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हिन्दी पट्टी के अधिकतर सवर्ण सांप्रदायिक हो चुके हैं और …

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हिन्दी पट्टी के अधिकतर सवर्ण सांप्रदायिक हो चुके हैं और ...
हिन्दी पट्टी के अधिकतर सवर्ण सांप्रदायिक हो चुके हैं और …
हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना

कुछ बातें अब बिल्कुल स्पष्ट हो चुकी हैं. पहली तो यह कि हिन्दी पट्टी के अधिकतर सवर्ण सांप्रदायिक हो चुके हैं और इसके लिए उन्हें गर्व भी है. यह संक्रमण पिछड़ी अति पिछड़ी जातियों में भी फैला है. कहा जाए तो हिंदी पट्टी सांप्रदायिक राजनीति की सफल प्रयोगशाला बन चुका है. दूसरी बात कि जब भी कांग्रेस सॉफ्ट हिंदुत्व की राह चलती है तो भाजपा का हार्ड हिंदुत्व उसे कुचल देता है.

न जाने कितनी बार विश्लेषकों ने कांग्रेस को चेतावनी दी कि तथाकथित सॉफ्ट हिंदुत्व की राह पकड़ना अंततः भाजपा की पिच पर खेलना है, जहां उसे पराजय के सिवा कुछ और हासिल नहीं हो सकता. लेकिन, उसका थिंक टैंक कभी राहुल गांधी को मंदिरों के चक्कर लगवाता है, कभी प्रियंका गांधी के माथे पर चंदन आदि का लेप करवा कर जनसभाओं में भेजता है. इस बार कमलनाथ बाबाओं के दरबार में दंडवत करते रहे. कांग्रेस को इन सबसे कभी कुछ हासिल नहीं हुआ. उन्हें मान लेना चाहिए कि धार्मिक आस्थाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन भाजपा का कॉपीराइट हो चुका है और यह भाजपा नेताओं को ही राजनीतिक रूप से सूट करता है.

तीसरी बात, सवर्णों का बड़ा तबका अब निजीकरण का समर्थक बन गया है और उसे सरकारी सेक्टर से कोई मोह नहीं रह गया है. नरेंद्र मोदी में उसे निजीकरण का ध्वजवाहक नजर आता है जबकि आरक्षण को अप्रासंगिक करने के लिए वह निजीकरण का आग्रही भी बन गया है.

चौथी बात, 2012-13 से ही मोदी के थिंक टैंक ने सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से इस तबके के मस्तिष्क पर कब्जा करने की जो आक्रामक कोशिशें की थी वह अब एक मुकाम हासिल कर चुका है, जहां तर्क कोई काम नहीं करता.

मेरे गांव के चाचा लगने वाले बुन्नी लाल इस बात को इतिहास का अकाट्य सत्य मानते हैं कि नेहरू के पूर्वज मुसलमान थे. अभी पिछले ही महीने मैंने उनकी गलतफहमी दूर करने की कोशिश की तो उन्होंने ‘धारदार’ (कु)तर्कों से मुझे निरुत्तर कर दिया. कुछ समय पहले तक जब बुन्नी लाल के मोबाइल पर फोन लगाया जाता था तो रिंगटोन में जोर-जोर से एक सामूहिक गान बजता था, ‘घर घर भगवा छाएगा, रामराज फिर आएगा’, अगली पंक्ति ‘गो हत्या को बंद करेंगे यह संकल्प हमारा है हमारा है हमारा है.’

आजकल कॉल करने पर उनके मोबाइल में डरावने सुर और उससे भी डरावने स्वरों में कोई हनुमान चालीसा पढ़ता सुनाई देता है. लगता है कोई हनुमान चालीसा नहीं पढ़ रहा बल्कि धमकी दे रहा है. कौन से हनुमान का चालीसा है यह ? वही जो आजकल गाड़ियों के पिछले शीशे पर भयानक रूप से क्रुद्ध मुद्रा में नजर आते हैं.

पांचवीं बात, सवर्णों का राजनीतिक मानस कौन तय करता है ? उनके बीच के अपर मिडिल क्लास के लोग, जो विद्या, बुद्धि और संसाधन संपन्न हैं और जिनके बच्चे अब वेतन वाली नौकरी नहीं, पैकेज वाले ऑफर के लिए पढ़ाई करते हैं. वे इसे हासिल भी कर रहे हैं बल्कि लगभग एकछत्र तरीके से हासिल कर रहे हैं.

