वीनस इंडस्ट्रीज के मज़दूर नेता कुंदन शर्मा की चिता की राख़ ठंडी हुई ही थी कि 10 अक्टूबर को एक और मज़दूर की वक़्त से पहले चिता जली. मालिकों की कभी ना शांत होने वाली मुनाफ़े की हवस, फ़रीदाबाद में मज़दूरों के लिए जान-लेवा साबित होती जा रही है. मूल रूप से ज़िला कोटपुतली बहरोड़, राजस्थान के रहने वाले 41 वर्षीय मोहन लाल, घर न 262, आज़ाद नगर, सेक्टर 24, फ़रीदाबाद में अपने परिवार के साथ रहते थे. वे पिछले 8 सालों से सुपर ऑटो इलेक्ट्रिकल्स (इंडिया) प्रा लि, प्लाट न 9/जे, सेक्टर 6, फ़रीदाबाद में काम करते थे. मोहन लाल कुशल वेल्डर थे.
हफ़्ते में 6 दिनों तक, सुबह से शाम तक, वेल्डिंग की चिंगारियों और तपती आग में खटने के बाद, रविवार, 8 अक्टूबर को मोहन लाल का शरीर आराम मांग रहा था. उस दिन वे घर पर विश्राम करना चाहते थे. सुबह फैक्ट्री से फ़ोन आ गया, तुम्हें आज भी काम पर आना है मोहन लाल. उन्होंने कहा, ‘मैं बहुत थका हुआ हूं, आज आराम करने दीजिए.’ ‘नहीं, नहीं, बहुत ज़रूरी काम है, तुम ओवरटाइम को मना नहीं कर सकते. कम से कम 2 घंटे के लिए आ जाओ. एक आर्डर की ज़रूरी सप्लाई देनी है.’
मोहन लाल को फैक्ट्री जाना पड़ा. दो घंटे बाद, उन्होंने घर जाने को कहा तो मेनेजर ने डांट दिया, ‘दो घंटे नहीं, काम पूरा करके ही जाना है. इतना ही आराम का शौक़ है तो इस्तीफा लिख दो.’ बुरी तरह थके मोहनलाल इस्तीफा लिखने लगे थे कि उनके साथी ने कहा, ‘देख लो, सोच लो, मोहन. दीवाली को एक महीना ही बाक़ी है. कहीं ऐसा ना हो कि ऐन दीवाली के दिन ही, घर में फाका हो जाए.’ मोहनलाल को मन मसोसकर मज़बूरी में, अपने शरीर के साथ शाम 7 बजे तक ज्यादती करनी पड़ी. ‘चुपचाप, जैसे कह रहे हैं, काम करते जाओ, या फिर इस्तीफा देकर चले जाओ. हर रोज़ सुबह कई आते हैं तुम्हारे जैसे काम मांगने वाले’, हर रोज़ मज़दूरों को, मालिक के कारिंदों की, ये लानतें झेलनी होती हैं.
मोहनलाल जान चुके थे कि मालिक को बड़ा आर्डर मिला हुआ है. उसने जब मुझे इतवार को छुट्टी के दिन ज़बरदस्ती काम पर बुला लिया था तो सोमवार को भी छुट्टी नहीं देगा. नहीं गया तो काम से निकाल दिया जाऊंगा, इसलिए सोमवार 9 तारीख को भी अपनी शारीरिक कमज़ोरी को नज़रंदाज़ करते हुए उन्हें फैक्ट्री जाना पड़ा. उस दिन लेकिन, 12 बजे, मोहनलाल के शरीर ने उनका साथ देने से इंकार कर दिया. उनकी कमांड मानने से मना कर दिया. वे फैक्ट्री में अपने काम की जगह ही फ़र्श पर लुढ़क गए.
मैनेजर से दरखास्त की, ‘मेरे शरीर की कमज़ोरी बढ़ती जा रही है. मैं खड़ा भी नहीं हो पा रहा. मुझे ईएसआई अस्पताल भिजवा दो.’ उनके शरीर को देखकर काइयां मैनेजर समझ गया कि कुछ भी हो सकता है. इसलिए उसने मोहनलाल को ईएसआई अस्पताल भेजने की बजाए, ‘गेट पास’ काटकर उनके हाथ में थमाते हुए कहा, ‘ये पकड़ो गेट पास, अब जहां मर्ज़ी जाओ’.
