Home गेस्ट ब्लॉग Much Maligned Words : शब्दों की सार्थकता उनकी भावों की संप्रेषणीयता में है

Much Maligned Words : शब्दों की सार्थकता उनकी भावों की संप्रेषणीयता में है

10 second read
0
0
106
Much Maligned Words : शब्दों की सार्थकता उनकी भावों की संप्रेषणीयता में है
Much Maligned Words : शब्दों की सार्थकता उनकी भावों की संप्रेषणीयता में है
Subrato Chatterjeeसुब्रतो चटर्जी

Much Maligned Words यानी, बहुत बदनाम शब्द. शब्दों की सार्थकता उनकी भावों की संप्रेषणीयता में है. युग, समझ और समय के साथ साथ बहुतेरे शब्द अपना अर्थ खो देते हैं. सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक संदर्भ से कटे शब्द धीरे-धीरे अपना अर्थ खोते हुए डिक्शनरी के बेजान पन्नों की शोभा या गिनती बढ़ाते हैं. प्रचलित शब्दों के हुजूम में अप्रचलित या कम प्रचलित शब्द पीछे छूट जाते हैं, और इसी के साथ मानवीय प्रज्ञा के एक अंश का अवसान होता है.

चलनी, चक्की, सिलवट, कलफ़, स्याही सोख्ता, कलम दान जैसे हज़ारों शब्द हैं, जो सिर्फ़ पिछले तीस चालीस सालों में अपना अर्थ खो चुके हैं. मानव सभ्यता के विकास के साथ क़दम ताल करने में वे शब्द हमेशा खुद को असमर्थ पाते हैं, जो दैनंदिन प्रयोग में आने वाली वस्तुओं के नाम होते हैं. यही कारण है कि ज़्यादातर लुप्त प्रायः शब्द संज्ञा होते हैं.

मेरे इस लेख का विषय सिर्फ़ ऐसे शब्दों के बारे नहीं है. संज्ञा के लोप होने से ज़्यादा चिंताजनक विश्लेषण का लोप होना या विकृत अर्थ को प्राप्त होना है. आज कुछ ऐसे ही शब्दों की बात मैं करना चाहूंगा. बीते कुछ सालों में कई lofted या उन्नत शब्द बदलती राजनीतिक सोच की भेंट चढ़ गई है.

सेक्युलर, आज़ादी के बाद हमारे नेतृत्व ने भारत को मध्ययुगीन सोच से बाहर लाने के लिए इस शब्द की महत्वा स्थापित करने की कोशिश की. इस शब्द को पश्चिमी राष्ट्र की अवधारणा में व्युत्पत्ति और भारतीय परिवेश की बाध्यताओं के बीच की बहस के परे जा कर समझने की ज़रूरत है. सेक्युलर या धर्मनिरपेक्षता वाद सिर्फ़ किसी राष्ट्र की पॉलिसी नहीं है, वरन हमारी सामाजिक और राजनीतिक सोच का हिस्सा होता है.

धर्मनिरपेक्ष दिमाग़ किसी व्यक्ति या परिस्थिति को धर्म के चश्मे से नहीं देख कर उन विशेष सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आर्थिक परिस्थितियों के संदर्भ में देखता परखता है, जिनकी वे उपज हैं. स्वाभाविक है कि धर्मनिरपेक्ष सोच बिना वैज्ञानिक प्रज्ञा के संभव ही नहीं है.

पिछले कुछ सालों से सेक्युलर लोगों को गाली देने का रिवाज संघियों ने चला रखा है, जिसके शिकार गाहे-बगाहे तथाकथित शिक्षित वर्ग भी हैं. दरअसल, जीवन को देखने के बस दो ही दृष्टिकोण हैं, एक वैज्ञानिक और दूसरा अवैज्ञानिक.

ये बात समझने वाली है कि हमें एक ऐसा प्रधानमंत्री मिला है, जो बादलों के पीछे राडार निष्क्रिय कर सकता है तो वैज्ञानिक समझ की कितनी दुर्दशा इस देश में हुई है. मेरा मक़सद उदाहरण गिनाना नहीं है क्योंकि समंदर स्याही बन कर सूख भी जाए फिर भी संघियों की मूर्खता की दास्तान कभी ख़त्म नहीं होगी.