सवर्णों का निर्धन तबका बस ऐंठन की खोखली पूंजी लिए ‘सनातन’ के रक्षार्थ मोदी मोदी कर रहा है. वह भी पिछड़े और दलित तबकों के साथ महानगरों में मजदूरी कर रहा है, अक्सर सबके साथ लातें खा रहा है, या हिंदी पट्टी के सरकारी या प्राइवेट स्कूल कॉलेजों में गुणवत्ताहीन शिक्षा लेता क्लर्क, सिपाही या मास्टरी की तैयारी कर रहा है. लेकिन जब वोट देने की बारी आती है तो वह गांव का श्रेष्ठ पंडी जी, भूमिहार, बाबू साहब आदि बन जाता है और वही करता है जैसा उसके मानस का निर्माण किया गया है.

छठी बात, पिछड़ा-दलित एकता का राजनीतिक मंच सजना तो असंभवप्राय है ही, पिछड़ा एकता भी आसान नहीं है. हिन्दी पट्टी के हर इलाके में हर पिछड़ी, अति पिछड़ी जाति का अपना-अपना नेता है जिनमें से अधिकतर का न कोई चरित्र है, न कोई विचार. जिधर रेवड़ी की संभावना दिखी उधर जाने का तर्क ढूंढ लिया. जाति के नाम पर अंधे लोग उसके पीछे होते हैं, जो उसका वजन और उसकी कीमत बढ़ाते हैं. भाजपा ऐसे नेताओं को अपने पाले में करने और उनका राजनीतिक लाभ उठाने में माहिर है. उसके पास अकूत पैसा है और बिकने वाले को और क्या चाहिए ? फिर, एजेंसियां हैं, कारपोरेट का दबाव आदि भी है.

बात रही दलित समर्थन आधार वाली पार्टियों की तो उनके मतदाता ओबीसी के साथ से अधिक सवर्ण आधार वाली पार्टियों के साथ सहज महसूस करते हैं. उत्तर भारत की पिछड़ी राजनीति के वैचारिक केंद्र बने बिहार में सबसे महत्वपूर्ण दलित नेता चिराग पासवान अपने ‘राम’ के हनुमान बनकर खुश हैं.

सातवीं बात, जाति आधारित गणना बिहार में तो राजनीतिक माहौल बनाने में सफल दिख रही है लेकिन बगल में यूपी तक में इस नारे की सफलता संदिग्ध है. बिहार में पिछड़ों के पास फिलहाल नीतीश कुमार जैसा चाणक्य है और सबसे महत्वपूर्ण, लालू प्रसाद जैसा जन नेता है जिन्होंने अपना राजनीतिक चरित्र साबित किया है. यूपी में आज की तारीख में न कोई नीतीश है, न लालू है. जो हैं उनका संस्कार क्यों मंद है, यह कोई छुपी बात नहीं.

‘सनातन’ की खाल ओढ़े कार्पोरेटवाद और सांस्कृतिक वर्चस्ववाद का झंडा उठाए शक्तिशाली भाजपा से राजनीतिक मुकाबला करना कितना कठिन है, इसका अहसास यूपी विधानसभा के पिछले चुनाव में विपक्षियों को हो चुका होगा और इस बार मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में हो चुका है.

भाजपा की नीति निपुणता और उसके कुशल और सफल क्रियान्वयन का एक उदाहरण लें. बताया जा रहा है कि छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में वोटर ने कांग्रेस की उपेक्षा की और भाजपा को झोली भर भर कर वोट दिए. ऐसा कैसे हुआ, जबकि मोदी सरकार पर कार्पोरेट के हितों की खातिर आदिवासियों के आर्थिक शोषण के जोरदार आरोप लगते रहे हैं ?

आठवीं बात, राजनीति में संप्रेषणीयता का बहुत महत्व है और आज की तारीख में इसमें भाजपा का कोई मुकाबला नहीं. देखिए कि उसने अच्छे पढ़े-लिखे लोगों के दिमागों को भी कितना ग्रस लिया है. बहुत सारे लोगों के लिए देशभक्ति अब फैशन बन चुका है और हमारे नौजवान सैनिकों की शहादत उनके लिए देशभक्ति का उत्सव है, जब वे कुछ पलों के लिए ‘गर्व’ महसूस कर फिर अपनी जिंदगी में रम जाते हैं.