फ़र्श पर बैठे हुए ही मोहनलाल ने अपने बेटे रवि को फोन किया, ‘मुझसे चला नहीं जा रहा, आकर मुझे ले जा.’ रवि बाइक लेकर जब तक फैक्ट्री पहुंचा, तब तक मोहनलाल गेट से बाहर निकल चुके थे. रवि ने सोचा, पापा को पहले घर ले चलता हूं. मम्मी से बात कर अस्पताल ले जाऊंगा. लगभग, 1.30 बजे घर पहुंचकर मोहनलाल ने दो घूंट पानी पिया, और जैसे ही उठने की कोशिश की ज़मीन पर गिर पड़े. वे फिर कभी नहीं उठे. पड़ोस के डॉक्टर को बुलाया गया. उसने कहा – ‘बीके अस्पताल ले जाओ, फटाफट.’ बीके अस्पताल में डॉक्टर ने मोहनलाल की जांच की और बोला, ‘इनकी मौत हो चुकी है’.
मोहनलाल के घर वाले, रिश्तेदार और पड़ोसी समेत लगभग 50 लोग, आज़ाद नगर में ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा’ कार्यालय पहुंचे, और मोर्चे के अध्यक्ष, कामरेड नरेश को सारी व्यथा सुनाई. कामरेड नरेश संगठन के 10 कार्यकर्ताओं के साथ, उसी वक़्त, स्थानीय मुजेसर पुलिस स्टेशन पहुंचे. मोहनलाल के पिताजी, मोतीराम ने पुलिस को दी अपनी लिखित शिकायत में बिलकुल स्पष्ट कहा है –
‘कंपनी द्वारा उचित समय पर, किसी भी तरह की कोई सहायता और इलाज न मिलने के कारण मोहनलाल की मृत्यु हुई. अत: एसएचओ साहब से अनुरोध है कि उपरोक्त मामले की उचित जांच-पड़ताल करते हुए, दोषियों और कंपनी मैनेजमेंट के ख़िलाफ़ उचित धाराओं में मुक़दमा दर्ज़ कर, दोषियों को दंडित करें और प्रार्थी को न्याय दिलाएं.’
शिकायत की प्रति ‘क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा’ के पास है.
10 तारीख को सुबह से ही मोहनलाल के अनेक रिश्तेदार, क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा के अनेक कार्यकर्ता और काफ़ी तादाद में पुलिस, बीके अस्पताल के ‘शव गृह’ के बाहर मौजूद थे. पोस्टमार्टम के फॉर्म भरे जा रहे थे. वहां, अपराधी कंपनी के हत्यारे मालिकों का कोई प्रतिनिधि मौजूद नहीं था. परिवार के भरण-पोषण के लिए कमाने वाले एक मात्र सदस्य की अकस्मात मौत से टूट चुके, रंज में डूबे परिवार की ओर से पुलिस शिकायत होते ही पुलिस और कंपनी के बीच आधिकारिक वार्तालाप का चैनल शुरू हो चुका था.
इस वार्तालाप की एक बहुत पीड़ादायक ख़ासियत है. कंपनी से बात करते हुए पुलिस का रवैय्या वैसा नहीं रहता, जैसा किसी भी दूसरे अपराधी-आरोपी के साथ रहता है. एक जवान आदमी की जान लेने वाली कंपनी के हत्यारे मालिक के साथ बोलते हुए पुलिस की विनम्रता, तहज़ीब-ओ-अदब देखकर लगता है कि ये पुलिस, इस पृथ्वी लोक की नहीं हो सकती, ये तो किसी दूसरे गृह से अवतरित हुई है !!
‘क्यों मिट्टी ख़राब कर रहे हो, अंतिम संस्कार की तयारी करो’, कहते हुए,श पुलिस ने ‘डेड बॉडी डिस्पोजल’ का माहौल बनाना शुरू कर दिया. क्रांतिकारी मज़दूर मोर्चा के सुझाव को कि मोहनलाल की डेड बॉडी, उसी फैक्ट्री के गेट पर ले जाया जाना चाहिए, जहां उन्होंने अपने जीवन के पूरे 8 साल गुजारे हैं, और जिस फैक्ट्री ने उनके प्राण लिए हैं; परिवारजनों ने नकार दिया, और मालिक से मुआवज़े की रक़म तय करने की बातचीत, मुजेसर पुलिस स्टेशन में होगी, इस बात के लिए राज़ी हो गए.
10 तारीख को, 1.30 बजे, मुजेसर पुलिस स्टेशन का नज़ारा इस तरह था. एक तरफ़ मोहनलाल की मां अपने जवान बेटे की मौत के दर्द को सहने में नाकाम होने पर बेसुध पड़ी थीं. थोड़ी देर बाद ही उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा. मोहनलाल की पत्नी की कलेजे को चीरने वाली चीखें निकल रही थीं. ‘दुर्गा भाभी महिला मोर्चे’ की कार्यकर्ता उन्हें ढाढस बंधा रही थीं, उनका दर्द बांटने की कोशिश कर रही थीं.