मेरा अभिप्राय बस इतना है कि आज से महज़ दस सालों पहले तक जो सेक्युलर होने पर गर्व करते थे, उन लोगों पर आज यह शब्द एक गाली जैसा प्रयोग हो रहा है. समाज और देश को इस बात की कोई चिंता नहीं है कि ऐसा करने से हम अपने ही संविधान को गाली दे रहे हैं.

तुष्टिकरण, अक्सर कांग्रेस और वामपंथियों को मुस्लिम तुष्टिकरण के नाम पर गालियां मिलती रहती हैं. गालियां देने वाले वही बीमार लोग हैं जिनको धर्मनिरपेक्ष कहलाने में शर्म आती है और सांप्रदायिक दंगाई होने पर गर्व महसूस होता है. तुष्टिकरण का अर्थ, राजनीतिक संदर्भ में, समाज और देश के एक विशेष संप्रदाय या वर्ग के हितों की रक्षा दूसरे समुदाय या वर्ग के हितों की राजनीतिक लाभ के लिए करना होता है.

इस दृष्टि से देखें तो सरकारिया कमीशन की रिपोर्ट पढ़ने से मालूम हो जाता है कि कांग्रेस ने मुस्लिम तुष्टिकरण के नाम पर कितने मुसलमानों को सरकारी नौकरी या अन्य मूलभूत सुविधाएं दीं. अगर दिया होता तो इस रिपोर्ट की ज़रूरत ही नहीं पड़ती.

इस शब्द के दायरे को थोड़ा और बढ़ाया जाए तो सवाल उठेगा कि जातिगत आरक्षण भी अंशतः तुष्टिकरण ही है क्योंकि मंडल आयोग की अनुशंसाओं को स्वीकार करने के बाद ख़ास कर हिंदी प्रदेशों में जिस तरह की जातिवादी राजनीति का उदय हुआ और जिस तरह से वे सत्ता में आई, वह इसी तुष्टिकरण का नतीजा था.

दरअसल, धार्मिक आधार पर विभाजन की विभीषिका झेल चुके भारत के राजनीतिक नेतृत्व के पास अकलियतों के मानसिक घाव पर मरहम लगाने के लिए कुछ ज़ुबानी और कुछ सांकेतिक tokenism की ज़रूरत थी, जो कि कांग्रेस ने किया. दो मुस्लिम राष्ट्रपति, कई चीफ़ मिनिस्टर और कई मुस्लिम राज्यपालों को आप इस नज़रिए से देख सकते हैं, लेकिन ये पूरा सच नहीं है.

दूसरी तरफ़, भाजपा का हिंदू तुष्टिकरण के हज़ारों दृष्टांत हैं, जिनका सबसे विकृत रूप तब दिखता है जब किसी ग़रीब और निरपराध मुस्लिम के हत्यारों को भाजपाई माला पहनाकर सरकारी नौकरी देते हैं. यह तुष्टिकरण आपको नहीं दिखता क्योंकि आप भी उन्हीं घृणित हत्यारों में से एक हैं. आपकी इसी हत्यारी मानसिकता ने एक मानवता के हत्यारे को देश बर्बाद करने के लिए चुना है.

इसी क्रम में सहिष्णुता, मानवता, लोक कल्याणकारी राज्य, संप्रभूता और बहुत सारे शब्दों की बलि आपके घृणा की बेदी पर दी गई है महज़ पिछले दस सालों में. कुछ मैंने बताया है, कुछ आप भी जोड़िए.

Read Also –

नेशन फर्स्ट, राष्ट्रप्रेम, राष्ट्र के लिए बलिदान आदि शब्दों पर फिसलता हुआ देश गैंगस्टर कैपिटलिज्म में जा गिरा
भाजपा-आरएसएस संविधान से ‘समाजवादी और सेकुलर’ शब्द हटाने के लिए माहौल बना रहे हैं
हिंदु, हिंदू-शब्द और हिंदू-धर्म
भाजपा-आरएसएस संविधान से ‘समाजवादी और सेकुलर’ शब्द हटाने के लिए माहौल बना रहे हैं
शब्दों की ताकत : शब्दों से ही हारी हुई बाजी जीती जाती है !
प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ शब्द हटाने का बिल
ये शब्द क्या कर रहे हैं ?

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
G-Pay
G-Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

मीडिया की साख और थ्योरी ऑफ एजेंडा सेटिंग

पिछले तीन दिनों से अखबार और टीवी न्यूज चैनल लगातार केवल और केवल सचिन राग आलाप रहे हैं. ऐसा…