अब क्रिकेट मैचों में सिर्फ राष्ट्रीय झंडे ही नहीं लहराए जाते बल्कि हजारों लाखों की भीड़ में अक्सर ‘वंदे मातरम’ का समूह गान होता है और किसी-किसी मैच के बेहद रोमांचक और तनावपूर्ण क्षणों में पूरे स्टेडियम में हर कोने में कोई न कोई समूह पूरी लय से इसे गाता हुआ सुनाई देता है. कभी क्रिकेट राष्ट्रीय एकता का प्रतीक था, उसका राजदूत था, आज चमकती लाइट्स, ग्लैमरस माहौल और गेंद बल्ले के रोमांचक संघर्ष में फूहड़ राष्ट्रवाद का मंच बनता जा रहा है.

भाजपा की बड़ी सफलता है कि अब हिंदी पट्टी की बड़ी आबादी का मानस देशप्रेम, सेनाप्रेम, धर्मप्रेम, भाजपाप्रेम और मोदीप्रेम को प्रायः एक ही धरातल पर महसूस करता है. इसके लिए नरेंद्र मोदी और उनका थिंक टैंक भरपूर बधाई के पात्र हैं.

इतिहास की सबसे गरीब विरोधी सरकार चलाते हुए भी मोदी अपने भाषणों के दौरान जो शब्द सबसे अधिक बोलते हैं वह शब्द है ‘गरीब.’ जब वे इस शब्द का उच्चारण करते हैं तब उनकी भावभंगिमा में मार्मिक अकुलाहट आ जाती है और वे उन निर्धनों से कनेक्ट करते हैं, जिनके हृदय में यह भाव पीढ़ियों से स्थापित किया गया है, ‘निर्बल के बल राम.’

कभी उन्होंने मनरेगा को कांग्रेस की विफलताओं का स्मारक कहा था, आज उनके शासन के दस वर्षों के बाद भी पचासी करोड़ की आबादी को खुद उनकी ही सरकार मानती है कि मुफ्त अनाज न मिले तो वे भूखों मर जाएं.

नवीं बात, हिंदी पट्टी में कांग्रेस का पुनरोदय तब तक असंभव है जब तक यहां की उन सवर्ण जातियों का समर्थन उसकी ओर वापस न लौटे जो कभी था उसके साथ. वह अभी भाजपा के साथ है. राहुल गांधी के हालिया ओबीसी राग ने इस तबके के उन लोगों का मन भी भिन्ना दिया है जो धीरे-धीरे भाजपा से खिन्न होते जा रहे थे और कांग्रेस के प्रति उनके मन में सहानुभूति जगने लगी थी.

केंद्रीय सचिवालय में ओबीसी सचिवों की नगण्य संख्या का रोना रोते राहुल बेहद कृत्रिम लग रहे थे और उनकी आवाज में वैचारिक बल का अभाव था. लोगों को पता है कि अगर कांग्रेस राज बना ही रह जाता तो न मंडल कमीशन बनता, न कभी लागू होता. कुछ न कुछ अडंगा ऐसा लगता रहता कि इस तरह की रिपोर्ट अगर कोई बनती भी तो गतालखाने में पड़ी रहती. तो, बिहार यूपी में कांग्रेस को अपने बल पर पिछड़ा सपोर्ट तो मिलने से रहा, सवर्ण दूसरी ही दुनिया में हैं आजकल और दलित तब तक उसके साथ नहीं जाएगा जब तक सवर्ण उसके साथ न हो लें.

अब, इतनी कमजोर कांग्रेस के लिए पूरी सहानुभूति रखते भी अल्पसंख्यक क्यों उसके पीछे जाएं, जब उद्देश्य भाजपा को हराना हो. मतों का यह विभाजन और राजनीतिक चरित्र में ह्रास ने हिंदी पट्टी में भाजपा को प्रायः अजेय सा बना दिया है. अगर उसको चुनौती देनी है तो विपक्ष को सिर्फ जातीय गणित से ही नहीं, वैचारिक बल के साथ आगे बढ़ना होगा. हालांकि, इस बात की उम्मीद कम ही है कि यह वैचारिक बल वे हासिल कर पाएंगे.

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