दूसरी ओर, मोहनलाल के सगे परिवार वालों, जो उनके जाने के दर्द को कभी नहीं भूल पाएंगे, के साथ बहुत सारे दूर के रिश्तेदारों में, आज़ाद नगर के भी कुछ लोग शामिल हो चुके थे. मुआवज़े की बात, मालिक से कौन करेगा, कुछ निश्चित नहीं था. सबसे पहले 50 लाख रुपये मुआवज़े की रक़म की मांग रखी गई, जिस पर मालिक के कारिंदों का कोई जवाब आता, उससे पहले ही दूसरा रिश्तेदार बोल पड़ा, अच्छा चलो, 50 लाख नहीं तो 10 लाख ही दे दो !!
कारखानेदार की ओर से आई टीम समझ गई ये लोग गंभीर नहीं हैं. थोड़ी देर बाद मालिक पक्ष के लोग एसएचओ के चैम्बर में पहुंच गए और बाक़ी लोगों को भी वार्तालाप के लिए वहीं बुलाया गया. एसएचओ की टेबल के दोनों ओर दो सब इंस्पेक्टर तथा सामने पहली कतार में आरोपी हत्यारी कंपनी के नुमाइंदे, वीआईपी की तरह विराज़मान थे. पिछली लाइन में भी कंपनी की ओर से आए कुछ ‘मज़दूर नेता’ बैठे थे, जबकि पुलिस समेत, सभी जानते हैं कि उस फैक्ट्री में मज़दूरों का कोई यूनियन था ही नहीं. एक कोने में मोहनलाल के पिता मोतीराम, अंदर से पूरी तरह टूट चुके, लेकिन बाहर से सामान्य दिखने की ज़द्दोज़हद करते बैठे थे. लगभग 20 रिश्तेदार और मज़दूर कार्यकर्ता खड़े थे.
‘एक साथ क्यों चिल्ला रहे हो ? एक-एक कर बोलो. इतनी ऊंची आवाज़ में क्यों बोल रहे हो, हम लोग बहरे हैं क्या ?’ मज़दूर पक्ष के सभी लोगों को झिड़कने वाले पुलिस अधिकारियों ने एक बार भी पुलिसिया अंदाज़ में हत्या के आरोपी कंपनी के कारिंदों से नहीं पूछा, कि उन्होंने बीमार मज़दूर को छुट्टी के दिन भी काम पर आने को क्यों मज़बूर किया ? 2 घंटे के लिए बुलाकर, मज़दूर की जान की परवाह ना करते हुए, उसे 11 घंटों तक क्यों निचोड़ा ? सोमवार के दिन, जब मोहनलाल फ़र्श पर लुढ़क गए थे, और प्रबंधन से उन्हें अस्पताल पहुंचाने की गुहार लगा रहे थे, तो उन्हें अस्पताल क्यों नहीं पहुंचाया गया ? मोहनलाल को उसी वक़्त अस्पताल ले जाया जाता, तो आज वे जीवित होते. 41 साल के, जवान व्यक्ति की मौत और उनके परिवार को तबाह करने के जुर्म और हैवानियत के लिए, क्यों ना उन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाए ? मोटी चमड़ी वाले, संवेदनहीन, हत्यारे लेकिन अमीर मालिकों के साथ, पुलिस हमेशा मख़मल जैसी नरम, मुलायम भाषा में क्यों बात करती है ?
मुआवज़े की बात फिर से शुरू होते ही 10 लाख के मुआवज़े की मांग पर कंपनी के जवाब का इंतज़ार किए बगैर एक रिश्तेदार बोल पड़ा, ‘चलो, 10 लाख नहीं दे सकते तो 5 लाख ही दे दो, ग़रीब परिवार है, कुछ तो दे दो !!’ तब कंपनी के मैनेजर के मुंह से धीरे से निकला, ‘कंपनी का कोई क़सूर नहीं. हमारी कंपनी में मज़दूरों की यूनियन भी है. मेरे पीछे ‘यूनियन लीडर’ बैठे हैं. बता भाई, कंपनी की कोई ग़लती है क्या ? ‘यूनियन लीडर’ ने रटा-रटाया वाक्य बोला, ‘हमारे मालिक तो बहुत अच्छे हैं. हमारा बहुत ख़याल रखते हैं. मोहनलाल को ही, कोई बीमारी रही होगी.’
तब ही, रंज और गुस्से में तिलमिलाया मोहनलाल का 17 वर्षीय बेटा, रवि, कांपते होठों से, लेकिन दृढ़ता से बोला, ‘मेरे पापा को पहले से कोई बीमारी नहीं थी. वे बीमार नहीं होते थे. उनकी हालत, इतवार को, दिन भर काम करने से ही बिगड़ी थी. मेरे साथ बाइक पर घर आते वक़्त, वे ठीक से बोल भी नहीं पा रहे थे.’
