गए, उनके परिवारों ने भी कुर्बानी की और वे सत्ता में कहीं नहीं हैं. वे सत्ताखोरी करने आजादी के आंदोलन में नहीं गए थे. उन्होंने मिलजुल कर संविधान बनाया. उनका बनाया संविधान किसी हवेली की बुनियाद के पत्थरों की तरह है. उस पर वंशज पीढ़ी को अपना घर तामीर करना था.
इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री काल में संविधान का 42वां संशोधन 3 जनवरी 1977 को लागू किया गया. उसमें अनुच्छेद 51 क में मूल कर्तव्यों की फेहरिश्त संवैधानिक पदाधिकारी सहित हर नागरिक का फर्ज है कि मूल कर्तव्यों का पालन करे ही. इनमें है कि स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोए रखे और उनका पालन करे.
कहीं लिखा है कि अंगरेज हुक्काम को चिट्ठी और प्रतिवेदन लिखकर दो कि आजादी के आंदोलनकारियों से हमारा बैर है और अंगरेज सरकार उन्हें प्रताड़ित करो. कुछ लोगों ने ऐसा किया है. उस विचारधारा के लोगों को भी आंदोलन के आदर्शों को अपनाना होगा. मूल कर्तव्य हैं कि देश की रक्षा करो और आह्वान किए जाने पर राष्ट्र की सेवा करो.
जाहिर है मणिपुर की रक्षा करना इस वाक्य में शामिल है. पूरा देश चीत्कार कर रहा है. संसद और विधानसभाओं में मांग उठ रही है. सड़कों पर आंदोलन हो रहा है लेकिन देश की रक्षा और राष्ट्रीय सेवा नागरिक की हैसियत में भी संवैधानिक पदाधिकारियों द्वारा नहीं की जा रही है.
प्रावधान कहता है भारत के सभी लोगों में समरसता और समान बिरादराना भाव कायम करो. जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो. ऐसी प्रथाओं का त्याग करें जो स्त्रियों के सम्मान के खिलाफ है. मणिपुर में माताएं, बहनें सड़कों पर बलात्कार और हत्याएं भोग रही हैं. कुकी, नागा, मैतेयी आदि समूहों के संघर्ष में सरकार की ढिलाई या शह पर कत्लेआम मचा हुआ है. सरकारी गोदामों से हथियार दिए या छीने जा रहे हैं.
51 क (झ) में कर्तव्य कहते हैं सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखें और हिंसा से दूर रहें. करोड़ों अरबों रुपयों की निजी और सरकारी संपत्ति लूटी जा रही है. आग के हवाले कर दी जा रही है. हिंसा का तांडव नाच रहा है. तो क्या मूल कर्तव्यों की सूची फेम में जकड़कर घरों या दीवारों में महज लटकाने के लिए है ? मणिपुर में शांति और सहयोग कायम करने की ज्यादा जिम्मेदारी केन्द्रीय और प्रदेश की सरकारों पर है.
साफ कहता है अनुच्छेद 75 (3) कि मंत्रिपरिषद लोकसभा के प्रति सामूहिक रूप से जिम्मेदार होगी लेकिन संसद में मणिपुर पर बहस करने से कतरा रहे हैं. अनुच्छेद 78 कहता है प्रधानमंत्री का कर्तव्य होगा कि संघ के क्रियाकलाप के प्रशासन संबंधी सभी विनिश्चय स्वयं राष्ट्रपति को दें या मांगे जाने पर जरूरी जानकारी दें. कहां कर रहे हैं मौन प्रधानमंत्री ?
सोच समझकर डॉ. अम्बेडकर की अगुवाई में नेहरू के समर्थन के कारण अनुच्छेद 355 शामिल किया गया. उसमें लिखा है केन्द्र का कर्तव्य होगा कि वह बाहरी आक्रमण और अंदरूनी अशांति से हर राज्य की सुरक्षा करे और प्रत्येक राज्य की सरकार का संविधान के प्रावधानों के मुताबिक चलाया जाना सुनिश्चित करे. कहां चल रही है ऐसी सरकार मणिपुर में ? क्या खूंरेजी, बलात्कार, हत्या, लूटपाट और दहशतगर्दी से चलने वाली सरकार को कोई संवैधानिक सरकार कहेगा ? दुनिया जानती है मणिपुर में कुछ भी संवैधानिक नहीं चल रहा है, तब फिर केन्द्र और राज्य का निजाम कैसे कह सकता है कि हम अपनी जवाबदेही का पालन कर रहे हैं.