कंपनी की ओर से मुआवज़े के नाम पर, 3 लाख का ऑफर आया. तब ही दरोगा जी बोल पड़े, ‘तुम 5 मांग रहे हो, ये 3 दे रहे हैं, चलो 4 लाख पर मामला निबटाओ !!’ मोहनलाल के दामाद की मिन्नतों के बाद, मालिक 5 लाख की ‘आर्थिक मदद’ देने को तैयार हुआ, जिसमें दाह-संस्कार का खर्च भी शामिल है. इंसान की जान क़ीमत, पैसों में नापी ही नहीं जा सकती, इसीलिए पूंजी के मौजूदा राज़ में, जहां सब कुछ पैसों से तय होता है, मज़दूरों-मेहनतक़शों को न्याय मिल ही नहीं सकता.
सही माने में, न्याय तो पूंजी के राज़ को दफ़न करके ही संभव है. मौजूदा निज़ाम में, मज़दूरों के हत्यारे मालिकों से सम्मानजनक मुआवज़ा हासिल करने की ज़द्दोज़हद को भी, मज़दूर आंदोलन का अंग बनाना होगा. इस बेहद दर्दनाक घटना से, हम कुछ महत्वपूर्ण सीख हांसिल कर सकते हैं.
क्रांतिकारी संगठनों के झंडे तले संगठित होने के सिवा मज़दूरों के पास विकल्प ही नहीं है. दूसरी सीख ये है कि मुआवज़ा हासिल करने का संघर्ष चलाने के लिए, पुलिस स्टेशन सबसे अनुचित स्थान है. वहां सिर्फ पुलिस की ही चलती है. पुलिस वाले, मज़दूरों को समझाते-समझाते, कब झिड़कने लग जाएं, पता नहीं चलता. ऐसी कई तक़लीफ़देह घटनाओं में, हाज़िर रहने का दुर्भाग्य रहा है. कभी भी पुलिस को फैक्ट्री मालिकों को हड़काते हुए नहीं देखा. पुलिस कभी भी मालिकों के नुमाइंदों से सख्ती से बात नहीं करती. उनकी तल्खी और झिड़कियां, हमेशा मज़दूरों के लिए ही आरक्षित रहती हैं.
मज़दूरों की ऐसी हत्याओं की वारदातें, ख़तरनाक तरीक़े से बढ़ती जा रही हैं. सभी मज़दूरों को गोलबंद होकर, हत्यारे मालिकों और उनके ताबेदार निज़ाम से सम्मानजनक मुआवज़ा हांसिल के लिए सबसे उपयुक्त स्थान है, वह कारखाना जहां मज़दूर काम करता था. जहां उसे मारा गया. डेड बॉडी को फैक्ट्री गेट पर रखकर ही, मालिक को उसके अपराध का अहसास कराया जा सकता है. वह अगर संभव ना हो तो किसी सार्वजनिक चौक पर रखकर अथवा हॉस्पिटल के शव-गृह से ही डेड बॉडी को नहीं उठने देना, सम्मानजनक मुआवज़ा हासिल करने के लिए ज़रूरी है. ‘मिटटी ख़राब हो रही है, जल्दी करो’, बोलने वालों को, दृढ़ता से नज़रंदाज़ किया जाना चाहिए.
मोहनलाल के मामले में, उनके एक पड़ोसी ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया, कि सुपर ऑटो कंपनी के एक ठेकेदार ने, आज़ाद नगर के कुछ युवकों से संपर्क कर, उन्हें ‘परिवार जनों’ में शामिल करा दिया था. इन्होंने अपनी घृणित भूमिका निभाई. वीनस के मज़दूर कुंदन शर्मा को, जहां सम्मानजनक 25 लाख का मुआवज़ा मिला था, वहां मोहनलाल को 5 लाख ही मिल पाया. इसका अर्थ हुआ कि मालिक लोग किसी मज़दूर की मौत हो जाने पर, पीड़ित परिवार को न्याय ना मिलने देने की भी रणनीतियां बनाने लगे हैं.
कुछ ‘परिवार जनों’ का बर्ताव भी संदेहास्पद रहा. एक और दर्दनाक हक़ीक़त भी बयान होनी चाहिए. कारगर यूनियन ना होने पर लगातार कंगाली और अभावों में ज़िन्दगी बसर करने वाले मज़दूर के परिवार को भी लगता रहता है कि ज्यादा सौदेबाज़ी करने से कहीं ऐसा न हो कि कुछ भी ना मिले. इससे जो मिल रहा है, जल्दी से ले लो. साथी मोहनलाल के साथ, उनके जीते जी भी अन्याय हुआ और मौत के बाद भी.
- फरीदाबाद से सत्यवीर सिंह की रिपोर्ट
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