सुप्रीम कोर्ट भी बीच बीच में कुछ टिप्पणी कर तो देता है, हालांकि उन टिप्पणियों से सरकार को कोई तकलीफ नहीं होती. एक दिन पीड़ित जनता को खुश होने का वहम हो जाता है कि शायद कुछ अच्छा हो, पर अच्छा होता नहीं है.
दिल बहलाने को ग़ालिब ख्याल अच्छा है की तर्ज पर संविधान में मूल कर्तव्य शामिल तो हो गए हैं लेकिन इनसे कहीं ज्यादा कारगर गांधी के विचार थे. उन्होंने संविधान बनने की प्रक्रिया के वक्त सुझाव दिया था कि नागरिक कर्तव्यों को इस आधार पर शामिल किया जाए कि जो नागरिक कर्तव्यों का पालन नहीं करेगा, उसे मूल अधिकार नहीं मिलेंगे.
उसमें सबसे महत्वपूर्ण था कि हर नागरिक देश के कल्याण के लिए अपनी काबिलियत के मुताबिक नकद रुपयों अन्य तरह की सेवा या श्रम के जरिए अपने कर्तव्य करेगा. हर नागरिक पूरी कोशिश या प्रतिरोध भी करेगा कि मनुष्य के द्वारा मनुष्य का शोषण नहीं किया जाए. कांग्रेस नेतृत्व ने संविधान सभा में गांधी को पूरी तौर पर खारिज कर दिया.
देश को मुश्किल हालात में गौतम अडानी, मुकेश अंबानी, रतन टाटा जैसे तमाम लोगों से कहा जा सकता था कि अपनी इच्छा या लोगों के आह्वान पर अनुरूप देश के लिए तय किया हुआ आर्थिक योगदान तो करें ही. आज वे देश की दौलत लूटने में इस कदर गाफिल हैं कि संविधान की किताब की गांधी की सुझाई आयतों को अगर छू लेगें तो उन्हें बिजली का धक्का जैसा लगेगा.
कहता है संविधान का अनुच्छेद 51 क (घ) में कि ज़रूरी होने पर आहवान किया जाने पर हर नागरिक देश की सेवा करे. उसकी रक्षा करें. करोड़ों हैं जो सरकार और प्रधानमंत्री को आह्वान कर ही रहे हैं कि वे देश की रक्षा करें, सेवा करें लेकिन वे देख रहे हैं कि इसके बावजूद प्रधानमंत्री को मणिपुर जाने की कोई नीयत ही नहीं है.
मणिपुर जल रहा है यानी भारत जल रहा है. सरकारी तंत्र उस आग को आश्वासन की पिचकारी से बुझाने की कोशिश कर रहा है. अनुच्छेद 356 भी कहता है कि राज्यों में संवैधानिक तंत्र के विफल हो जाने की दशा में वहां राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है. लेकिन मणिपुर के राज्यपाल से उनकी असफलता की रिपोर्ट कोई कैसे मांगें !
आरोप तो केन्द्र और राज्य दोनों सरकारों के ऊपर लग रहे हैं. आज केन्द्र और राज्य में कहीं भी अलग-अलग पार्टियों की सरकारें होतीं तो राज्य सरकार भंग हो जाती. यह डबल इंजिन की सरकार केवल एक्सीडेन्ट कर रही है. इससे कम खराब हालत में कई प्रदेश सरकारें पहले भंग हो ही चुकी हैं.
मणिपुर की हालत भई गति सांप छछूंदर केरी जैसी है. सांप कौन है और छछूंदर कौन है ? यह तो केवल लोकोक्ति या मुहावरा बनाने वालों को ही मालूम होगा. बहरहाल संविधान का स्टेथस्कोप यदि मणिपुर की छाती पर लगाया जाए तो बीमारी का पता तो चल ही रहा है. देश की छाती में धड़कन बहुत बढ़ गई है. फौरन इलाज नहीं किया गया तो ज्यादा बढ़ जाएगी.
संविधान निर्माताओं ने ऐसे नाकारा समय की कल्पना नहीं की होगी. वरना उन्होंने शायद और कोई प्रावधान रचे होते. फिलवक्त तो संविधान की सुरक्षा करने, उसकी बात मानने और देश के नागरिकों को संविधान का मालिक समझने से है. राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल और मुख्यमंत्री से लगाकर जितने सरकारी अधिकारी हैं, वे जनता के मुकाबले मालिक नहीं हैं. यह उनको समझाना होगा. क्या सुप्रीम कोर्ट यह सब करेगा ?
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